सत्य के प्रयोग/ लार्ड कर्जनका दरबार

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

[ २५१ ]के दु:खों की कुछ बात सुनाई। इतनेमें सर दीनशाने घंटी बजाई ! मुझे निश्चय था कि अभी पांच मिनट नहीं हुए हैं। पर मैं यह नहीं जानता था कि यह घंटी तो मुझे चेतावनी देने के लिए दो मिनट पहले ही बजा दी गई थी। मैंने बहुतकी आध-आध पौन-पौन घंटेतक बोलते सुना था, पर घंटी न बजती थी । इससे दुःख हुआ। घंटी बजते ही मैं बैठ गया । परंतु मेरी अल्प बुद्धिने उस समय मान लिया कि उस कविताके द्वारा सर फिरोजशाहको उत्तर मिल गया था ।

प्रस्ताव पास होने के संबंध तो पूछना ही क्या ? उस समय प्रेक्षक और प्रतिनिधिका भेद क्वचित् ही था । प्रस्तावको विरोध भी कोई न करता था । सब हाथ ऊंचा कर देते थे । तमाम प्रस्ताव एक-मतसे पास होते थे । मेरे प्रस्तावका भी यही हाल हुआ । इस कारण मुझे इस प्रस्तावका महत्व न जंचा; फिर भी कांग्रेस उस प्रस्तावका होना ही मेरे अनंदके लिए बस था। कांग्रेस की मुहर जिसपर लग गई उसपर सारे भारतवर्षकी मुहर है----यह ज्ञान किसके लिए काफी नहीं है ?

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लार्ड कर्जनका दरबार

कांग्रेस तो समाप्त हुई, परंतु मुझे दक्षिण अफ्रीका के कामके लिए कलकत्तेमें रहकर 'चेंबर ऑफ कामर्स ' इत्यादि संस्थाओंसे मिलना था, इसलिए मैं एक महीना कलकते ठहर गया। इस बार होटलमें ठहरने के बदले, परिचय प्राप्त करके 'इडिया क्लब में रहनेका प्रबंध किया । इसमें मुझे लोभ यह था कि यह गण्यमान्य हिंदुस्तानी ठहरा करते हैं, अतएव उनके संपर्क कर दक्षिण अफ्रीकाके कामों उनकी दिलचस्पी पैदा कर सकूंगा । इस क्लबमें गोखले हमेशा नहीं तो कभी-कभी बिलियर्ड खेलने आते थे। उन्हें इस बातकी खबर मिलते ही कि मैं कलकत्तेमें रहने वाला हूं, उन्होंने मुझे अपने साथ रहने का निमंत्रण दिया ! मैंने उसे सादर स्वीकार किया। परंतु अपने-आप वहां जाना मुझे ठीक ने मालूम हुआ । एक-दो दिन राह देखी थी कि गोखले खुद आकर अपने साथ मुझे ले गये । [ २५२ ]मेरी संकोचवृत्ति देखकर उन्होंने कहा---

"गांधी, तुम्हें तो इसी देशमें रहना है, इसलिए ऐसी शरमसे काम न चलेगा। जितने लोगोंके संपर्कमें पा सको, तुम्हें आना चाहिए ! मुझे तुमसे कांग्रेसका काम लेना है।"

गोखलेके यहां जाने से पहिलेका, 'इंडिया क्लब'का, एक अनुभव यहां दे देता हूं।

इन्हीं दिनों लार्ड कर्जनका दरबार था। उसमें जानेवाले जो राजा महाराजा इस क्लबमें थे, मैं उन्हें हमेशा क्लबमें उम्दा बंगाली धोती-कुरता पहने नथा चादर डाले देखता था । आज उन्होंने पतलून, चोगा, खानसामा जैसी पगड़ी और चमकीले बूट पहने । यह देखकर मुझे दुःख हुआ और इस वेशांतरका कारण उनसे पूछा ।

हमारा दुःख हम ही जानते हैं। हमारी वन-संपत्ति और उपाधियोंको कायम रखने के लिए हमें जो-जो अपमान सहन करने पड़ते हैं, उन्हें आप कैसे जान सकते हैं ?" उत्तर मिला ।

"परंतु यह खानसामा जैसी पगड़ी और बूट क्यों ? "

"हममें और खानसामामें आपने फर्क क्या समझा ? वे हमारे खानसामा हैं तो हम लार्ड कर्जनके खानसामा है ? यदि मैं दरबारमें गैरहाजिर रहूं तो मुझे उसका फल भोगना पड़े। अपने मामूली लिबासमें जाऊं तो वह अपराध समझा जाय। और वहां जाकर भी क्या में लार्ड कर्जनसे बात-चीत कर सकूँगा ? बिलकुल नहीं।"

मुझे इस शुद्ध-हृदय भाईपर दया आई ।

इसी तरहका एक और दरबार याद आता है । जब काशी-हिंदू विश्व: विद्यालयका शिलारोपन लार्ड हार्डिंजके हाथों हुआ तब उनके लिए एक दरबार किया गया था। उसमें राजा-महाराजा तो थे ही; भारतभूषण मालवीयजीने मुझे भी उसमें उपस्थित रहने के लिए खास तौरपर आग्रह किया था। मैं वहां गया। राजा-महाराजाओंके वस्त्राभूषणोंको, जो केवल स्त्रियोंको ही शोभा दे सकते थे, देखकर मुझे बड़ा दुःख हुआ। रेशमी पाजामे, रेशमी अंगरखे और गलेमें हीरे-मोतियोंकी मालाएं, बांहपर बाजूबंद और पगड़ियोंपर हीरे-मोतियोंकी

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