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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय/३७/४ टिप्पणियाँ: व्याख्याकी पूर्ति, प्रोफेसरका बालिकासे विवाह

विकिस्रोत से
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय
मोहनदास करमचंद गाँधी

दिल्ली: प्रकाशन विभाग, दिल्ली, पृष्ठ ५ से – ६ तक

 

४. टिप्पणियाँ
व्याख्याकी पूर्ति

एक पाठक सत्याग्रहाश्रमकी नियमावलिकी[] टीका करते हुए अहिंसाकी निम्नलिखित व्याख्या सुझाते हैं:

अहिंसाका तात्पर्य है सूक्ष्म जंतुओंसे लेकर परमात्मा तक किसीको भी दुःख न पहुँचानेकी भावना। यह अर्थ 'नवजीवन'में प्रकाशित अर्थसे कहीं अधिक विस्तृत है। क्योंकि परमात्माको अनुचित व्यवहार—बुरे विचारों—से दुःखी करना भी हिंसा ही नहीं बल्कि महा हिंसा है और अनेक अहिंसाधारी इस बातको भूल जाते हैं।
फिर आत्मघात भी महा हिंसा है। तो भी हमारे आसपास आत्मघातकी हृदय बेधक घटनाएँ बराबर होती ही रहती हैं। शायद लोग ऐसा समझते होंगे कि आत्मघातका सम्बन्ध तो अपनेसे ही है और इसलिए हम इसके लिए स्वतन्त्र हैं और इसमें गुनाह-जैसा तो कुछ है ही नहीं। अथवा आ पड़नेवाले अन्याय या दुःखको धीरजसे सहन कर सकनेकी शक्तिकी कमीसे ऐसी घटनाएँ घटती होंगी। इसलिए अहिंसा के नियममें आत्मघातके सम्बन्धमें भी स्पष्ट उल्लेख हो तो जन-समाजका अधिक हित होनेकी आशा है।

  और स्वावलम्बनके बारेमें वे लिखते हैं:

स्वावलम्बन –– 'दूसरेकी सेवा बिना कारण नहीं ली जानी चाहिए।' इसके साथ यह भी जोड़ देना चाहिए कि 'दूसरेको बिना कारण सेवा देनी भी नहीं चाहिए।' अगर यह सूत्र हिन्दुस्तान ठीक-ठीक समझ जाये तो निठल्ले घूमते रहनेवाले भिखारियोंका नामनिशान ही मिट जाये।

अहिंसाकी यह व्याख्या विचारणीय है। और स्वावलम्बनके बारेमें जो लिखा है, वह प्रासंगिक न होने पर भी समयको देखते हुए उचित है। दूसरेकी बिना कारण सेवा करनेकी इच्छा थोड़े ही लोगोंको होती है, और इसके प्रसंग बहुत नहीं आया करते। तो भी जहाँ धर्म-भावनावश पुण्यके नाम पर अनेक तरहके दान दिये जाते हैं, वहाँ उन्हें और वैसी ही दूसरी अकल्याणकारी सेवाओंको रोकनेका यह आशय उचित लगता है।

प्रोफेसरका बालिका से विवाह

एक पाठक लिखते हैं:[]

इन प्रोफेसर महाशयका नाम-ठाम वगैरह लेखकने मुझे लिख भेजा है। यह सुधार सहज नहीं है। शिक्षित-अशिक्षितका भेद किये बिना, जहाँ तक हो सके, सुधारकों द्वारा पहले वातावरणको शुद्ध करना ही आवश्यक होगा। पढ़े-लिखे लोग जब तक नहीं समझते, तब तक हम अनपढ़ोंके बारेमें उदासीन रहें, ऐसा नहीं होना चाहिए। जिस हद तक और जहाँ-जहाँ बाल-विवाहके बारेमें लोकमत जाग्रत किया जा सके उस हद तक और वहाँ-वहाँ वैसा करना चाहिए। हमारी आजकलकी शिक्षा का आत्मविकासके साथ बहुत कम सम्बन्ध है, यह बात ऐसे उदाहरणोंसे रोज ही स्पष्ट होती रहती है। और गहरे उतरनेपर हम यह भी देखते हैं कि ऐसी बातोंमें लोकमत शिथिल है, और कुछ हद तक तो वह ऐसे बुरे रिवाजोंके साथ भी है। अगर बात ऐसी न हो तो अपनी लड़की बनने लायक बालाको ब्याह लानेवाले व्यक्तिको कोई संस्था रखेगी कैसे? और सो भी प्रोफेसर? ऐसे प्रोफेसरसे विद्यार्थी पढ़ेंगे ही क्यों? ऐसे उदाहरण मिलते हैं जब कि किसी एक ही विद्यार्थीका अपमान करनेवाले प्रोफेसरका विद्यार्थियोंने बहिष्कार किया है। जो प्रोफेसर किसी बालिकासे विवाह कर लेता है, वह तो विद्यार्थियों और अपने समाजका अपमान करता है। किन्तु इस अपमानको जनता और विद्यार्थी वगैरह सभी सह लेते हैं। जिस पापको सहनेके लिए समाज तैयार न हो, वह पाप करना लगभग असम्भव हो जाता है। इसलिए बाल-विवाह इत्यादि दुष्ट रिवाजोंके विरुद्ध धैर्यपूर्वक लोकमत तैयार करना और जहाँ शान्तिपूर्वक वहिष्कार सम्भव हो, वहाँ उस शस्त्रका उपयोग करके जनमतको तैयार करना चाहिए। अगर युवक-वर्ग स्वयं शुद्ध और संयमी हो, या बन जाये तो ऐसे कामोंमें वह सहायक हो सकता है।

[गुजराती से]

नवजीवन, १-७-१९२८  

  1. देखिए खण्ड ३६, पृष्ठ ४१९-३१।
  2. पत्र यहाँ नहीं दिया जा रहा है। उसमें एक ४५ वर्षीय विधुर प्रोफेसर, जो पाँच बच्चोंके पिता थे और जिनकी एक बेटी विवाहित थी, द्वारा एक चौदह वर्षकी बालिकासे विवाह करनेका उल्लेख था।