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साहित्य का उद्देश्य/2

विकिस्रोत से
साहित्य का उद्देश्य
प्रेमचंद

पृष्ठ २० से – २९ तक

 

जीवन में साहित्य का स्थान

 

साहित्य का आधार जीवन है। इसी नींव पर साहित्य की दीवार खड़ी होती है, उसकी अटारियाँ, मीनार और गुम्बद बनते हैं; लेकिन बुनियाद मिट्टी के नीचे दबी पड़ी है। उसे देखने को भी जी नहीं चाहेगा। जीवन परमात्मा की सृष्टि है; इसलिए अनन्त है, अबोध है, अगम्य है। साहित्य मनुष्य की सृष्टि है; इसलिए सुबोध है, सुगम है और मर्यादाओं से परिमित है। जीवन परमात्मा को अपने कामों का जवाबदेह है या नहीं, हमें मालूम नहीं, लेकिन साहित्य तो मनुष्य के सामने जवाबदेह है। इसके लिए कानून है जिनसे वह इधर-उधर नहीं हो सकता। जीवन का उद्देश्य ही आनन्द है। मनुष्य जीवनपर्यन्त आनन्द ही की खोज में पड़ा रहता है। किसी को वह रत्न-द्रव्य मे मिलता है, किसी को भरे-पूरे परिवार में, किसी को लम्बे-चौड़े भवन में, किसी को ऐश्वर्य में। लेकिन साहित्य का आनन्द, इस आनन्द से ऊँचा है, इससे पवित्र है, उसका आधार सुन्दर और सत्य है। वास्तव मे सच्चा आनन्द सुन्दर और सत्य से मिलता है। उसी आनन्द को दर्साना, वही आनन्द उत्पन्न करना, साहित्य का उद्देश्य है। ऐश्वर्य या भोग के आनन्द में ग्लानि छिपी होती है। उससे अरुचि भी हो सकती है, पश्चात्ताप भी हो सकता है; पर सुन्दर से जो आनन्द प्राप्त होता है, वह अखंड है, अमर है।

साहित्य के नौ रस कहे गये हैं। प्रश्न होगा, वीभत्स में भी कोई आनन्द है? अगर ऐसा न होता, तो वह रसों में गिना ही क्यों जाता।
हॉ, है । वीभत्स में सुन्दर और सत्य मौजूद है। भारतेन्दु ने श्मशान का जो वर्णन किया है, वह कितना वीभत्स है । प्रेतो और पिशाचो का अधजले मास के लोथडे नोचना, हड्डियो को चटर-चटर चबाना, चीभत्स की पराकाष्ठा है। लेकिन वह वीभत्स होते हुए भी सुन्दर है, क्योकि उसकी सृष्टि पीछे आनेवाले स्वर्गीय दृश्य के आनन्द को तीव्र करने के लिए ही हुई है। साहित्य तो हर एक रस मे सुन्दर खोजता है-राजा के महल मे, रंक की झोपडी मे, पहाड़ के शिखर पर, गंदे नालो के अदर, उषा की लाली मे, सावन-भादो की अँधेरी रात मे । और यह आश्चर्य की बात है कि रक की झोपडी मे जितनी आसानी से सुन्दर मूर्तिमान दिखाई देता है उतना महलो मे नहीं। महलो मे तो वह खोजने से मुश्किलों से मिलता है । जहाँ मनुष्य अपने मौलिक, यथार्थ अकृत्रिम रूप मे है, वहीं अानन्द है । आनन्द कृत्रिमता और आडम्बर से कोसों भागता है। सत्य का कृत्रिम से क्या सम्बन्ध । अतएव हमारा विचार है कि साहित्य मे केवल एक रस है और वह शृङ्गार है । कोई रस साहित्यिक-दृष्टि से रस नहीं रहता और न उस रचना की गणना साहित्य में की जा सकती है जो शृङ्गार-विहीन और असुन्दर हो। जो रचना केवल वासना-प्रधान हो, जिसका उद्देश्य कुत्सित भावो को जगाना हो, जो केवल वाह्य जगत् से सम्बन्ध रखे, वह साहित्य नहीं है। जासूसी उपन्यास अद्भुत होता है । लेकिन हम उसे साहित्य उसी वक्त कहेगे, जब उसमे सुन्दर का समावेश हो, खूनी का पता लगाने के लिए सतत उद्योग, नाना प्रकार के कष्टों का झेलना, न्याय-मर्यादा की रक्षा करना, ये भाव रहे, जो इस अद्भुत रस की रचना को सुन्दर बना देते है।

सत्य से आत्मा का सम्बन्ध तीन प्रकार का है । एक जिज्ञासा का सम्बन्ध है, दूसरा प्रयोजन का सम्बन्ध है और तीसरा आनन्द का । जिज्ञासा का सम्बन्ध दर्शन का विषय है, प्रयोजन का सम्बन्ध विज्ञान का विषय है और साहित्य का विषय केवल आनन्द का सम्बन्ध है । सत्य

जहाँ आनन्द का स्रोत बन जाता है, वहीं वह साहित्य हो जाता है। जिज्ञासा का सम्बन्ध विचार से है, प्रयोजन का सम्बन्ध स्वार्थ-बुद्धि से। आनन्द का सम्बन्ध मनोभावों से है। साहित्य का विकास मनोभावों द्वारा ही होता है । एक दृश्य या घटना या काड को हम तीनो ही भिन्न- भिन्न नजरो से देख सकते है । हिम से ढंके हुए पर्वत पर ऊषा का दृश्य दार्शनिक के गहरे विचार की वस्तु है, वैज्ञानिक के लिए अनुसन्धान की, और साहित्यिक के लिए विह्वलता की। विह्वलता एक प्रकार का आत्म-समर्पण है। यहाँ हम पृथक्ता का अनुभव नही करते । यहाँ ऊँच-नीच, भले-बुरे का भेद नहीं रह जाता। श्रीरामचन्द्र शवरी के जूठे बेर क्यो प्रेम से खाते है, कृष्ण भगवान विदुर के शाक को क्यो नाना व्यञ्जनो से रुचिकर समझते है ? इसीलिए कि उन्होंने इस पार्थक्य को मिटा दिया है। उनकी आत्मा विशाल है। उसमे समस्त जगत् के लिए स्थान है । आत्मा अात्मा से मिल गयी है। जिसकी आत्मा जितनी ही विशाल है, वह उतना ही महान पुरुष है। यहाँ तक कि ऐसे महान् पुरुष भी हो गये हैं, जो जड जगत् से भी अपनी आत्मा का मेल कर सके है।

आइये देखें, जीवन क्या है ? जीवन केवल जीना, खाना, सोना और मर जाना नहीं है । यह तो पशुत्रो का जीवन है। मानव-जीवन मे भी यह सभी प्रवृत्तियाँ होती हैं , क्योकि वह भी तो पशु है। पर इनके उपरान्त कुछ और भी होता है। उनमे कुछ ऐसी मनोवृत्तियाँ होती हैं, जो प्रकृति के साथ हमारे मेल मे बाधक होती है, कुछ ऐसी होती हैं, जो इस मेल मे सहायक बन जाती है। जिन प्रवृत्तियो मे प्रकृति के साथ हमारा सामजस्य बढ़ता है, वह वाछनीय होती है, जिनसे सामंजस्य मे बाधा उत्पन्न होती है, वे दूषित है। अहङ्कार, क्रोध या द्वेष हमारे मन की बाधक प्रवृत्ति है । यदि हम इनको बेरोक-टोक चलने दे, तो निस्सदेह वह हमे नाश और पतन की ओर ले जायेंगी, इसलिए हमे उनकी लगाम रोकनी पड़ती है, उन पर संयम रखना पड़ता है, जिसमे वे अपनी

सीमा से बाहर न जा सके । हम उन पर जितना कठोर सयम रख सकते हैं, उतना ही मगलमय हमारा जीवन हो जाता है ।

किन्तु नटखट लड़को से डॉटकर कहना-तुम बडे बदमाश हो, हम तुम्हारे कान पकड़कर उखाड लेगे-अक्सर व्यर्थ ही होता है, बल्कि उस प्रवृत्ति को और हठ की ओर ले जाकर पुष्ट कर देता है। जरूरत यह होती है, कि बालक मे जो सवृत्तियाँ है उन्हे ऐसा उत्तेजित किया जाय, कि दूषित वृत्तियों स्वाभाविक रूप से शान्त हो जायें। इसी प्रकार मनुष्य को भी आत्मविकास के लिए सयम की आवश्यकता होती है। साहित्य ही मनोविकारो के रहस्य खोलकर सदवृत्तियो को जगाता है । सत्य को रसो-द्वारा हम जितनी आसानी से प्राप्त कर सकते है, ज्ञान और विवेक द्वारा नही कर सकते, उसी भाँति जैसे दुलार-चुमकारकर बच्चो को जितनी सफलता से वश मे किया जा सकता है, डॉट-फटकार से सम्भव नहीं। कौन नहीं जानता कि प्रेम से कठोर-से-कठोर प्रकृति को नरम किया जा सकता है । साहित्य मस्तिष्क की वस्तु नहीं, हृदय की वस्तु है । जहाँ ज्ञान और उपदेश असफल होता है, वहाँ साहित्य बाजी ले जाता है । यही कारण है, कि हम उपनिपदो और अन्य धर्म-ग्रथो को साहित्य की सहायता लेते देखते है। हमारे धर्माचार्यों ने देखा कि मनुष्य पर सबसे अधिक प्रभाव मानव-जीवन के दुःख-सुख के वर्णन से ही हो सकता है और उन्होने मानव-जीवन की वे कथाएँ रची,जो आज भी हमारे आनंद की वस्तु है । बौद्धो की जातक-कथाएँ, तौरेह, कुरान, इखील ये सभी मानवी कथात्रो के सग्रहमात्र है। उन्हीं कथानो पर हमारे बडे-बडे धर्म स्थिर है । वही कथाएँ धर्मों की आत्मा है । उन कथाओ को निकाल दीजिए, तो उस धर्म का अस्तित्व मिट जायगा । क्या उन धर्म-प्रवर्तकों ने अकारण ही मानवी जीवन की कथाओ का आश्रय लिया १ नहीं, उन्होंने देखा कि हृदय द्वारा ही जनता की आत्मा तक अपना सन्देशा पहुँचाया जा सकता है। वे स्वय विशाल हृदय के मनुष्य थे। उन्होने मानव जीवन

से अपनी आत्मा का मेल कर लिया था। समस्त मानवजाति से उनके जीवन का सामञ्जस्य था, फिर वे मानव-चरित्र की उपेक्षा कैसे करते ?

अादि काल से मनुष्य के लिए सबसे समीप मनुष्य है । हम जिसके सुख दुःख, हंसने-रोने का मर्म समझ सकते है, उसी से हमारी आत्मा का अधिक मेल होता है । विद्यार्थी को विद्यार्थी-जीवन से,कृषक को कृषक- जीवन से जितनी रुचि है, उतनी अन्य जातियों से नहीं, लेकिन साहित्य- जगत् मे प्रवेश पाते ही यह भेद, यह पार्थक्य मिट जाता है। हमारी मानवता जैसे विशाल और विराट् होकर समस्त मानव-जाति पर अधि- कार पा जानी है। मानव-जाति ही नही, चर और अचर, जड़ और चेतन सभी उसके अधिकार में आ जाते हैं । उसे मानो विश्व की आत्मा पर साम्राज्य प्राप्त हो जाता है। श्री रामचन्द्र राजा थे; पर आज रंक भी उनके दुःख से उतना ही प्रभावित होता है, जितना कोई राजा हो सकता है । साहित्य वह जादू की लकड़ी है, जो पशुश्रो मे, ईट-पत्थरों मे, पेड-पौधों मे विश्व की आत्मा का दर्शन करा देती है । मानव हृदय का जगत् , इस प्रत्यक्ष जगत् जैसा नही है । हम मनुष्य होने के कारण मानव-जगत् के प्राणियो मे अपने को अधिक पाते है, उनके सुख-दु:ख, हर्ष और विषाद से ज्यादा विचलित होते है । हम अपने निकटतम बन्धु- बाधवों से अपने को इतना निकट नहीं पाते, इसलिए कि हम उनके एक एक विचार, एक-एक उद्गार को जानते हैं, उनका मन हमारी नजरो के सामने आईने की तरह खुला हुआ है । जीवन मे ऐसे प्राणी हमे कहाँ मिलते हैं, जिनके अन्तःकरण मे हम इतनी स्वाधीनता से विचर सकें। सच्चे साहित्यकार का यही लक्षण है कि उसके भावो मे व्यापकता हो, उसने विश्व की आत्मा से ऐसी Harmony प्राप्त कर ली हो कि. उसके भाव प्रत्येक प्राणी को अपने ही भाव मालूम हो ।

साहित्यकार बहुधा अपने देश काल से प्रभावित होता है । जब कोई लहर देश मे उठती है, तो साहित्यकार के लिए उससे अविचलित रहना असंभव हो जाता है और उसकी विशाल आत्मा अपने देश-बन्धुओं के

कष्टो से विकल हो उठती है और इस तीव्र विकलता मे वह रो उठता है,पर उसके रुदन मे भी व्यापकता होती है। वह स्वदेश का होकर भी सार्वभौमिक रहता है । 'टाम काका की कुटिया' गुलामी की प्रथा से व्यथित हृदय की रचना है; पर आज उस प्रथा के उठ जाने पर भी उसमे वह व्यापकता है कि हम लोग भी उसे पढकर मुग्ध हो जाते है। सच्चा साहित्य कभी पुराना नही होता । वह सदा नया बना रहता है । दर्शन और विज्ञान समय की गति के अनुसार बदले रहते हैं, पर साहित्य तो हृदय की वस्तु है और मानव हृदय मे तबदीलियों नहीं होतीं । हर्ष और विस्मय, क्रोध और द्वेष, श्राशा और भय, आज भी हमारे मन पर उसी तरह अधिकृत हैं, जैसे आदिकवि वाल्मीकि के समय मे थे और कदाचित् अनन्त तक रहेगे । रामायण के समय का समय अब नहीं है। महाभारत का समय भी अतीत हो गया: पर ये ग्रन्थ अभी तक नये है। साहित्य ही सच्चा इतिहास है क्योंकि उसमे अपने देश और काल का जैसा चित्र होता है, वैसा कोरे इतिहास में नहीं हो सकता । घटनाप्रो की तालिका इतिहास नही है और न राजाश्रो की लडाइयाँ ही इतिहास है। इतिहास जीवन के विभिन्न अङ्गों की प्रगति का नाम है, और जीवन पर साहित्य से अधिक प्रकाश और कौन वस्तु डाल सकती है क्योंकि साहित्य अपने देश काल का प्रतिबिम्ब होता है ।

जीवन मे साहित्य की उपयोगिता के विषय मे कभी-कभी सन्देह किया जाता है। कहा जाता है, जो स्वभाव से अच्छे है, वह अच्छे ही रहेगे, चाहे कुछ भी पढ़ें । जो स्वभाव के बुरे हैं, वह बुरे ही रहेंगे, चाहे कुछ भी पढ़े। इस कथन मे सत्य की मात्रा बहुत कम है । इसे सत्य मान लेना मानव-चरित्र को बदल लेना होगा । जो सुन्दर है, उसकी अोर मनुष्य का स्वाभाविक आकर्षण होता है ।हम कितने ही पतित हो जायँ पर असुन्दर की ओर हमारा आकर्षण नहीं हो सकता । हम कर्म चाहे कितने ही बुरे करे पर यह असम्भव है कि करुणा और दया और प्रेम और भक्ति का हमारे दिलो पर असर न हो । नादिरशाह से ज्यादा निर्दयी मनुष्य और

कौन हो सकता है-हमारा आशय दिल्ली मे कतलाम करानेवाले नादिरशाह से है। अगर दिल्ली का कतलाम सत्य घटना है, तो नादिरशाह के निर्दय होने मे कोई सन्देह नही रहता । उस समय आपको मालूम है, किस बात से प्रभावित होकर उसने कतलाम को बन्द करने का हुक्म दिया था ? दिल्ली के बादशाह का वजीर एक रसिक मनुष्य था । जब उसने देखा कि नादिरशाह का क्रोध किसी तरह नही शान्त होता और दिल्लीवालो के खून की नदी बहती चली जाती है, यहाँ तक कि खुद नादिरशाह के मुंहलगे अफसर भी उसके सामने आने का साहस नहीं करते, तो वह हथेलियो पर जान रखकर नादिर- शाह के पास पहुंचा और यह शेर पढ़ा-

'कसे न मॉद कि दीगर ब तेगे नाज़ कुशी।

मगर कि जिन्दा कुनी खल्क रा व बाज़ कुशी।'

इसका अर्थ यह है कि तेरे प्रेम की तलवार ने अब किसी को जिन्दा न छोडा। अब तो तेरे लिए इसके सिवा और कोई उपाय नहीं है कि तू मुर्दो को फिर जिला दे और फिर उन्हे मारना शुरू करे । यह फारसी के एक प्रसिद्ध कवि का शृङ्गार-विषयक शेर है; पर इसे सुनकर कातिल के दिल मे मनुष्य जाग उठा । इस शेर ने उसके हृदय के कोमल भाग को स्पर्श कर दिया और कतलाम तुरन्त बन्द करा दिया गया । नेपोलियन के जीवन की यह घटना भी प्रसिद्ध है, जब उसने एक अंग्रेज मल्लाह को झाऊ की नाव पर कैले का समुद्र पार करते देखा । जब फ्रासीसी अपराधी मल्लाह को पकड़कर, नेपोलियन के सामने लाये और उससे पूछा-तू इस भगुर नौका पर क्यो समुद्र पार कर रहा था, तो अपराधी ने कहा-इसलिए कि मेरी वृद्धा माता घर पर अकेली है, मै उसे एक बार देखना चाहता था । नेपोलियन की ऑखो मे ऑसू छलछला आये। मनुष्य का कोमल भाग स्पन्दित हो उठा। उसने उस सैनिक को फ्रासीसी नौका पर इगलैड भेज दिया। मनुष्य स्वभाव से देव तुल्य है। जमाने के छल प्रपञ्च और परिस्थितियो के वशीभूत
होकर वह अपना देवत्व खो बैठता है । साहित्य इसी देवत्व को अपने स्थान पर प्रतिष्ठित करने की चेष्टा करता है-उपदेशो से नहीं, नसी- हतो से नहीं, भावो को स्पन्दित करके, मन के कोमल तारो पर चोट लगाकर, प्रकृति से सामजस्य उत्पन्न करके। हमारी सभ्यता साहित्य पर ही अाधारित है । हम जो कुछ है, साहित्य के ही बनाये है। विश्व की आत्मा के अन्तर्गत भी राष्ट्र या देश की एक श्रात्मा होती है । इसी श्रात्मा की प्रतिध्वनि है-साहित्य । योरप का साहित्य उठा लीजिए। श्राप वहाँ सघर्ष पायेगे । कही खूनी काडो का प्रदर्शन है, कही जाससी कमाल का । जैसे सारी संस्कृति उन्मत्त होकर मरु मे जल खोज रही है । उस साहित्य का परिणाम यही है कि वैयक्तिक स्वार्थ-परायणता दिन दिन बढती जाती है, अर्थ-लोलुपता की कही सीमा नहीं, नित्य दगे, नित्य लडाइयाँ । प्रत्येक वस्तु स्वार्थ के कॉटे पर तौली जा रही है । यहाँ तक कि अब किसी युरोपियन महात्मा का उपदेश सुनकर भी सन्देह होता है कि इसके परदे मे स्वार्थ न हो । साहित्य सामाजिक श्रादों का स्रष्टा है । जब अादर्श ही भ्रष्ट हो गया, तो समाज के पतन मे बहुत दिन नहीं लगते । नयी सभ्यता का जीवन डेढ सौ साल से अधिक नहीं पर अभी से संसार उससे तग आ गया है। पर इसके बदले मे उसे कोई ऐसी वस्तु नही मिल रही है, जिसे वहाँ स्थापित कर सके । उसकी दशा उस मनुष्य की-सी है, जो यह तो समझ रहा है कि वह जिस रास्ते पर जा रहा है, वह ठीक रास्ता नही है ; पर वह इतनी दूर पा चुका है, कि अब लौटने की उसमे सामर्थ्य नहीं है। वह आगे ही जायगा । चाहे उधर कोई समुद्र ही क्यो न लहरे मार रहा हो। उसमे नैराश्य का हिंसक बल है, अाशा की उदार शक्ति नहीं । भारतीय साहित्य का आदर्श उसका त्याग और उत्सर्ग है। योरप का कोई व्यक्ति लखपती होकर, जायदाद खरीदकर, कम्पनियो मे हिस्से लेकर, और ऊँची सोसायटी मे मिलकर अपने को कृतकार्य समझता है। भारत अपने को उस समय कृतकार्य समझता है, जब वह इस माया-बन्धन से मुक्त हो जाता है,
जब उसमे भोग और अधिकार का मोह नही रहता। किसी राष्ट्र की सबसे मूल्यवान् सम्पत्ति उसके साहित्यिक आदर्श होते हैं। व्यास और चाल्मीकि ने जिन आदर्शों की सृष्टि की, वह आज भी भारत का सिर ऊँचा किये हुए हैं। राम अगर वाल्मीकि के साँचे मे न ढलते, तो राम न रहते । सीता भी उसी सॉचे मे ढलकर सीता हुई। यह सत्य है कि हम सब ऐसे चरित्रो का निर्माण नही कर सकते; पर एक धन्वन्तरि के होने पर भी संसार मे वैद्यो की आवश्यकता रही है और रहेगी।

ऐसा महान् दायित्व जिस वस्तु पर है, उसके निर्माताओं का पद कुछ कम जिम्मेदारी का नहीं है । कलम हाथ मे लेते ही हमारे सिर बड़ी भारी जिम्मेदारी आ जाती है । साधारणतः युवावस्था मे हमारी निगाह पहले विध्वंस करने की अोर उठ जाती है। हम सुधार करने की धुन मे अंधाधुंध शर चलाना शुरू करते है । खुदाई फौजदार बन जाते है । तुरन्त अॉखे काले धब्बो की अोर पहुँच जाती है। यथार्थवाद के प्रवाह मे बहने लगते हैं। बुराइयों के नग्न चित्र खींचने मे कला की कृतकार्यता समझते है । यह सत्य है कि कोई मकान गिराकर ही उसकी जगह नया मकान बनाया जाता है। पुराने ढकोसलों और बन्धनो को तोड़ने की जरूरत है; पर इसे साहित्य नही कह सकते । साहित्य तो वही है, जो साहित्य की मर्यादात्रों का पालन करे । हम अक्सर साहित्य का मर्म समझे बिना ही लिखना शुरू कर देते है । शायद हम समझते है कि मजेदार, चटपटी और ओजपूर्ण भाषा लिखना ही साहित्य है। भाषा भी साहित्य का एक अंग है; पर साहित्य विश्वस नहीं करता, निर्माण करता है। वह मानव-चरित्र की कालिमाएँ नहीं दिखाता, उसकी उज्ज्वलताएँ दिखाता है । मकान गिरानेवाला इन्जीनियर नही कहलाता । इन्जीनियर तो निर्माण ही करता है। हममे जो युवक साहित्य को अपने जीवन का ध्येय बनाना चाहते है, उन्हें बहुत अात्म संयम की आवश्यकता है, क्योकि वह अपने
को एक महान् पद के लिए तैयार कर रहा है, जो अदालतों मे बहस करने या कुरसी पर बैठकर मुकदमे का फैसला करने से कहीं ऊँचा है। उसके लिये केवल डिग्रियाँ और ऊँची शिक्षा काफी नहीं । चित्त की साधना, संयम, सौन्दर्य, तत्व का ज्ञान, इसकी कहीं ज्यादा जरूरत है। साहित्यकार को आदर्शवादी होना चाहिए । भावो का परिमार्जन भी उतना ही वाछनीय है जब तक हमारे साहित्य-सेवी इस आदर्श नक न पहॅचेगे तब तक हमारे साहित्य से मंगल की आशा नही की जा सकती। अमर साहित्य के निर्माता विलासी प्रवृत्ति के मनुष्य नहीं थे। वाल्मीकि और व्यास दोनो तपस्वी थे । सूर और तुलसी भी विलासिता के उपासक न थे । कबीर भी तपस्वी ही थे। हमारा साहित्य अगर अाज उन्नति नहीं करता तो इसका कारण यह है कि हमने साहित्य-रचना के लिये कोई तैयारी नही की। दो-चार नुस्खे याद करके हकीम बन बैठे। साहित्य का उत्थान राष्ट्र का उत्थान है और हमारी ईश्वर से यही याचना है कि हममे सच्चे साहित्य सेवी उत्पन्न हो, सच्चे तपस्वी, सच्चे आत्मज्ञानी।


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