साहित्य का उद्देश्य/9

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साहित्य का उद्देश्य
द्वारा प्रेमचंद
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साहित्य में बुद्धिवाद

 

साहित्य सम्मेलन की साहित्य परिषद् में श्री लक्ष्मीनारायण मिश्र ने इस विषय पर एक सारगर्भित भाषण दिया, जिसमें विचार करने की बहुत कुछ सामग्री है। उसमें अधिकांश जो कुछ कहा गया है, उससे तो किसी को इनकार न होगा। जब हमें कदम-कदम पर बुद्धि की जरूरत पड़ती है, और बुद्धि को ताक पर रखकर हम एक कदम भी आगे नहीं रख सकते, तो साहित्य क्योंकर इसकी उपेक्षा कर सकता है। लेकिन जीवन के हरेक व्यापार को अगर बुद्धिवाद की ऐनक लगाकर ही देखें, तो शायद जीवन दूभर हो जाय। भावुकता को सीधे रास्ते पर रखने के लिए बुद्धि की नितान्त आवश्यकता है, नहीं तो आदमी संकटों में पड़ जाय, इसी तरह बुद्धि पर भी मनोभावों का नियन्त्रण रहना जरूरी है, नहीं तो आदमी जानकर हो जाय, बल्कि राक्षस हो जाय। बुद्धिवाद हरेक चीज को उपयोगिता की कसौटी पर कसता है। बहुत ठीक। अगर साहित्य का जीवन में कोई उपयोग न हो तो वह व्यर्थ की चीज़ है। वह उपयोग इसके सिवा क्या हो सकता है, कि वह जीवन को ज्यादा सुखी, ज्यादा सफल बनाए, जीवन की समस्याओं को सुलझाने में मदद दे या जैनेन्द्र जी के शब्दों में प्रकृति और जीवन में सामन्जस्य उत्पन्न करे। कोरी भावुकता यह सामन्जस्य नहीं पैदा कर सकती, तो शायद कोरा बुद्धिवाद भी नहीं कर सकता। दोनों का समन्वय होने से ही वह एकता पैदा हो सकती है। सच पूछिए, तो कला और साहित्य बुद्धिवाद के लिए उपयुक्त ही नहीं। साहित्य तो भावुकता की वस्तु है, बुद्धिवाद को यहाँ [ ७७ ]इतनी ही जरूरत है कि भावुकता बेलगाम होकर दौड़ने न पाये। वैराग्यवाद और दुःखवाद और निराशावाद, ये सब जीवन-बल को कम करने वाली चीजें है और साहित्य पर इनका आधिपत्य हो जाना जीवन को दर्बल कर देगा। लेकिन उसी तरह बुद्धिवाद और तर्कवाद और उपयोगितावाद भी जीवन को दुर्बल कर देगा, अगर उसे बेलगाम दौडने दिया गया। बिजली की हमे इतनी ही जरूरत है कि मशीन चलती रहे: अगर करेट ज्यादा तेज हो गया तो घातक हो जायेगा। दाल मे घी जरूरी चीज़ है । एक चम्मच और पड जाय तो और भी अच्छा, लेकिन घी पीकर तो हम नहीं रह सकते । मथुरा मे कुछ ऐसे जन्तु पाये जाते है जो घी के लोंदे खा जाते है, लेकिन उसमे भी वे खूब शक्कर मिला लेते है वरना उनकी भस्मक जठराग्नि भी जवाब दे जाय । बुद्धिवाद का प्राचार्य बर्नार्ड शा भी तो अपने नाटकों मे हास्य और व्यग्य और चुटकियो की चाशनी मिलाता है । वह जबान से चाहे कितना ही बुद्धि- वाद की हाक लगाये; मगर भावुकता उसके पोर पोर मे भरी हुई है। वर्ना वह क्यो रोल्स राइस कार पर सवार होता ? क्या मामूली बेबी आस्टिन से उसका काम नहीं चल सकता था ? उसके बुद्धिवाद पर मिसेज शा की भावुकता का नियन्त्रण न होता तो शायद आज वह पागलखाने की हवा खाता होता । मनुष्य मे न केवल बुद्धि है, न केवल भावुकता। वह इन दोनो का सम्मिश्रण है, इसलिए आपके साहित्य मे भी इन दोनो का सम्मिश्रण होना चाहिए । बुद्धिवाद तो कहेगा कि रस एक व्यर्थ की चीज है। प्रेम और वियोग, क्रोध और मोह, दया और शील यह सब उसकी नजर मे हेय है। वह तो केवल न्याय और विचार को ही जीवन का सर्वस्व समझता है । उसका मन्त्र लेकर हमारी मानवता इतनी क्षीण हो जायेगी कि हवा से उड जाय । एक उदाहरण लीजिए ।

एक मुसाफिर को डाकुओं ने घेर लिया है । अगर संसार में समष्टिवाद का राज हो गया है, तो निश्चय रूप से डाकू न होंगे। [ ७८ ]
तो एक दूसरा उदाहरण लीजिए। एक स्त्री को कुछ लम्पटो ने घेर लिया है-समष्टिवाद भी लम्पटताका अन्त नहीं कर सकता-उसी वक्त एक मुमाफिर उबर से आ निकलता है । भावुकता कहती है- भगा दो इन बदमाशा का ओर इस देवी का उद्धार करो। बुद्धिवाद कहेगा, मै अकेला इन पाँच आदमियो का क्या सामना करूंगा। व्यर्थ मे मेरो जान भी जायेगी । लम्पट लोग स्त्री की हत्या न करेगे लेकिन मेरा तो खून ही पी जायेगे। यहाँ भावुकता ही मानवता है। बुद्धिवाद कायरता है, दुर्बलता है। प्रेम के आडम्बरो को निकाल दीजिए, तो वह केवल सन्तानोत्पत्ति की इच्छा है। मगर शायद बाबा आदम ने भी बीबी हौवा से सीधे सीधे यह न कहा होगा-मै तुमसे सन्तानोत्पत्ति करना चाहता हूँ, इसलिए तुम मेरे पास आओ! उन्हे भी कुछ-न-कुछ नाजबरदारी करनी पड़ी होगी। अगर ब्रजभाषा वालो का रति-वर्णन घृणास्पद है, तो बुद्धिवाद का यह लक्कड़तोड अनुरोध भी नगी बर्बरता है। फिर उस बुद्धिवाद को लिखकर ही क्या कीजिए जब कोई उसे पढे ही नहीं। अभी किसी बुद्धिवादी साहित्यिक डिक्टेटर का राज तो है नहीं, कि वह छायावाद को दफा १२४ के अन्दर ले ले । श्राप जनता तक तभी पहुंच सकते है, जब आप उनके मनोभावो को स्पर्श कर सके। आपके नाटक या कहानी मे अगर भावुकता के लिए रस नहीं है, केवल मस्तिष्क के लिए सूखा बुद्धिवाद है, तो नाटककार और नटो के सिवा हॉल मे कोई दर्शक न होगा। हँसना और रोना भी तो भावुकता ही है । बुद्धि क्यो रोए ? रोने से मुर्दा जी न उठेगा । और हसे भी क्यो ? जो चीज़ हाथ आ गई है वह हँसने से ज्यादा कीमती न हो जायगो । ऐसा सूखा साहित्य अगर अमृत भी हो तो पड़ा पडा भाप बनकर उड़ जायेगा । साहित्य में जीवन-बल देने की क्षमता होनी चाहिये । यहाँ तक तो हम आपके साथ है, लेकिन बुद्धिवाद ही यह जीवन-बल दे सकता है, मनोभावों द्वारा यह शक्ति मिल ही नहीं सकती, यह हम नही मानते । आदर्श साहित्य वही है जिसमे बुद्धि और मनोभाव दोनो का कलात्मक
[ ७९ ]सम्मिश्रण हो । बुद्धि के लिए दर्शन है, शास्त्र है, विज्ञान है, और अनन्त ज्ञान-क्षेत्र है। क्या वह साहित्य और कला मे भी मनोभावो- मनोवेगो को नही रहने देना चाहता ? ।


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