सत्य के प्रयोग/ प्रायश्चित्त के रूप में उपवास

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

[ ३६६ ] बालक और जालिकाएं एक साथ रहते ओर पढ़ते हों, वहां मां-बापकी श्रौर शिक्षककी

कड़ी जांच हो जाती हैं । उन्हें वहुत सावधान और जागरूक रहना पड़ता है ।

इस तरह लड़के-लड़कियोंको सच्चाई और ईमानदारीके साथ परवरिश करन और पढ़ाने-लिखाने में कितनी और कैसी कठिनाइयां हैं, इसका अनुभव दिन-दिल बढ़ता गया । शिक्षक और पालककी हैसियतले मुझे उनके हृदयोंमें प्रवेश करना था । उनके सुख-दुखमें हाथ बंटाना था । उनके जीवनकी गुत्थियां सुलझानी थीं । उनकी चढ़ती जवानीकी तरंगोंको सीधे रास्ते ले जाना था। कितने ही कैदियोंके छुट जानेके बाद टॉल्स्टाय-प्राश्रममें थोड़े ही लोग रह गये । ये खासकरके फिनिक्स-वासी थे । इसलिए में श्राश्रमको फिनिक्स ले गया ! फिनिक्समें मेरी कड़ी परीक्षा हुई । इन बचे हुए प्राश्रम-बासियोंको टॉल्स्टाय-श्राश्रमसे फिनिक्स-पहुंचाकर मैं जोहान्सबर्ग गया । थोड़े ही दिन जोहान्सवर्ग रहा होऊंगा कि मुझे दो व्यक्तियोंके भयंकर पतनके समाचार मिले । सत्याग्रह जैसे महान् संग्राममें यदि कहीं भी असफलता जैसा कुछ दिखाई देता तो उससे मेरे दिलको चोट नहीं पहुंचती थी, परंतु इस घटनाने तो मुझपर वज्र-प्रहार ही कर दिया ! मेरे दिलमें घाव हो गया ! उसी दिन मैं फिनिक्स रवाना हो गया । भि० केलनबेकने मेरे साथ प्रालेकी जिद पकड़ी । वह मेरी दयनीय स्थितिको समझ गये थे; उन्होंने साफ इन्कार कर दिया कि मैं औपको अकेला नहीं जाने ढूंगा । इस पतनकी खबर मुझे उन्हींके द्वारा मिली थी । रास्तेमें ही मैंने सोच लिया, अथवा यों कहूं कि मैंने ऐसा मान लिया कि इस झबस्थामें मेरा धर्म क्या हैं ? मेरे भनने कहा कि जो लोग हमारी रक्षामें हैं उनके पतनके लिए पालक या शिक्षक किसी-न-किसी अंशमें जरूर जिम्मेदार हैं और इस दुटिलाके संबंधमें तो गुझे अपनी जिम्मेदारी साफ-साफ दिखाई दी । मेरी पत्नीन मुझे पहले ही चेताया था; पर मै स्वभावतः विश्बासशील हूं, इससे मैंने उसकी चेतावनी पर ध्यान नहीं दिया था । फिर मुझे यह भी प्रतीत हुग्रा कि [ ३६७ ]________________

त्-कथा : अग ४ ये पतित' लोग मेरी व्यथाको तभी समझ सकेंगे, जब मैं इस पतनके लिए कुछ प्राथश्चित्त करूंगा। इससे इन्हें अपने दोषोंका ज्ञान होगा और उसकी गंभीरताका कुछ अंदाज मिलेगा। इस कारण मैंने सात दिनके उपवास और साढ़े चार मासतक एकासना करने का विचार किया । भि केलनबॅकने मुझे रोकनेकी बहुत कोशिश की, पर उनकी न चली । अंतको उन्होंने प्रायश्चितके औचित्यको माना और अपने लिए भी मेरे साथ व्रत रखनेपर जोर दिया। उनके निर्मल प्रेमको मैं न रोक सका। इस निश्चयके बाद ही तुरंत मेरा हृदय हलका हो गया, मुझे शांति मिली । दोष करनेवालोंपर जो-कुछ गुस्सा आया था वह दूर हुआ और उनपर मनों दया हीं आती रही है। इस तरह ट्रेनमें ही अपने हृदयको हलका करके मैं फिनिक्स पहुंचा ।। पूछ-ताछकर जो-कुछ और बातें जाननी थीं वे जान लीं । यद्यपि इस मेरे उपवाससे सबको बहुत कष्ट हुशा, पर उससे वातावरण शुद्ध हुआ। पापकी भयंकरताको सबने समझा और विद्यार्थी-विद्यार्थिनियोंका और मेरा संबंध अधिक मजबूत और सरल हुआ ।। इस दुर्घटनाके सिलसिलेमें ही, कुछ समय बाद, मुझे फिर चौदह उपवास करनेकी नौबत आई थी और मैं मानता हूं कि उसका परिणाम आशाले भी अधिक अच्छा निकला। परंतु इन उदाहरणोंसे मैं यह नहीं सिद्ध करना चाहता कि शिष्यों के प्रत्येक दोषके लिए हमेशा शिक्षकको उपवासादि करना ही चाहिए । पर मैं यह जरूर मानता हूं कि मौके-नौकेपर ऐसे प्रायश्चित्त-रूर उपवासके लिए अवश्य स्थान है। किंतु उसके लिए विक र अधिकारको अवश्यकता है । जहां शिक्षक और शिष्य में शुद्ध प्रेम-बंधन नहीं, जहां शिक्षकको अपने शिष्यके दोषोंसे सुच्ची चोट नहीं पहुंचती, जहां शिष्यके मनमें शिक्षकके प्रति आदर नहीं, वहां उपवास निरर्थक है और शायद हानिकारक भी हो । परंतु ऐसे उपवास या एकासने के विषयमें भले ही कुछ शंका हो; किंतु शिष्यके दोषोंके लिए शिक्षक थोड़ा-बहुत जिम्मेदार जरूर है, इस विषय में कुछ भी संदेह नहीं । ये सात उपवास और साढ़े चार मासके एकासने हमें कठिन न मालूम हुए। उन दिनों मेरा कोई भी काम बंद या मंद नहीं हुआ था। उस समय मैं केवल फलाहार ही करता था। चौदह उपवासका अंतिम भाग मुझे खूब कदिन

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