सत्य के प्रयोग/ हिंदुस्तानमें

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय
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हिंदुस्तान में

कलकत्ता से बंबई जाते हुए रास्ते प्रयाग पड़ता था। वहां ४५ मिनट गाड़ी खड़ी रहती थी। मैंने सोचा कि इतने समय जरा शहर देख आऊं। मुझे दावारोश के यहां से दवा भी लेनी थी। दवाफरोश ऊंघता हुआ बाहर आया। दवा देने में बड़ी देर लगा दी। ज्योंही में स्टेशन पर पहुंचा, गाड़ी चलती हुई दिखाई दी। भले स्टेशन मास्टर ने गाड़ी एक मिनट रोकी भी; पर फिर मुझे वापस न आता देखकर मेरा सामान उतरवा लिया।

मैं कलनेर के-होटल में उतरा और यहां से अपना काम शुरू करने का निश्चय किया। यहां के पायोनियर पत्र की ख्याति मैंने सुनी थी। भारत की आकांक्षाओं का वह विरोधी था, यह में जानता था। मुझे याद पड़ता हैं कि उस समय मि० चेजनी (छोटे) उसके संपादक थे। मैं तो सब पक्ष के लोगों से मिलकर सहायता प्राप्त करना चाहता था। इसलिए मि० चेजनी को मैंने मिलने के लिए पत्र लिखा। अपनी ट्रेन छूट जाने का हाल लिखकर सूचित किया कि कल ही मुझे प्रयाग से चला जाना है। उत्तर में उन्होंने तुरंत मिलने के लिए बुलाया। मैं खुश हुआ। उन्होंने गौरो से मेरी बातें सुनीं। 'आप जो कुछ लिखेंगे, मैं उसपर तुरंत टिप्पणी करूंगा,' यह आश्वासन देते हुए उन्होंने कहा--- "पर मैं आपसे यह नहीं कह सकता कि आपकी सब बातों कों में स्वीकार कर सकेंगा। औपनिवेशिक दृष्टि बिंदु भी तो हमें समझना देखना चाहिए न ?'

मैंने उत्तर दिया--"आप इस प्रश्न का अध्ययन करें और अपने पत्र में इसकी चर्चा करते रहें, यही मेरे लिए काफी है। शुद्ध न्याय के अलावा में और कुछ नहीं चाहता।"

शेष समय प्रयाग के भव्य त्रिवेणी-संगम के दर्शन और अपने काम के विचारों या।

इस आकस्मिक मुलाकात ने नेटाल में मुझपर हुए हमले का बीजारोपण किया। [ १९२ ]बंबई से बिना कहीं रुके सीधा राजकोट गया और एक पुस्तिका लिखने कीं तैयारी की; उसे लिखने तथा छपाने में कोई एक महीना लग गया। उसका मुखपृष्ठ हरे रंग का था; इस कारण वह बाद मे 'हरी पुस्तिका' के नाम से प्रसिद्ध हो गई थी। उसमें मैने दक्षिण-अफ्रीका के हिंदुस्तानियों की स्थिति का चित्र खींचा था; और सोच-समझकर उसमें न्यूनोक्ति से काम लिया था। नेटाल की जिन पुस्तिकाओं का जिक्र मैं ऊपर कर चुका हूं, इसमें उनसे नरम भाषा इस्तैमाल की गई थी; क्योंकि मैं जानता हूं कि छोटा दुःख भी दूरसे देखते हुए बड़ा मालूम होता है।

‘हरी पुस्तिका'की दस हजार प्रतियां छपवाई और सारे हिंदुस्तान के अखबारों को तथा भिन्न-भिन्न दलों के मशहूर लोगों को भेजीं। ‘पायोनियर' में उसपर सबसे पहले लेख प्रकाशित हुआ। उसका सारांश विलायत गया और उस सारांश का सार फिर रूटर की गार्फत नेटाल गया। यह तार सिर्फ तीन लाइन का था। वह नेटाल के हिंदुस्तानियों के दु:खों के मेरे किये वर्णन का छोटा-सा संस्करण था। वह मेरे शब्दों में न था। उसका जो असर वहां हुआ वह हम आगे चलकर देखेंगे। धीरे-धीरे तमाम प्रतिष्ठित समाचार-पत्रों में इस प्रश्न पर टिप्पणियां हुई।

इन पुस्तिकों को डाक में डालने के लिए तैयार कराना उलझन का और दाम देकर कराना तो खर्च का भी काम था। मैंने एक आसान तरकीब खोज निकाली। मुहल्ले के तमाम लड़कों को इकट्ठा किया और सुबह के समय दो−तीन घंटे उनसे मांगे। लड़कों ने इतनी सेवा खुशी से मंजूर की। अपनी तरफ से मैंने उन्हें डाक के रद्दी टिकट तथा आशीष देना स्वीकार किया। लड़कों ने खेल खेल में मेरा काम पूरा कर दिया। छोटे-छोटे बालकों को स्वयंसेवक बनाने का मेरा यह पहला प्रयोग था। इस दल के दो बालक आज मेरे साथी हैं।

इन्हीं दिनों पहले-पहल प्लेग का दौरा हुआ। चारों ओर भगदड़ मच गई थी। राजकोट में भी उसके फैल जाने का डर था। मैंने सोचा कि आरोग्य विभाग में अच्छा काम कर सकूंगा। मैंने राज्य को लिखा कि मैं अपनी सेवायें अर्पित करने को तैयार हूं। राज्य ने एक समिति बनाई और उसमें मुझे भी रक्खा। पाखानों की सफाई पर मैंने जोर दिया और समिति ने मुहल्ले-मुहल्ले जाकर पाखानों[ १९३ ]
की जांच करने का निश्चय किया। गरीब लोग अपने पाखानों की जांच करने में बिलकुल आनाकानी न करते थे । यही नहीं, बल्कि जो सुधार बताये गये वे भी उन्होंने किये । पर जब हम राजकाजी लोगों के घरो की जांच करने गये तब कितनी ही जगह तो हमें पाखाना देखने तक की इजाजत न मिली-सुधार की तो बात ही क्या ? आम तौरपर हमें यह अनुभव हुआ कि धनिकों के पाखाने अधिक गंदे थे । खूब अंधेरा, बदबू और अजहद गंदगी थी । बैठने की जगह कीड़े कुलबुलाते थे । मानो रोज जीते जी नरक में जाना था । हमने जो सुधार सुझाये थे, वे बिलकुल मामूली थे, मैला जमीन पर नहीं बल्कि कूड़ों में गिरा करे । पानी भी जमीन में जज्ब होने के बदले कूंडों में गिरा करे । बैठक और भंगी के आने की जगह के बीच में दीवार रहती है वह तोड़ डाली जाय, जिससे भंगी सारा हिस्सा अच्छी तरह साफ कर सके; और पाखाना भी कुछ बड़ा हो जाय तो उसमें हवा-प्रकाश जा सके । बड़े लोगों ने इन सुधारों के रास्ते में बड़े झगड़े खड़े किये और आखिर होने ही नहीं दिये ।

समिति को ढेड़ों के मुहल्लों में भी जाना था, पर सिर्फ एक ही सदस्य मेरे साथ वहां जाने के लिए तैयार हुआ । एक तो वहां जाना और फिर उनके पाखाने देखना; परंतु मुझे तो ढेड़वाडा़ देखकर सानंशश्चर्य हुआ । अपनी जिंदगी में मै पहली ही बार ढेड़वाड़ा गया था । ढेड़ भाई-बहन हमें देखकर आश्चर्य-चकित हुए । हमने कहा--“ हम तुम्हारे पाखाने देखना चाहते हैं ।”

उन्होंने कहा-“हमारे यहां पाखाने कहां ? हमारे पाखाने तो जंगल में होते हैं । पाखाने तो होते हैं आप बड़े लोगों के यहां । ”

मैने पूछा-“अच्छा तो अपने घर हमें देखने दोगे ?”

“हां, साहब, जरूर ! हमें क्या अज्र हो सकता है ? जहां जी चाहे आइए । हमारे तो ये ऐसे ही घर हैं । ”

में अंदर गया । घर तथा आंगन की सफाई देखकर खुश हो गया । घर साफ-सुथरा लिपा-पुता था । आंगन बुहारा हुआ था; और जो थोड़े-बहुत बरतन थे वे साफ मंजे हुए चमकदार थे ।

एक पाखाने का वर्णन किये बिना नहीं रह सकता । मोरी तो हर घर में रहती ही है, पानी भी उसमें बहता है और पेशाब भी किया जाता है। अतएव

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