सत्य के प्रयोग/ दूसरा भाग(रायचन्द भाई)

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय
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दूसरा भाग

रायचन्दभाई

पिछले अध्यायमें मैं लिख चुका हूं कि बंबई-बंदरपर समुद्र क्षुब्ध था। जून-जुलाईमें हिंद-महासागरमें यह कोई नई बात नहीं होती। अदनसे ही समुद्रका यह हाल था। सब लोग बीमार पड़ गये थे- अकेला मैं मौजमें रहा था। तूफान देखनेके लिए डेकपर रहता और भीग भी जाता। सुबह भोजनके समय यात्रियोंमें हम एक ही दो नजर आते। हमें ओटकी पतली लपसी की रकाबीको गोदमें रखकर खाना पड़ता था; वर्ना हालत ऐसी थी कि लपसी गोदमें ही ढुलक पड़ती।

यह बाहरी तूफान मेरे लिए तो अंदरके तूफानका चिह्न-मात्र था। परंतु बाहरी तूफान के रहते हुए भी मैं जिस प्रकार अपनेको शांत रख सकता था, वही बात आंतरिक तूफानके संबंधमें भी कही जा सकती है। जातिवालोंका सवाल तो सामने था ही। वकालतकी चिंताका हाल पहले ही लिख चुका हूं। फिर मैं ठहरा सुधारक। अतः मनमें कितने ही सुधार करनेके मनसूबे बांध रक्खे थे। उनकी भी चिंता थी। एक और अकल्पित चिंता खड़ी हो गई।

माताजीके दर्शन करनेके लिए मैं अधीर हो रहा था। जब हम डॉकपर पहुंचे तो मेरे बड़े भाई वहां मौजूद थे। उन्होंने डाक्टर मेहता तथा उनके बड़े भाईसे जान-पहचान कर ली थी। डाक्टर चाहते थे कि मैं उन्हींके घर ठहरूं, सो वह मुझे वहीं लिवा ले गये। इस तरह विलायतमें जो संबंध बंधा था वह देशमें भी कायम रहा। यही नहीं, बल्कि अधिक दृढ़ होकर दोनों परिवारोंमें फैला।

माताजीके स्वर्गवासके बारेमें मैं बिलकुल बेखबर था घर पहुंचनेपर मुझे यह समाचार सुनाया और स्नान कराया गया। यह खबर मुझे विलायतमें भी दी जा सकती थी; पर इस विचारसे कि मुझे आघात कम पहुंचे मेरे बड़े भाईने बंबई पहुंचने तक मुझे खबर न पहुंचानेका ही निश्चय किया। अपने इस [ १०९ ]
दु:खपर मैं परदा डालना चाहता हूं। पिताजीकी मृत्युसे अधिक आघात मुझे इस समाचार को पाकर पहुंचा। मेरे कितने ही मनसूबे मिट्टीमें मिल गये। पर मुझे याद है कि इस समाचार को सुनकर मैं रोने-चीखने नहीं लगा था। आंसू-तकको प्राय: रोक पाया था। और इस तरह व्यवहार शुरू रक्खा, मानो माताजीकी मृत्यु हुई ही न हो।

डाक्टर मेहताने अपने घरके जिन लोगोंसे परिचय कराया, उनमेंसे एकका जिक्र यहां किये बिना नहीं रह सकता। उनके भाई रेवाशंकर जगजीवन के साथ तो जीवन-भरके लिए स्नेह-गांठ बंध गई। परंतु जिनकी बात मैं कहना चाहता हूं वह तो हैं कवि रायचंद्र अथवा राजचंद्र। वह डाक्टर साहब के बड़े भाईके दामाद थे और रेवाशंकर जगजीवनकी दुकानके भागीदार तथा कार्यकर्ता थे। उनकी अवस्था उस समय २५ वर्षसे अधिक न थी। फिर भी पहली ही मुलाकातमें मैंने यह देख लिया कि वह चरित्रवान् और ज्ञानी थे। वह शतावधानी माने जाते थे। डाक्टर मेहताने कहा कि इनके शतावधानका नमूना देखना। मैने अपने भाषा-ज्ञानका भंडार खाली कर दिया और कविजीने मेरे कहे तमाम शब्दोंको उसी नियमसे कह सुनाया, जिस नियमसे मैंने कहा था। इस सामर्थ्यपर मुझे ईर्ष्या तो हुई; किंतु उसपर मैं मुग्ध न हो पाया। जिस चीज पर मैं मुग्ध हुआ उसका परिचय तो मुझे पीछे जाकर हुआ। वह था उनका विशाल शास्त्रज्ञान, उनका निर्मल चरित्र और आत्म-दर्शन करनेकी उनकी भारी उत्कंठा। मैने आगे चलकर तो यह भी जाना कि केवल आत्म-दर्शन करनेके लिए वह अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे।

हसतां रमतां प्रगट हरि देखूं रे
मारुं जीव्यूं सफल तब लेखूं रे;
मुक्तानंद नो नाथ बिहारी रे
ओघा जीवनदोरी अमारी रे।[१]

[ ११० ]मुक्तानंदका यह वचन उनकी जबानपर तो रहता ही था, पर उनके हृदयमें भी अंकित हो रहा था।

खुद हजारोंका व्यापार करते, हीरेमोतीकी परख करते, व्यापारकी गुत्थियां सुलझाते, पर वे बातें उनका विषय न थीं। उनका विचार- उनका पुरुषार्थ तो- आत्म-साक्षात्कार- हरिदर्शन था। दूकानपर और कोई चीज हो या न हो, एक-न-एक धर्म-पुस्तक और डायरी जरूर रहा करती। व्यापारकी बात जहां खतम हुई कि धर्म-पुस्तक खुलती अथवा रोजनामचेपर कलम चलने लगती। उनके लेखोंका संग्रह गुजरातीमें प्रकाशित हुआ है, उसका अधिकांश इस रोजनामचेके ही आधारपर लिखा गया है। जो मनुष्य लाखोंके सौदेकी बात करके तुरंत आत्मज्ञानकी गूढ़ बातें लिखने बैठ जाता है वह व्यापारीकी श्रेणीका नहीं, बल्कि शुद्ध ज्ञानीकी कोटिका है। उनके संबंधमें यह अनुभव मुझे एक बार नहीं अनेक बार हुआ है। मैंने उन्हें कभी गाफिल नहीं पाया। मेरे साथ उनका कुछ स्वार्थ न था। मैं उनके बहुत निकट समागममें आया हूं। मैं उस वक्त एक ठलुआ बैरिस्टर था। पर जब मैं उनकी दुकानपर पहुंच जाता तो वह धर्म-वार्ताके सिवा दूसरी कोई बात न करते। इस समयतक मैं अपने जीवनकी दिशा न देख पाया था; यह भी नहीं कह सकते कि धर्म-वार्ताओंमें मेरा मन लगता था। फिर भी मैं कह सकता हूं कि रायचंदभाईकी धर्म-वार्ता मैं चावसे सुनता था। उसके बाद मैं कितने ही धर्माचार्योंके संपर्कमें आया हूं, प्रत्येक धर्मके आचार्योंसे मिलनेका मैंने प्रयत्न भी किया है; पर जो छाप मेरे दिलपर रायचंदभाईकी पड़ी, वह किसी की न पड़ सकी। उनकी कितनी ही बातें मेरे ठेठ अंतस्तलतक पहुंच जाती। उनकी बुद्धिको मैं आदरकी दृष्टिसे देखता था। उनकी प्रामाणिकतापर भी मेरा उतना ही आदर-भाव था। और इसमें मैं जानता था कि वह जान-बूझकर उल्टे रास्ते नहीं ले जायेंगे एवं मुझे वही बात कहेंगे, जिसे वह अपने जीमें ठीक समझते होंगें। इस कारण मैं अपनी आध्यात्मिक कठिनाइयोंमें उनकी सहायता लेता।

रायचंदभाईके प्रति इतना आदर-भाव रखते हुए भी मैं उन्हें धर्मगुरुका स्थान अपने हृदयमें न दे सका। धर्म-गुरुकी तो खोज मेरी अबतक चल रही है।

हिंदू-धर्ममें गुरुपदको जो महत्त्व दिया गया है उसे मैं मानता हूं। 'गुरु बिन होत न ज्ञान' यह वचन बहुतांशमें सच है। अक्षर-ज्ञान देनेवाला शिक्षक

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  1. भावार्थ यह कि मैं अपना जीवन तभी सफल समझूंगा, जब मैं हंसते-खेलते ईश्वरको अपने सामने देखूंगा। निश्चय-पूर्वक यही मुक्तानंद की जीवन-डोरी है। -अनु०