साहित्य का उद्देश्य/5

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साहित्य का उद्देश्य
द्वारा प्रेमचंद
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कहानी-कला:२

 

एक आलोचक ने लिखा है कि इतिहास में सब-कुछ यथार्थ होते हुए भी वह असत्य है, और कथा-साहित्य में सब-कुछ काल्पनिक होते हुए भी वह सत्य है।

इस कथन का आशय इसके सिवा और क्या हो सकता है कि इतिहास आदि से अन्त तक हत्या, संग्राम और धोखे का ही प्रदर्शन है, जो असुन्दर है, इसलिए असत्य है। लोभ की क्रूर से क्रूर, अहङ्कार की नीच से नीच, ईर्ष्या की अधम से अधम घटनाएँ आपको वहाँ मिलेंगी, और आप सोचने लगेंगे, 'मनुष्य इतना अमानुष है! थोड़े-से स्वार्थ के लिए भाई भाई की हत्या कर डालता है, बेटा बाप की हत्या कर डालता है और राजा असंख्य प्रजा की हत्या कर डालता है!' उसे पढ़कर मन में ग्लानि होती है, आनन्द नहीं। और जो वस्तु आनन्द नहीं प्रदान कर सकती वह सुन्दर नहीं हो सकती, और जो सुन्दर नहीं हो सकती वह सत्य भी नहीं हो सकती। जहाँ आनन्द है, वही सत्य है। साहित्य काल्पनिक वस्तु है; पर उसका प्रधान गुण है आनन्द प्रदान करना, और इसीलिए वह सत्य है।

मनुष्य ने जगत् में जो कुछ सत्य और सुन्दर पाया है और पा रहा है उसी को साहित्य कहते हैं, और कहानी भी साहित्य का एक भाग है।

मनुष्य-जाति के लिए मनुष्य ही सबसे विकट पहेली है। वह खुद अपनी समझ में नहीं आता। किसी-न-किसी रूप मे वह अपनी ही आलो[ ४१ ]
चना किया करता है-अपने ही मनोरहस्य खोला करता है । मानव- सस्कृति का विकास ही इसलिए हुअा है कि मनुष्य अपने को समझे । अध्यात्म और दर्शन की भॉति साहित्य भी इसी सत्य की खोज मे लगा हुआ है-अन्तर इतना ही है कि वह इस उद्योग मे रस का मिश्रण करके उसे अानन्दप्रद बना देता है, इसीलिए अध्यात्म और दर्शन केवल ज्ञानियों के लिए है, साहित्य मनुष्य-मात्र के लिए ।

जैसा हम ऊपर कह चुके है, कहानी या आख्यायिका साहित्य का एक प्रधान अग है, आज से नही, आदि काल से ही । हाँ, आजकल की आख्यायिका और प्राचीन काल की आख्यायिका मे समय की गति और रुचि के परिवर्तन से, बहुत-कुछ अन्तर हो गया है। प्राचीन आख्यायिका कुतूहल-प्रधान होती थी या अध्यात्म-विषयक । उपनिषद् और महाभारत मे आध्यात्मिक रहस्यों को समझाने के लिए आख्या- यिकात्रो का आश्रय लिया गया है । बौद्ध-जातक भी आख्यायिका को सिवा और क्या है ? बाइबिल मे भी दृष्टान्तो और आख्यायिकानो के द्वार ही धर्म के तत्व समझाये गये हैं। सत्य इस रूप मे श्राकर साकार हो जाता है और तभी जनता उसे समझती है और उसका व्यवहार करती है।

वर्तमान आख्यायिका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण और जीवन के यथार्थ और स्वाभाविक चित्रण को अपना ध्येय समझती है । उसमे कल्पना की मात्रा कम और अनुभूतियो की मात्रा अधिक होती है। इतना ही नहीं बल्कि अनुभूतियाँ ही रचनाशील भावना से अनुरञ्जित होकर कहानी बन जाती है।

मगर यह समझना भूल होगी कि कहानी जीवन का यथार्थ चित्र है । यथार्थ जीवन का चित्र तो मनुष्य स्वयं हो सकता है; मगर कहानी के पात्रो के सुख-दुःख से हम जितना प्रभावित होते है, उतना यथार्थ जीवन से नहीं होते-जब तक वह निजत्व की परिधि मे न आ जाय । कहानियों मे पात्रो से हमे एक ही दो मिनट के परिचय मे निजत्व हो
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जाता है और हम उनके साथ हॅसने और रोने लगते है। उनका हर्ष और विषाद हमारा अपना हर्ष और विषाद हो जाता है। इतना ही नहीं, बल्कि कहानी पढ़कर वे लोग भी रोते या हॅसते देखे जाते है, जिन पर साधारणतः सुख-दुःख का कोई असर नही पडता । जिनकी ऑखे श्मशान मे या कब्रिस्तान मे भी सजल नहीं होतीं, वे लोग भी उपन्यास के मर्म- स्पर्शी स्थलो पर पहुँचकर रोने लगते है ।

शायद इसका यह भी कारण हो कि स्थूल प्राणी सूक्ष्म मन के उतने समीप नहीं पहुँच सकते, जितने कि कथा के सूक्ष्म चरित्र के । कथा के चरित्रो और मन के बीच मे जड़ता का वह पर्दा नहीं होता, जो एक मनुष्य के हृदय को दूसरे मनुष्य के हृदय से दूर रखता है और अगर हम यथार्थ को हूबहू खींचकर रख दे, तो उसमे कला कहाँ है ? कला केवल यथार्थ की नकल का नाम नहीं है।

कला दीखती तो यथार्थ है; पर यथार्थ होती नहीं। उसकी खूबी यही है कि वह यथार्थ न होते हुए भी यथार्थ मालूम हो । उसका माप- दण्ड भी जीवन के माप-दण्ड से अलग है। जीवन मे बहुधा हमारा अन्त उस समय हो जाता है जब यह वाछनीय नहीं होता । जीवन किसी का दायी नही है; उसके सुख-दुःख, हानि-लाभ, जीवन-मरण मे कोई क्रम, कोई सम्बन्ध नहीं ज्ञात होता–कम से कम मनुष्य के लिए वह अज्ञेय है । लेकिन कथा-साहित्य मनुष्य का रचा हुआ जगत् है और परिमित होने के कारण सम्पूर्णतः हमारे सामने आ जाता है, और जहाँ वह हमारी मानवी न्याय बुद्धि या अनुभूति का अतिक्रमण करता हुआ पाया जाता है, हम उसे दण्ड देने के लिए तैयार हो जाते हैं। कथा मे अगर किसी को सुख प्राप्त होता है तो इसका कारण बताना होगा, दुख भी मिलता है तो उसका कारण बताना होगा। यहाँ कोई चरित्र मर नहीं सकता, जब तक कि मानव-न्यायबुद्धि उसकी मौत न मोंगे। स्रष्टा को जनता की अदालत मे अपनी हर एक कृति के लिए जवाब
[ ४३ ]देना पड़ेगा। कला का रहस्य भ्रान्ति है, जिस पर यथार्थ का आवरण पड़ा हो ।

हमे यह स्वीकार कर लेने मे सकोच न होना चाहिए कि उपन्यासों ही की तरह आख्यायिका की कला भी हमने पच्छिम से ली है-कम-से- कम इसका आज का विकसित रूप तो पच्छिम का है ही। अनेक कारणों से जीवन की अन्य धाराप्रो की तरह ही साहित्य में भी हमारी प्रगति रुक गयी और हमने प्राचीन से जौ-भर भी इधर-उधर हटना निषिद्ध समझ लिया। साहित्य के लिए प्राचीनो ने जो मर्यादाएँ बाँध दी थीं, उनका उल्लंघन करना वर्जित था । अतएव, काव्य, नाटक, कथा, किसी मे भी हम आगे कदम न बढ़ा सके । कोई वस्तु बहुत सुन्दर होने पर भी अरुचिकर हो जाती है, जब तक उसमे कुछ नवीनता न लायी जाय । एक ही तरह के नाटक, एक ही तरह के काव्य पढते-पढते आदमी ऊब जाता है और वह कोई नयी चीज चाहता है-चाहे वह उतनी सुन्दर और उत्कृष्ट न हो । हमारे यहाँ या तो यह इच्छा उठी ही नहीं, या हमने उसे इतना कुचला कि वह जड़ीभूत हो गयी। पश्चिम प्रगति करता रहा-उसे नवीनता की भूख थी, मर्यादाओं की बेडियों से चिढ़ । जीवन के हर एक विभाग मे उसकी इस अस्थिरता तथा असन्तोष की बेडियो से मुक्त हो जाने की छाप लगी हुई है । साहित्य मे भी उसने क्रान्ति मचा दी।

शेक्सपियर के नाटक अनुपम है; पर आज उन नाटकों का जनता के जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं । अाज के नाटक का उद्देश्य कुछ और है, आदर्श कुछ और है, विषय कुछ और है, शैली कुछ और है । कथा- साहित्य मे भी विकास हुआ और उसके विषय मे चाहे उतना बड़ा परि- वर्तन न हुआ हो; पर शैली तो बिलकुल ही बदल गयी । अलिफलैला उस वक्त का आदर्श था उसमे बहुरूपता थी, वैचित्र्य था, कुतूहल था, रोमान्स था—पर उसमे जीवन की समस्याएँ न थी, मनोविज्ञान के रहस्य न थे, अनुभूतियों की इतनी प्रचुरता न थी, जीवन अपने सत्य[ ४४ ]
रूप मे इतना स्पष्ट न था । उसका रूपान्तर हुआ और उपन्यास का उदय हुआ, जो कथा और नाटक के बीच की वस्तु है। पुराने दृष्टान्त भी रूपान्तरित होकर कहानी बन गये।

मगर सौ बरस पहले यूरप भी इस कला से अनभिज्ञ था । बडे-बड़े उच्च कोटि के दार्शनिक, ऐतिहासिक तथा सामाजिक उपन्यास लिखे जाते थे; लेकिन छोटी-छोटी कहानियो की ओर किसी का ध्यान न जाता था। हॉ, परियो और भूतो की कहानियाँ लिखी जाती थीं। किन्तु इसी एक शताब्दी के अन्दर, या उससे भी कम मे समझिए, छोटी कहानियो ने साहित्य के और सभी अङ्गो पर विजय प्राप्त कर ली है, और यह कहना गलत न होगा कि जैसे किसी जमाने मे काव्य ही साहित्यिक अभिव्यक्ति का व्यापक रूप था, वैसे ही आज कहानी है । और उसे यह गौरव प्राप्त हुअा है यूरोप के कितने ही महान् कलाकारों की प्रतिभा से, जिनमे बाल- जक, मोपासॉ, चेखाफ, टॉल्स्टाय, मैक्सिम गोर्की आदि मुख्य हैं। हिन्दी मे पचीस-तीस साल पहले तक कहानी का जन्म न हुआ था । परन्तु अाज तो कोई ऐसी पत्रिका नहीं जिसमे दो-चार कहानियों न हो-यहाँ तक कि कई पत्रिकाओ मे केवल कहानियाँ ही दी जाती है।

कहानियों के इस प्राबल्य का मुख्य कारण आजकल का जीवन- संग्राम और समयाभाव है। अब वह जमाना नहीं रहा कि हम 'बोस्ताने खयाल' लेकर बैठ जाये और सारे दिन उसी की कुजो मे विचरते रहें । अब तो हम जीवन-सग्राम मे इतने तन्मय हो गये हैं कि हमे मनोरंजन के लिए समय ही नहीं मिलता, अगर कुछ मनोरञ्जन स्वास्थ्याके लिए अनिवार्य न होता, और हम विक्षिप्त हुए बिना नित्य अठारह घटे काम कर सकते, तो शायद हम मनोरञ्जन का नाम भी न लेते । लेकिन प्रकृति ने हमे विवश कर दिया है। हम चाहते है कि थोडे से थोड़े समय मे अधिक मनोरञ्जन हो जाय-इसीलिए सिनेमा-गृहो की संख्या दिन-दिन बढ़ती जाती है । जिस उपन्यास के पढने मे महीनों लगते, उसका अानद हम दो घटों में उठा लेते है। कहानी के लिए पन्द्रह-बीस मिनट ही काफी
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है । अतएव हम कहानी ऐसी चाहते हैं कि वह थोडे से थोड़े शब्दो मे कही जाय, उसमे एक वाक्य, एक शब्द भी अनावश्यक न आने पाये, उसका पहला ही वाक्य मन को आकर्षित कर ले और अन्त तक उसे मुग्ध किये रहे, और उसमे कुछ चटपटापन हो, कुछ ताजगी हो, कुछ विकास हो, और इसके साथ ही कुछ तत्व भी हो। तत्वहीन कहानी से चाहे मनोरञ्जन भले ही हो जाय, मानसिक तृप्ति नहीं होती । यह सच है कि हम कहानियो मे उपदेश नही चाहते; लेकिन विचारो को उत्तेजित करने के लिए, मन के सुन्दर भावो को जाग्रत करने के लिए, कुछ-न- कुछ अवश्य चाहते है । वही कहानी सफल होती है, जिसमे इन दोनो मे से-मनोरञ्जन और मानसिक तृप्ति मे से एक अवश्य उपलब्ध हो ।

सबसे उत्तम कहानी वह होती है, जिसका आधार किसी मनोवैज्ञा- निक सत्य पर हो । साधु पिता का अपने कुव्यसनी पुत्र की दशा मे दुःखी होना मनोवैज्ञानिक सत्य है । इस आवेग मे पिता के मनोवेगो को चित्रित करना और तदनुकूल उसके व्यवहारो को प्रदर्शित करना कहानी को अाकर्षक बना सकता है। बुरा आदमी भी बिलकुल बुरा नहीं होता, उसमे कही देवता अवश्य छिपा होता है-यह मनोवैज्ञानिक सत्य है। उस देवता को खोलकर दिखा देना सफल आख्यायिका-लेखक का काम है। विपत्ति पर विपत्ति पडने से मनुष्य कितना दिलेर हो जाता है-यहाँ तक कि वह बड़े से बडे संकट का सामना करने के लिए ताल ठोककर तैयार हो जाता है, उसकी दुर्वासना भाग जाती है, उसके हृदय के किसी गुप्त स्थान मे छिपे हुए जौहर निकल आते है और हमे चकित कर देते है- यह मनोवैज्ञानिक सत्य है । एक ही घटना या दुर्घटना भिन्न-भिन्न प्रकृति के मनुष्यो को भिन्न-भिन्न रूप से प्रभावित करती है-हम कहानी मे इसको सफलता के साथ दिखा सके, तो कहानी अवश्य आकर्षक होगी। किसी समस्या का समावेश कहानी को आकर्षक बनाने का सबसे उत्तम साधन है। जीवन मे ऐसी समस्याएँ नित्य ही उपस्थित होती रहती हैं और उनसे पैदा होनेवाला द्वन्द्व आख्यायिका को चमका
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देता है। सत्यवादी पिता को मालूम होता है कि उसके पुत्र ने हत्या की है। वह उसे न्याय की वेदी पर बलिदान कर दे, या अपने जीवन- सिद्धान्तो की हत्या कर डाले। कितना भीषण द्वन्द्व है! पश्चात्ताप ऐसे द्वन्द्वों का अखण्ड स्रोत है एक भाई ने अपने दूसरे भाई की सम्पत्ति छल-कपट से अपहरण कर ली है, उसे भिक्षा माँँगते देखकर क्या छली भाई को जरा भी पश्चात्ताप न होगा? अगर ऐसा न हो, तो वह मनुष्य नहीं है।

उपन्यासों की भॉति कहानियों भी कुछ घटना-प्रधान होती है, कुछ चरित्र प्रधान। चरित्र-प्रधान कहानी का पद ऊँचा समझा जाता है, मगर कहानी मे बहुत विस्तृत विश्लेषण की गुञ्जायश नही होती। यहाँ हमारा उद्देश्य सम्पूर्ण मनुष्य को चित्रित करना नहीं, वरन् उसके चरित्र का एक अग दिखाना है। यह परमावश्यक है कि हमारी कहानी से जो परिणाम या तत्व निकले, वह सर्वमान्य हो और उसमे कुछ बारीकी हो। यह एक साधारण नियम है कि हमे उसी बात मे आनन्द आता है जिससे हमारा कुछ सम्बन्ध हो। जूना खेलनेवालो को जो उन्माद और उल्लास हाता है, वह दर्शक को कदापि नहीं हो सकता। जब हमारे चरित्र इतने सजीव और इतने आकर्षक होते है कि पाठक अपने को उनके स्थान पर समझ लेता है, तभी उस कहानी मे आनन्द प्राप्त होता है। अगर लेखक ने अपने पात्रों के प्रति पाठक मे यह सहानुभूति नहीं उत्पन्न कर दी, तो वह अपने उद्देश्य मे असफल है।

पाठको से यह कहने की जरूरत नहीं है कि इन थोड़े ही दिनों में हिन्दी-कहानी-कला ने कितनी प्रौढ़ता प्राप्त कर ली है। पहले हमारे सामने केवल बॅगला कहानियो का नमूना था। अब हम संसार के सभी प्रमुख कहानी-लेखकों की रचनाएँ पढ़ते है, उन पर विचार और बहस करते हैं, उनके गुण-दोष निकालते हैं और उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते। अब हिन्दी कहानी-लेखको मे विषय, दृष्टिकोण और शैली का अलग अलग विकास होने लगा है— कहानी जीवन [ ४७ ]से बहुत निकट आ गई है। उसकी जमीन अब उतनी लम्बी- चौड़ी नही है। उसमे कई रसो, कई चरित्रो और कई घटनाओ के लिए स्थान नहीं रहा । वह अब केवल एक प्रसग का, अात्मा की एक झलक का सजीव हृदय-स्पर्शी चित्रण है । इस एकतथ्यता ने उसमे प्रभाव, अाकस्मिकता और तीव्रता भर दी है। अब उसमे व्याख्या का अश कम, सवेदना का अंश अधिक हता है । उसकी शैली भी अब प्रभावमयी हो गई है। लेखक को जो कुछ कहना है, वह कम से कम शब्दो मे कह डालना चाहता है । वह अपने चरित्रों के मनोभावो की व्याख्या करने नहीं बैठता, केवल उसकी तरफ इशारा कर देता है । कभी-कभी तो सम्भाषणों मे एक दो शब्दों से ही काम निकाल देता है । ऐसे कितने ही अवसर होते है, जब पात्र के मुंह से एक शब्द सुनकर हम उसके मनोभावों का पूरा अनुमान कर लेते हैं, पूरे वाक्य की जरूरत ही नहीं रहती । अब हम कहानी का मूल्य उसके घटना-विन्यास से नही लगाते, हम चाहते हैं कि पात्रों की मनोगति स्वयं घटनाओ की सृष्टि करे। घटनाओ का स्वतन्त्र कोई महत्व ही नही रहा । उनका महत्व केवल पात्रो के मनोभावो को व्यक्त करने की दृष्टि से ही है- उसी तरह, जैसे शालिग्राम स्वतन्त्र रूप से केवल पत्थर का एक गोल टुकड़ा है, लेकिन उपासक की श्रद्धा से प्रतिष्ठित होकर देवता बन जाता है । खुलासा यह कि कहानी का आधार अब घटना नही, अनु- भूति है। आज लेखक केवल कोई रोचक दृश्य देखकर कहानी लिखने नहीं बैठ जाता । उसका उद्देश्य स्थूल सौन्दर्य नही है। वह तो कोई ऐसी प्रेरणा चाहता है, जिसमे सौन्दर्य की झलक हो, और इसके द्वारा वह पाठक की सुन्दर भावनाओं को स्पर्श कर सके।


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