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सर्वोदय/२-दौलत की नसें

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सर्वोदय
मोहनदास करमचंद गाँधी

पृष्ठ ३५ से – ४४ तक

 

: २ :
दौलत की नसें

इस प्रकार किसी विशेष राष्ट्र में रुपये-पैसे का चक्कर शरीर में रक्त-सञ्चार के समान है। तेज़ी के साथ रक्त का सञ्चार होना या तो स्वास्थ्य और व्यायाम का सूचक होता हैं, या लज्जा अथवा ज्वर का। शरीर पर एक प्रकार की लाली स्वास्थ्य सूचित करती है। दूसरे प्रकार की रक्त पित्त रोग का चिह्न है। फिर एक स्थान में ख़ून का जमा हो जाना जिस तरह शरीर को हानि पहुँचाता है उसी तरह एक स्थान में धन का सञ्चित होना भी राष्ट्र की हानि का कारण हो जाता है।

मान लीजिए कि दो खलासी जहाज के टूटकर टुकड़े-टुकड़े हो जाने से एक निर्जन किनारे पर आ पड़े हैं। वहाँ उन्हें खुद मेहनत करके अपने लिए खाद्य पदार्थ उत्पन्न करने पड़ते हैं। यदि दोनों स्वस्थ रहकर एक साथ काम करते रहे तो अच्छा मकान बना सकते हैं, खेत तैयार कर खेती कर सकते हैं और भविष्य के लिए कुछ बचा भी सकते हैं। इसे हम सच्ची सम्पत्ति कह सकते हैं और यदि दोनों अच्छी तरह काम करें तो उसमें दोनों का हिस्सा बराबर माना जायगा। इस तरह इनपर जो शास्त्र लागू होता है वह यह है कि उन्हें अपने परिश्रम का फल बांट लेने का अधिकार है। अब मान लीजिए कि कुछ दिनों के बाद इनमें से एक आदमी को असन्तोष हुआ, इसलिए उन्होंने खेत बात लिए और अलग-अलग अपने-अपने लिए काम करने लगे। फिर मान लीजिए की कभी ऐसे मौके पर एक आदमी बीमार पड़ गया। ऐसी दशा में वह स्वभावतः तक दूसरे को मदद के लिए बुलावेगा। उसे समय दूसरा कह सकता है कि मैं तुम्हारा इतना काम कर देने को तैयार हूं, पर कर दिया है कि तुम्हें आवश्यकता पड़े, तो तुम्हें भी मेरा इतना ही काम कर देना होगा। तुम्हें यह लिख देना होगा कि तुम्हारे खेत में मैं जितने घंटे काम करूँगा, उतने ही घंटे जरूरत पड़ने पर, तुम मेरे खेत में काम करोगे। यह भी मान लीजिए की बीमार की बीमारी लंबी चली और हर बार उसे उसे आदमी को इस तरह का हालकनामा लिख कर देना पड़ा। अब जब बीमार आदमी अच्छा होगा तब उन दोनों की स्थिति क्या होगी? हम देखेंगे की दोनों ही पहले से गरीब हो गए है। क्योंकि बीमार आदमी जब तक खाट पर पड़ा रहा तबतक उसे अपने काम का लाभ नहीं मिला। यदि हम मानले कि दूसरा आदमी खूब परिश्रमी है तब भी इतनी बात तो पक्की ठहरी कि उसने अपना जितना समय बीमार के खेत में लगाया उतना समय अपने खेत में लगाने से उसे वञ्चित रहना पड़ा। फल यह हुआ कि जितनी सम्पत्ति दोनों की मिलकर होनी चाहिए थी उनमें कमी हो गई।

इतना ही नहीं, दोनों का सम्बन्ध भी बदल गया। बीमार आदमी दूसरे आदमी का कर्जदार होगया। अब वह अपनी मेहनत देने के बाद ही, मज़दूरी करके ही अपना अनाज ले सकता है। मान लीजिए कि उस चगे आदमी ने बीमार आदमी से लिखाये हुए इकरारनामें का उपयोग करने का निश्चय किया। यदि वह ऐसा करता है तो वह पूर्ण रूप से विश्राम ले सकता‌ है—आलसी बन सकता है। वह चाहे तो बीमारी से उठे हुए आदमी से दूसरे इकरारनामे भी लिखवा सकता है। यह कोई नहीं कह सकेगा कि इसमें कोई बेक़ायदा बात हुई। अब यदि कोई परदेसी वहाँ आवे तो वह देखेगा की एक आदमी धनी हो गया है और दूसरा आदमी बीमार पड़ा है। एक ऐश-आराम करता है, आलस्य में दिन बीतता है, और दूसरा मजदूरी करता हुआ भी कष्ट से निर्वाह कर रहा है। इस उदाहरण से पाठक देख सकेंगे की दूसरे से काम लेने के वक्त का फल या होता है कि वास्तविक संपत्ति घट जाती है।

अब दूसरा उदाहरण लीजिए। तीन आदमियों ने मिलकर एक राज्य की स्थापना की और तीनों अलग-अलग रहने लगे। हर एक में अलग-अलग ऐसी फसल पैदा की जो सबके काम आ सके। मान लीजिए कि उसमें से एक आदमी सब का समय बचाने के लिए एक का माल दूसरे के पास पहुँचने का जिम्मा ले लेता है और इसके बदले में अन्य लेता है। अगर यह आदमी ठीक तौर से माल लाये व ले जाय तो सबको लाभ होगा, पर मान लीजिए कि यह आदमी माल लाने लेजाने मे चोरी करता है। बाद को सख्त जरूरत के समय यह दलाल वही चुराया हुआ अन्न बहुत ही महंगे भाव उनके हाथ बेचता है। इस तरह करते-करते यह आदमी दोनों किसानों को भिखारी बना देता है और अन्त में अपना मजदूर बना लेता है।

ऊपर के दृष्टान्त में स्पष्ट आज के व्यापारियों का यही हाल है। हम यह भी देख सकेंगे कि इस चोरी की कार्रवाई के बाद तीनों आदमियों की सम्पत्ति इकट्ठी करने पर उससे कम ठहरेगी जितनी उस आदमी के ईमानदार बने रहने पर होती। दोनों किसानों का काम कम हुआ। आवश्यक चीज़ें न मिलने से अपने परिश्रम का पूरा फल वह न पा सके। साथ ही उस चोर दलाल के हाथ चोरी का जो

लगा उसका भी पूरा और अच्छा उपयोग नहीं हुआ।

इस तरह हम (बीज) गणित का-सा स्पष्ट हिसाब लगाकर राष्ट्र विशेष की सम्पत्ति की जाँच कर सकते हैं। उस सम्पत्ति की प्राप्ति के साधनों पर उसे धनवान मानने या न मानने का आधार है। किसी राष्ट्र के पास इतने पैसे हैं इसलिए वह इतना धनवान है, यह नहीं कहा जा सकता। किसी आदमी के पास धन का होना जिस तरह उसके अध्यवसाय, चातुर्य और उन्नतिशीलता का लक्षण हो सकता है, उसी तरह वह हानिकर भोग विलास, अत्याचार और जाल-फरेब का सूचक भी हो सकता है। केवल नीति ही हमें इस तरह हिसाब लगाना सिखाती है। एक धन ऐसा होता है जो दस गुना हो जाता है। दूसरा ऐसा होता है कि एक आदमी के हाथ में आते हुए दस गुने धन का नाश कर देता है।

तात्पर्य यह है कि नीति अनीति का विचार किये बिना धन बटोरने के नियम बनाना केवल मनुष्य का घमण्ड दिखाने वाली बात है। "सस्ते से-सस्ता खरीदकर महंगे-से-महंगा बेचने" के नियम के समान लज्जाजनक बात मनुष्य के लिए दूसरी नहीं है।" सस्ते-से-सस्ता लेना" तो ठीक है, पर भाव घटा किस तरह? आग लगने पर लकड़ियाँ जल जाने से जो कोयला बन गया है वह सस्ता हो सकता है। भूकम्प के कारण धराशायी हो जाने वाले मकानों की ईंटें सस्ती हो सकती है। किन्तु इससे कोई यह कहने का साहस नहीं कर सकता कि आग और भूकम्प की दुर्घटनाये जनता के लाभ के लिए हुई थी। इसी तरह "महगे से महंगा बेचना" भी ठीक है, पर महंगी हुई कैसे? आपको रोटी के अच्छे दाम मिले। पर क्या आपने वह दाम किसी मरणासन्न मनुष्य की अन्तिम कौड़याँ लेकर खड़े किये है? या आपने वह रोटी किसी ऐसे महाजन को दी है जो कल आपका सर्वस्व हड़प कर लेगा? या किसी ऐसे सिपाही को जो आपके बैंक पर धावा बोलने वाला है? संभव है कि इसमें से एक भी प्रश्न का उत्तर आप अभी नहीं दे सकेंगे क्योंकि आपको इसका ज्ञान नहीं है। पर आपने अपनी रोटी उचित मूल्य पर नीति पूर्वक बची है या नहीं, यह आप बतला सकते हैं। ठीक न्याय होने की ही चिन्ता रखना आवश्यक भी है। आपके कारण किसी को दुःख ना हो, इतना ही जानना और उसके अनुसार चलना आपका कर्त्तव्य है।

हम देख चुके हैं कि मूल्य उसके द्वारा लोगों का परिश्रम प्राप्त करने पर निर्भर है। यदि मेहनत मुफ्त में मिल सके तो पैसे की जरूरत नहीं रहती। पैसे के बिना भी लोगों की मेहनत मिल सकती है, इसके उदाहरण मिलते हैं। और इसके उदाहरण तो हम पहले ही देख चुके हैं कि धन बल से नीति बल अधिक काम करता है। इंग्लैंड में अनेक स्थानों में लोग घन से भुलावे में नहीं डाले जा सकते। यदि हम मान लें कि आदमियों से काम लेने की शक्ति हीधन है तो हम यह भी देख सकते हैं कि वे आदमी जिस परिणाम में चतुर और नीतिमान होंगे उसी परिणाम में दौलत बढ़ेगी। इस तरह विचार करने पर हमे मालूम होगा कि सच्ची दौलत सोना-चॉदी नहीं बल्कि स्वयं मनुष्य ही है। धन की खोज घरती के भीतर नही, मनुष्य के हृदय में ही करनी हैं। यह बात ठीक हो तो अर्थशाश्र का सच्चा नियम यह हुआ कि जिस तरह बनें उस तरह लोगों को तन, मन ओर मान से स्वस्थ रक्खा जाय। कोई समय ऐसा भी आ सकता है जब इंग्लैंड गोलकुण्डे की हीरों से गुल्ञामो को सजा करके अपने वैभव का प्रदर्शन करने के बदले, ग्रीस के एक सुप्रसिद्ध मनुष्य के कथनानुसार अपने नीतिमान महापुरुषो को दिखा कर कहे कि|

“यही मेरा धन है?”