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सत्य के प्रयोग/ पहला आघात

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सत्य के प्रयोग
मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

पृष्ठ ११८ से – १२० तक

 


एक छोटा-सा अपना अनुभव यहां लिख देता हूं।

मेरा मकान गिरगांव में था। फिर भी कभी-कभी ही गाड़ी किराये करता। ट्राममें भी मुश्किलसे बैठता। गिरगांवसे नियम-पूर्वक बहुत करके पैदल ही जाता। उसमें खासे ४५ मिनट लगते। लौटता भी बिला नागा पैदल ही। दिनमें धूप सहनेकी आदत डाल ली थी। इससे मैंने खर्चमें किफायत भी बहुत की और मैं एक दिन भी वहां बीमार न पड़ा, हालांकि मेरे साथी बीमार होते रहते थे। जब मैं कमाने लगा था, तब भी मैं पैदल ही आफिस जाता। उसका लाभ मैं आजतक पा रहा हूं।

पहला आघात

बंबईसे निराश होकर राजकोट गया। अलहदा दफ्तर खोला। कुछ सिलसिला चला। अर्जियां लिखनेका काम मिलने लगा और प्रतिमास लगभग ३००) की आमदनी होने लगी। इन अर्जियोंके मिलनेका कारण मेरी योग्यता नहीं बल्कि जरिया था। बड़े भाई साहबके साथी वकीलकी वकालत अच्छी चलती थी। जो बहुत जरूरी अर्जियां आतीं अथवा जिन्हें वे महत्वपूर्ण समझते वे तो बैरिस्टर के पास जातीं, मुझे तो सिर्फ उनके गरीब मवक्किलोंकी अर्जियां मिलतीं।

बंबईवाली कमीशन न देनेकी मेरी टेक यहां न निभ सकी। वहां और यहांकी स्थितिका भेद मुझे समझाया गया- बंबईमें तो दलालको कमीशन देनेकी बात थी। यहां वकीलको देनेकी बात है। मुझसे कहा गया कि बंबईकी तरह यहां भी तमाम बैरिस्टर, बिना अपवादके, कुछ-न-कुछ कमीशन अवश्य दिया करते हैं। भाई साहबकी दलीलका उत्तर मेरे पास न था। 'तुम देखते हो कि में एक दूसरे वकीलका साझी हूं। मेरे पास आनेवाले मुकदमोंमेंसे तुम्हारे लायक मुकदमे तुम्हें देनेकी ओर मेरी प्रवृत्ति स्वभावतः रहती है और यदि तुम अपनी फीसका कुछ अंश मेरे साझीको न दो तो मेरी स्थिति कितनी विषम हो सकती है? हम तो एक साथ रहते हैं, इसलिए मुझे तो तुम्हारी फीसका लाभ मिल ही जाता
है; पर मेरे साझीदारको नहीं मिलता। किंतु यदि वही मुकदमा वह किसी दूसरेको दे दे तो उसका हिस्सा अवश्य मिलेगा।' मैं इस दलीलके चक्करमें आ गया और मेरे मनने कहा- 'यदि मुझे बैरिस्टरी करना है, तो फिर ऐसे मुकदमोंमें कमीशन न देनेका आग्रह मुझे न रखना चाहिए।' मै झुक गया। अपने मनको फुसलाया अथवा स्पष्ट शब्दोंमें कहें तो धोखा दिया। पर इसके सिवा दूसरे किसी मामलेमें कमीशन दिया हो, यह मुझे याद नहीं पड़ता।

इस तरह यद्यपि मेरा आर्थिक सिलसिला तो लग गया, परंतु इसी अरसेमें मुझे अपने जीवनमें एक पहली ठेस लगी। अबतक मैंने सिर्फ कानोंसे सुन रक्खा था कि ब्रिटिश अधिकारी कैसे होते हैं। पर अब अपनी आंखो देखनेका अवसर मिला।

पोरबंदरके भूतपूर्व राणा साहबको गद्दी मिलनेके पहले मेरे भाई उनके मंत्री और सलाहकार थे। उस समय उनपर यह तोहमत लगाई थी कि वह राणा साहबको उलटी सलाह देते हैं। तात्कालिक पोलिटिकल एजेंटसे उनकी शिकायत की गई थी और उनका खयाल भाई साहबके प्रति खराब हो रहा था। इन साहबसे मैं विलायतमें मिला था। वहां उनसे मेरी ठीक-ठीक मित्रता हो गई थी। भाई साहबने सोचा कि इस परिचयसे लाभ उठाकर मैं पोलिटिकल एजेंटसे दो बातें कहूं और उनके दिलपर जो-कुछ बुरा असर पैदा हो उसे दूर करनेकी चेष्टा करूं। मुझे यह बात बिलकुल पसंद न हुई। मैंने कहा- "विलायतकी ऐसी-वैसी मुलाकातका फायदा यहां न उठाना चाहिए। यदि भाई साहबने सचमुच ही कोई बुरा काम किया हो, तो फिर सिफारिशसे लाभ ही क्या? यदि न किया हो तो फिर बाकायदा अपना वक्तव्य पेश करना चाहिए अथवा अपनी निर्दोषतापर विश्वास रखकर निर्भय हो रहना चाहिए।" पर भाई साहबको यह बात न पटी। "तुम काठियावाड़से परिचित नहीं हो। जिंदगीकी खबर तुम्हें अब पड़ेगी; यहां जरिया और मेल-मुलाकातसे सब काम होता है। तुम्हारे जैसा भाई हो और तुम्हारे मुलाकाती हाकिमको थोड़ी-सी सिफारिश करनेका जब वक्त आवे तब तुम इस तरह पिंड छुड़ा लो, यह उचित नहीं।"

भाईकी मुरव्वत मैं न तोड़ सका। अपनी इच्छाके खिलाफ मैं गया। मुझे उस हाकिमके पास जानेका कोई अधिकार न था। मैं जानता था कि जानेमें
मेरा आत्माभिमान जाता है। मैंने मिलनेका समय मांगा। वह मिला और मैं गया। मैंने पुरानी पहचान निकाली, परंतु मैंने तुरंत देखा कि विलायत और काठियावाड़में भेद था। हुकूमतकी कुर्सीपर डटे हुए साहब और विलायतमें छुट्टीपर गये हुए साहबमें भेद था। पोलिटिकल एजेंटको मुलाकात तो याद आई, पर साथ ही अधिक बेरुख भी हुए। उनकी बेरुखाईमें मैंने देखा, उनकी आँखोंमें मैंने पढ़ा- 'उस परिचयसे लाभ उठाने तो तुम यहां नहीं आये हो?' यह जानते समझते हुए भी मैंने अपना सुर छेड़ा। साहब अधीर हुए- "तुम्हारे भाई कुचक्री हैं। मैं तुमसे ज्यादा बात नहीं सुनना चाहता। मुझे समय नहीं है। तुम्हारे भाईको कुछ कहना हो तो बाकायदा अर्जी पेश करें।" यह उत्तर बस था; परंतु गरज बावली होती है। मैं अपनी बात कहता ही जा रहा था। साहब उठे। बोले– "अब तुमको चला जाना चाहिए।"

मैंने कहा- "पर, मेरी बात तो पूरी सुन लीजिए।" साहब लाल-पीले हुए- "चपरासी, इसको दरवाजेके बाहर करदो।"

'हुजूर' कहकर चपरासी दौड़ आया। मेरा चर्खा अभीतक चल ही रहा था। चपरासीने मेरा हाथ पकड़ा और दरवाजेके बाहर कर दिया।

साहब चले गये, चपरासी भी चला गया। मैं भी चला- झुंझलाया, खिसियाया। मैंने साहबको चिट्ठी लिखी- "आपने मेरा अपमान किया है, चपरासीसे मुझपर हमला कराया है। मुझसे माफी मांगो, नहीं तो बाकायदा मानहानिका दावा करूंगा।" चिट्ठी भेज दी। थोड़ी ही देरमें साहबका सवार जवाब ले आया।

"तुमने मेरे साथ असभ्यताका बर्ताव किया। तुमसे कह दिया था कि जाओ, फिर भी तुम न गये। तब मैंने जरूर चपरासीको कहा कि इन्हें दरवाजेके बाहर कर दो। और चपरासीके ऐसा कहनेपर भी तुम बाहर नहीं गये। तब उसने हाथ पकड़कर तुम्हें दफ्तरसे बाहर कर दिया। इसके लिए तुमको जो-कुछ करना हो, शौक से करो।" जवाबका भाव यह था।

इस जवाबको जेबमें रख, अपना-सा मुंह ले, मैं घर आया। भाईसे सारा हाल कहा। उन्हें दुःख हुआ। पर वह मेरी सांत्वना क्या कर सकते थे? वकील मित्रोंसे सलाह ली- क्योंकि खुद मैं दावा दायर करना कहां जानता था?

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