सत्य के प्रयोग/ पहला मुकदमा

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय
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पहला मुकदमा

बंबईमें एक ओर कानूनका अध्ययन शुरू हुआ, दूसरी ओर भोजनके प्रयोग। उसमें मेरे साथ वीरचंद गांधी सम्मिलित हुए। तीसरी ओर भाई साहब मेरे लिए मुकदमे खोजने लगे।

कानून पढ़नेका काम ढिलाईसे चला। 'सिविल प्रोसिजर कोड' किसी तरह आगे नहीं चल सका। हां, कानून-शहादत ठीक चला। वीरचंद गांधी सालिसिटरीकी तैयारी करते थे, इसलिए वकीलोंकी बातें बहुत करते- 'फीरोजशाहकी योग्यता और निपुणताका कारण है उनका कानून-विषयक अगाध ज्ञान, कानून-शहादत तो उन्हें बर-जबान है। दफा बत्तीसका एक-एक मुकदमा वह जानते हैं। बदरुद्दीन तैयबजीकी बहस करने और दलीलें देनेकी शक्ति ऐसी अद्भुत हैं कि जज लोग भी चकित हो जाते हैं।'

ज्यों-ज्यों मैं ऐसे अतिरथी-महारथियों की बातें सुनता त्यों-त्यों मेरे छक्के छूटते।

"बैरिस्टर लोगोंका पांच-सात सालतक अदालतोंमें मारे-मारे फिरना कोई गैर-मामूली बात नहीं है। इसीसे मैंने सालिसिटर होना ठीक समझा है। तीन सालके बाद यदि तुम अपने खर्च-भरके लिए पैदा कर सको तो बहुत समझना।"

खर्च हर महीने चढ़ रहा था। बाहर बैरिस्टरकी तख्ती लगी रहती और अंदर बैरिस्टरी की तैयारी होती रहती। मेरा दिल इन दोनों बातोंमें किसी तरह मेल न बैठा सकता था। इस कारण मेरा अध्ययन बड़ी परेशानीमें चलता। मैं पहले कह चुका हूं कि कानून-शहादत में कुछ मेरा दिल लगा। मेनका 'हिंदू-लॉ' बड़ी दिलचस्पी के साथ पढ़ा। परंतु पैरवी करनेकी हिम्मत अभी न आई। किंतु अपना यह दुःख मैं किससे कहता? ससुरालमें आई नई बहूकी तरह मेरी हालत हो गई।

इतनेमें ही तकदीरसे ममीबाईका मुकदमा मुझे मिला। मामला स्माल काज कोर्ट में था। प्रश्न उपस्थित हुआ कि 'दलालको कमीशन देना पड़ेगा।' [ ११६ ]
मैंने साफ इन्कार कर दिया।

"परंतु फौजदारी अदालतके नामी वकील भी तो कमीशन देते हैं, जोकि तीन-चार हजार महीना कमा लेते है।

"मुझे उनकी बराबरी नहीं करना। मुझे तो ३००) मासिक मिल जायं तो बस। पिताजीको कहां इससे ज्यादा मिलते थे?"

"पर वह जमाना निकल गया। बंबईका खर्च कितना है? जरा व्यवहारकी बातोंको भी देखना चाहिए।"

पर मैं टस-से-मस न हुआ। कमीशन बिलकुल न देने दिया। ममीबाईका मुकदमा तो मिला ही। मुकदमा था आसान। मुझे ३०) मिहनताना मिला था। एक दिनसे ज्यादाका काम न था।

स्माल काज कोर्टमें पहले-पहल मैं पैरवी करने गया। मैं मुद्दालेकी तरफसे था, इसलिए मुझे जिरह करनी थी। मैं खड़ा हुआ; पर पैर कांपने लगे, सिर घूमने लगा। मुझे मालूम हुआ कि सारी अदालत घूम रही है। सवाल क्या पूछूं, यह सूझ नहीं पड़ता था। जज हंसा होगा। वकीलोंको तो मजा आया ही होगा। पर उस समय मेरी आंखें यह सब कहां देख सकती थीं?

मैं बैठ गया। दलालसे कहा कि मैं इस मामलेकी पैरवी न कर सकूंगा। तुम पटेलको वकालतनामा दे दो और अपनी यह फीस वापस ले लो। उसी दिन ५१) देकर पटेल साहबसे तय कर दिया। उनके लिए तो यह बायें हाथका खेल था।

मैं वहांसे सटका। पता नहीं, मवक्कील हारा या जीता। मैं बड़ा लज्ज़ित हुआ। निश्चय किया कि जबतक पूरी-पूरी हिम्मत न आजाय, तबतक कोई मुकदमा न लूंगा। और दक्षिण अफ्रीका जानेतक अदालतमें न गया। इस निश्चयमें कोई बल न था। हारनेके लिए कौन अपना मुकदमा मुझे देता? अतः मेरे इस निश्चयके बिना भी कोई मुझे पैरवी करने आनेका कष्ट न देता।

पर बंबईमें अभी एक और मुकदमा मिलना बाकी था। इसमें सिर्फ अर्जी लिखनी थी। एक मुसलमानकी जमीन पोरबंदरमें जब्त हो गई थी। मेरे पिताका नाम वह जानता था। और इसलिए वह उनके बैरिस्टर पुत्रके पास आया था। मुझे उसका मामला कमजोर मालूम हुआ, परंतु मैंने अर्जी लिख देना मंजूर कर लिया। छपाईका खर्च मवक्किलसे ठहराकर मैंने अर्जी तैयार [ ११७ ]
की। मित्रोंको दिखाई। उन्होंने उसे पास किया, तब मुझे कुछ विश्वास हुआ कि हां अब अर्जियां लिख लेने लायक हो जाऊंगा, और इतना तो हो भी गया था।

पर मेरा काम बढ़ता गया। यों मुफ़्त में अर्जियां लिखते रहनेसे अर्जियां लिखनेका मौका तो मिलता; पर उससे घर-गिरस्तीके खर्चका सवाल कैसे हल हो सकता था?

मैंने सोचा कि मैं शिक्षणका काम तो अवश्य कर सकता हूं। अंग्रेजी मेरी अच्छी थी। इसलिए, यदि किसी स्कूलमें मैट्रिक क्लासको अंग्रेजी पढ़ाने अवसर मिले तो अच्छा हो। कुछ तो आमदनी हुआ करेगी।

मैंने अखबारों में पढ़ा- 'चाहिए, अंग्रेजी शिक्षक। रोज एक घंटे के लिए। वेतन ७५)।' यह एक प्रख्यांत हाईस्कूलका विज्ञापन था। मैंने दरख्वास्त दी। रूबरू मिलनेका हुक्म मिला। मैं बड़ी उमंगसे गया। पर जब आचार्यको मालूम हुआ कि मैं बी॰ ए॰ नहीं हूं तब उन्होंने मुझे दु:खके साथ वापस लौटा दिया।

"पर मैंने लंदनमें मैट्रिक पास किया है। मेरी दूसरी भाषा लैटिन थी।"

"सो तो ठीक, पर हमें ग्रेजुएटकी ही जरूरत है।"

मैं लाचार रहा। मेरे हाथ-पांव ठंडे हो गये। बड़े भाई भी चिंतामें पड़े। हम दोनोंने सोचा कि बंबईमें अधिक समय गंवाना फिजूल है। मुझे राजकोटमें ही सिलसिला जमाना चाहिए। भाई खुद एक वकील थे। अर्जियां लिखनेका कुछ-न-कुछ तो काम दिला ही सकेंगे। फिर राजकोटमें घर भी था। वहां रहनेसे बंबई का सारा खर्च कम हो सकता था। मैंने इस सलाहको पसंद किया। पांच-छः महीने रहकर बंबईसे डेरा-डंडा उठाया।

बंबई रहते हुए मैं रोज हाईकोर्ट जाता। पर यह नहीं कह सकता कि वहां कुछ सीख पाया। इतना ज्ञान न था कि सीख सकता। कितनी ही बार तो मुकदमेमें कुछ समझ ही नहीं पड़ता, न दिल ही लगता। बैठे-बैठे झोंके भी खाया करता। और भी झोंके खानेवाले यहां थे- इससे मेरी शर्मका बोझ हलका हो जाता। आगे चलकर मैं यह समझने लगा कि हाईकोर्टमें बैठे-बैठे नींदके झोंके खाना एक फैशन ही समझ लेना चाहिए। फिर तो शर्मका कारण ही न रह गया।

यदि इस युगमें बंबईमें मुझ जैसे कोई बेकार बैरिस्टर हों तो उनके लिए

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