साफ़ माथे का समाज/गोपालपुरा: न बंधुआ बसे, न पेड़ बचे

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गोपालपुरा: न बंधुआ बसे, न पेड़ बचे


यह क़िस्सा, पर्यावरण के एक छोटे-से काम की पहली बरसी पर फूल चढ़ाने और उसकी मृत्यु का कारण बने कुछ पत्रकारों, अधिकारियों और समाजसेवकों को लगे हाथ गरिया लेने के लिए लिखा जा सकता था। लेकिन एक तो हिंदी का गाली-भंडार भगवान की दया से बहुत समृद्ध नहीं है और फिर अपनी आदत भी गाली-गलौज की नहीं रही है। क्रोध के पात्र दया के पात्र बन जाते हैं।

राजस्थान के अलवर ज़िले का गोपालपुरा कोई बड़ा गांव नहीं है। लेकिन पिछले वर्ष इन्हीं दिनों वह बड़ी-बड़ी ख़बरों में बना रहा। ख़बरों में पहले उसकी ख़ूब पीठ ठोंकी गई और फिर अचानक न जाने क्या हुआ उसकी कमर तोड़ दी गई। गांव के सब लोगों ने वहां काम कर रही एक छोटी-सी संस्था 'तरुण भारत संघ' की मदद से अपने पानी के संकट से निपटने के लिए कोई चार साल पहले चार तालाब बनाए थे। क़िस्सा सचमुच पसीने से बने इन तालाबों के पनढाल को संवारने के लिए लगाए गए गांव के जंगल का है। पर क़िस्से से पहले भी एक क़िस्सा हो चुका था।

अभी तालाब बने ही थे कि संस्था के नाम सिंचाई विभाग का एक [ १०४ ] नोटिस आ गया। नोटिस में कहा गया था कि ये तालाब अवैध हैं, इन्हें तुरंत हटा लिया जाए वरना सिंचाई क़ानून फ़लां-फ़लां के अनुसार कड़ी कार्रवाई की जाएगी। अकाल का इलाक़ा, पानी की बेहद कमी। ऐसे में गांव की ज़मीन पर अपनी ही मेहनत से तालाब बना लेने से भला कैसे कानून टूट गया? मज़बूत तालाब बन गए थे, नाजुक क़ानून टूट गया था। कहीं ऐसा तो नहीं था कि संस्था ने बिना पूछे तालाब बनवा लिए थे? संस्था से पूछताछ की। संस्था थोड़ी स्वाभिमानी निकली। उसने बताया कि तालाब बनाने के लिए हम किसी से इजाज़त लेना पसंद नहीं करते, हां विभाग को लिखकर ज़रूर दे दिया गया था। फिर सिंचाई विभाग से पूछताछ की तो पता चला कि उसकी चिंता इन तालाबों की मज़बूती को लेकर है। इंजीनियरिंग पढ़े-लिखे सिंचाई विभाग के रहते 'गंवार और अनपढ़' लोग अपने आप तालाब बनाने लगें और कहीं वे टूट जाएं तो नुकसान की ज़िम्मेदारी किसकी होगी भला? सरकारी बात में सरकारी दम भी था और दंभ भी। संस्था से फिर पूछा कि सब कुछ सोच समझ कर, नाप-तौल कर तो बनाया है? संस्था ने कोई जवाब नहीं दिया। उसकी चुप्पी से इतना ज़रूर याद आया कि लाखों तालाब तो सैकड़ों बरसों से बनते रहे हैं। सिंचाई विभाग को बने तो 200 बरस भी ठीक से नहीं हो पाए हैं।

तरुण भारत संघ की चुप्पी टूटी, बरसात के पहले झले के साथ। तार आया कि लोगों के सब तालाब लबालब भर गए हैं लेकिन सिंचाई विभाग के दो तालाब फूट गए हैं। किसी के लिए सुखद और किसी के लिए दुखद यह सूचना अलवर सिंचाई विभाग को पहुंचाई। तब से आज तक विभाग का मौन और शालीनता से लबालब भरा व्यवहार प्रशंसा योग्य ही माना जाना चाहिए। पांच बरस पहले इन्हीं दो-चार 'अवैध' [ १०५ ] तालाबों से शुरू हुआ काम आज बढ़कर एक सौ तीस तालाबों तक पहुंचने वाला है। पर इस क़िस्से को अभी यहीं छोड़ दें।

वापस आएं मुख्य क़िस्से पर। तालाब के काम में सफलता मिलने के बाद गोपालपुरा के लोगों ने इन तालाबों के जलग्रहण क्षेत्र में पेड़ों का काम उठाया। उजाड़ व बंजर पड़ी गांव की ही इस ज़मीन पर पंचायत ने प्रस्ताव पास कर पेड़ लगाने का फैसला किया। पेड़ों की रखवाली के लिए चारों तरफ़ पत्थर की मज़बूत दीवार बनाई। सैकड़ों गड्डे खोदे, पौधे लगाए और फिर उनकी देखरेख के लिए गांव की तरफ़ से ही एक वन रक्षक की भी नियुक्ति की। लोगों के लगाए वन में चोरी करना, कटाई-छंटाई करना अपराध घोषित किया गया।

इस अपराध का दंड रखा गया और ऐसे अपराधों को देख कर चुप रह जाने की सजा भी गांव ने आपस में बैठ कर तय की। यह सारी व्यवस्था गांव की सरकारी पंचायत ने नहीं, बल्कि बरसों से चली आ रही गांव की अपनी पंचायत ने की थी।

अपनी ही ज़मीन पर अपने हरे-भरे भविष्य का जंगल खड़ा करने में भी कहीं सरकार 'अवैध' तालाब की तरह अवैध जंगल का तर्क न रख दे इस ख़्याल से इस काम की भी सूचना जिले के राजस्व विभाग को दी गई और प्रार्थना की गई कि यह ज़मीन बाक़ायदा गांव के वन के नाम कर दी जाए।

गोपालपुरा और ज़िला मुख्यालय की दूरी कोई बहुत तो नहीं है-बस से दो घंटे, सरकारी जीप से शायद एक ही घंटा पर सरकार की तरफ़ से कोई कभी गोपालपुरा नहीं आया। व्यस्त रहते हैं सरकारी अधिकारी। फिर एक ज़िले में कलेक्टर के नीचे न जाने कितने ढेर सारे गांव आते होंगे। पर कभी जन अधिकारियों ने यह भी सोचा होगा कि [ १०६ ] इतने सारे गांवों में ऐसे गांव कितने होते होंगे जो अपना जंगल खुद लगाने की इजाज़त मांगते हैं? अलवर प्रशासन के सामने शायद गोपालपुरा के अलावा ऐसी कोई दूसरी अर्जी तो नहीं आई थी।

एक घंटे की दूरी से कोई नहीं आ पाया, गांव का जंगल देख कर उसकी इजाज़त देने। पर इस बीच अकाल आ गया। पौधों को बचाना मुश्किल हो गया। बहुत से पौधे मर भी गए। फिर भी लोगों ने हिम्मत नहीं हारी। बचे-खुचे पौधों की रखवाली करते रहे। फिर बरसात भी आ गई। अपने और पास-पड़ोस के गांव के पशुओं से इलाके को बचाए चले जाने के कारण उस हिस्से में कहने लायक जंगल शायद नहीं खड़ा हो पाया पर आसपास और दूर-दूर की उजाड़ पहाड़ियों के बीच एक छोटा-सा हरा धब्बा ज़रूर दिखने लगा था।

गोपालपुरा के अवैध तालाब और पेड़-पौधों के प्रसंग को कुछ देर यहीं छोड़ कर थोड़ी देर के लिए अलवर से बाहर निकल आएं। जिले के साथ ही लगा है हरियाणा का नूह इलाक़ा। इस प्रसंग के काफ़ी पहले नूह में पत्थर की खदानों में कुछ बंधुआ मजदूर मिले थे। उनको मुक्त कराने का श्रेय बंधुआ मुक्ति मोर्चे को जाता है। मोर्चे ने उन्हें अलवर प्रशासन को सौंप दिया, क्योंकि वे अलवर जिले के ही थे। पिछले कुछ वर्षों में सरकारों ने बंधुआ मुक्ति का खूब ढोल पीटा है। पोल न खुले, इसलिए जिला प्रशासन ने इन छह परिवारों को स्वीकार तो कर लिया पर उन्हें कहां कैसे बसाएगी यह सोचते-सोचते कई दिन बीत गए। दो-चार जगह खोजी गईं पर कहीं दमदार आबादी के कारण तो कहीं वन विभाग की जमीन के कानूनों के कारण वह उन्हें ठीक से बसा नहीं पा रही थी। सिर पर अनिश्चित भविष्य का पूरा बोझा उठाए इधर-उधर मारे-मारे फिर रहे इन परिवारों का संपर्क एक बार तरुण भारत संघ से भी हुआ। संघ ने तब अपने सीमित साधनों से कुछ बचा [ १०७ ] कर उनके लिए गल्ले का भी कुछ इंतज़ाम किया था पर यह बात न बंधुआ मुक्ति मोर्चा को पता चली, न ज़िला प्रशासन को। सिर्फ इसलिए कि छोटी-सी ग्रामीण संस्था ने इसे अपना कर्तव्य समझ कर किया था, अपना प्रचार करने के लिए नहीं।

वापस लौटें गोपालपुरा के वन पर। इस बीच शायद संस्था और गांव ने प्रशासन से वन वाली ज़मीन पर फैसला लेने का भी अनुरोध एकाधिक बार किया होगा। शायद प्रशासन की कुछ मजबूरी रही होगी कि ऐसी इजाज़त कहीं एक बार दे बैठे तो न जाने कितने गांव वन लगाने के लिए जमीन मांगने लगेंगे। तेज़ी से घट रहे वन क्षेत्र को फिर से संतुलित करने के लिए ऐसी मांग ठीक भी हो सकती थी शायद। बार-बार शायद लिखने की ज़रूरत नहीं है शायद। पर राज चलाना कोई खेल तो नहीं है। गांव वाले इसी तरह अपने पेड़ खुद लगाने लग जाएं तो फिर सरकार इस मोर्चे पर क्या करेगी। लोगों की भागीदारी फ़ाइलों में ही शोभा देती है।

भीतर-भीतर क्या हुआ यह तो कोई खोजी पत्रकार ही निकाल सकता था। इसलिए यह पेचीदा काम उन्हीं पर छोड़ आगे बढ़ें। थानागाजी तहसील के तहसीलदार ने एक दिन सुबह गांव गोपालपुरा को नोटिस भेज कर देश के वनीकरण के इतिहास में दर्ज होने लायक़ काम कर दिखाया। नोटिस में कहा गया था कि गांव ने बिना इजाजत के पेड़ लगाए हैं इसलिए उस पर 4995 रुपए का दंड किया जाता है।

संस्था के लोग घबरा कर दिल्ली आए। यहां पर्यावरण का काम कर रही एक संस्था से मिले। संस्था ने दिल्ली के एक अंग्रेजी अखबार से बात की और दूसरे दिन उस के पहले पेज पर इस भद्दे नोटिस की खबर छपवाई-'जहां पेड़ लगाना अपराध है'। इस विचित्र ख़बर को पढ़ने वाले हज़ारों पाठकों में उस दिन प्रधानमंत्री सचिवालय के कोई अधिकारी [ १०८ ] भी थे। उन्होंने अपने प्रभावशाली दफ्तर से राजस्थान के मुख्य सचिव आदि को खटखटाया, पूछा कि यह सब बेवकूफ़ी कैसे हो गई? ऐसे मौक़ों पर जो खलबली मचती है, वह सब मच गई। कलेक्टर वगैरह सभी सकते में आ गए।

तब न जाने किस स्तर पर किसके दिमाग में एक गलती को सुधार लेने के बदले में और कुछ नई गलतियां कर लेने की बात घुस गई। रातोंरात फ़ैसला ले लिया गया कि गोपालपुरा की इसी विवादास्पद ज़मीन पर उन छह बंधुआ परिवारों को बसा दिया जाए, जिनके बारे में प्रशासन अभी तक कुछ सोच ही नहीं पाया था। बंधुआ-पुनर्वास की ढाल ढल चुकी थी। सुबह गोपालपुरा के उसी हिस्से में जहां लोगों ने दीवारबंदी करके पौधे लगाए थे, दीवार तोड़ कर बंधुआ परिवार बसाए गए।

इस बीच दिल्ली के पांच-छह बड़े अखबारों ने 'जहां पेड़ लगाना जुर्म है' खबर पर संपादकीय लिख डाले। जब दिल्ली के अखबारों में यह सब लिखा-पढ़ा जा रहा था, तब बंधुआओं के बसाने के लिए उस गांव के वन की दीवार तोड़ कर भीतर उनके लिए रहने की जगह बनाने, कटाई-छटाई शुरू हो चुकी थी। उस कटाई-छटाई की ख़बरें भी दिल्ली आ गई और अखबारों में छप गया कि प्रशासन ने पुलिस संरक्षण में बंधुआ बसाए और गांव वालों के लगाए गए पेड़ कटवा दिए।

उधर अपने विरुद्ध ऐसा भयंकर प्रचार उठता देखकर अलवर प्रशासन घबरा तो गया फिर जल्दी ही उसने बंधुआ-ढाल से अपने बचाव की तैयारी कर ली और सरकारी सफ़ाई लेकर जीपें दिल्ली के अखबारों की तरफ़ दौड़ा दी। लेकिन अलवर से दिल्ली आने वाली सड़क पर दिल्ली से कुछ पत्रकार भी गोपालपुरा के लिए चल पड़े थे। बस इसके आगे कीचड़-ही-कीचड़ है और उस कीचड़ में ऐसे-ऐसे [ १०९ ] अखबार वाले फिसलते दिखते हैं जिनके शौर्य से कहते हैं सरकारें थर्राती हैं। बंधुआओं की मुक्ति के लिए पूरे समर्पित भाव से काम कर रहे समाजसेवक भी न जाने किस दुविधा में यहां फिसल जाते हैं। परती ज़मीन को हरा-भरा करने के लिए पूरे देश में काम करने वाली प्रसिद्ध समाजसेवी संस्था भी इसमें टपकती है और प्रशासन के योग्यतम माने गए अधिकारी भी इसमें बिलटते हैं।

अचानक कलेक्टर की कोई जादू की छड़ी चलती है। पूरी घटना को एक नए दृष्टिकोण से देखा जाता है: गांव वाले, संस्था वाले बदमाश हैं, पेड़ नहीं लगे थे, वहां बस केवल कुछ झाड़ियां थीं, इधर-उधर दीवारबंदी थी तो बस ज़मीन पर नाजायज़ क़ब्ज़ा करने के लिए। गांव ने बंधुआओं को न बसने देने का यह षड्यंत्र रचा होगा। गांव पर प्रशासन के 'अत्याचार' से बेहद नाराज़ इस अखबार का युवा पत्रकार अलवर में कलेक्टर और उनके साथियों पर बरस रहा था, कि उसे अचानक भीतर आने का संकेत मिलता है। शायद एकांत में अधिकारी उसे समझाते हैं- पूरा किस्सा एक बेमतलब की संस्था और बंधुआ विरोधी गांव का है जिसे पर्यावरण का रंग दिया जा रहा है और आप नाहक इनके चक्कर में पड़ रहे हो।

अगले दिन इस अखबार के पहले पन्ने पर किस्सा छपता है। 'कहीं हम पर्यावरणवालों के चक्कर में भटक तो नहीं गए।' पूरे समाचार में गांव और संस्था की पिटाई करने की कोशिश होती है और बंधुआओं और सरकार का पक्ष लिया जाता है।

बाद का किस्सा लंबा है। उसे यहीं छोड़ दें। इतना ज़रूर लिखना होगा कि उसके बाद बंधुआओं को वहां 'बसा' कर उनके तमाम शुभचिंतक-पत्रकार, संपादक, प्रशासन और बंधुआओं को आजाद करवाने वाले समाजसेवक-कोई इस जगह नहीं आता। ऊबड़-खाबड़ पथरीली [ ११० ] और उजाड़ जगह पर वे बंधुआ भगवान भरोसे छोड़ दिए जाते हैं। लेकिन सब तरफ़ से पिट चुका गांव और वहां की छोटी-सी संस्था इस सब अपमान के बाद भी अपना कर्तव्य नहीं भूलती। अपने वन के उजड़ने का दुख भूल कर वह इन छह परिवारों को गांव के अतिथि की तरह स्वीकार करती है। गांव से उनका एका कराती है। बरसात के दिनों में जब उनकी कच्ची झोपड़ियों के आसपास सांप वगैरह निकलने लगते हैं तो ऊपर सोने के लिए कुछ खाटों का इंतज़ाम करती है। बच्चों के बीच कपड़े और परिवारों के लिए एक बार फिर गल्ले का इंतज़ाम करती है। जिस गांव और संस्था को उनका दुश्मन बता दिया था-आज वही गांव और संस्था उनके दुखों में काम आ रहे हैं।

बंधुआ बस नहीं पाए हैं। कोई योजना ही नहीं बनी उनके लिए। पक्के घर बना कर देने की बात थी। उसमें भी कमजोर सामान लगाया गया। एक घर की छत गृहप्रवेश से पहले ही गिर गई। डर के मारे बाकी सारे लोग भी अपने घरों में नहीं गए। अब सामान वगैरह भीतर रख दिया है मगर डर बना रहता है। गांव का वन और मन उजाड़ कर सरकार ने बंधुआ बसाए थे यह कह कर कि यहां वे खेती करके शानदार नए जीवन की शुरुआत करेंगे। एक बरस बीत गया है। उस ज़मीन को खेत में बदलने की गुंजाइश होती तो बंधुआ खेती कर ही लेते। पर सभी परिवारों के पुरुष रोज़गार की तलाश में यहां-वहां भटक रहे हैं।

एक बात और। जिस गांव को बंधुआओं के ख़िलाफ़ खड़ा घोषित किया गया था वह गांव ऊंचे ज़मींदारों और बड़े किसानों का नहीं, बिल्कुल दीन-हीन वनवासियों का गांव है। शायद ज़्यादातर परिवारों की हालत बंधुआओं जैसी ही होगी।

यह सब कोई गड़े मुर्दे उखाड़ने के लिए नहीं लिखा जा रहा। जिन लोगों की ग़लती से एक गांव को जिंदा दफ़नाने दिया गया था, उसकी [ १११ ] पहली बरसी पर इस सबको याद किया जा रहा है तो सिर्फ इसलिए कि ये सब लोग इस मौके पर दुबारा उस गांव में जाएं। एक बरस पहले जिन्होंने बढ़ चढ़कर कहा था, लिखा था वे अब ठंडे दिमाग़ से अपने किए को देखें। वहां घूमें, संस्था से, गांव से, बंधुआओं से मिलें। उस मलबे को हटाएं, जिसके नीचे एक ग्रामीण पहल जिंदा दफ़न हो गई थी। अभी कुछ दिन बाक़ी हैं बरसी के। पक्की तारीख बताना ज़रूरी नहीं। जिन्हें गोपालपुरा जाना चाहिए उन्हें तारीख़ अच्छी तरह से याद है। वे सब अकेले ही जाएं, पर्यावरण वालों को साथ नहीं लें। फिर उन्हें कोई बहकाएगा नहीं। वहां जाकर उन्हें पता चल सकेगा कि न बंधुआ बसे, न पेड़ बचे।