सत्य के प्रयोग/ गोखले से मिलने

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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अध्याय ३७ : गोखलेले मिलने मालूम हुआ था। उस समय मैं रामनामका पूरा चमत्कार नहीं समझा था । इसलिए दुःख सहन करनेकी सामर्थ्य कम थी । उपवासके दिनोंमें जिस किसी तरह भी हो पानी खूब पीना चाहिए। इस बाह्य कलाका ज्ञान मुझे न था । इस कारण भी यह उपवास मेरे लिए भारी हुए । फिर पहलेके उपवास सुखशांतिसे बीते थे, इसलिए चौदह उपवासके समय कुछ लापरवाह भी रहा था । पहले उपवास समय हमेशा कूतेके कटि-स्नान करता; चौदह उपवासके समय दो-तीन दिन बाद में बंद कर दिये गये । कुछ ऐसा हो गया था कि पानीका स्वाद ही अच्छा नहीं मालूम होता था, और पानी पीते ही जी मिचलाने लगता था, जिससे पानी बहुत कम पिया जाता था। इससे गला सूख गया, शरीर क्षीण हो गया और अंतके दिनोंमें बहुत धीमे बोल सकता था। इतना होते हुए भी लिखनेलिखानेका अावश्यक काम में आखिरी दिनतक कर सका था और रामायण इत्यादि अंततक' सुनता था । कुछ प्रश्नों और विषयोंपर राय इत्यादि देनेका आवश्यक कार्य भी कर सकता था । गोरखले मिलने यहां दक्षिण अफ्रीकाके कितने ही संस्मरण छोड़ देने पड़ते हैं। १९१४. ई० में जब सत्याग्रह-संग्रामका अंत हुआ तव गोखलेकी इच्छासे मैंने इंग्लैंड होकर देश आने का विचार किया था। इसलिए जुलाई महीनेमें कस्तूरबाई, केलनब्रेक और मैं तीनों विलायतके लिए रवाना हुए । सत्याग्रह-संग्रामके दिनों में मैंने लमें तीसरे दर्जे में सफर शुरू कर दिया था। इस कारण जहाजमें भी तीसरे दर्जे के ही टिकट खरीदे, परंतु स तीसरे दर्जे में और हमारे तीसरे दर्जे में बहुत अंतर हैं । झरे यहां तो सोने-बैठने की जगह भी मुश्किल से मिलती है और सफाईकी तो बात ही क्या पूछना ! किंतु इसके विपरीत यहांके जहाजोंमें जगह काफी रहती थी और सफाईका भी अच्छा खयाल रखा जाता था। कंपनीने हमारे लिए कुछ और भी सुविधाएं कर दी थीं । कोई हमको दिक न करने पाये, इस बुयाल एक पाखानेमें ताला लगाकर उसकी ताली हमें सौंप दी गई थी; और [ ३६९ ]________________

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आत्म-कथा

हम फलाहारी थे, इसलिए हमको ताजे और सूखे फल देने की आज्ञा भी जहाजके खजांचीको दे दी गई थी। मामूली तौरपर तीसरे दर्जे के यात्रियोंको फल कम ही मिलते हैं और मेवा तो कतई नहीं मिलता। पर इस सुविधाकी ददौलत हम लोग समुद्रपर बहुत शांतिनसे १८ दिन बिता सके । इस यात्राके कितने ही संस्मरण जानने योग्य हैं। सि० केलनबेको दूरबीनोंका बड़ा शौक था। दो-एक कीती दूरबीनें उन्होंने अपने साथ रखी थीं । इसके विषयमेंं रोज हमारे अपसमेंं बहस होती । मैं उन्हें यह अंचाने की कोशिश करता कि यह हमारे आदर्श के और जिस दगीको हक पहुंचना चाहते हैं उसके अनुकूल नहीं है । एक रोज तो हम दोनों इस विषयपर गरमागरम बहस हो गई। हुम दोनों अपनी कैबिनकी खिड़कीके पास खड़े थे । मैंने कहा--- “श्रापके और मेरे बीच ऐसे झगड़े होने से तो क्या यह बेहतर नहीं हैं कि इस दूरबीनको समुद्र के हैं और इसकी चर्चा ही न करें ? " । | मि० केलनबेकने तुरंत उत्तर दिया---- जरूर इस झगड़े की जड़को फेंक ही दीजिए ।” | मैंने कहा- “देखो, में फेंक देता हूँ !" उन्होंने बे-रोक उत्तर दिया--- "मैं सचमुच कहता हूं, फेंक दीजिए।" और मैंने दूरबीन केक दी। उसका दाभ कोई सात पौंड था । परंतु उसकी कीमत उसके दामकी अपेक्षा मि० केलनबेकके उसके प्रति मोहमें थी । फिर भी मि० केलनबेकने अपने मनको कभी इस बातका दुःख न होने दिया । उनके मेरे बीच तो ऐसी कितनी ही बात हुआ करती थीं--यह तो उसका एक नमूना पाठकोंको दिखाया है। . हम दोनों सत्यको सामने रखकर ही चलनेका प्रयत्न करते थे। इस लिए मेरे उनके इस संबंधके फलस्वरूप हम रोज कुछ-न-कुछ नई बात सीखते । सत्यका अनुसरण करते हुए हमारे क्रोध, स्वार्थ, द्वेष इत्यादि सहज ही शमन हो जाते थे और यदि न होते तो सत्यकी प्राप्ति न होती थी। भले ही राग-द्वेषादिसे भरा मनुष्य सरल हो सकता है, वह वाजिक सत्य भले ही पाल ले, पर उसे शुद्ध सत्यकी प्राप्ति नहीं हो सकती । शुद्ध सत्यकी शोध करने के मानी है. रागद्वेषादि द्वद्वनै सर्वथा भुक्ति प्राप्त कर लेना । [ ३७० ]________________

अध्याय ३८ लड़ाई भाग ३५३ जिन दिनों हमने यह यात्रा प्रारंभ की, पूर्वोक्त उपवासोंको पूरा किये मुझे बहुत समय नहीं बीता था। अभी मुझमें पूरी ताकत नहीं आई थी । जहाजमें डेकपर खूब घूमकर काफी खानेका और उसे पचानेका यत्न करता है पर ज्यों-ज्यों अधिक जुने लगा त्यों-त्यों पिंडलियोंमें ज्यादा दर्द होने लगा। विलायत पहुंचने के बाद तो उलटा यह दर्द और बढ़ गया। वहां डाक्टर जीवराज मेहतासे मुलाकात हो गई थी। उपवास और इस दर्दका इतिहास सुनकर उन्होंने कहा कि “यदि आप थोड़े समयतक आराम नहीं करेंगे तो आपके पैरोंके सदके लिए सुन्न पड़ जाने का अंदेशा है। अब जाकर मुझे पता लगा कि बहुत दिनोंके उपवास गई ताकत जल्दी लानेका या बहुत खानेका लोभ नहीं रखना चाहिए । उपवास करने की अपेक्षा छोड़ते समय अधिक सावधान रहना पड़ता है और शायद इसमें अधिक संयम भी होता है ।। मदीरामें हमें समाचार मिले कि लड़ाई अब छिड़ने ही वाली हैं । इंग्लैंडकी खाड़ी में पहुंचते-पहुंचते खबर मिली कि लड़ाई शुरू हो गई और हम रोक लिये गये । पानी में जगह-जगह गुप्त मार्ग बनाये गये थे और उनसेसे होकर हमें साउदेम्प्टन पहुंचते हुए एक-दो दिनकी देरी हो गई। युद्धकी घोषणा ४ अगस्तको हुई; हम लोग ६ अगस्तको विलायत पहुंचे ।। लड़ाईमें भाग . दिलायत पहुंचनेपर खबर मिली कि गोखले तो पेरिसमें रह गये हैं, पेरिसके साथ आवागमनका संबंध बंद हो गया है और यह नहीं कहा जा सकता कि वह कब आयेंगे । गोखले अपने स्वास्थ्य-तुबारके लिए फ्रांस गये थे; किंतु बीचमें युद्ध छिड़ जानेसे वहीं अटक रहे । उनसे मिले बिना मुझे देश जाना नहीं था और वह कब अावेंगे, यह कोई कह नहीं सकता था। अब सवाल यह खड़ा हुआ कि इस दरमियान करें क्या ? इस लड़ाईके संबंध में मेरा धर्म क्या है ? जेलके मेरे साथी और सत्याग्रही सोराबजी अडाजणिया विलायतमें बैरिस्टरीका अध्ययन कर रहे थे। सोराबजी को एक श्रेष्ठ सत्याग्रही

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