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सत्य के प्रयोग/ नीलका दाग

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सत्य के प्रयोग
मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

पृष्ठ ४२७ से – ४२९ तक

 

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ॐ१-ॐथ : भाग ५ मेरा खड़ा रहना भी बरदाश्त नहीं होता था, हालांकि वे खुद ऊपरकी बैठक में झारामसे पैर ताने पड़े हुए थे ! पर मुझे बार-बार दिक करते थे । ज्यों-ज्यों वे मुझे दिक करते त्यों-त्यों मैं उन्हें शांतिसे जवाब देता । इससे वे कुछ शांत हुए । फिर मेरा नामठमि पूछने लगे । जब मुझे अपना नाम बताना पड़ा तब वे बड़े शमिंदा हुए। मुझसे माफी मांगने लगे और तुरंत अपने पास जगह कर दी है। ‘सबरको फल मीठा होता है--- यह कहावत मुझे याद आई। इस समय मैं बहुत थक गया था। मेरा सिर घूम रहा था । जब बैठनेको जगहकी सचमुच जरूरत थी तब ईश्वरने उसको सुविधा कर दी । इस तरह धक्के खाता हुआ आखिर समयपर कलकत्ते पहुंच गया है। कासिमबाजारके महाराजने अपने यहां ठहरनेक मुझे निमंत्रण दे रक्खा था । कलकत्तेकी सभाके सभापति भी वही थे । कराचीकी तरह कलकतेमें भी लोगोंका उत्साह उमड़ रहा था, कुछ अंग्रेज लोग भी आये थे । इकत्तीस जुलाईके पहले कुली-प्रथा बंद होनेकी घोषणा प्रकाशित हुई । १८९४ में इस प्रथाका विरोध करनेके लिए पहली दरखास्त मैंने बनाई थी और यह आशा रक्खी थी कि किसी दिन यह ‘अर्ध-गुलामी' जरूर रद हो जायगी । १८९४में शुरू हुए इस कार्यमें यद्यपि बहुतेरे लोगोंकी सहायता था; परंतु यह कहे बिना नहीं रह जाता कि इस बारके प्रयत्नके साथ शुद्ध सत्याग्रह भी सम्मिलित था । इस घटनाका अधिका ब्यौरा और उसमें भाग लेनेवाले पात्रोंका परिचय दक्षिण अफ्रीकाके सत्याग्रहके इतिहासमें पाठकोंको मिलेगा । नीलका दाग २ चंपारन राजा जनककी भूमि हैं । चंपारनमें जैसे आपके बन हैं उसी । तरह, १९१७में नीलके खेत थे। चंपारनके किसान अपनी ही जमीनके ३/२०. हिस्से में नीलकी खेती जमीनके असली मालिकके लिएं करनेपर कानूनन बाध्य थे। इसे वहां 'तीन कुठिया' कहते थे । २० कट्ठेका वहां एक एकड़ था और उसमें से ३ कट्छे नील बोना पड़ता था । इसीलिए उस प्रथाको नाम पड़ गया था। ________________

अध्याय १२ : नीलका दगि ४११ तीन कुटिया' । मैं यह कह देना चाहता हूं कि चंपारनमें जानेके पहले मैं उसका नामनिशान नहीं जानता था। यह खयाल भी प्रायः नहींके बराबर ही था कि वहां नीलकी खेती होती है । नीलकी गोटियां देखी थीं; परंतु मुझे यह बिलकुल पता न था कि मैं ब्रंपारनमें बनती थीं और उनके लिए हजारों किसानोंको वहां दुःख उठाना पड़ता था । । राजकुमार शुक्ल नामके एक किसान चंपारनमें रहते थे। उनपर नील की। देतीके सिलसिलेमें बड़ी बुरी बीती थी। यह दुःख उन्हें खल रहा था और उसके फलस्वरूप सबके लिए इस नीलके दागको धो डालनेका उत्साह उनमें पैदा हुआ था। जब मैं कांग्रेसमें लखनऊ गया था, तब इस किसानने मेरा पल्ला पकड़ा। वकीलबाब आपको सब हाल बतायेंगे---यह कहते हुए चंपारन चलनेका निमंत्रण मुझे देते जाते थे । यह वकीलबाबू और कोई नहीं, मेरे अंपारनके प्रिय साथी, बिहार के सेवा-जीवनके प्राण, बृजकिशोरबाबू ही थे। उन्हें राजकुमार शुक्ल मेरे डेरे में लाये । वह काले अलपकेका अचकन, पतलून वगैरा पहने हुए थे। मेरे दिलपर उनकी कोई अच्छी छाप नहीं पड़ी। मैंने समझा कि इस भोले किसानको लूटवाले कोई वकील होंगे। मैंने उनसे चंपारनकी थोड़ी-सी कथा सुनली और अपने रिवाजके मुताबिक जवाब दिया--- "जबतक मैं खुद जाकर सब हाल न देख लें तबतक मैं कोई राय नहीं दे सकता। आप कांग्रेसमें इस विषयपर बोले; किंतु मुझे तो अभी छोड़ हीं दीजिए।' राजकुमार शुक्ल त चाहते थे कि कांग्रेसकी मदद मिले। चंपारनके विषयमें कांग्रेसमें बृजकिशोरबाबू बोले और सहानुभूतिका एक प्रस्ताव पास हुआ । राजकुमार शुक्लको इससे खुशी हुई; परंतु इतने हीसे उन्हें संतोष न हुआ। वह तो खुद चंपारनके किसानों के दुःख दिखाना चाहते थे। मैंने कहा--- “ मैं अपने भ्रमणमें चंपारनको भी ले लूंगा, और एक-दो दिन वहांके लिए दे दू‘गा ।" उन्होंने कहा--- " एक दिन काफी होगा, अपनी नजरों से देखिए तो सही।" ________________

=- = 4EF ४१२ अत्म-कथा : भार । | लखनऊसे मैं कानपुर गया था। वहां भी देखा तो राजकुमार शुक्ल मौजूद । “यहाँसे चंपारन बहुत नजदीक है । एक दिन दे दीजिए। “ अभी तो मुझे माफ कीजिए; पर मैं यह वचन देता हूं कि मैं आऊंगा जरूर।" यह कहकर वहां जाने के लिए मैं और भी बंध गया । । । । मैं आश्रम पहुंचा तो वहां भी राजकुमार शुक्ल मेरे पीछे-पीछे मौजूद। अव तो दिन मुकर्रर कर दीजिए।" मैंने कहा--- "अच्छा, अमुक तारीखको कलकत्ते जाना है, वहां आकर मुझे ले जाना ।' कहां जाना, क्या करना, क्या देखना, मुझे इसका कुछ पता न था । कलकत्ते भूपेनबाबूके यहां मेरे पहुंचने के पहले ही राजकुमार शुक्लका पड़ाव पड़ चुका था। अब तो इस अपढ़-अनघड़ परंतु निश्चयी किसानने मुझे जीत लिया है। । १९१७के आरंभ में कलकत्ते से हम दोनों रवाना हुए। हम दोनों की एक-सी जोड़ी---दोनों किसान-से दीखते थे । राजकुमार शुक्ल और मैं--- हम दोनों एक ही गाड़ी में बैठे। सुबह पटना उतरे । | पटनेकी यह मेरी पहली यात्रा थी। वहां मेरी किसीसे इतनी पहचान नहीं थी कि कहीं ठहर सकें । . मैंने मनमें सोचा था कि राजकुमार शुक्ल हैं तो अनघड़ किसान, परंतु यहां उनका कुछ-न-कुछ जरिया जरूर होगा । ट्रेनमें उनका मुझे अधिक हाल मालूम हुआ। पटन में जाकर उनकी कलई खुल गई । राजकुमार शुक्लका भाव तो निर्दोष था, परंतु जिन वकीलोंको उन्होंने मित्र माना था वे मित्र न थे; बल्कि राजकुमार शुवल उनके आश्रितकी तरह थे । इस किसान मवक्किल और उन वकीलोंके बीच उतना ही अंतर था, जितना कि बरसातमें गंगाजीका पटि चौड़ा हो जाता है । . मुझे बह राजेंद्रबाबूके यहां ले गये । राजेंद्रबाबू पुरी या कहीं और गये थे । बंगलेपर एक-दो नौकर थे । खानेके लिए कुछ तो मेरे साथ था; परंतु मुझे खजूरकी जरूरत थी; सो बेचारे राजकुमार शुक्लने बाजारसे ला दी ।। परंतु बिहार में छुआ-छूतका बड़ा सख्त रिवाज था। मेरे डोलके पानीके छींटेसे नौकरको छूत लगती थी। नौकर बेचारा क्या जानता कि मैं किस जातिका था ? अंदर के पाखानेका उपयोग करनेके लिए राजकुमारने कहा तो नौकरने

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