सत्य के प्रयोग/ मेरी दुविधा

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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तारीखको इंग्लैंड-हाईकोर्टमें ढाई शिलिंग देकर अपना नाम रजिस्टर कराया। बारह जूनको हिंदुस्तान लौट आनेके लिए रवाना हुआ।

परंतु मेरी निराशा और भीतिका कुछ ठिकाना न था। कानून मैंने पढ़ तो लिया, परंतु मेरा दिल यही कहता था कि अभीतक मुझे कानूनका इतना ज्ञान नहीं हुआ कि वकालत कर सकूं।

इस व्यथाका वर्णन करनेके लिए एक दूसरे अध्यायकी आवश्यकता होगी।

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मेरी दुविधा

बैरिस्टर कहलाना तो आसान मालूम हुआ, परंतु बैरिस्टरी करना बड़ा मुश्किल जान पड़ा। कानूनकी किताबें तो पढ़ डालीं, पर वकालत करना न सीखा। कानूनकी पुस्तकोंमें कितने ही धर्म-सिद्धांत मुझे मिले, जो मुझे पसंद हुए। परंतु यह समझमें न आया कि वकालतके पेशेमें उनसे कैसे फायदा उठाया जा सकेगा। अपनी चीजका इस्तेमाल इस तरह करो कि जिससे दूसरोंकी चीजको नुकसान न पहुंचे, यह धर्म-वचन मुझे कानूनमें मिला। परंतु यह समझमें न आया कि वकालत करते हुए मवक्किलके मुकदमेमें उसका व्यवहार किस तरह किया जाता होगा। जिन मुकदमोंमें इस सिद्धांतका उपयोग किया गया था, मैंने उनको पढ़ा। परंतु उनसे इस सिद्धांतको व्यवहारमें लानेकी तरकीब हाथ न आई।

दूसरे, जिन कानूनोंको मैंने पढ़ा उनमें भारतवर्षके कानूनोंका नाम तक न था। न यह जाना कि हिंदू-शास्त्र तथा इस्लामी कानून क्या चीज है। अर्जीदावातक लिखना न जानता था! मैं बड़ी दुविधामें पड़ा। फीरोजशाह मेहताका नाम मैंने सुना था। वह अदालतोंमें सिंह-समान गर्जना करते हैं। यह कला वह इंग्लैंडमें किस प्रकार सीखे होंगे? उनके जैसी निपुणता इस जन्ममें तो नहीं आने की, यह तो दूरकी बात है; किंतु मुझे तो यह भी जबरदस्त शक था कि एक वकीलकी हैसियतसे मैं पेट-पालनेतकमें भी समर्थ हो सकूंगा या नहीं! [ १०५ ]यह उथल-पुथल तो तभी से चल रही थी, जब मैं कानूनका अध्ययन कर रहा था। मेंने अपनी यह कठिनाई अपने एक-दो मित्रोंके सामने रक्खी। एकने कहा, दादाभाईकी सलाह लो। यह पहले ही लिख चुका हूं कि मेरे पास दादाभाईके नाम एक परिचय-पत्र था। उस पत्रका उपयोग मैने देरसे किया। ऐसे महान् पुरुषसे मिलने जानेका मुझे क्या अधिकार है? कहीं यदि उनका भाषण होता तो मैं सुनने चला जाता और एक कोनेमें बैठकर आंख-कानको तृप्त करके वापस लौट आता। उन्होंने विद्यार्थियोंके संपर्कमें आनेके लिए एक मंडलकी भी स्थापना की थी। उसमें मैं जाया करता। दादाभाईकी विद्यार्थियोंके प्रति चिंता और दादाभाईके प्रति विद्यार्थियोंका आदर-भाव देखकर मुझे बड़ा आनंद होता। आखिर हिम्मत बाधंकर एक दिन वह पत्र दादाभाईको दिया। उनसे मिला। उन्होंने कहा- 'तुम जब कभी मिलना चाहो और सलाह मशविरा लेना चाहो, जरूर मिलना।' लेकिन मैंने उन्हें कभी तकलीफ न दी। बगैर जरूरी कामके उनका समय लेना मुझे पाप मालूम हुआ। इसलिए, उस मित्रकी सलाहके अनुसार, दादाभाईके सामने अपनी कठिनाइयोंको रखनेकी मेरी हिम्मत न हुई।

उसी अथवा और किसी मित्रने मुझे मि॰ फ्रेडेरिक पिंकटसे मिलनेकी सलाह दी। मि॰ पिंकट कंजरवेटिव दलके थे, लेकिन भारतीयोंके प्रति उनका प्रेम निर्मल और नि:स्वार्थ था। बहुत-से विद्यार्थी उनसे सलाह लेते। इसलिए मैंने एक पत्र लिखकर मिलनेको समय मांगा। उन्होंने मुझे समय दिया। मैं मिला। यह मुलाकात मैं आजतक न भूल सका। एक मित्रकी तरह वह मुझसे मिले। मेरी निराशाको तो उन्होंने हंसकर ही उड़ा दिया- "तुम क्यों ऐसा मानते हो कि हर आदमीके लिए फीरोजशाह होना जरूरी है? फीरोजशाह और बदरुद्दीन तो बिरले ही होते हैं। यह तो तुम निश्चय जानो कि एक मामूली मनुष्य प्रामाणिकता तथा उद्योगशीलतासे वकालतका पेशा अच्छी तरह चला सकता है। सब-के-सब मुकदमे कठिन और उलझे हुए नहीं होते। अच्छा, तुम्हारा सामान्य ज्ञान कैसा-क्या हैं?"

मैंने उसका जब परिचय दिया तब मुझे वह कुछ निराश-से मालूम हुए। किंतु वह निराशा क्षणिक थी। तुरंत ही फिर उनके चेहरेपर एक हंसीकी रेखा [ १०६ ]
दौड़ गई और बोले-

"तुम्हारी कठिनाईको अब मैं समझ पाया। तुम्हारा सामान्य ज्ञान बहुत ही कम है। तुम्हें दुनियाका ज्ञान नहीं है। इसके बिना वकीलका काम नहीं चलता। तुमने तो भारतका इतिहास भी नहीं पढ़ा। वकीलको मनुष्यस्वभावका परिचय होना चाहिए। उसे तो चेहरा देखकर आदमीको पहचानना आना चाहिए। दूसरे, हर भारतवासीको भारतवर्षके इतिहासका भी ज्ञान होना जरूरी है। यों वकालत के साथ इसका कोई संबंध नहीं है; किंतु उसका ज्ञान तुम्हें होना चाहिए। मैं देखता हूँ कि तुमने 'के' तथा 'मैलेसन' की १८५७ के गदरपर लिखी पुस्तक भी नहीं पढ़ी है। उसे तो फौरन् ही पढ़ लेना। मैं दो पुस्तकोंके नाम और बतलाता हूँ। उन्हें मनुष्यको पहचाननेके लिए जरूर पढ़ डालना।" यह कहकर उन्होंने लॅवेटर तथा शेमलपेनिककी 'मुख सामुद्रिक विद्या' (फिजियॉग्नामी) विषयक दो पुस्तकोंके नाम लिख दिये।

इन बुजुर्ग मित्रका मैंने खूब अहसान माना। उनके सामने तो एक क्षणके लिए मेरा डर भाग गया, किंतु बाहर निकलते ही फिर चिंता शुरू हुई। 'चेहरा देखकर आदमी पहचान लेना' इस वाक्यको गुनगुनाता और उन दो पुस्तकोंका विचार करता-करता घर पहुँचा। दूसरे ही रोज लॅवेटरकी पुस्तक खरीद ली। शेमलपेनिककी किताब उस दुकानपर न मिली। लॅवेटरकी पुस्तक पढ़ी तो सही; किंतु वह तो स्नेल की 'इक्विटी' की अपेक्षा भी कठिन मालूम हुई। दिलचस्पभी बहुत कम थी। शेक्सपियरके चेहरेका अध्ययन किया, लेकिन लंदनकी सड़कों पर घूमते-फिरते शेक्सपियरोंको पहचानकी शक्ति बिलकुल न पाई।

लॅवेटरकी पुस्तकसे मुझे ज्ञान नहीं मिला। मि॰ पिंकटकी सलाहकी अपेक्षा उनके स्नेहसे बहुत लाभ हुआ। उनकी हंसमुख तथा उदार मुखमुद्राने मेरे दिलमें जगह करली। उनके इस वचन पर, कि वकालत करनेके लिए फीरोजशाह मेहताके समान निपुणता, स्मरणशक्ति आदीकी आवश्यकता नहीं होती, प्रामाणिकता व श्रमशीलतासे काम चल जायगा, मेरा विश्वास बैठ गया। इन दो चीजोंकी पूंजी तो मेरे पास काफी थी। अतः दिलकी गहराईमें कुछ आशा बंधी।

'के' तथा 'मैलेसन' की पुस्तकको मैं विलायतमें न पढ़ पाया। किंतु [ १०७ ]
मैंने समय मिलते ही पहले उसीको पढ़ डालनेका निश्चय कर लिया था। दक्षिण अफ्रीकामें जाकर मेरा यह मनोरथ पूरा हुआ।

यों निराशामें आशाका थोड़ा-सा मिश्रण लेकर मैं कांपते पैरोंसे 'आसाम' स्टीमरसे बम्बई बन्दरपर उतरा। बन्दरपर समुद्र क्षुब्ध था। लॉंचमें बैठकर किनारेपर पहुंचना था।




भाग पहला समाप्‍त



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