साहित्य का उद्देश्य/4

विकिस्रोत से
साहित्य का उद्देश्य
द्वारा प्रेमचंद
[ ३५ ]

कहानी-कला:१

 

गल्प, आख्यायिका या छोटी कहानी लिखने की प्रथा प्राचीन काल से चली आती है। धर्म-ग्रन्थों में जो दृष्टान्त भरे पड़े हैं, वे छोटी कहानियाँ ही हैं, पर कितनी उच्च-कोटि की। महाभारत, उपनिषद्, बुद्ध जातक, बाइबिल, सभी सद्ग्रथों में जन-शिक्षा का यही साधन उपयुक्त समझा गया है। ज्ञान और तत्व की बातें इतनी सरल रीति से और क्योंकर समझायी जातीं? किन्तु प्राचीन ऋषि इन दृष्टान्तों द्वारा केवल आध्यात्मिक और नैतिक तत्वों का निरूपण करते थे। उनका अभिप्राय केवल मनोरञ्जन न होता था। सद्ग्रथों के रूपको और बाइबिल के Parables देखकर तो यही कहना पड़ता है कि अगले जो कुछ कर गये, वह हमारी शक्ति से बाहर है, कितनी विशुद्ध कल्पना, कितना मौलिक निरूपण, कितनी ओजस्विनी रचना-शैली है कि उसे देखकर वर्तमान साहित्यिक की बुद्धि चकरा जाती है। आजकल आख्यायिका का अर्थ बहुत व्यापक हो गया है। उसमें प्रेम की कहानियाँ, जासूसी किस्से, भ्रमण-वृत्तान्त, अद्भुत घटना, विज्ञान की बातें, यहाँ तक कि मित्रों की गप-शप भी शामिल कर दी जाती हैं। एक अंगरेजी समालोचक के मतानुसार तो कोई रचना, जो पन्द्रह मिनटों मे पढ़ी जा सके, गल्प कही जा सकती है। और तो और, उसका यथार्थ उद्देश्य इतना अनिश्चित हो गया है कि उसमें किसी प्रकार का उपदेश होना दूषण समझा जाने लगा है। वह कहानी सबसे नाकिस समझी जाता है, जिसमें उपदेश की छाया भी पड़ जाय।

आख्यायिकाओं द्वारा नैतिक उपदेश देने की प्रथा धर्मग्रंथों ही में नहीं, साहित्य-ग्रंथो में भी प्रचलित थी। कथा-सरित्सागर इसका उदाहरण [ ३६ ]
है।इसके पश्चात् बहुत-सी आख्यायिकाश्रो को एक शृङ्खला मे बाँधने की प्रथा चली । बैताल-पचीसी और सिंहासन-बत्तीसी इसी श्रेणी की पुस्तकें हैं। उनमे कितनी नैतिक और धार्मिक समस्याएँ हल की गयी है, यह उन लोगो से छिपा नही है, जिन्होने उनका अध्ययन किया है। अरबी मे सहस्र-रजनी-चरित्र इसी भॉति का अद्भुत संग्रह है; किन्तु उसमे किसी प्रकार का उपदेश देने की चेष्टा नहीं की गयी है। उसमे सभी रसो का समावेश है, पर अद्भुत रस ही की प्रधानता है, और अद्भुत रस मे उपदेश की गुञ्जाइश नहीं रहती। कदाचित् उसी आदर्श को लेकर इस देश मे शुक बहत्तरी के ढग की कथाएँ रची गयीं, जिनमे स्त्रियो की बेवफाई का राग अलापा गया है । यूनान मे हकीम ईसप ने एक नया ही ढङ्ग निकाला । उन्होने पशुपक्षियो की कहानियो द्वारा उपदेश देने का आविष्कार किया।

मध्यकाल काव्य और नाटक-रचना का काल था ; आख्यायिकाओं की ओर बहुत कम व्यान दिया गया । उस समय कहीं तो भक्ति-काव्य की प्रधानता रही, कही राजाश्रा के कीर्तिगान की । हॉ, शेखसादी ने फारसी मे गुलिस्तॉ-बोस्तॉ की रचना करके आख्यायिकाो की मर्यादा रखी । यह उपदेश-कुसुम इतना मनोहर और सुन्दर है कि चिरकाल तक प्रेमियो के हृदय इसके सुगन्ध से रञ्जित होते रहेगे। उन्नीसवीं शताब्दी मे फिर आख्यायिकानो की अोर साहित्यकारो की प्रवृत्ति हुई; और तभी से सभ्य-साहित्य मे इनका विशेष महत्व है। योरप की सभी भाषाश्रो मे गल्पो का यथेष्ट प्रचार है; पर मेरे विचार मे फ्रान्स और रूस के साहित्य मे जितनी उच्च-कोटि की गल्पे पायी जाती है, उतनी अन्य योरपीय भाषाओ मे नही । अगरेजी में भी डिकेस, वेल्स, हार्डी, किल्लिङ्ग, शालेंट ब्राटी आदि ने कहानियाँ लिखी है, लेकिन इनकी रचनाएँ गी द भोपासा, बालजक या पियेर लोती के टक्कर की नहीं । फ्रान्सीसी कहा- नियो मे सरसता की मात्रा बहुत अधिक रहती है । इसके अतिरिक्त
[ ३७ ]
मोपासों और बालजक ने आख्यायिका के आदर्श को हाथ से नहीं जाने दिया है। उनमे आध्यात्मिक या सामाजिक गुत्थियों अवश्य सुलझायी गयी है । रूस मे सबसे उत्तम कहानियाँ काउंट टालस्टाय की है । इनमे कई तो ऐसी है, जो प्राचीन काल के दृष्टान्तो की कोटि की है । चेकाफ ने बहुत कहानियाँ लिखी है, और योरप मे उनका प्रचार भी बहुत है; किन्तु उनमे रूस के विलास प्रिय समाज के जीवन-चित्रों के सिवा और कोई विशेषता नही । डास्टावेस्की ने भी उपन्यासो के अतिरिक्त कहानियाँ लिखी है, पर उनमे मनोभावो की दुर्बलता दिखाने ही की चेष्टा की गयी है । भारत मे बंकिमचन्द्र और डाक्टर रवीन्द्रनाथ ने कहानियाँ लिखी हैं, और उनमे से कितनी ही बहुत उच्च-कोटि की है।

प्रश्न यह हो सकता है कि आख्यायिका और उपन्यास मे आकार के अतिरिक्त और भी कोई अन्तर है ? हॉ, है और बहुत बड़ा अन्तर है । उपन्यास घटनाओं, पात्रों और चरित्रों का समूह है, आख्यायिका केवल एक घटना है-अन्य बाते सब उसी घटना के अन्तर्गत होती है। इस विचार से उसकी तुलना ड्रामा से की जा सकती है । उपन्यास मे आप चाहे जितने स्थान लाये, चाहे जितने दृश्य दिखाये, चाहे जितने चरित्र खींचें, पर यह कोई आवश्यक बात नहीं कि वे सब घटनाएँ और चरित्र एक ही केन्द्र पर मिल जाये । उनमे कितने ही चरित्र तो केवल मनोभाव दिखाने के लिए ही रहते हैं, पर आख्यायिका मे इस बाहुल्य की गुञ्जाइश नहीं, बल्कि कई सुविज्ञ जनो की सम्मति तो यह है कि उसमे केवल एक ही घटना या चरित्र का उल्लेख होना चाहिए । उप- न्यास मे आपकी कलम मे जितनी शक्ति हो उतना जोर दिखाइये, राजनीति पर तर्क कीजिए, किसी महफिल के वर्णन मे दस-बीस पृष्ठ लिख डालिये; (भाषा सरस होनी चाहिए ) ये कोई दूषण नहीं । श्राख्यायिका मे श्राप महफिल के सामने से चले जायेंगे, और बहुत उत्सुक होने पर भी आप उसकी ओर निगाह नही उठा सकते । वहाँ तो एक शब्द, एक वाक्य भी ऐसा न होना चाहिए, जो गल्प के उद्देश्य को
[ ३८ ]
स्पष्ट न करता हो । इसके सिवा,कहानी की भाषा बहुत ही सरल और सुबोध होनी चाहिए । उपन्यास वे लोग पढ़ते हैं, जिनके पास रुपया है; और समय भी उन्हों के पास रहता है, जिनके पास धन होता है। आख्यायिका साधारण जनता के लिए लिखी जाती है, जिनके पास न धन है, न समय । यहाँ तो सरलता पैदा कीजिए, यही कमाल है । कहानी वह ध्रुपद की तान है जिसमे गायक महफिल शुरू होते ही अपनी सम्पूर्ण प्रतिभा दिखा देता है, एक क्षण में चित्त को इतने माधुर्य से परिपूरित कर देता है, जितना रात भर गाना सुनने से भी नहीं हो सकता।

हम जब किसी अपरिचित प्राणी से मिलते है, तो स्वभावतः यह जानना चाहते है कि यह कौन है । पहले उससे परिचय करना आवश्यक समझते हैं। पर अाजकल कथा भिन्न-भिन्न रूप से प्रारम्भ को जाती है। कहीं दो मित्रो की बातचीत से कथा प्रारम्भ हो जाती है, कहीं पुलिस- कोर्ट के एक दृश्य से। परिचय पीछे आता है। यह अँग्रेजी श्राख्यायिकानो की नकल है । इनसे कहानी अनायास ही जटिल और दुर्बोध हो जाती है। योरपवालों की देखा-देखी यन्त्रो-द्वारा, डायरी या टिप्पणियों द्वारा भी कहानियाँ लिखी जाती हैं। मैने स्वयं इन सभी प्रथाओं पर रचना की है; पर वास्तव मे इससे कहानी की सरलता मे बाधा पड़ती है । योरप के विज्ञ समालोचक कहानियो के लिए किसी अन्त की भी जरूरत नहीं समझते । इसका कारण यही है कि वे लोग कहानियाँ केवल मनोरंजन के लिए पढते है। आपको एक लेडी लन्दन के किसी होटल मे मिल जाती है। उसके साथ उसकी वृद्धा माता भी है। माता कन्या से किसी विशेष पुरुष से विवाह करने के लिए आग्रह करती है। लडकी ने अपना दूसरा वर ठीक कर रखा है। माँ बिगड़कर कहती है, मै तुझे अपना धन न दूंगी। कन्या कहती है, मुझे इसकी परवा नहीं। अन्त मे माता अपनी लड़की से रूठकर चली जाती है। लड़की निराशा की दशा मे बैठी है कि उसका अपना पसन्द किया युवक आता है। दोनों में बातचीत होती है। युवक का प्रेम सच्चा है। वह बिना धन के ही
[ ३९ ]विवाह करने पर राजी हो जाता है। विवाह होता है। कुछ दिनो तक स्त्री-पुरुष सुख-पूर्वक रहते है । इसके बाद पुरुष धनाभाव से किसी दूसरी धनवान् स्त्री की टोह लेने लगता है। उसकी स्त्री को इसकी खबर हो जाती है, और वह एक दिन घर से निकल जाती है। बस, कहानी समाप्त कर दी जाती है । क्योकि realists अर्थात् यथार्थवादियो का कथन है कि ससार मे नेकी-बदी का फल कहीं मिलता नजर नहीं आता; बल्कि बहुधा बुराई का परिणाम अच्छा और भलाई का बुरा होता है । आदर्शवादी कहता है, यथार्थ का यथार्थ रूप दिखाने से फायदा ही क्या, वह तो अपनी आँखों से देखते ही है। कुछ देर के लिए तो हमे इन कुत्सित व्यवहारो से अलग रहना चाहिए, नहीं तो साहित्य का मुख्य उद्देश्य ही गायब हो जाता है । वह साहित्य को समाज का दर्पण-मात्र नहीं मानता, बल्कि दीपक मानता है, जिसका काम प्रकाश फैलाना है। भारत का प्राचीन साहित्य आदर्शवाद ही का समर्थक है। हमे भी आदर्श ही की मर्यादा का पालन करना चाहिए । हॉ, यथार्थ का उसमे ऐसा सम्मिश्रण होना चाहिए कि सत्य से दूर न जाना पड़े ।