साहित्य का उद्देश्य/10

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साहित्य का उद्देश्य
द्वारा प्रेमचंद
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जड़वाद और आत्मवाद

 

विद्वानों की दुनिया में आजकल आस्तिक और नास्तिक का पुराना झगड़ा फिर उठ खड़ा हुआ है। यह झगड़ा कभी शान्ति होने वाला तो है नहीं, हाँ, उसके रूप बदलते रहते हैं। आज के पचास साल पहले, जब विज्ञान ने इतनी उन्नति न की थी, और संसार में बिजली और भाप और भाँति भाँति के यन्त्रों की सृष्टि होने लगी, तो स्वभावतः मनुष्य को अपने बल और बुद्धि पर गर्व होने लगा, और अनन्त से जो अनीश्वरवाद या जड़वाद चला आ रहा है, उसे बहुत कुछ पुष्टि मिली। विद्वानों ने हमेशा ईश्वर के अस्तित्व में सन्देह किया है। जब प्रकृति का कोई रहस्य उनकी छोटी सी अक्ल के सुलझाये नहीं सुलझता तो उन्हें ईश्वर की याद आती और ज्यों ही विज्ञान ने एक कदम और आगे बढ़ाया और उस रहस्य को सुलझा दिया, तो विद्वानों का अभिमानी मन तुरन्त ईश्वर से बगावत कर बैठता है, या उनकी वह पुरानी बगावत फिर ताजी हो जाती है। जब भाप और बिजली जैसी चीजें आदमी ने बना डालीं, तो वह यह क्यों न समझ ले कि यह छोटी सी पृथ्वी और सूर्य आदि भी इतने महान विषय नहीं है, जिनके लिए ईश्वर की जरूरत माननी पड़े। जड़वाद ने तुरन्त दिमाग लड़ाया और सृष्टि की समस्य हल कर डाली। परमाणुवाद का झंडा लहराने लगा। प्रायः सभी विद्वानों ने उस झंडे के सामने सिर झुका दिया।

लेकिन इधर विज्ञान ने जो अक्ल को चौंधिया देने वाली उन्नति की है, और मनुष्य को मालूम हुआ है कि यह नए ईश्वर के करिश्मे [ ८१ ]
सृष्टि की महानता के सामने कोई चीज नहीं है, और इस गहराई में जितना ही उतरते हैं, उतनी ही उसकी अनन्तता और विशालता भी गहरी हो जाती है। तब से विद्वानों का अभिमान कुछ ठंडा पड़ने लगा है। उन्हें स्पष्ट नजर आने लगा है कि जड़वाद से सृष्टि की सारी गुत्थियाँ नही सुलझतीं, बल्कि जितनी सुलझाना चाहो, उतनी ही और उलझती जाती हैं। तो कम से कम कुछ दिनों के लिए तो जड़वाद का झंडा नीचा हो ही गया। जब आइंस्टीन से कोई बड़ा विद्वान आकर आइंस्टीन के सिद्धान्त को मिथ्या सिद्ध कर देगा, तो सम्भव है, जड़वाद फिर ताल ठोकने लगे। और यह झगड़ा हमेशा चलता रहेगा। जिन्हें इन झगड़ो में पड़े रहने से सारी दैहिक और पारिवारिक जरूरतें पूरी हो जाती हैं, उनके लिए बड़ा अच्छा मशगला है। हमारे लिए ईश्वर का अस्तित्व मनवाने को अकेली यह पृथ्वी काफी थी। आजकल का खगोल जब तीन करोड़ ऐसे ही विशाल सौर परिवारों का पता लगा चुका और बीस लाख सूर्य तो दूरबीनों से नजर आने लगे हैं और यह अनन्त पहले से कई लाख या करोड़ गुना अनन्त हो गया है, और एलेक्ट्रान और तरह तरह की अद्भुत किरणें हमारे सामने आ गई हैं, तो हमारी अक्ल का घनचक्कर हो जाना बिलकुल स्वाभाविक है। जो लोग इस पुरानी सृष्टि को समीप समझकर ईश्वर को जरा अपने से बड़ा मस्तिष्क समझ रहे थे, उनके लिए नये नये पिंड समूहों का निकलना और नये नये रहस्यों का प्रगट होना जरूर खतरे की बात है, और दस पाँच साल तक उन्हें खामोशी से महान् आत्मा को स्वीकार कर लेना चाहिए।

हमारे जैसे साधारण कोटि के मनुष्यों के लिए तो ईश्वर का अस्तित्व कभी विवाद का विषय हो ही नहीं सकता। विवाद का विषय केवल यह है कि वह दुनियाबी मामलों में कुछ दिलचस्पी लेता है या नहीं। एक दल तो कहता है, और इस दल मे बड़े बड़े लोग शामिल हैं, कि बिना उसकी मर्जी के पत्ती भी नहीं हिलती और वह सुख-दुःख, जीवन-मरण, स्वर्ग-नरक की व्यवस्था करता रहता है, और एक अनुत्तर-
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दायी राजा की भाँति संसार पर शासन करता है। क्या मजाल कि कोई किसी भाई को या जीव को कष्ट देकर बच जाय। उसे दंड मिलेगा और अवश्य मिलेगा। इस जन्म में न मिला न सही, अगले जन्म में पाई पाई चुका ली जायगी। दूसरा दल कहता है कि नहीं, ईश्वर ने संसार को बनाकर उसे पूर्ण स्वराज्य दे दिया है। डोमिनियन स्टेटस का वह कायल नहीं। उसने तो पूर्ण से भी कहीं पूर्ण स्वराज्य दे दिया है। मनुष्य जो चाहे करे, उसे मतलब नहीं। उसने जो नियम बना दिया है, उनकी पकड़ में आ जायगा तो तत्काल मजा चखना पड़ेगा और कायदे के अन्दर चले जाओ, तो उसकी फोज और उसके मन्त्री और कर्मचारी साँस भी न लेंगे। एक दल दूसरे दल पर अमानुषिक अत्याचार करे, ईश्वर से कोई मतलब नहीं। उसने कानून बना दिया है कि जो शक्ति संग्रह करेगा वह बलवान होगा और बलवान हमेशा निर्बलों पर शासन करता है। शक्ति कैसे संग्रह की जाती है, इसके साधन मनुष्य ने अनुभव से प्राप्त किये हैं, कुछ शास्त्र और विज्ञान से सीखा है। जो पुरुषार्थी और कर्मण्य हैं, उनकी विजय है, और जो दुर्बल हैं, उनकी हार है। ईश्वर को इसमें कोई दखल नहीं। मनुष्य लाख प्रार्थना करे, लाख स्तुति गाये, लाख जप तप करे, कोई फायदा नहीं। यहाँ एक राष्ट्र और एक समाज दूसरे राष्ट्र या समाज को पीसकर पी जाय, ईश्वर की बला से। और यह नृसिंह और प्रभु 'अब काहे नाही सुनत हमारी टेर' वाली बातें केवल अपनी नपुंसकता की दलीलें हैं। हमने तो मोटी सी बात समझ ली है कि ईश्वर रोम-रोम में, अणु-अणु में व्यात है। मगर उसी तरह जैसे हमारी देह में प्राण है। उसका काम केवल शक्ति और जीवन दे देना है। उस शक्ति से हम जो काम चाहें, लें, यह हमारी इच्छा पर है। यह मनुष्य की हिमाकत या अभिमान है कि वह अपने को अन्य जीवों से ऊँचा समझता है। वृक्ष और खटमल भी जीव हैं। वृक्ष को हम लगाते हैं, लग जाता है, काटते हैं, कट जाता है। खटमल हमें काटता है, हम उसे मारते हैं, हमे न काटे, तो
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हमें उससे कोई मतलब नहीं, अपने पड़ा रहे। ईश्वर को जिस तरह पौधों और खटमलों के मरने जीने से कोई मतलब नहीं, उसी तरह मनुष्य रूपी कीटों से भी उसे कोई प्रयोजन नहीं। आपस मे कटो-मरो, समष्टि की उपासना करो चाहे व्यष्टि की, गऊ की पूजा करो या गऊ की हत्या करो, ईश्वर को इससे कोई प्रयोजन नहीं। मनुष्य की भलाई या बुराई की परख उसकी सामाजिक या असामाजिक कृतियों में है। जिस काम से मनुष्य समाज को क्षति पहुँचती है, वह पाप है। जिससे उसका उपकार होता है, वह पुण्य है। सामाजिक उपकार या अपकार से परे हमारे किसी कार्य का कोई महत्व नहीं है और मानव जीवन का इतिहास आदि से इसी सामाजिक उपकार को मर्यादा बाँधता चला आया है। भिन्न भिन्न समाजों और श्रेणियों में यह मर्यादा भी भिन्न है। एक समाज पराई चीज की तरफ आँख उठाना भी बुरा समझता है, दूसरा समाज कोई चीज दाम देकर ख़रीदना पाप ख्याल करता है। एक समाज खटमल के पीछे मनुष्य को कत्ल करने पर तैयार है, दूसरा समाज पशुओं के शिकार को मनोरंजन की वस्तु समझता है। अभी बहुत दिन नहीं गुजरे और आज भी संसार के बाज़े हिस्सों में धर्म केवल गुटबन्दी का नाम है जिससे मनुष्यों का एक समूह लोक और परलोक की सारी अच्छी चीजें अपने ही लिए रिजर्व कर लेता है और किसी दूसरे समूह का उसमें उस वक्त तक हिस्सा नहीं देता जब तक वह अपना दल छोड़कर उसके दल मे ना मिले। धर्म के पीछे क्या क्या अत्याचार हुए हैं, कौन नहीं जानता। आजकल धर्म का वह महत्त्व नहीं है। वह पद अब व्यापार को मिल गया है। और इस व्यापार के लिए आज राष्ट्रों और जातियों में कैसा संघर्ष हो रहा है, वह हम देख ही रहे हैं। ईश्वर को इन सारे टंटो से कोई मतलब नहीं है। चाहे कोई राम को बीसों कला का अवतार माने या गान्धी को, ईश्वर को परवाह नहीं। उपासना और भक्ति यह सब अपनी मनोवृत्तियों की चीजें हैं, ईश्वर को हमारी भक्ति और उपासना से कोई मतलब नहीं। हम व्रत
[ ८४ ]रखते हैं तो इससे हमारी पाचन शक्ति ठीक हो सकती है, और हम समाज के लिए ज्यादा उपयोगी हो सकते हैं, इस अर्थ में तो जरूर ब्रत पुण्य है, लेकिन भगवान जी उससे प्रसन्न होकर, या लाख बार राम राम की रट लगाने से, हमारा संकट हर लेंगे, यह बिल्कुल गलत बात है। हम संसार की एक प्रधान जाति है, लेकिन अकर्मण्य और इसलिए पराधीन। अगर ईश्वर अपने भक्तों की हिमायत करता, तो आज मन्दिरों, देवालयों और मस्जिदों की यह तपोभूमि क्यों इस दशा में होती?

लेकिन नहीं, हम शायद भूल कर रहे हैं। भगवान अपने भक्तों को दुखी देखकर ही प्रसन्न होता है क्योंकि उसका स्वार्थ हमारे दुखी रहने में है। सुखी होकर कौन भगवान की याद करता है...दुख में सुमिरन सब करै, सुख मे करै न कोय।


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