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सत्य के प्रयोग/ पहली रात

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सत्य के प्रयोग
मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

पृष्ठ ३२६ से – ३२८ तक

 

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रन-कथइ । झाग ४ उनको राजी वर लेना बड़ा कठिन काम था । परंतु कितने ही लोगोंको मेरी बात जंच गई। इन सबमें से आज तो मगनलाल गांधोका नाम मैं चुनकर पाठकांके सामने रखता हूं, क्योंकि दूसरे लोग जो राजी हुए थे, वे थोड़े-बहुत समय फिनिसमें रहकर फिर धन-संचयके फेरों पड़ गये । मानलाल गांधी तो अपना काम छोड़कर जो मेरे साथ आये, तो अबतक रह रहे हैं और अपने बुद्धि-लहे, त्याग, शक्तिले एवं अनन्य भवित भादसे मेरे अतरिक प्रयोगों में मेरा साथ देते हैं एवं मेरे मूल साथियों में आज उनका स्थान में प्रधान है। फिर एक स्वयं-शिक्षित कारीगरी रूपमें तो उनका स्थान भेरी दृष्टिमें अद्वितीय है । | इस तरह १९०४ ईस्वी फिनिक्सकी स्थापना हुई और विघ्नों और कठिनाइयोंके रहते हुए भी फिनिक्स-संस्था एवं 'इंडियन भोपीनियन' दोनों आजतक चल रहे हैं। परंतु इस संथाके आरंभ-कालकी मुसीबतें और उस समयको झाश-निराशाएं जानने लायक हैं। उनपर हम अगले अध्यायमें विचार करेंगे । पहली रात फिनिक्समें 'इंडियन ओपीनियनका पहला अंक प्रकाशित करना शासन, साबित न हुआ । र्याद दो बातों में मैंने पहले ही सावधानी न रही होती तो अंक एक सप्ताह बंद रहता था देरले निकलता है इस संस्थामें मेरी यह इच्छा कम ही रही थी कि जिनसे चलने वाले यंत्रादि मंगाये जायं । मेरी भावनई यह थी, कि जब हम खेती भी खुद हायसे ही करनेकी चाह रखते हैं तब फिर छापेको कल भी ऐसी ही लाई जाय जो हाथसे चल सके। पर उस समय यह अनुभव हुन्ना कि यह बात सध न सके । इसलिए अॉयल एजिन मंगाया गया था। परंतु मुझे यह खटका रहा कि कहीं वहांपर यह एंजिन बंद न हो जाय । सो मैंने वेस्टको सुझाव कि ऐसे समयके लिए कोई ऐसे कामचलाऊ साधन भी हम अभी से जुट रखें तो अच्छा । इसलिए उन्होंने हाथ चलातेको भी एक पहिया मंगा रक्खा था और ऐसी तजवीज कर रखी थी कि मौका पड़नेपर उससे छापेकी कल चलाई जा सुचे। फिर 'इंडियन ओपीनियनका आकार दैनिकपत्रके बराबर लंबा-चौड़ ________________

अध्याय २० : पहली रात था । और यदि बड़ी कल अड़ जाय तो ऐसी सुविधा वहां नहीं थी कि इतने बड़े कारका पत्र तुरंत छापा जा सके। इसने पत्रके उन अंक बंद रहनेका ही अंदेड या । इस दिक्कतको दूर करनेके लिए अखबारका प्रकार छोटा कर दिया कि कठिनाईके समयपर छोटी केलको भी पांव चलाकर अङ्गवार, थोड़े ही पन्ने क्यों न हो, प्रकाशित हो सके । । अभ-कालमें 'इंडियन ओपीनियन की प्रकाशन-तिथिक अली को सवको थोड़ा-बहुत जागरण करना ही पड़ता था । पत्रको भने छोटे-बड़े सब लग जाते और रातको दस-बारह बजे यह काम खत्म होता है परंतु पहली रात तो इस प्रकार की बीवी जिसे कभी नहीं भूल सकते । पन्नोंका चौखटा तो मशीपर कस गया, पर एंजिन अड़ गय; उसने चलनेसे इन्कार कर दिया । एजिनको जाने और चलानेके लिए एक इंजिनियर बुलाया गया था। उसने अौर वेस्टर्न खुब माथा-पच्ची क; पर एंजिन टस-से-दस न हुआ । नब सब चितामें अपना-सा मुंह लेकर बैठ गये । अंतको बेस्ट निराश होकर मेरे पास शाये । उनकी आंखें सुझसे छलछला रही थीं। उन्होंने कहा, “अब आज तो एं जिनके चलनेकी आशा नहीं और इस सुप्ताह हुन अखबार सयपर न निकाल सकेन ।'

  • अगर यही बात है तब से अपना कुछ दम नहीं, पर इस तरह आंसू बहाने की कोई आवश्यकता नहीं है और कुछ कोशिश कर सकते हों तो कर देखें ! हां, वह हाथमे चलानेका पहिया जो हमारे पक्ष रखा है, वह किम दिन का शायेगा ? यह कहकर मैंने उन्हें शाश्वासन दिया ।

वेस्टने कहा- “पर उस पहियेको चलानेवाले अादमी हमारे पास कहां हैं ? हम लोग जितने हैं उनसे यह नहीं चल सकता है उसे चलानेके लिए बारी-बारीसे चार-चार भादमियोंकी जरूरत है । और इधर हम लोग थक भी । चुके हैं।" बट्टई लोगोंका काम अभी पूरा नहीं हुआ था, इससे वे लो अभी छापेखाने ही सो रहे थे। उनकी तरफ इशारा करके मैंने कहा--- "ये मिस्त्री लौग मौजूद हैं। इनकी मदद क्यों न लें ? और भाजकी रातभर हम सब जागकर छापनेकी कोशिश करेंगे । बस इतना ही कर्तव्य हमारा और बाकी रह जाता है । ________________

आत्म-कथा : भाग ४

  • सिस्त्रियको जगानेकी र उनसे मदद मांगनेकी मेरी हिम्मत नहीं होती । और हमारे जो लोग थक गये हैं उन्हें भी कैसे कहूं ? '
  • यह काम मेरे जिम्में रहा । " मैने कहा ।। “तब तो मुमकिन है कि सफल मिल जाय ।'

मैंने मिस्त्रियोंको जगाया और उनकी मदद मांगी । नुने उनकी निन्नाखुद नहीं करनी पड़ी । उन्होंने कहा- “वाह ! ऐसे बात हम यदि काम न प्रायें तो हम शादमी ही क्या ? आप न कीजिए, हम लोः पहिया चला। देंगे । हमें इसमें कुछ मिहना नहीं हैं। और इधर छापेखानेके लोग तैयार थे ही है : | अब तो देके हईकी सीमा में रहीं। वह काम करते-करते भजन गाने लगे । घोड़ा चलने में मैंने भी मिस्त्रियोंका साथ दिया और दूसरे लोग भी बारी-बारी चलाने लगे। साथ ही पसे भी छपने लगे ।। सुबह सात बजे हों । मैंने देखा कि अभी बहुत काम बाकी पड़ा है। मैंने बेस्टसे कहा-- * अब हुम इंजिकि क्यों न जगा लें ? अब दिनकी रोशनी में बह और सिर खपाकर देखे तो अच्छा हो। अगर एंजिन चल जाय तो । अपना काम समयपर पूरा हो सकता है । | वेस्टर्न इंजिनियरको जगाया । वह उठ खड़ा हुआ और एंजिनके कमरेमें गया। शुरू करते ही एंजिन चल निकला । प्रेस हर्षनाद गुंज उठा । सव कहने लगे, “यह कैसे हो गया ? रातको इतनी मिहनत करने पर भी नहीं चला और अब हाथ लगते ही इस तरह चल पड़ा, मानो कुछ बिगड़ा ही न था । | वेस्टर्न या इंजिनियरने जवा दिया--- " इसका उत्तर देता कठिन है । ऐसा जान पड़ता है, मानो यंत्र भी हमारी तरह से चाहते हैं। कभी-कभी तो उनकी हालत ऐसी ही देखी जाती हैं ।” | मैंने तो यह माना कि एंजिनका न चलना इमारी परीक्षा थी और ऐन मौकेपर उसका चल जाना हमारी शुद्ध मितिका शुभ फल था। : इसका परिणाम यह हु कि 'इंडियन ओनियन' नियत समयपर स्टेशन पहुंच गया और हम सब निश्चित हुए। .:. हमारे इस आग्रहका फल यह हुआ कि 'इंडियन ओपीनियम' की नियमिलताकी छाप लोगोंके दिलपर पड़ी और फिनिक्समें मेहनतका वातावरण

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