सत्य के प्रयोग/ निरामिषाहारकी वेदीपर

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

[ २८७ ]अध्याय ६ : निरामिषाहारकी वेदीपर २६७

पर हमारा मिलाप ईश्वरको मंजूर न था ।

अपने पुत्रोंके लिए जो इच्छा उन्होंने प्रदर्शित की थी वह भी पूरी न हुई । भाई साहबने देशमें ही अपना शरीर छोड़ा था । लड़कोंपर उनके पूर्वजीवनका असर पड़ चुका था । उनके संस्कारोंमें परिवर्तन न हो पाया । मैं उन्हें अपने पास न खींच सका । इसमें उनका दोष नहीं है। स्वभावको कौन बदल सकता हैं ? बलवान संस्कारोंको कौन मिटा सकता है ? हम अक्सर यह मानते हैं कि जिस तरह हमारे विचारोंमें परिवर्तन हो जाता है, हमारा विकास हो जाता है, उसी तरह हमारे आश्रित लोगों या साथियोंमें भी हो जाना चाहिए; पर यह मिथ्या है । माता-पिता होनेवालोंकी जिम्मेदारी कितनी भयंकर है, यह बात इस उदाहरणसे कुछ समझमें आ सकती है । ६ निरामिषाहारकी वेदीपर जीवनमें ज्यों-ज्यों त्याग और सादगी बढ़ती गई और धर्म-जागृतिकी वृद्धि होती गई; त्यों-त्यों निरामिषाहारका और उसके प्रचारका शौक बढ़ता गया । प्रचार मैं एक ही तरहसे करना जानता हूं--आचारके द्वारा और आचारके साथ-ही-साथ जिज्ञासुके साथ वार्तालाप करके । जोहान्सबर्गमें एक निरामिषाहारी-गृह था । उसका संचालक एक जमेन था, जोकि कूनेकी जलचिकित्साका कायल था । मैंने वहां जाना शुरू किया और जितने अंग्रेज मित्रोंको वहां ले जा सकता था, ले जाता था; परंतु मैंने देखा कि यह भोजनालय बहुत दिनों तक नहीं चल सकेगा; क्योंकि रुपये-पैसेकी तंगी उसमें रहा ही करती थी । जितना मुझे वाजिब मालूम हुआ, मैंने उसमें मदद दी । कुछ गंवाया भी । अंतको यह बंद हो गया । थियॉसफिस्ट बहुतेरे निरामिपाहारी होते हैं; कोई पूरे और कोई अधूरे । इस मंडलमें एक बहन साहसी थी । उसने बड़े पैमानेपर एक निरामिष-भोजनालय खोला । यह बहन कला-रसिक थी, शाहखर्च थी, और हिसाब-किताबका भी बहुत खयाल न रखती थी । उसके [ २८८ ]________________

२६८ -कृथा : भाग ४ मित्र-मंडलकी संख्या अच्छी कही जा सकती थी। पहले तो उसका काम छोटे पैमाने पर शुरू हुआ; परंतु बादको उसने बढ़ानेका और बड़ी जगह ले जानेका निश्चय किया । इस काम उसने मेरी सहायता चाही' ! उस समय उसके हिसाबकिताबकी हालतका मुझे कुछ पता न था । मैंने मान लिया कि उसके हिसाब अौर अटकलमें कोई भूल न होग' ! मेरे पास रुपये-पैसेकी सुविधा रहती थी । बहतरे सवक्किलोंके रुपये मेरे पास रहते थे। उनमें से एक सज्जनकी इजाजत लेकर लगभग एक हजार पौंड मैने उसे दे दिया। यह मवविकल बड़े उदार-हृदय और विश्वासशील थे। वह पहले-पहल गिरमिट आये थे । उन्होंने कहा---- “भाई, आपका दिल चाहे तो पैसे दे दो। मैं कुछ नहीं जानता । मैं तो आप हीको जानता हूं ।' उनका नाम था बदरी । उन्होंने सत्याग्रहमें बहुत योग दिया था । जेल भी काटी थी। इतनी’ सम्मति पाकर ही मैंने उसमें रुपये ला दिये । दोतीन महीने में ही मैं जान गया कि ये रुपये वापस आनेवाले नहीं हैं। इतनी बड़ी रकम खो देने का सामर्थ्य मुझमें न था। मैं इस रकमको दूसरे काममें लगा सकता था। बह रकम आखिर उसी में डूब गई; परंतु मैं इस बातको कैसे गवारा कर सकता था कि उस विश्वासी बदरीका रुपया चला जाय ? वह तो मुझको ही पहचानता था । अपने पाससे मैंने यह रक्कम भर दी । एक भवक्किल मित्रसे मैंने रुपयेकी बात की। उन्होंने मुझे मीठा उलाहना देकर सचेत किया--- “भाई, (दक्षिण अफ्रीका में मैं ‘महात्मा' नहीं बन गया था और न ‘बापू ही बना था, मवक्किल मित्र मुझे 'भाई' से ही संबोधन करते थे ।) आपको ऐसे झगड़ोंमें न पड़ना चाहिए । हम तो ठहरे आपके विश्वासपर चलने वाले । ये रुपये अापको वापस नहीं मिलनेके । बदरीको तो आप बचालोगे; पर आपकी रकम अट्टे-खाते समझिए । पर ऐसे सुधारके कामोंमें यदि आप मवक्किलोंका रुपया लगाने लगेंगे तो भवक्किल बेचारे पिस जायंगे और आप भिखारी बनकर घर बैठ रहेंगे। इससे आपके सार्वजनिक कामको भी धक्का पहुंचेगा ।” | सद्भाग्यसे यह मित्र अभी मौजूद हैं। दक्षिण अफ्रीका तथा दूसरी जगह इनसे अधिक स्वच्छ आदमी' मैंने दूसरा नहीं देखा । किसी के प्रति यदि उनके मनमें संदेड उत्पन्न होता और बादको उन्हें मालूम हो जाता कि वह बे

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