सामग्री पर जाएँ

सत्य के प्रयोग/ सादगी

विकिस्रोत से
सत्य के प्रयोग
मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

पृष्ठ २३३ से – २३५ तक

 
सादगी

भोग भोगने का आरंभ तो मैंने किया; पर यह टिक न सका। टीमटाम की साधन-सामग्री मैंने जुटाई तो; परंतु उसके मोह में में नहीं फंसा था। इसलिए एक और घर-गृहस्थी बनाते ही मैंने दूसरी ओर खर्च कम करने की शुरूआत की। धुलाई का खर्च भी ज्यादा मालूम हुआ है फिर धोवी नियमित रूप से कपड़े न लाता, इस कारण दो-तीन दर्जन कमीज और इतने ही कालर से भी काम न चलता। कालर रोज बदला जाता था; कमीज रोज नहीं तो तीसरे दिन जरूर बदलनी पड़ती। इस तरह दोहरा खर्च लगता। यह मुझे व्यर्थ मालूम हुआ। इसलिए घर पर ही धोने की चीजें मंगाई। धुलाई-विद्या की पुस्तक पढ़कर धोना सीख लिया और पत्नी को भी सिखा दिया। इससे काम का कुछ बोझ तो बढ़ा; पर एक नई चीज थी, इसलिए मनोविनोद भी होता।

पहले-पहल जो कालर मैंने धोया उसे मैं कभी न भूल सकूंगा। इसमें कल्प ज्यादा था, और इल्तिरी पूरी गरम न थी। फिर कालर के जल जाने के भय से इस्तिरी ठीक-ठीक दबाई नहीं गई थी। इस कारण कालर कड़ा तो हो गया; पर उसमें से कलप झिरता रहता था।

ऐसा ही कालर लगाकर मैं अदालत में गया और वहां बैरिस्टरों के मजाक का साधन बन गया; परंतु ऐसी हंसी-दिल्लगी को सहन करने की क्षमता मुझमें उस समय भी कम न थी।

“कालर हाथ से धोने का यह पहला प्रयोग हैं, इसलिए उसमें से कलप झिर रहा है; पर मेरा इसमें कुछ हर्ज नहीं होता। फिर आप सब लोगों के इतने विनोद का कारण हुआ यह विशेष बात है।" मैंने स्पष्टीकरण किया।

“ पर धोबी क्या नहीं मिलते ?" एक मित्र ने पूछा।

"यहां धोबी का खर्च मुझे नागवार हो रहा है। कालर की कीमत बराबर धुलाई का खर्च---और फिर भी धोबी की गुलामी बरदाश्त करनी पड़ती है, सो जुदी। इसके बनिस्बत तो मैं घरपर हाथ से धो लेना ही ज्यादा पसंद करता
हूं।

किंतु यह स्वावलंबन की खूबी में मित्रों को न समझा सका।

मुझे कहना चाहिए कि अंत को मैंने अपने काम के लायक कपड़े धोने की कुशलता प्राप्त करली थी और मुझे कहना चाहिए कि धोबी की धुलाई से घर की धुलाई किसी तरह घटिया नहीं रहती थी। कालर का कड़ापन और चमक धोबी के धोये कालर से किसी तरह कम न थी।

गोखले के पास स्व० महादेव गोविंद रानडे का प्रसाद-स्वरूप एक दुपट्टा, था। गोखले उसे बड़े जतन से रखते और प्रसंग-विशेषपर ही उसे इस्तेमाल करते। जोहान्सबर्ग में उनके स्वागत के उपलक्ष्य में जो भोज हुआ था, वह अवसर बड़े महत्त्व का था। दक्षिण अफ्रीका में यह उनका सबसे बड़ा भाषण था। इसलिए इस अवसर पर यह दुपट्टा डालना चाहते थे। उसमें सिलवटें पड़ गई थी और इस्तिरी करने की जरूरत थी! धोबी के यहां भेजकर तुरंत इस्तिरी करा लेना संभव न था। मैंने कहा--" जरा मेरी विद्या को भी अजमा लीजिए।

“तुम्हारी वकालत पर में विश्वास कर सकता हूं; पर इस दुपट्टेपर तुम्हारी धुलाई-कला की अजमाइश न होने दूंगा। तुम कहीं इसे दाग दो तो ? जानते हो, इसका कितना मूल्य है ? यह कहकर उन्होंने अति उल्लास से इस प्रसादी की कथा मुझे कह सुनाई ।।

मैंने आजिजी के साथ दाग न पड़ने देने की जिम्मेदारी ली। फलतः मुझे इस्तिरी करने की इजाजत मिल गई और बाद को अपनी कुशलता का प्रमाण-पत्र भी मुझे मिला। अब यदि दुनिया मुझे प्रमाण-पत्र न दे तो इससे क्या ?

जिस तरह मैं धोबी की गुलामी से छूटा, उसी तरह नाई की गुलामी भी छुटने का अवसर आ गया। हाथ से दाढ़ी बनाना तो विलायत जानेवाले सभी सीख लेते हैं, पर मुझे खयाल नहीं कि बाल काटना भी कोई सीख लेते हों। प्रिटोरिया में एक बार में अंग्रेज नाई की दूकानपर गया। उसने मेरे बाल काटने से साफ इन्कार कर दिया और ऐसा करते हुए तिरस्कार प्रदर्शित किया सो अलग। मुझे बड़ा ही दुःख हुआ। में सीधा बाजार में पहुंचा। बाल काटने की कैची खरीदी और आइने के सामने खड़े रहकर अपने बाल काट डाले। बाल ज्यों-त्यों कटे तो; पर पीछे के बाल काटने में बड़ी दिक्कत पेश आई। फिर भी जैसे चाहिए न कट
पाये। यह देखकर अदालत में खूब कहकहा मचा।

“ तुम्हारे निरपर छबूंदर तो नहीं फिर गई ? "

मैंने कहा--" नहीं, मेरे काले तिरको गोरा नाई कैसे छू सकता है ? इस कारण जैसे-तैसे हाथ-कटे बाल ही मुझे अधिक प्रिय हैं।”

इस उतर से मित्रों को आश्चर्य हुआ। सच पूछिए तो उस नाई का कसूर न था। यदि वह श्यामवर्ग लोगों के बाल काटने लगता तो उसकी रोजी चली जाती। हम भी तो वहां अछूतों के बाल उच्च वर्ग के नारियों से कटवाने देते हैं ? इसका बदला मुझे दक्षिण अफ्रीका एक बार नहीं, बहुत बार मिला है। और मेरा यह खयाल बना है कि यह हमारे ही दोष का फल हैं। इसलिए इस बातपर मुझे कभी रोष नहीं हुआ।

स्वावलंबन और सादगी के मेरे इस शौक ने आगे जाकर जो तीन स्वरूप ग्रहण किया, उसका वर्णन तो यथा-प्रसंग होगा; परंतु उसका मूल पुराना था। उसके फलने-फूलने के लिए सिर्फ सिचाई की आवश्यकता थी और वह अवसर अनायास ही मिल गया था ।

१०
बोअर-युद्ध

१८९७ से ९९ ई० तक के जीवन के दूसरे कई अनुभवों को छोड़कर अब बोअर-युद्ध पर आता हूं। जब यह युद्ध छिड़ा तब मेरे मनोभाव बिलकुल दोअरो के पक्ष में थे; पर मैं यह मानता था कि ऐसी बातों में व्यक्तिगत विचारों के अनुसार काम करने का अधिकार अभी मुझे प्राप्त नहीं हुई है। इस संबंधों को मंथन मेरे हृदय हुआ, उसका सूक्ष्म निरीक्षण मैंने दक्षिण की यात्रा इतिहास में किया है। इसलिए यहां लिखने की आव्श्यकता नहीं! नियोजन.. की इच्छा हो वे उस पुस्तक को पढ़ लें। यहां तो इतना ही कहना काफ़ी है कि ब्रिटिश राज्य के प्रति मेरी वफादारी मुझे उस युद्ध में योग देने के लिए जबरदस्ती

* यह पुस्तक ‘सस्ता साहित्य अण्डल' से प्रकाशित हुई हैं
 

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।