सत्य के प्रयोग/ बैरिस्टर तो हुए-लेकिन आगे

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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का एक खिलौना था। और वह इस बातको बड़ी अच्छी तरह सिद्ध कर रहा था कि जबतक हम मोहाधीन हैं तबतक हम भी बालक ही हैं। बस, इसे भले ही हम उसकी उपयोगिता कह लें।

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बैरिस्टर तो हुए-लेकिन आगे

परंतु जिस कामके लिए, अर्थात् बैरिस्टर बननेके लिए मैं विलायत गया था, उसका क्या हुआ? मैंने उसका वर्णन आगेके लिए छोड़ रक्खा था। पर अब उसके संबंधमें कुछ लिखनेका समय आ पहुंचा हैं।

बैरिस्टर बननेके लिए दो बातें आवश्यक थीं-एक तो 'टर्म' भरना, अर्थात् सत्रोंमें आवश्यक हाजिरी होना; और दूसरे कानूनकी परीक्षामें शरीक होना। सालमें चार सत्र होते थे। वैसे बारह सत्रोंमें हाजिर रहना जरूरी था। सत्रमें हाजिर रहनेके मानी हैं 'भोजोंमें उपस्थित रहना।' हरेक सत्रमें लगभग २४ भोज होते हैं, जिनमेंसे छ:में हाजिर रहना जरूरी था। भोजमें जानेसे यह मतलब नहीं कि वहां कुछ खाना ही चाहिए; सिर्फ निश्चित समयपर वहां हाजिर हो जाना और जबतक वह चलता रहे वहां उपस्थित रहना काफी था। आमतौरपर तो सभी विद्यार्थी उसमें खाते-पीते हैं। भोजनमें अच्छे-अच्छे पकवान होते और पेयमें ऊंचे दरजेकी शराब। दाम अलबत्ता देने पड़ते थे। पर यह ढाई या तीन शिलिंगके करीब, अर्थात् दो या तीन रुपयेसे ज्यादा नहीं होता था। यह रकम वहां बहुत ही कम समझी जाती थी; क्योंकि बाहरके किसी भी भोजनालयमें भोजन करनेवालेको तो सिर्फ शराबके लिए ही इतने दाम देने पड़ते थे। भोजनके खर्चकी बनिस्बत शराब पीनेवालेको शराबके ही दाम अधिक लगते हैं। हिंदुस्तान में-यदि हम नये ढंगके सुधारक न हों तो-हमें यह बड़ा ही आश्चर्यजनक मालूम होगा। विलायत जानेपर जब यह बात मालूम हुई तो मेरे दिलको बड़ी चोट पहुंची। मैं नहीं समझ सका कि शराबके पीछे इतने रुपये खर्च करनेको लोगोंका जी कैसे होता है। पर पीछे मैं उनका रहस्य समझने लगा। शुरूमें तो मैं ऐसे भोजोंमें कुछ भी नहीं खाता था; क्योंकि मेरे कामकी चीज तो वहां [ १०२ ]
केवल रोटी, उबाले हुए आलू या गोभी ही हो सकती थी। शुरूमें तो वे भी अच्छे न लगते थे, इसलिए मैं नहीं खाता था। बादको जब वे मुझे स्वादिष्ट लगने लगे तब तो मुझे दूसरी चीजें प्राप्त करनेका भी सामर्थ्य प्राप्त हो चुका था।

विद्यार्थियोंके लिए एक प्रकारका खाना होता था और बेंचरों (विद्यामंदिरके अध्यापकों) के लिए दूसरे प्रकारका और भारी खाना होता था। मेरे साथ एक पारसी विद्यार्थी थे। वह भी निरामिष भोजी बन गये थे। हम दोनोंने मिलकर बेंचरोंके भोजनके पदार्थोंमेंसे निरामिष भोजियोंके खाने योग्य पदार्थ प्राप्त करनेके लिए प्रार्थना की। वह मंजूर हुई, और हमें बेंचरोंके टेबलसे फलादि और दूसरे शाक भी मिलने लगे।

शराबको तो मैं छूतातक न था। चार-चार विद्यार्थियोंमें शराबकी दो-दो बोतलें दी जाती थीं। इसलिए ऐसी चौकड़ियोंमें मेरी बड़ी मांग होती थी। क्योंकि मैं शराब नहीं पीता था, इसलिए दो बोतले शेष तीनोंमें उड़ सकती थीं। फिर इन सत्रोंमें एक बड़ी रात (ग्रैंड नाइट) भी होती थी। उस दिन 'पोर्ट' और 'शेरी' के अलावा 'शेम्पेन' भी मिलती थी। शेम्पेनका मजा कुछ और ही समझा जाता है। इसलिए इस बड़ी रातको मेरी कीमत अधिक आंकी जाती थी, और उस रातको हाजिर रहनेके लिए मुझे निमंत्रण भी दिया जाता।

इस खाने-पीनेसे बैरिस्टरीकी पढ़ाईमें क्या अधिकता हो सकती है, यह मैं न तब समझ सका था और न आज ही समझ सका हूं। हां, ऐसा एक समय अवश्य था कि जब ऐसे भोजोंमें बहुत ही थोड़े विद्यार्थी होते थे। तब उनमें और बेंचरों में वार्तालाप होता और व्याख्यान भी दिये जाते थे। इसमें उन्हें व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त हो सकता था, भली-बुरी पर एक प्रकारकी सभ्यता वे सीख सकते थे और व्याख्यान देनेकी शक्तिका विकास कर सकते थे। किंतु मेरे समयमें तो यह सब असंभव हो गया था। बेंचर तो दूर अछूत होकर बैठते थे। इस पुराने रिवाजका बादमें कुछ भी अर्थ नहीं रह गया था, फिर भी प्राचीनता-प्रेमी- धीमे- इंग्लैंडमें वह अभीतक चला आ रहा है।

कानूनकी पढ़ाई आसान थी। बैरिस्टर विनोदमें 'डिनर बैरिस्टर' के नामसे पुकारे जाते थे। सभी जानते थे कि परीक्षाका मूल्य नहींके बराबर है। मेरे समयमें दो परीक्षाएं होती थीं। रोमन-लॉकी और इंग्लैंडके कानूनों की। [ १०३ ]
यह परीक्षा दो बार करके दी जाती थी। परीक्षाके लिए पुस्तकें नियत थीं, परंतु उन्हें शायद ही कोई पढ़ता होगा। रोमन लॉके लिए तो छोटे-छोटे 'नोट्स' लिखे हुए मिलते थे। उन्हें पंद्रह दिनमें पढ़कर पास होनेवालोंको भी मैंने देखा है। इंग्लैंडके कानूनोंके विषयमें भी यही बात होती थी। उनके 'नोट्स' दो-तीन महीनेमें पढ़कर पास होनेवाले विद्यार्थियोंको भी मैंने देखा है। परीक्षाके प्रश्न आसान और परीक्षक भी उदार। रोमन लॉमें ९५ से ९९ प्रति सैकड़ा विद्यार्थी पास होते थे; और अंतिम परीक्षमें ७५ अथवा उससे भी कुछ अधिक। इसलिए फेल होनेका भय बहुत ही कम रहता था। और परीक्षा भी वर्षमें एक नहीं बल्कि चार बार होती थी। ऐसी सुविधाजनक परीक्षा किसीको भी बोझ नहीं मालूम हो सकती थी।

परंतु मैने अपने लिए उसे एक बोझ बना लिया था। मैंने सोचा कि मुझे तो मूल पुस्तकें सब पढ़ लेनी चाहिए। उन्हें न पढ़ना अपनेआपको धोखा देना प्रतीत हुआ। इसलिए काफी खर्च करके मूल पुस्तकें खरीद लीं। रोमन लॉको लैटिनमें पढ़ जानेका निश्चय किया। विलायतकी प्रवेश-परीक्षामें मैंने लैटिन पढ़ी थी। उससे यहां अच्छा फायदा हुआ। यह मिहनत व्यर्थ न गई। दक्षिण अफ्रीकामें रोमन-डच लॉ प्रमाणभूत माना जाता है। उसे समझनेमें मुझे जस्टीनियनका अध्ययन बड़ा ही उपयोगी साबित हुआ।

इंग्लैंडके कानूनोंका अध्ययन मैं काफी मिहनत करनेपर नौ महीनेमें पूरा कर सका था। क्योंकि ब्रुमकी 'कॉमन लॉ' नामक बड़ी परंतु सरस पुस्तक पढ़नेमें ही बहुत समय लगा था। स्नेल की 'इक्विटीमें' दिल तो लगा; परंतु समझनेमें दम निकल गया। व्हाइट और ट्यूडरके मुख्य मुकदमोंमें जो-जो पढ़नेके थे उन्हें पढ़नेमें आनंद भी आया और ज्ञान भी मिला। विलियम्स और एडवर्ड्सकी स्थावर-संपति संबंधी और गुडीकी जंगम संबंधी पुस्तक मैं बड़ी दिलचस्पीके साथ पढ़ सका था। विलियम्सकी पुस्तक तो मुझे उपन्यासके जैसी मालूम हुई। उसे पढ़ते हुए छोड़नेको जी नहीं चाहता। कानूनी पुस्तकोंमें हिंदुस्तान आनेके बाद, मैं मेइनका 'हिंदू लॉ' उतनी ही दिलचस्पीके साथ पढ़ सका था, परंतु हिंदुस्तानके कानूनोंकी बात करनेके लिए यह स्थान नहीं है।

परीक्षायें पास कीं। १० जून १८९१ ई॰ को मैं बैरिस्टर हुआ। ग्यारहवीं

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