साफ़ माथे का समाज/भूकंप की तर्जनी और कुम्हड़बतिया

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भूकंप की तर्जनी और कुम्हड़बतिया


कारण ढूंढ़ लिया गया है। उन्नीस अक्तूबर को पैंतालीस क्षणों के लिए आए भूकंप से उत्तराखंड में हुई बर्बादी का खलनायक पहचान लिया गया है। कृषि मंत्रालय ने रुड़की विश्वविद्यालय के एक बड़े वैज्ञानिक द्वारा तैयार एक रिपोर्ट जारी की है। रिपोर्ट का कहना है कि केवल छह दशमलव एक माप के 'औसत' भूकंप से अकेले उत्तरकाशी में 17000 घर पूरी तरह से नष्ट हो गए, हज़ारों में दरारें पड़ गई और लगभग 1500 लोग और हज़ारों पशु भी मारे गए। इस भयंकर बर्बादी का विवरण देते हुए रिपोर्ट ठीक किसी स्थितप्रज्ञ की तरह बताती है:

'इतने औसत परिभार के भूकंप में इतनी अधिक हानि का मुख्य कारण है अनगढ़ पत्थर से निर्मित भवनों का ध्वस्त होना। पत्थर के भवनों में भूकंप से उत्पन्न होने वाली हानि के ये मुख्य कारण सामने आते हैं: (एक) निर्बल भवन सामग्री: हानि का सबसे बड़ा और पहला कारण यह है कि गारे में पत्थर की चिनाई उन प्रतिबलों को सहने में असमर्थ है जो भूकंप की स्थिति में दीवारों में उत्पन्न होते हैं। इस कारण से दीवारों में क्षैतिज उर्धवाधर (!) अथवा तिरछी दिशाओं में दरारें पड़ती हैं। इसका उपाय केवल यही है कि गारे के स्थान पर अच्छा मसाला प्रयोग किया जाए। (दो) दुमंजिला निर्माण: पिछले भूकंपों के अनुभवों से यह साफ़ [ ६९ ] जान लिया गया है कि एक से अधिक मंज़िल के अनगढ़ पत्थर के मकानों की पूरी तरह से ध्वस्त होने की संभावना एक मंज़िल के मकानों से कहीं अधिक रहती है। नई संरचना में इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है।'

यह तो इस रिपोर्ट की पहली झलक है। ऐसी हिंदी के लिए हम पाठकों से और इस तरह की हिंदी में कही गई बातों के लिए हम उत्तराखंड के गांवों में, घरों में रहने वाले लोगों से माफ़ी मांगते हैं। रिपोर्ट बनाने वाले बहुत ही ऊंचे दर्जे के विशेषज्ञ होंगे, और निश्चित ही इसे तैयार करते समय उनके मन में पहाड़ के निवासियों के कल्याण की भावना भी रही होगी। पर बहुत विनम्रता से कहें तो भूकंप से विनाश का ऐसा कारण ढूंढ़ना लोगों का अपमान है। ऐसी बातों का अर्थ यही है कि भूकंप तो बड़ा मामूली-सा था, उसका कोई दोष नहीं। दोष तो है अनघड़ पत्थरों से बने मकानों का, या ऐसे मकान बनाने वालों का। हमारे मकान मकान न हुए कुम्हड़बतिया हो गए जो ज़रा-सी तर्जनी देख गिर पड़े।

सौभाग्य से सिर्फ़ उत्तराखंड ही नहीं, हमारा सारा देश अनगढ़, पत्थर, मिट्टी और गारे का बना है। और अपनी इस विशिष्ट बनक के कारण ही इसने भूकंप से भी बड़े-बड़े दूसरी तरह के झटके सहे हैं। लेकिन देश की बात बाद में, पहले उत्तराखंड को ही लें। इस भूकंप के बाद से सभी जगह एक नया शब्द चल निकला है: 'भूकंप सह' यानी भूकंप सहने योग्य। शब्द तो अंग्रेज़ी से ही आया है, लेकिन इसके पीछे विचार भी अंग्रेज़ों का ही है। 19 अक्तूबर के बाद कई लोगों ने, संस्थाओं ने विशेषज्ञों ने भूकंप सह मकानों की खूब बात की है। दुर्भाग्य से स्वयं उत्तराखंड से भी ऐसी मांग आई है कि हमें ऐसी तकनीक दीजिए जो भूकंप सह हो।

यह शब्द और विचार दो बातें मान कर चलता है। (एक) उत्तराखंड [ ७० ] में जो मकान बनते हैं, उन्हें बनाने वाले अपने क्षेत्र-विशेष का स्वभाव ही नहीं जानते और (दो) देश के किसी और हिस्से में, कोने में या केंद्र में यानी दिल्ली में कुछ ऐसे जानकर लोग हैं जिनके पास यह दुर्लभ ज्ञान या यह रहस्यमय तकनीक उपलब्ध है। कितने आश्चर्य की बात है कि अगर ऐसी कोई तकनीक सचमुच उपलब्ध है, सुलभ है तो वह अब तक वहीं क्यों नहीं पहुंची, जहां उसे खड़े मिलना था, ताकि वह इस भूकंप के बाद भी वहां खड़ी नज़र आती।

तो कहां खोजें ऐसे लोगों को जो इस तकनीक को जानते हैं? पहले दुनिया का चक्कर लगा लें? नाहक यहां-वहां भटकने के बदले दुनिया में नंबर एक और नंबर दो माने गए देशों को टटोलें। अमेरिका के एक बड़े शहर में (देहात में नहीं) कुछ समय पहले भूकंप आया था। भूकंप जिसे हिलाना चाहता था उसे हिला गया जिसमें दरार डालना चाहता था, उसमें दरार डाल गया और जिसे डिगाना चाहता था, उसे डिगा गया। डिगने वाली सूची में विश्व भर में प्रसिद्ध एक मज़बूत पुल भी था। अब नंबर दो को देखें। गोर्बाचेव अपनी लोकप्रियता की ऊंचाई पर थे कि एक भूकंप ने वहां हज़ारों मकान पटक दिए। ये मकान कोई अनघड़ पत्थरों के नहीं थे, एक सशक्त विचारधारा की सीमेंट भी इनकी नींव में मिलाई गई थी। खुलेपन का दौर था तो जांच भी बिठा दी गई। प्रारंभिक दौर में यह कहा गया था कि भूकंप इतने पक्के मकानों को नहीं गिरा सकता, हो न हो, ये मकान ही नक़ली थे। घटिया मकान किसने बनाए, दोषी कौन था, इसकी जांच का काम सीधे केजीबी को सौंपा गया था। जांच का क़िस्सा लंबा है। याद रखने लायक़ बात इतनी ही है कि अब केजीबी ही भंग हो चुकी है।

जापान के कुछ भाग भी भूकंप की पट्टी में आते हैं। यहां के बारे में हम चौथी-पांची कक्षाओं में पढ़ते रहे हैं कि घर बांस और कागज़ [ ७१ ] के बनते थे। तब कागज़ के घर सुन कर अटपटा भी लगता था। धीरे-धीरे इन घरों में बदलाव आया। हर जगह की तरह नई चलती चीज़ों का मोह बढ़ा। सीमेंट के पक्के मकान भी बनने लगे। ऐसे ही दौर में फ्रैंक लायड राइट नाम के एक अमेरिकी वास्तुकार को यहां एक बड़े होटल को बनाने का काम सौंपा गया। उन्होंने बनाया पक्का ही होटल पर उस क्षेत्र में आने वाले भूकंपों का पूरा ख्याल भी रखा-उसे एक दलदली ज़मीन पर खड़ा किया गया था। राइट थे तो वास्तुकार पर कभी उन्होंने वास्तुकला की आधुनिक पढ़ाई नहीं पढ़ी थी, बाकायदा डिग्री भी नहीं थी उनके पास। होटल पूरा नहीं बन पाया था कि भूकंप का एक बड़ा झटका वहां आया। सारा कस्बा ध्वस्त हुआ, पर अनबना होटल बना रहा। कस्बे के नगरपालक की ओर से उन्हें इस संबंध में भेजा गया एक लंबा तार वास्तुकला के हर छात्र को आज भी पढ़ाया जाता है। संकट के उन दिनों में इसी होटल से राहत के काम चले थे। राइट ने कोई नई 'भूकंप-सह' तकनीक नहीं लगाई थी, वहीं के अनुभव को नींव में डाल कर होटल खड़ा किया था। उन्होंने भूकंप की इज़्ज़त करने वाला ढांचा खड़ा किया था।

वापस उत्तराखंड लौटें। सदियों से हिमालय में रहने वाले लोग अपने घर खुद ही बनाते आए हैं। और ये घर जिस ढंग से बनते रहे हैं, उसी ढंग में भूकंप सहने की कुछ ताक़त भी रहती है। ये बनते 'अनगढ़' पत्थर के ही हैं पर उतने अनगढ़ नहीं जितने कि आज सरकार मान रही है। दीवारों को बनाने के लिए नदी के गोल पत्थर नहीं लिए जाते हैं। फिर पत्थरों को तीन तरह से तराशा भी जाता है, केवल वह भाग, जो दीवार के भीतर रहेगा मसाला पकड़ने के लिए बिन तराशा छोड़ा जाता है। इस तरह से बडी मेहनत के साथ तराशे पत्थर नींव और दीवार में लगते हैं और फिर इन पर खड़ा होता है बल्लियों और चौकोर चीरे गए लट्ठों का ढांचा। लट्ठों की चिराई बड़े-बड़े आरों से की जाती रही है। ऐसे [ ७२ ] बड़े आरों को दो लोग चलाते थे। बाद में यह काम आरा मशीनों पर भी होने लगा। दीवारों में दरवाज़े भी छोटे, खिड़कियां भी छोटी लगती हैं। बिना झुके भीतर नहीं जा सकते इनसे। ठीक आदमक़द दरवाज़े बनाने से उन्हें किसी ने रोका नहीं है पर अनुभव से वहां यह चलन चला होगा कि छोटे दरवाज़े और खिड़कियां ठंड तो रोकते ही हैं, दीवार की मज़बूती भी बढ़ाते हैं।

सरकारी रिपोर्ट ने दो मंज़िले मकानों पर टिप्पणी करते हुए इन्हें एक मंज़िल मकानों से ज़्यादा खतरनाक बताया है। दो मंज़िलें मकान तो यहां खूब बनते हैं। पहाड़ी ढलान पर एक के बदले दो मंज़िलें मकान बहुत ख्खूबी से बनाए जाते हैं। ढलान के ऊपरी हिस्से से इनमें सीधे, बिना सीढ़ी के दूसरे मंज़िल में प्रवेश होता है और ढलान के निचले हिस्से से पहली मंज़िल में। पहली और दूसरी मंज़िल के बीच का भाग मज़बूत लट्ठों पर टिका रहता है, फ़र्श भी लकड़ी के फट्टों से बनता है। यही पहली मंज़िल की छत होती है। दूसरी मंज़िल से बाहर झांकता छज्जा भी मुख्य ढांचे से बाहर निकले लट्ठों पर टिका रहता है। कोई दो हाथ बाहर निकला यह छज्जा किसी भी हालत में दीवार पर बोझ नहीं बनता। ओबरा, बोवरा, कोठार, मैंजुला और टैपुरा यानी नींव, नीचे का कमरा, कोठार और दूसरी मंज़िल और फिर ढाई मंज़िल जो घर का अतिरिक्त सामान रखने के लिए काम आती है। हर भाग एक निश्चित नियम के अनुसार बनता रहा है, ऐसे ही अललटप्पू अनगढ़ ढंग से नहीं।

पहाड़ी गांवों के ही नहीं, क़स्बों और शहरों के मकानों की ऊंचाई हमेशा नियंत्रित रखी जाती रही है। एक अलिखित नियम रहा है कि बस्ती का कोई भी घर गांव के देवालय से ऊंचा नहीं बन सकता। भला कौन अपना घर भगवान के घर से ऊंचा दिखाना चाहेगा? फिर भगवान का घर इस देवभूमि में कभी बहुत ऊंचा नहीं बनाया गया। भगवान के [ ७३ ] पास किस बात की कमी? पर यहां भी ऊंचाई में संयम ही दिखता है। देश के चारों कोनों से बदरीनाथ धाम जाने वाले तीर्थ यात्री हरिद्वार से दो दिन की कठिन यात्रा पूरी कर जब मंदिर पहुंचते हैं तो एक सुंदर, भव्य लेकिन छोटे से मंदिर को देख मुग्ध हो जाते हैं। जो समाज कवि कालिदास के शब्दों में पृथ्वी को ही माप सकने योग्य ऊंचे, विशाल हिमालय की गोद में पला-बढ़ा है, वह ऊंचाई के विषय में तो विनम्रता ही सीखेगा। वह किसकी ऊंचाई से होड़ लेना चाहेगा? पहाड़ के वास्तुशिल्प में सभी जगह यह बात बहुत प्रेम से अपनाई गई है। इसलिए उसके दो मंज़िले मकानों पर टिप्पणी करने का कम-से-कम हमें तो कोई हक़ नहीं, जिनके मैदानी शहरों में गिरते-पड़ते बेतुके बहुमंज़िले मकान धड़ाधड़ बनते ही चले जा रहे हों।

उत्तराखंड के मकानों की शुभचिंता यहीं खत्म नहीं होती। रिपोर्ट का कहना है कि गिर चुके मकानों को दोबारा बनाते समय 'भूकंप सह' क्षमता का काफ़ी ध्यान रखना पड़ेगा, जो मकान इस भूकंप की परीक्षा में उत्तीर्ण हो गए, उन्हें भी रिपोर्ट ने भविष्य के किसी और भूकंप की आशंका को देखते हुए 'भूकंप सह' बनाने पर जोर दिया है। रेखाचित्रों के माध्यम से रिपोर्ट ने अच्छे खड़े साबुत मकानों के 'दृढ़ीकरण' के बहुत ही कठिन हिंदी में बड़े ही सरल तरीक़े सुझाए हैं:

'भूकंप-प्रतिरोध क्षमता बढ़ाने के लिए यह आवश्यक है कि भवन की प्रत्येक मंज़िल में बाहरी चारों ओर दरवाज़े के सरदल से ऊपर और छत के नीचे चारों ओर दीवारों को बांधने हेतु एक बंधन-पट्टिका लगाई जाए। इसकी सुगम विधि इस प्रकार है:

दरवाज़े की सरदल और छतों के नीचे के साथ में 30 सेंटीमीटर चौड़ाई को भवन के चारों ओर प्लास्टर उखाड़ कर तार के ब्रुश से रगड़ कर पत्थर अथवा ईंटों को साफ़ कर लेना चाहिए। पत्थरों और ईंटों के [ ७४ ] बीच के जोड़ों को कुरेद कर कम-से-कम 25 सेंटीमीटर गहराई तक मसाला निकाल देना है। अब वेल्डमैश तार की बड़ी बनाई जाली, जिसके तार कम-से-कम एक दशमलव पांच मिलीमीटर हों, और छेद इस प्रकार हों कि 30 सेंटीमीटर चौड़ाई में कम-से-कम आठ तार हों यानी लगभग 35 सेंटीमीटर की दूरी पर हों तथा दूसरी ओर तारों की एक-दूसरे से दूरी 75 मिलीमीटर से अधिक नहीं हो, (पाठक माफ़ करें, अभी वाक्य पूरा नहीं हुआ है) 30 सेंटीमीटर चौड़ाई में लेवी ओर से काट कर साफ़ की हुई पट्टी में 75 मिलीमीटर कीलों द्वारा ठोंक देनी चाहिए।'

कीलें न जाने कब से दीवारों में ठोंकी जा रही हैं; पर रिपोर्ट उसका भी वर्णन इन शब्दों में करती है: 'कीलें 60 मिलीमीटर अंदर रहें और 15 मिलीमीटर बाहर रहें, जिससे जाली और दीवार के बीच में कम-से-कम 10 मिलीमीटर का अंतर यथासंभव बना रहे।'

अभी भी आपका मकान 'भूकंप सह' नहीं बना है। थोड़ा-सा धीरज और रखें। बचा हुआ काम रिपोर्ट के अनुसार कुछ इस तरह से होगाः 'अब पूरी जाली को एक और तीन के सीमेंट-रेत अनुपात के मसाले में अथवा 1:1, 5:3 के कंक्रीट द्वारा जिसमें पथरी आठ मिलीमीटर से अधिक मोटी न हो, पलस्तर कर के ढक दें। पलस्तर की मोटाई 5 मिलीमीटर से कम न हो...।'

अब है कोई माई का लाल जो इस 'सुगम विधि' से अपना घर 'भूकंप-सह' बना सकेगा? घर सुधारने की उत्कृष्ट इच्छा रखने वाले गृहस्थ तो दूर, इस सरल विधि को पढ़ने वाले पाठक भी नहीं सह पाएंगे। इसे लिखने वाले विद्वान वैज्ञानिक की शुभचिंता एक तरफ़, लेकिन क्या इन लोगों को उत्तराखंड के गांवों का भी कोई अंदाज़ है जो सड़क से एक-दो-तीन दिन तक की पैदल दूरी पर बसे हैं। वैज्ञानिक अपने अध्ययन-अध्यापन की निराली दुनिया में व्यवहार की बातें भूल बैठे हों [ ७५ ] तो भी बात समझ में आ सकती है। पर क्या हो गया सरकार के उस कृषि मंत्रालय को जिसने इस रिपोर्ट को 'मोस्ट इमिजिएट' लिख कर तुरंत प्रचारित कर दिया है। मकानों को भूकंप सह बनाने की सरल विधि में लगने वाला सामान, मिलीमीटर में नाप-तौल कैसे इन गांवों में, कितनी मात्रा में पहुंच सकेगा? वैज्ञानिकों और सरकार का इस संबंध में ऐसा विचित्र उत्साह देख असली सवाल पूछने की हिम्मत ही नहीं जुट पाती कि भैया यह सब करने की ज़रूरत क्या है?

लेकिन लगता है बहुत से लोग इसी में लग गए हैं। भूकंप राहत का काम देख रही कई संस्थाओं में इस तरह की तकनीक के मकानों का कोई आदर्श ढांचा बना लेने की, 'ठोस' सुझाव देने की जैसे होड़ लग गई है। विदेशी अनुदान देने वाली संस्थाएं भी ऐसी तकनीक सुझाने वाले योग्य पात्र की तलाश में हैं। दिल्ली में पिछले सप्ताह एक ऐसे ही मॉडल की प्रदर्शनी और उसे बड़े पैमाने पर उत्तराखंड में उतारने की गोष्ठी भी हो चुकी है।

देश के एक हिस्से पर आए इतने बड़े संकट के बाद उसमें निपटने में वैज्ञानिक, सरकार और हम सब इतने कमज़ोर साबित हों तो पहला काम हमारे दिमागों के 'दृढ़ीकरण' का होना चाहिए, न कि उत्तराखंड के मकानों का।

यह सही है कि भूकंप में मकान बड़े पैमाने पर गिरे हैं। पर कुछ ख़ास जगहों में मकान ज़्यादा गिरे हैं और उनमें भी उस तरह के मकान शायद ज़्यादा हैं जो अब तक की अपनी पद्धति से कुछ हट कर बने थे। यह ख़ास जगह कौन-सी है? उत्तरकाशी का वह भाग जहां पहाड़ों को काटकर, बारूद के बड़े-बड़े धमाकों से उड़ा कर वे सब काम किए गए हैं, जिन्हें विकास कार्य कहा जाने लगा है। कहीं बांध बन रहा है, कहीं कोई बड़ी सड़क। इन सब कामों ने न जाने कब से इन पहाड़ों [ ७६ ] को और उन पर बसे गांवों को हिला कर रखा था। बारूद के इन धमाकों से इन इलाकों में चूल्हे पर रखे तवे नाचते रहते थे।

हिमालय की अधिकांश बसाहट पुराने भूस्खलन के मलबे के विशाल ढेरों पर बसी है। हर छोटी-बड़ी पहाड़ी के नीचे बहने वाली तेज़ प्रवाह की नदी नीचे से ज़मीन काटती रहती है और ऊपर से वह बरसात जो साल के पूरे चार महीने बरसती है। ऐसे में लोगों ने वर्षों के अच्छे और बुरे अनुभवों से सीख कर जीवन का एक तरीका निकाला था। भूकंप तब भी आए थे और एक हिम्मती, मज़बूत समाज ने बिना किसी के आगे हाथ पसारे अपने संकट को सहा ही था। इन भूकंपों में तमाम सावधानियों के बाद भी कई बार गांव-के-गांव उजड़े होंगे। इनके चिह्न आज भी हैं। अलकनंदा के तट पर चमोली में बसे हाट गांव का एक भाग आज भी छप्परवाड़ा कहलाता है। किसी ऐसे ही संकट में उजड़ने के बाद गांव अस्थायी तौर पर छप्परों के नीचे बसता रहा। फिर धीरे-धीरे लोगों ने फिर से अपने घर-खेत संवार लिए। पर जगह का नाम छप्परवाड़ा ही बना रहा।

धीरे-धीरे चीज़ें बदी भी। कुछ मजबूरी में, और कुछ बाहर के असर के कारण सीमेंट के घर की प्रतिष्ठा भी बढ़ी। जितने भी सरकारी मकान बने, इसी से बने। पर हर कोई सीमेंट से मकान नहीं बना पाया। इस इच्छा को पूरा करने का मौक़ा ऐसे इलाकों में अनायास ही हाथ लग गया जहां कोई बड़ी सरकारी योजना बनने लगी। चोरी का सीमेंट सस्ता मिला। कई घर बदल गए। जल्दबाज़ी में हुई तोड़-फोड़ और निर्माण में शायद वैसी सावधानी नहीं रखी गई जैसी मकान बनाते समय सदियों से रखी जाती रही है। फिर बारूद के धमाकों ने इसे और कमज़ोर किया। ऐसे में 6.1 माप का भूकंप काफ़ी था। पर इस सबके बाद भी हम यह नहीं कह सकते कि 19 अक्तूबर को आया भूकंप बहुत साधारण [ ७७ ] था, उसने तो बस तर्जनी दिखाई थी और कुम्हड़बतियां गिर गईं।

एक तरफ़ तो सरकार और उसके सभी वैज्ञानिक इस ढंग से सोच रहे हैं और दूसरी तरफ वे अपनी योजनाओं को बेहद पक्का, मज़बूत, 'भूकंप सह' मानने का गर्व कर रहे हैं। 15 अक्तूबर से अब तक न जाने कितनी बार यह गर्वोक्ति सुनने को मिली है कि टिहरी बांध को भूकंप से कोई नुकसान नहीं हुआ है। इधर इसी के साथ ऐसे समाचार भी छपते रहते हैं कि बांध में दरार पड़ गई थी लेकिन उसे रातोंरात ठीक कर लिया। पहाड़ों में कई जगह बांध बन रहे हैं। सरकार और उसके वैज्ञानिक हमें यही बताने की कोशिश में लगे हैं कि इन पर कभी भी किसी भूकंप का कोई असर नहीं पड़ेगा। बांध न हुआ, शिवजी का धनुष हो गया। शिवजी का धनुष किसी से हिल तक नहीं पाया था। 'गरऊ कठोर बिछित सब काहू'। रावण और बाणासुर जिनके चलने से ही धरती कांप उठती थी, वे भी धनुष को देख चुपचाप चलते बने, उसे उठाना तो दूर, छूने की हिम्मत भी नहीं हुई। जब एक-एक कर राजा हार गए तो फिर हज़ारों राजाओं ने उसे एक साथ उठाने का प्रयत्न किया था- 'भूप सहस दस एकहि बारा। लगे उठावन टरइ न टारा।' पर वह टस-से-मस नहीं हुआ। ऐसे धनुष को श्रीराम ने बस छुआ भर था कि वह टूट गया।

वह क़िस्सा लंबा है। उसे अभी यहीं छोड़ें। पर अंत में उत्तर प्रदेश की उस सरकार से जो राम का नाम लेकर सत्ता में आई है, इतना ही निवेदन करते हैं कि वह तो कम-से-कम भूकंप की तर्जनी; कुम्हड़बतियां और शिवजी के धनुष का ठीक अर्थ समझें।