सत्य के प्रयोग/ संसार-प्रवेश

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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यदि अधकचरा हो तो एक बार काम चल सकता है, परंतु आत्म-दर्शन करानेवाले अधूरे शिक्षकसे हरगिज काम नहीं चलाया जा सकता। गुरुपद तो पूर्ण ज्ञानीको ही दिया जा सकता है। सफलता गुरुकी खोजमें ही है; क्योंकि गुरु शिष्यकी योग्यताके अनुसार ही मिला करते हैं। इसका अर्थ यह है कि प्रत्येक साधनको योग्यता-प्राप्तिके लिए प्रयत्न करनेका पूरा-पूरा अधिकार है। परंतु इस प्रयत्नका फल ईश्वराधीन है।

इसीलिए रायचंदभाईको मैं यद्यपि अपने हृदयका स्वामी न बना सका, तथापि हम आगे चलकर देखेंगे कि उनका सहारा मुझे समय-समयपर कैसा मिलता रहा है। यहां तो इतना ही कहना बस होगा कि मेरे जीवनपर गहरा असर डालने वाले तीन आधुनिक मनुष्य हैं- रायचंदभाईने अपने सजीव संसर्गसे, टॉल्सटॉयने 'स्वर्ग तुम्हारे हृदयमें है' नामक पुस्तक द्वारा तथा रस्किनने 'अनटु दिस लास्ट'- सर्वोदय- नामक पुस्तकसे मुझे चकित कर दिया है। इन प्रसंगोंका वर्णन अपने-अपने स्थानपर किया जायगा।

संसार-प्रवेश

बड़े भाईने तो मुझपर बहुतेरी आशायें बांध रक्खी थीं। उन्हें धनका, कीर्तिका, और ऊंचे पदका लोभ बहुत था। उनका हृदय बादशाहके जैसा था। उदारता उड़ाऊपनतक उन्हें ले जाती। इससे तथा उनके भोलेपनके कारण मित्र बनाते उन्हें देर न लगती। उन मित्रोंके द्वारा उन्होंने मेरे लिए मुकदमे लानेकी तजवीज कर रक्खी थी। उन्होंने यह भी मान लिया था कि मैं खूब रुपया कमाने लगूंगा और इस भरोसेपर उन्होंने घरका खर्च भी खूब बढ़ा लिया था। मेरे लिए वकालतका क्षेत्र तैयार करनेमें भी उन्होंने कसर न उठा रक्खी थी।

इधर जातिका झगड़ा अभी खड़ा ही था। उसमें दो दल हो गये थे। एक दलने मुझे तुरंत जातिमें ले लिया। दूसरा न लेनेके पक्षमें अटल रहा। जातिमें ले लेनेवाले दलको संतुष्ट करने के लिए, राजकोट पहुंचनेके पहले, भाईसाहब मुझे नासिक ले गये। वहां गंगा-स्नान कराया और राजकोटमें पहुंचते ही [ ११२ ]
जातिभोज दिया गया।

यह बात मुझे रुचिकर न हुई। बड़े भाईका मेरे प्रति अगाध प्रेम था। मेरा खयाल है कि मेरी भक्ति भी वैसा ही थी। इसलिए उनकी इच्छाको आज्ञा मानकर मैं यंत्रकी तरह बिना समझे, उसके अनुकूल होता चला गया। जातिकी समस्या तो इतना करनेसे सुलझ गई।

जिस दलसे मैं पृथक् रहा, उसमें प्रवेश करनेके लिए मैंने कभी कोशिश न की, और न मैं कभी जातिके मुखियापर मनमें क्रुद्ध ही हुआ। उसमें ऐसे लोग भी थे जो मुझे तिरस्कारकी दृष्टिसे देखते थे। उनसे मैं नमता-झुकता रहता। जातिके बहिष्कार-विषयक नियमका पूरा पालन करता। अपने सास-ससुर अथवा बहनके यहां पानीतक न पीता। वे छिपे-छिपे पिलानेको तैयार होते थे। पर जिस बातको चार आदमियोंके सामने नहीं कर सकते, उसे छिपकर करनेको मेरा जी न चाहता।

मेरे इस व्यवहारका परिणाम यह हुआ कि मुझे याद नहीं आता कि जातिवालोंने कभी किसी तरह मुझे सताया हो। यही नहीं, बल्कि मैं आज भी जातिके एक विभागसे नियमके अनुसार बहिष्कृत माना जाता हूं, फिर भी मैंने अपने प्रति उनकी तरफसे मान और उदारताका ही अनुभव किया है। उन्होंने मुझे मेरे काममें मदद भी की है, और मुझसे इस बातकी जरा भी आशा न रक्खी कि मैं जातिके लिहाज से कोई काम करूं। मेरी यह धारणा है कि इस मधुर फलका कारण है केवल मेरा अप्रतिकार। यदि मैंने जातिमें जानेकी कोशिश की होती, अधिक दलबंदी करनेकी चेष्टा की होती, जातिवालोंको छेड़ा और उकसाया हो़ता, वे मेरे खिलाफ उठ खड़े होते और मैं, विलायतसे आते ही, उदासीन और अलिप्त रहनेके बदले, कुचक्रके फंदेमें पड़कर केवल मिथ्यात्वका पोषक बन जाता।

पत्नीके साथ मेरा संबंध अभी जैसा मैं चाहता था वैसी न हुआ। विलायत जानेपर भी अपने द्वेष-दुष्ट स्वभावको मैं न छोड़ सका था। हर बातमें मेरी दोष देखनेकी वृत्ति और वहम जारी रहा। इससे मैं अपने मनोरथोंको पूरा न कर सका। सोचा था कि पत्नीको लिखना-पढ़ना सिखाऊंगा; परंतु मेरी विषयासक्तिने मुझे यह काम बिलकुल न करने दिया और अपनी इस कमीका गुस्सा [ ११३ ]
मैंने पत्नी पर निकाला। एक बार तो यहांतक नौबत आ पहुंची कि मैंने उसे नैहर भेज दिया और बहुत कष्ट देनेके बाद ही फिर साथ रहने देना स्वीकार किया। आगे चलकर मैं देख सका कि यह महज मेरी नादानी ही थी।

बालकोंकी शिक्षा-प्रणालीमें भी मुझे बहुत-कुछ सुधार करने थे। बड़े भाईके लड़के-बच्चे तो थे ही। मैं भी एक बच्चा छोड़ गया था, जो कि अब चार सालका होने आया था। सोचा यह था कि इन बच्चोंको कसरत कराऊंगा, हट्टा-कट्टा बनाऊंगा और अपने साथ रक्खूंगा। भाई इसमें सहमत थे। इसमें मैं कुछ-न-कुछ सफलता प्राप्त कर सका। लड़कोंका समागम मुझे बहुत प्रिय मालूम हुआ। और उनके साथ हंसी-मजाक करनेकी आदत आजतक बाकी रह गई है। तभीसे मेरी यह धारणा हुई है कि मैं लड़कोंके शिक्षकका काम अच्छा कर सकता हूं।

भोजन-पानमें भी सुधार करनेकी आवश्यकता स्पष्ट थी। घरमें चाय-कॉफीको तो स्थान मिल ही चुका था। बड़े भाईने सोचा कि भाईके विलायतसे घर आनेके पहले घरमें विलायतकी कुछ-न-कुछ हवा तो आ ही जानी चाहिए। इस कारण चीनीके बरतन, चाय आदि जो भी चीजें पहले महज दवा-दारूके लिए अथवा नई रोशनीके महमानोंके लिए घरमें रहती थीं अब सबके लिए काम आने लगीं। ऐसे वायु-मंडलमें मैं अपने 'सुधारों'को लेकर आया। अब ओटमीलकी पतली लपसी शुरू हुई। चाय-कॉफीकी जगह कोको आया। पर यह परिवर्तन नाममात्रका हुआ, वास्तवमें तो चाय-कॉफीमें कोको और आकर शामिल हो गया। बूट और मोजोंने अपना अड्डा पहलेसे जमाही रक्खा था। मैंने अब कोट-पतलूनसे घरको पवित्र कर दिया।

इस तरह खर्च बढ़ा। नवीनतायें बढ़ीं। घरपर सफेद हाथी बंधा। पर इतना खर्च आये कहांसे? यदि राजकोटमें आते ही वकालत शुरू करता तो हंसी होनेका डर था, क्योंकि मुझे तो अभी इतना भी ज्ञान न था कि राजकोटमें पास हुए वकीलोंके सामने खड़ा रह सकता- और तिसपर फीस उनसे दस गुनी लेनेका दावा। कौन मवक्किल ऐसा बेवकूफ था, जो मुझे अपना वकील बनाता? अथवा यदि कोई ऐसा मूर्ख मवक्किल मिल भी जाता, तो क्या यह उचित था कि मैं अपने अज्ञानमें गुस्ताखी और धोखेबाजीकी जोड़ मिलाकर अपनेपर संसारका कर्ज बढ़ाता? [ ११४ ]मित्रोंकी यह सलाह हुई कि पहले मैं कुछ समय बंबई जाकर हाईकोर्ट में अनुभव प्राप्त करूं और भारतके कानून-कायदोंका अध्ययन करूं। साथ ही मुकदमे मिल जायं तो वकालत भी करता रहूं। मैं बंबई रवाना हुआ।

घर-बार रचा। रसोइया रक्खा। वह तकदीरसे मिला मुझ-जैसा ही। ब्राह्मण था। मैंने उसे नौकरकी तरह नहीं रक्खा था। वह नहाता तो था, पर धोता न था। धोती मैली, जनेऊ मैला, शास्त्राध्ययनकी तो बात ही दूर। मगर और अधिक अच्छा रसोइया लाता कहां से?

"क्यों रविशंकर, रसोई बनाना तो जानते हो, पर संध्या वगैरा भी कुछ याद हैं?"

"संध्या? साहब, संध्या-तर्पण तो है हल और कुदाली है खटकरम। मैं तो ऐसा ही बामन हूं। आप जैसे हैं, तो निबाह लेते हैं, नहीं तो खेती बनी-बनाई है ही।"

मैं सब समझ गया। मुझे रविशंकरका शिक्षक बनना होगा। समय तो बहुत था। आधी रसोई रविशंकर पकाता और आधी मैं। विलायतके अन्नभोजनके प्रयोग यहां शुरू किये। एक स्टोव खरीदा। मैं खुद तो पंक्ति-भेद मानता ही न था। इधर रविशंकरको भी पंक्ति-भेद का आग्रह न था। सो हमारी खासी जोड़ी मिल गई। सिर्फ इतनी शर्त- अथवा मुसीबत कहिए- थी कि रविशंकरने मैले-कुचैलेपनसे नाता तोड़ने और रसोई साफ रखनेकी कसम खा रक्खी थी।

पर मैं चार-पांच माससे अधिक बंबई न रह सकता था। क्योंकि खर्च बढ़ता ही जाता था और आमदनी कुछ न होती थी।

इस तरह जो मैंने संसारमें प्रवेश किया तो अपनी बैरिस्टरी मुझे खलने लगी। आडंबर बहुत, आमदनी कम। जिम्मेदारीका खयाल मुझे भीतर-ही-भीतर कुतरने-नोचने लगा।

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