सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय/३७/५ स्वयंसेवककी कठिनाई
५. स्वयंसेवककी कठिनाई
बारडोली सत्याग्रह छावनीसे एक भाई लिखते हैं:[१]
जैसी इस भाईकी स्थिति जान पड़ती है, वैसी इस देश में बहुतोंकी होती है। न्याय तो यह है कि जिसने सेवाको धर्म माना है, वह उसकी खातिर कुटुम्बको बलिदान कर दे। किन्तु यों शुद्ध न्याय जानते हुए भी व्यवहारके क्षेत्रमें हमारे लिये सदा कोई सीधी रेखा नहीं खिंची होती। सामान्य तौर पर आदमी कुटुम्ब-धर्म और देश-धर्मके बीच झूला करता है। आदर्श स्थिति में ये दोनों धर्म परस्पर विरोधी नहीं होते, किन्तु वर्तमान स्थिति में दोनों के बीच प्रायः विरोध ही देखने में आता है। कारण, कुटुम्ब-प्रेम स्वार्थ पर रचा हुआ होता है तथा कुटुम्बीजन स्वार्थ-पूजक होते हैं। इसलिए सामान्य कर्त्तव्यकी दृष्टिसे यह कहा जा सकता है। कि कुटुम्बकी साधारण, यानी हिन्दुस्तानकी गरीबी में जो उचित हो, ऐसी जरूरतें पूरी करनेके बाद ही देश-सेवामें पड़ना चाहिए। कुटुम्बको रोता छोड़कर कोई देश-सेवा नहीं कर सकता। किन्तु कुटुम्ब किसे कहें? उसमें भी किसका निर्वाह करना अनिवार्य है? एक गोत्रके सभी आदमियोंको कुटुम्ब कहकर जो मनको भ्रमित रखता है, यह लेख उसके लिए नहीं है। और न यह लेख उनके लिए है जो कुटुम्बके सशक्त लोगोंको घर बैठे खिलानेकी अभिलाषा रखते हैं। जो देश-सेवा करना चाहते हैं, वे ऐसी बातोंमें पूर्णतया शुद्ध रहकर अपना-अपना काम चलायेंगे। मेरा अनुभव ऐसा है कि ऐसे व्यक्तियोंके कुटम्बोंको भूखों नहीं मरना पड़ता। राष्ट्र सेवामें लगे हुए लोगोंको अपनी सच्ची जरूरतें पूरी करने लायक द्रव्य लेनेका अधिकार है और इस अधिकारके अनुरूप आज सैकड़ों सेवक अपना और अपने आश्रितोंका पोषण करते हैं।
[गुजरातीसे]
नवजीवन, १-७-१९२८
- ↑ यहाँ नहीं दिया जा रहा है। लेखकने पूछा था कि अगर कोई व्यक्ति बिना वेतन लिये राष्ट्रीय कार्य करना या सत्याग्रह आन्दोलनमें भाग लेना चाहे तो उसके परिवारका निर्वाह कैसे होगा। बारडोलीके मामलेके संक्षिप्त विवरणके लिए देखिए खण्ड ३६, परिशिष्ट ३।