सत्य के प्रयोग/ महाप्रदर्शिनी

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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अंतमें उन्होंने अमेरिका जानेका अपना निश्चय भी निबाहा। बड़ी मुश्किल से डेक या तीसरे दर्जेका टिकट प्राप्त कर सके थे। अमेरिकामें जब वह धोती और कुरता पहनकर निकले तो असभ्य पोशाक पहननेके जुर्ममें वह गिरफ्तार कर लिये गये थे। पर जहांतक मुझे याद है, बादमें वह छूट गये।

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महाप्रदर्शिनी

१८९० ई॰ में पेरिसमें एक महाप्रदर्शिनी हुई थी। उसकी तैयारियोंकी बातें मैं अखबारोंमें खूब पढ़ता था। इधर पेरिस देखनेकी तीव्र इच्छा तो थी ही। सोचा कि इस प्रदर्शिनी को देखने के लिए चला जाऊंगा तो दुहेरा लाभ हो जायगा। प्रदर्शिनी में एफिल टावर देखने का आकर्षण बहुत भारी था। यह टावर बिलकुल लोहेका बना हुआ हैं। एक हजार फीट ऊंचा है। इसके पहले लोगोंका खयाल था कि इतनी ऊंची इमारत खड़ी ही नहीं रह सकती। और भी अनेक बातें प्रदर्शिनी में देखने लायक थीं।

मैन कहीं पढ़ा था कि पेरिसमें अन्नाहार के लिए एक स्थान है। मैंने उसमें एक कमरा ले लिया। पेरिसतकका सफर गरीबीसे किया और वहां पहुंचा। सात दिन रहा। बहुत-कुछ तो पैदल ही चल कर देखा। पासमें पेरिस और उस प्रदर्शिनीकी गाइड तथा नकशा भी रखता था। उनकी सहायतासे रास्ते ढूंढकर मुख्य-मुख्य चीजें देख ली।

प्रदर्शिनीकी विशालता और विविधता के सिवा अब मुझे उसकी किसी चीजका स्मरण नहीं है। एफिल टावरपर तो दो-तीन बार चढ़ा था, इसलिए उसकी याद ठीक-ठीक है। पहली मंजिलपर खाने-पीनेकी सुविधा भी थी। इसलिए यह कहनेको कि इतनी ऊंचाईपर हमने खाना खाया, मैंने वहां भोजन किया और उसके लिए साढ़े सात शिलिंगको दियासलाई लगाई।

पेरिसके प्राचीन मंदिरोंकी याद अबतक कायम हैं। उनकी भव्यता और भीतरकी शांति कभी नहीं भुलाई जा सकती। नाट्रेडमकी कारीगरी और भीतरकी चित्रकारी मेरे स्मृति-पटपर अंकित है। यह प्रतीत हुआ कि जिन्होंने [ १०० ]
लाखों रुपये ऐसे स्वर्गीय मंदिरोंके बनानेमें खर्च किये, उनके हृदयके अंतस्तलमें कुछ-न-कुछ ईश्वर-प्रेम जरूर रहा होगा।

पेरिसका फैशन, वहांका स्वेच्छाचार और भोग-विलासका वर्णन खूब पढ़ा था और उसकी प्रतीति वहांकी गली-गलीमें होती जाती थी। परंतु ये मंदिर उन भोग-सामग्रियोंसे अलग छटक जाते थे। उनके अंदर जाते ही बाहरकी अशांति भूल जाती थी। लोगोंका बर्ताव ही बदल जाता था। वे अदबके साथ बरतने लग जाते थे। वहां शोर-गुल नहीं हो सकता। कुमारिका मरियमकी मूर्तिके सामने कोई-न-कोई जरूर प्रार्थना करता हुआ दिखाई देता। यह सब देखकर चित्तपर यहीं असर पड़ा कि यह सब वहम नहीं, हृदयका भाव है; और यह भाव दिन-ब-दिन बराबर पुष्ट होता गया। कुमारिकाकी मूर्तिके सामने घुटने टेककर प्रार्थना करनेवाले वे उपासक संगमरमरके पत्थरको नहीं पूज रहे थे; बल्कि उसके अंदर निवास करनेवाली अपनी मनोगत शक्तिको पूजते थे। मुझे आज भी कुछ-कुछ याद है कि उस समय मेरे चित्तपर इस पूजा का ऐसा असर पड़ा कि वे पूजन-द्वारा ईश्वरकी महिमा को घटाते नहीं, बल्कि बढ़ाते ही हैं।

एफिल टॉवरके विषयमें एक-दो बातें लिख देना जरूरी है। मुझे पता नहीं कि एफिल टॉवर आज किस मतलबको पूरा कर रहा है। प्रदर्शिनीमें जाने पर उसके वर्णन तो जरूर ही पढ़नेमें आते थे। उनमें उसकी स्तुति थी और निंदा भी थी। मुझे याद हैं कि निंदा करनेवालोंमें टॉलस्टॉय मुख्य थे। उन्होंने लिखा था कि एफिल टॉवर मनुष्यकी मूर्खताका चिह्न हैं, उसके ज्ञानका परिणाम नहीं। उन्होंने अपने लेखमें बताया था कि संसारके अनेक प्रचलित नशोंमें तंबाकूका व्यसन सबसे खराब है। जो कुकर्म करनेकी हिम्मत शराबके पीनेसे नहीं होती, वह बीड़ी पीकर आदमीको हो जाती है। शराब आदमीको पागल बना देती है, परंतु बीड़ी से तो उसकी बुद्धि पर कोहरा छा जाता है और वह हवाई किले बांधने लग जाता है। टॉलस्टॉयने अपना यह मत प्रदर्शित किया था कि एफिल टॉवर ऐसे ही व्यसन का परिणाम है।

एफिल टॉवरमें सौंदर्यका तो नाम भी नहीं हैं। यह भी नहीं कहा जा सकता कि उससे प्रदर्शिनीकी शोभा जरा भी बढ़ गई हो। एक नई भारी-भरकम चीज थी। और इसीलिए उसे देखने हजारों आदमी गये थे। यह टॉवर प्रदर्शिनी

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