साहित्य का उद्देश्य/6

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साहित्य का उद्देश्य
द्वारा प्रेमचंद
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कहानी-कला : ३

 

कहानी सदैव से जीवन का एक विशेष अंग रही है। हर एक बालक को अपने बचपन की वे कहानियाँ याद होंगी, जो उसने अपनी माता या बहन से सुनी थीं। कहानियाँ सुनने को वह कितना लालायित रहता था, कहानी शुरू होते ही वह किस तरह सब-कुछ भूलकर सुनने मे तन्मय हो जाता था, कुत्ते और बिल्लियों की कहानियाँ सुनकर वह कितना प्रसन्न होता था-इसे शायद वह कभी नहीं भूल सकता। बाल-जीवन की मधुर स्मृतियों में कहानी शायद सबसे मधुर है। वह खिलौने, मिठाइयाँ और तमाशे सब भूल गये; पर वे कहानियाँ अभी तक याद हैं और उन्हीं कहानियों को आज उसके मुँह से उसके बालक उसी हर्ष और उत्सुकता से सुनते होंगे। मनुष्य-जीवन की सबसे बड़ी लालसा यही है कि वह कहानी बन जाय और उसकी कीर्ति हर एक जबान पर हो।

कहानियों का जन्म तो उसी समय में हुआ, जब आदमी ने बोलना सीखा; लेकिन प्राचीन कथा-साहित्य का हमें जो कुछ ज्ञान है, वह 'कथा- सरित्सागर,' 'ईसप की कहानियाँ' और 'अलिफ़-लैला' आदि पुस्तकों से हुआ है। ये सब उस समय के साहित्य के उज्ज्वल रत्न हैं। उनका मुख्य लक्षण उनका कथा-वैचित्र्य था। मानव-हृदय को वैचित्र्य से सदैव प्रेम रहा है। अनोखी घटनाओं और प्रसंगों को सुनकर हम, अपने बाप- दादा की भाँति ही, आज भी प्रसन्न होते हैं। हमारा ख्याल है कि जन-रुचि जितनी आसानी से अलिफ़ लैला की कथाओं का आनन्द उठाती [ ४९ ]है, उतनी आसानी से नवीन उपन्यासो का आनन्द नहीं उठा सकती। और अगर काउट टॉल्सटॉय के कथनानुसार जनप्रियता ही कला का आदर्श मान लिया जाय, तो अलिफ-लैला के सामने स्वय टॉल्सटॉय के 'वार ऐड पोस' ओर ह्य गो के 'ले मिजरेबुल' की कोई गिनती नही । इस सिद्धान्त के अनुपार हमारी राग-रागिनियों, हमारी सुन्दर चित्रकारियाँ और कला के अनेक रूप, जिन पर मानव-जाति को गर्व है, कला के क्षेत्र से बाहर हो जायेंगे । जन-रुचि परज और बिहाग की अपेक्षा बिरहे और दादरे को ज्यादा पसन्द करती है । बिरहो और ग्रामगीतो मे बहुधा बडे ऊँचे दरजे की कविता होती है, फिर भी यह कहना असत्य नहीं है कि विद्वानों और प्राचार्यों ने कला के विकास के लिए जो मर्यादाएँ बना दी है, उनसे कला का रूप अधिक सुन्दर और अधिक संयत हो गया है । प्रकृति मे जो कला है, वह प्रकृति की है, मनुष्य की नहीं । मनुष्य को तो वही कला मोहित करती है, जिस पर मनुष्य की आत्मा की छाप हो, जो गीली मिट्टी की भॉति मानव-हृदय के साँचे मे पड़कर संस्कृत हो गयी हो । प्रकृति का सौन्दर्य हमे अपने विस्तार और वैभव से पराभूत कर देता है । उससे हमे आध्यात्मिक उल्लास मिलता है, पर वही दृश्य जब मनुष्य की तूलिका एव रगो और मनोभावो से रजित होकर हमारे सामने आता है, तो वह जैसे हमारा अपना हो जाता है । उसमे हमे श्रात्मीयता का सन्देश मिलता है।

लेकिन भोजन जहाँ थोडे-से मसाले से अधिक रुचिकर हो जाता है, वहाँ यह भी आवश्यक है कि मसाले मात्रा से बढने न पाये । जिस तरह मसालो के बाहुल्य से भोजन का स्वाद और उपयोगिता कम हो जाती है,उसी भॉति साहित्य भी अलकारो के दुरुपयोग से विकृत हो जाता है । जो कुछ स्वाभाविक है, वही सत्य है और स्वाभाविक से दूर होकर कला अपना अानन्द खो देती है और उसे समझनेवाले थोडे-से कलाविद् ही रह जाते है, उसमे जनता के मर्म को स्पर्श करने की शक्ति नहीं रह जाती। [ ५० ]
पुरानी कथा-कहानियाँ अपने घटना-वैचित्र्य के कारण मनोरञ्जक तो है; पर उनमे उस रस की कमी है जो शिक्षित रुचि साहित्य मे खोजती है । अब हमारी साहित्यिक रुचि कुछ परिष्कृत हो गयी है । हम हर एक विषय को भॉति साहित्य मे भी बौद्धिकता की तलाश करते है । अब हम किसी राजा की अलौकिक वीरता या रानी के हवा में उड़कर राजा के पास पहुँचने, या भूत-प्रेतो के काल्पनिक चरित्रो को देखकर प्रसन्न नहीं होते। हम उन्हे यथार्थ के कॉटे पर तौलते है और जौ-भर भी इधर-उधर नहीं देखना चाहते । अाजकल के उपन्यासो और आख्यायिकाओ मे अस्वाभाविक बातो के लिए गुजाइश नही है । उसमे हम अपने जीवन का ही प्रतिबिम्ब देखना चाहते है । उसके एक-एक वाक्य को, एक-एक पात्र को यथार्थ क रूप में देखना चाहते है । उनमे जो कुछ भी हो, वह इस तरह लिखा जाय कि साधारण बुद्धि उसे यथार्थ समझे । घटना वर्तमान कहानी या उपन्यास का मुख्य अग नही है । उपन्यासो मे पात्रों का केवल बाह्य रूप देखकर हम सन्तुष्ट नहीं होते। हम उनके मनोगत भावो तक पहुंचना चाहते है और जो लेखक मानवी हृदय के रहस्यों को खोलने मे सफल होता है, उसी की रचना सफल समझी जाती है । हम केवल इतने ही से सन्तुष्ट नहीं हाते कि अमुक व्यक्ति ने अमुक काम किया । हम देखना चाहते है कि किन मनोभावो से प्रेरित होकर उसने यह काम किया, अतएव मानसिक द्वन्द्व वर्तमान उपन्यास या गल्प का खास अङ्ग है।

प्राचीन कलानो मे लेखक बिलकुल नेपथ्य मे छिपा रहता था । हम उसके विषय मे उतना ही जानते थे, जितना वह अपने को अपने पात्रों के मुख से व्यक्त करता था । जीवन पर उसके क्या विचार है, भिन्न-भिन्न परिस्थितियो मे उसके मनोभावो मे क्या परिवर्तन होते है, इसका हमे कुछ पता न चलता था, लेकिन आजकल उपन्यासो मे हमे लेखक के दृष्टिकोण का भी स्थल स्थल पर परिचय मिलता रहता है । हम उसके मनोगत विचारों और भावों द्वारा उसका रूप देखते रहते हैं और ये
[ ५१ ]भाव जितने व्यापक और गहरे तथा अनुभव-पूर्ण होते हैं, उतनी ही लेखक के प्रति हमारे मन मे श्रद्धा उत्पन्न होती है । यो कहना चाहिए कि वर्तमान आख्यायिका या उपन्यास का आधार ही मनोविज्ञान है । घटनाएं और पात्र तो उसी मनोवैज्ञानिक सत्य को स्थिर करने के निमित्त ही लाये जाते है । उनका स्थान बिलकुल गौण है। उदाहरणतः मेरी 'सुजान भगत,मुक्तिमार्ग','पञ्च-परमेश्वर', 'शतरज के खिलाड़ी' और 'महातीर्थ' नामक सभी कहानियो मे एक न एक मनोवैज्ञानिक रहस्य को खोलने की चेष्टा की गयी है।

"यह तो सभी मानते है कि आख्यायिका का प्रधान धर्म मनोरञ्जन है; पर साहित्यिक मनोरञ्जन वह है, जिससे हमारी कोमल और पवित्र भाव- नात्रों को प्रोत्साहन मिले-हममे सत्य, निःस्वार्थ सेवा, न्याय आदि देवत्व के जो अंश हैं, वे जागृत हो । वास्तव मे मानवीय आत्मा की यह वह चेष्टा है, जो उसके मन में अपने-आपको पूर्णरूप मे देखने की होती है । अभिव्यक्ति मानव-हृदय का स्वाभाविक गुण है । मनुष्य जिस समाज मे रहता है, उसमे मिलकर रहता है, जिन मनोभावों से वह अपने मेल के क्षेत्र का बढ़ा सकता है, अर्थात् जीवन के अनन्त प्रवाह मे सम्मिलित हो सकता है, वही सत्य है । जो वस्तुएँ भावनाप्रो के इस प्रवाह मे बाधक होती है, वे सर्वथा अस्वाभाविक है; परन्तु यदि स्वार्थ, अहङ्कार और ईर्षा की ये बाधाएँ न होती, तो हमारी आत्मा के विकास को शक्ति कहाँ से मिलती ? शक्ति तो संघर्ष मे है । हमारा मन इन बाधाओ का परास्त करके अपने स्वाभाविक कर्म का प्राप्त करने की सदैव चेष्टा करता रहता है। इसी सघर्ष से साहित्य की उत्पत्ति होती है। यही साहित्य की उपयागिता भी है । साहित्य मे कहानी का स्थान इसलिए ऊँचा है कि वह एक क्षण मे ही, बिना किसी घुमाव-फिराव के, श्रात्मा के किसी न किसी भाव को प्रकट कर देती है। और चाहे थोड़ी ही मात्रा मे क्यो न हो, वह हमारे परिचय का, दूसरो मे अपने को देखने का, दूसरो के हर्ष या शोक को अपना बना लेने का क्षेत्र बढ़ा देती है। [ ५२ ]हिन्दी में इस नवीन शैली की कहानियो का प्रचार अभी थोडे ही दिनो से हुआ है, पर इन थोडे ही दिनों मे इसने साहित्य के अन्य सभी अङ्गों पर अपना सिक्का जमा लिया है। किसी पत्र को उठा लीजिए, उसमे कहानियों ही की प्रधानता होगी । हाँ जो पत्र किसी विशेष नीति या उद्देश्य से निकाले जाते है उनमे कहानियो का स्थान नहीं रहता। जब डाकिया कोई पत्रिका लाता है, तो हम सबसे पहले उसकी कहानियाँ पढ़ना शुरू करते हैं। इनसे हमारी वह क्षुधा तो नही मिटती, जो इच्छा- पूर्ण भोजन चाहती है पर फलो और मिठाइयो की जो तुधा हमे सदैव बनी रहती है, वह अवश्य कहानियो से तृप्त हो जाती है। हमारा खयाल है कि कहानियों ने अपने सार्वभौम अाकर्षण के कारण, ससार के प्राणियो को एक दूसरे से जितना निकट कर दिया है, उनमे जो एकात्मभाव उत्पन्न कर दिया है, उतना और किसी चीज ने नहीं किया। हम आस्ट्रेलिया का गेहूँ खाकर, चीन की चाय पीकर, अमेरिका की मोटरों पर बैठकर भी उनको उत्पन्न करनेवाले प्राणियो से बिलकुल अपरिचित रहते है, लेकिन मोपासॉ, अनातोल फ्रान्स, चेखोव और टॉलस्टॉय की कहानियाँ पढकर हमने फ्रान्स और रूस से आत्मिक सम्बन्ध स्थापित कर लिया है। हमारे परिचय का क्षेत्र सागरो, द्वीपो और पहाडों को लॉचता हुआ फ्रान्स और रूस तक विस्तृत हो गया है । हम वहाँ भी अपनी ही आत्मा का प्रकाश देखने लगते है। वहाँ के किसान और मजदूर एवं विद्यार्थी हमे ऐसे लगते है, मानो उनसे हमारा घनिष्ट परिचय हो।

हिन्दी मे बीस-पच्चीस साल पहले कहानियों की कोई चर्चा न थी। कभी-कभी बॅगला या अँगरेजी कहानियों के अनुवाद छप जाते थे। परन्तु आज कोई ऐसा पत्र नहीं, जिसमे दो-चार कहानियाँ प्रतिमास न छपती हो । कहानियो के अच्छे-अच्छे संग्रह निकलते जा रहे हैं। अभी बहुत दिन नहीं हुए कि कहानियों का पढना समय का दुरुपयोग समझा जाता था। बचपन मे हम कभी कोई किस्सा पढ़ते पकड़ लिये जाते थे, [ ५३ ]तो कडी डॉट पड़ती थी। यह ख्याल किया जाता था कि किस्सो से चरित्र भ्रष्ट हो जाता है। अोर उन 'फिसाना अजायब' और 'शुक- बहत्तरी' और 'ताता-मैना' के दिनो मे ऐसा ख्याल होना स्वाभाविक ही था। उस वक्त कहानियों कही स्कूल कैरिकुलम मे रख दो जाती, तो शायद पिताश्रा का एक डेपुटेशन इसके विरोध मे शिक्षा-विभाग के अध्यक्ष को सेवा मे पहुँचता । आज छोटे-बड़े सभी क्लासो मे कहानियाँ पढायी जाती है और परोक्षाओ मे उन पर प्रश्न किये जाते है। यह मान लिया गया है कि सास्कृतिक विकास के लिए सरस साहित्य से उत्तम कोई साधन नहीं है । अब लाग यह भी स्वीकार करने लगे है कि कहानी कोरी गप नही है, और उसे मिथ्या समझना भूल है। आज से दो हजार बरस पहले यूनान के विख्यात फिलासफर अफलातूं ने कहा था कि हर एक काल्पनिक रचना मे मौलिक सत्य मौजूद रहता है । रामायण, महा- भारत आज भी उतने ही सत्य है, जितने अाज से पाँच हजार साल पहले थे, हालॉ कि इतिहास, विज्ञान और दर्शन मे सदैव परिवर्तन होते रहते है । कितने ही सिद्धान्त, जो एक जमाने मे सत्य समझे जाते थे, अाज असत्य सिद्ध हो गये हैं, पर कथाएँ अाज भी उतनी ही सत्य हैं, क्योकि उनका सम्बन्ध मनोभावो से है और मनोभावों मे कभी परिवर्तन नहो होता । किसी ने बहुत ठीक कहा है, कि कहानो मे नाम और सन् के सिवा और सब कुछ सत्य है; और इतिहास मे नाम और सन् के सिवा कुछ भी सत्य नही। गल्पकार अपनी रचनात्रो को जिस साँचे मे चाहे ढाल सकता है: पर किसो दशा मे भी वह उस महान् सत्य की अवहेलना नहीं कर सकता, जो जीवन सत्य कहलाता है।