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साहित्य का उद्देश्य/7

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साहित्य का उद्देश्य
प्रेमचंद

पृष्ठ ५४ से – ६५ तक

 
उपन्यास
 

उपन्यास की परिभाषा विद्वानों ने कई प्रकार से की है, लेकिन यह कायदा है कि जो चीज जितनी ही सरल होती है, उसकी परिभाषा उतनी ही मुश्किल होती है। कविता की परिभाषा आज तक नहीं हो सकी। जितने विद्वान् हैं उतनी ही परिभाषाएँ हैं। किन्ही दो विद्वानों की राये नहीं मिलती। उपन्यास के विषय में भी यही बात कही जा सकती है। इसकी कोई ऐसी परिभाषा नहीं है जिस पर सभी लोग सहमत हों।

मैं उपन्यास को मानव-चरित्र का चित्र-मात्र समझता हूँ। मानव-चरित्र पर प्रकाश डालना और उसके रहस्यों को खोलना ही उपन्यास का मूल तत्व है।

किन्ही भी दो आदमियों की सूरतें नहीं मिलती, उसी भाँति आदमियों के चरित्र भी नहीं मिलते। जैसे सब आदमियों के हाथ, पाँव, आँखें, कान, नाक, मुँह होते हैं पर उतनी समानता पर भी जिस तरह उनमें विभिन्नता मौजूद रहती है, उसी भाँति सब आदमियों के चरित्र में भी बहुत कुछ समानता होते हुए कुछ विभिन्नताएँ होती हैं। यही चरित्र-सम्बन्धी समानता और विभिन्नता, अभिन्नत्व में भिन्नत्व और विभिन्नत्व मे अभिन्नत्व, दिखाना उपन्यास का मुख्य कर्त्तव्य है।

सन्तान-प्रेम मानव-चरित्र का एक व्यापक गुण है। ऐसा कौन प्राणी होगा, जिसे अपनी सन्तान प्यारी न हो? लेकिन इस सन्तान-प्रेम की मात्राएँ हैं, उसके भेद हैं। कोई तो सन्तान के लिए मर मिटता
है, उसके लिए कुछ छोड जाने के लिए आप नाना प्रकार के कष्ट झेलता है, लेकिन धर्म-भीरुता के कारण अनुचित रीति से धन-सचय नहीं करता है । उसे शका होती है कि कही इसका परिणाम हमारी सन्तान के लिए बुरा न हो । कोई ऐसा होता है कि औचित्य का लेश-मात्र भी विचार नहीं करता—जिस तरह भी हो कुछ धन-संचय कर जाना अपना ध्येय समझता है, चाहे इसके लिए उसे दूसरो का गला ही क्यो न काटना पडे । वह सन्तान-प्रेम पर अपनी आत्मा को भी बलिदान कर देता है। एक तीसरा सन्तान-प्रेम वह है, जहाँ सन्तान का चरित्र प्रधान कारण होता है, जब कि पिता सन्तान का कुचरित्र देखकर उससे उदासीन हो जाता है उसके लिए कुछ छोड़ जाना व्यर्थ समझता है । अगर आप विचार करेगे तो इसी सन्तान-प्रेम के अगणित भेद आपको मिलेगे। इसी भो ति अन्य मानव-गुणों की भी मात्राएँ और भेद है। हमारा चरित्राध्ययन जितना ही सूक्ष्म, जितना ही विस्तृत होगा, उतनी ही सफलता से हम चरित्रो का चित्रण कर सकेगे । सन्तान-प्रेम की एक दशा यह भी है, जब पुत्र को कुमार्ग पर चलते देखकर पिता उसका घातक शत्रु हो जाता है । वह भी सन्तान-प्रेम ही है, जब पिता के लिए पुत्र घी का लड्डू होता है जिसका टेढापन उसके स्वाद मे बाधक नहीं होता। वह सन्तान-प्रेम भी देखने मे आता है जहाँ शराबी, जुआरी पिता पुत्र-प्रेम के वशीभूत होकर ये सारी बुरी आदते छोड़ देता है।

अब यहाँ प्रश्न होता है, उपन्यासकार को इन चरित्रो का अव्ययन करके उनको पाठक के सामने रख देना चाहिए, उसमे अपनी तरफ से काट छॉट कमी बेशी कुछ न करनी चाहिये, या किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए चरित्रो मे कुछ परिवर्तन भी कर देना चाहिए ?

यहीं से उपन्यासो के दो गिरोह हो गये है। एक आदर्शवादी, दूसरा यथार्थवादी।

यथार्थवादी चरित्रो को पाठक के सामने उनके यथार्थ नग्न रूप मे रख देता है । उसे इससे कुछ मतलब नहीं कि सच्चरित्रता का परिणाम

बुरा होता है या कुचरित्रता का परिणाम अच्छा-उसके चरित्र अपनी कमजोरियॉ या खूबियाँ दिखाते हुए अपनी जीवन-लीला समाप्त करते हैं। संसार मे सदैव नेकी का फल नेक और बदी का फल बद नही होता, बल्कि इसके विपरीत हुश्रा करता है, नेक आदमी धक्के खाते है, यातनाएं सहते है, मुसीबते झेलते है, अपमानित होते है, उनको नेकी का फल उलटा मिलता है, और बुरे आदमी चैन करते है, नामवर होते है, यशस्वी बनते है, उनको बदी का फल उलटा मिलता है । (प्रकृति का नियम विचित्र है !) यथार्थवादी अनुभव की बेड़ियो मे जकड़ा होता है और कि ससार मे बुरे चरित्रों की ही प्रधानता है-यहाँ तक कि उज्ज्वल से उज्ज्वल चरित्र मे भी कुछ न कुछ दाग-धब्बे रहते हैं, इस- लिए यथार्थवाद हमारी दुर्बलताओं, हमारी विषमताओं और हमारी करताश्रो का नाम चित्र होता है और इस तरह यथार्थवाद हमको निराशा- वादी बना देता है, मानव-चरित्र पर से हमारा विश्वास उठ जाता है, हमको अपने चारो तरफ बुराई ही बुराई नजर आने लगती है ।

इसमे सन्देह नहीं कि समाज की कुप्रथा की ओर उसका ध्यान दिलाने के लिए यथार्थवाद अत्यन्त उपयुक्त है, क्योकि इसके बिना बहुत सम्भव है, हम उस बुराई को दिखाने मे अत्युक्ति से काम लें और चित्र को उससे कही काला दिखायें जितना वह वास्तव मे है । लेकिन जब वह दुर्बलताओं का चित्रण करने मे शिष्टता की सीमाओं से आगे बढ़ जाता है, तो आपत्तिजनक हो जाता है। फिर मानव स्वभाव की विशेषता यह भी है कि वह जिस छल, क्षुद्रता और कपट से घिरा हुआ है, उसी की पुनरावृत्ति उसके चित्त को प्रसन्न नही कर सकती। वह थोड़ी देर के लिए ऐसे ससार मे उड़कर पहुँच जाना चाहता है, जहाँ उसके चित्त को ऐसे कुत्सित भावों से नजात मिले-वह भूल जाय कि मै चिन्ताओ के बन्धन मे पड़ा हुआ हूँ, जहाँ उसे सज्जन, सहृदय, उदार प्राणियों के दर्शन हो; जहाँ छल और कपट, विरोध और वैमनस्य का ऐसा प्राधान्य न हो। उसके दिल मे ख्याल होता है कि जब हमे

किस्से-कहानियो मे भी उन्ही लोगो से साबका है जिनके साथ आठों पहर व्यवहार करना पड़ता है, तो फिर ऐसी पुस्तक पढे ही क्यो ?

अँधेरी गर्म कोठरी मे काम करते-करते जब हम थक जाते है तब इच्छा होती है कि किसी बाग मे निकलकर निर्मल स्वच्छ वायु का अानद उठाये । इसी कमी को आदर्शवाद पूरा करता है। वह हमे ऐसे चरित्रो से परिचित कराता है, जिनके हृदय पवित्र होते है, जो स्वार्थ और वासना से रहित होते है, जो साधु प्रकृति के होते हैं । यद्यपि ऐसे चरित्र व्यवहार-कुशल नही होते, उनकी सरलता उन्हे सासारिक विषयो मे धोखा देती है, लेकिन कॉइएपन से ऊबे हुए प्राणियो को ऐसे सरल, ऐसे व्यावहारिक ज्ञान विहीन चरित्रों के दर्शन से एक विशेष आनन्द होता है।

यथार्थवाद यदि हमारी आँखें खोल देता है, तो आदर्शवाद हमे उठाकर किसी मनोरम स्थान मे पहुँचा देता है । लेकिन जहाँ आदर्शवाद मे यह गुण है, वहाँ इस बात की भी शका है कि हम ऐसे चरित्रो को न चित्रित कर बैठे जो सिद्धातो की मूर्तिमात्र हो-जिनमे जीवन न हो। किसी देवता की कामना करना मुश्किल नही है, लेकिन उस देवता मे प्राण-प्रतिष्ठा करना मुश्किल है।

इसलिए वही उपन्यास उच्चकोटि के समझे जाते हैं, जहाँ यथार्थ और आदर्श का समावेश हो गया हो । उसे आप 'आदर्शोन्मुख' यथार्थवाद' कह सकते है । श्रादर्श को सजीव बनाने ही के लिए यथार्थ का उपयोग होना चाहिए और अच्छे उपन्यास की यही विशेषता है । उपन्यासकार की सबसे बडी विभूति ऐसे चरित्रों की सृष्टि है, जो अपने सद्व्यवहार और सद्विचार से पाठक को मोहित कर ले । जिस उपन्यास के चरित्रो मे यह गुण नहीं है, वह दो कौड़ी का है।

चरित्र को उत्कृष्ट और आदर्श बनाने के लिए यह जरूरी नहीं कि वह निदोष हो-महान् से महान् पुरुषो मे भी कुछ न कुछ कमजोरियाँ होती है । चरित्र को सजीव बनाने के लिए उसकी कमजोरियो का दिग्दर्शन

राकने से कोई हानि नहीं होती। बल्कि यही कमजोरियों उस चरित्र को मनुष्य बना देती हैं । निदोष चरित्र तो देवता हो जायगा और हम उसे समझ ही न सकेगे। ऐसे चरित्र का हमारे ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड सकता । हमारे प्राचीन साहित्य पर आदर्श की छाप लगी हुई है। वह केवल मनोरञ्जन के लिए न था। उसका मुख्य उद्देश्य मनोरञ्जन के साथ आत्मपरिष्कार भी था। साहित्यकार का काम केवल पाठकों का मन बहलाना नहीं है । यह तो भाटो और मदारियो, विदूषको और मसखरो का काम है। साहित्यकार का पद इससे कहीं ऊँचा है। वह हमारा पथ प्रदर्शक होता है, वह हमारे मनुष्यत्व को जगाता है, हममे सद्भावों का संचार करता है, हमारी दृष्टि को फैलाता है। कम से कम उसका यही उद्देश्य होना चाहिए । इस मनोरथ को सिद्ध करने के लिए जरूरत है कि उसके चरित्र Positive हो, जो प्रलोभनो के आगे सिर न झुकाये बल्कि उनको परास्त करे, जो वासनात्रो के पजे मे न फंसें बल्कि उनका दमन करें, जो किसी विजयी सेनापति की भॉति शत्रुश्रो का संहार करके विजय-नाद करते हुए निकले। ऐसे ही चरित्रो का हमारे ऊपर सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है।

साहित्य का सबसे ऊँचा आदर्श यह है कि उसकी रचना केवल कला की पूर्ति के लिए की जाय । 'कला के लिए कला' के सिद्धान्त पर किसी को आपत्ति नहीं हो सकती। वह साहित्य चिरायु हो सकता है जो मनुष्य की मौलिक प्रवृत्तियो पर अवलम्बित हो, ईर्षा और प्रेम, क्रोध और लोभ, भक्ति और विराग, दुःख और लज्जा-ये सभी हमारी मौलिक प्रवृत्तियाँ है, इन्हीं की छटा दिखाना साहित्य का परम उद्देश्य है और बिना उद्देश्य के तो कोई रचना हो ही नहीं सकती ।।

जब साहित्य की रचना किसी सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक मत के प्रचार के लिए की जाती है, तो वह अपने ऊँचे पद से गिर जाता है-इसमे कोई सन्देह नहीं । लेकिन आज-कल परिस्थितियों इतनी तीव्र गति से बदल रही है, इतने नये नये विचार पैदा हो रहे है, कि कदाचित्

अब कोई लेखक साहित्य के आदर्श को ध्यान मे रख ही नहीं सकता। यह बहुत मुश्किल है कि लेखक पर इन परिस्थितियो का असर न पडे, वह उनसे अान्दोलित न हो । यही कारण है कि आज-कल भारतवर्ष के ही नही, यूरोप के बड़े बड़े विद्वान् भी अपनी रचना द्वारा किसी 'वाद' का प्रचार कर रहे है । वे इसकी परवा नहीं करते कि इससे हमारी रचना जीवित रहेगी या नहीं; अपने मत की पुष्टि करना ही उनका ध्येय है, इसके सिवाय उन्हे कोई इच्छा नहीं । मगर यह क्योकर मान लिया जाय कि जो उपन्यास किसी विचार के प्रचार के लिए लिखा जाता है, उसका महत्व क्षणिक होता है ? विक्टर ह्यू गो का 'ले मिजरेबुल', टालस्टाय के अनेक ग्रंथ, डिकेन्स की कितनी ही रचनाएँ विचार-प्रधान होते हुए उच्च कोटि की साहित्यिक कृतियाँ हैं और अब तक उनका आकर्षण कम नहीं हुआ । आज भी शॉ, वेल्स आदि बड़े बडे लेखकों के ग्रन्थ प्रचार ही के उद्देश्य से लिखे जा रहे है।

हमारा ख्याल है कि क्यो न कुशल साहित्यकार कोई विचार प्रधान रचना भी इतनी सुन्दरता से करे जिसमें मनुष्य की मौलिक प्रवृत्तियों का सघर्ष निभता रहे ? 'कला के लिए कला' का समय वह हाता है जब देश सम्पन्न और सुखी हो । जब हम देखते है कि हम भॉति-भॉति के राजनीतिक और सामाजिक बन्धनो मे जकडे हुए है, जिधर निगाह उठती है दुःख और दरिद्रता के भीषण दृश्य दिखायी देते हैं, विपत्ति का करुण कदन सुनायी देता है, तो कैसे सभव है कि किसी विचार- शील प्राणी का हृदय न दहल उठे ? हॉ, उपन्यासकार को इसका प्रयत्न अवश्य करना चाहिए कि उसके विचार परोक्ष रूप से व्यक्त हो, उपन्यास की स्वाभाविकता मे उस विचार के समावेश से कोई विघ्न न पडने पाये, अन्यथा उपन्यास नीरस हो जायगा ।

डिकेस इगलैड का बहुत प्रसिद्ध उपन्यासकार हो चुका है। "पिक- विक पेपर्स' उसकी एक अमर हास्य-रस प्रधान रचना है । 'पिकविक' का नाम एक शिकरम गाड़ी के मुसाफिरो की जबान से डिकेस के कान में

आया । बस, नाम के अनुरूप ही चरित्र, आकार, वेश-सबकी रचना हो गयी। 'साइलस मार्नर' भी अगरेजी का एक प्रसिद्ध उपन्यास है। जार्ज इलियट ने, जो इसकी लेखिका है, लिखा है कि अपने बचपन मे उन्होंने एक फेरी लगानेवाले जुलाहे को पीठ पर कपडे के थान लादे हुए कई बार देखा था। वह तसवीर उनके हृदय-पट पर अकित हो गयी थी और समय पर इस उपन्यास के रूप मे प्रकट हुई । 'स्कारलेट लेटर' भी हॅथन की बहुत ही सुन्दर, मर्मस्पर्शिनी रचना है । इस पुस्तक का बीजाकुर उन्हे एक पुराने मुकद्दमे की मिसिल से मिला । भारतवर्ष मे अभी उपन्यासकारो के जीवन-चरित्र लिखे नही गये, इसलिए भारतीय उपन्यास-साहित्य से कोई उदाहरण देना कठिन है । 'रङ्गभूमि' का बीजा- कुर हमे एक अधे भिखारी से मिला जो हमारे गाँव मे रहता था। एक जरा-सा इशारा, एक जरा-सा बीज, लेखक के मस्तिष्क मे पहुंचकर इतना विशाल वृक्ष बन जाता है कि लोग उस पर आश्चर्य करने लगते है। 'एम० ऐड्र ज़ हिम' रडयार्ड किपलिग को एक उत्कृष्ट काव्य-रचना है। किपलिंग साहब ने अपने एक नोट मे लिखा है कि एक दिन एक इञ्जीनियर साहब ने रात को अपना जीवन-कथा सुनायी थी। वही उस काव्य का आधार थी । एक और प्रसिद्ध उपन्यासकार का कथन है कि उसे अपने उपन्यासो के चरित्र अपने पडासियो मे मिले। वह घण्टो अपनी खिडकी के सामने बैठे लोगो को अाते-जाते सूक्ष्म दृष्टि से देखा करते और उनकी बातों को व्यान से सुना करते थे । 'जेन श्रायर' भी उपन्यास के प्रेमियों ने अवश्य पढ़ी होगी । दो लेखिकात्रो मे इस विषय पर बहस हो रही थी कि उपन्यास की नायिका रूपवतो होनी चाहिये या नहीं। 'जेन आयर' की लेखिका ने कहा, 'मै ऐसा उपन्यास लिखूॅगी जिसकी नायिका रूपवती न होते हुए भी आकर्षक होगी।' इसका फल था 'जेन आयर' ।

बहुधा लेखको को पुस्तको से अपनी रचनाओ के लिए अकुर मिल जाते हैं । हाल केन का नाम पाठको ने सुना है। आपकी एक उत्तम
उसके विका हिन्दी अनुवाद हाल ही मे 'अमरपुरी' के नाम से हुआ है। मे नवीनलखते है कि मुझे बाइबिल से प्लाट मिलते है। मेटरलिंक

लेसयम के जगद्विख्यात नाटककार हैं। उन्हे बेलजियम का शेक्मपियर पक्तियो है। उनका 'मोमावोन' नामक ड्रामा ब्राउनिंग की एक कविता से स्वीकार हुअा था और 'मेरी मैगडालीन' एक जर्मन ड्रामा से । शेक्सपियर दृश्य नेटको का मूल स्थान खोज-खोजकर कितने ही विद्वानो ने 'डाक्टर' यूरोप उपाधि प्राप्त कर ली है । कितने वर्तमान औपन्यासिको और नाटक- उनका ने शेक्सपियर से सहायता ली है, इसकी खोज करके भी कितने ही अलग 'डाक्टर' बन सकते है । 'तिलिस्म होशरुबा' फारसी का एक वृहत् योग्या है जिसके रचयिता अकबर के दरबारवाले फैजी कहे जाते है, नोटलॉ कि हमे यह मानने मे सन्देह है । इस पोथे का उर्दू मे भी अनुवाद दृश्य गया है । कम-से-कम २०,००० पृष्ठो की पुस्तक होगी । स्व० बाबू कामकीनन्दन खत्री ने 'चन्द्रकान्ता' और 'चन्द्रकान्ता-सतति' का बीजाकुर नलिस्म होशरुबा' से ही लिया होगा,ऐसा अनुमान होता है ।

वर ससार-साहित्य मे कुछ ऐसी कथाएँ है, जिन पर हजारों बरसो से अाखकगण आख्यायिकाएँ लिखते आये है और शायद हजारों वर्षों तक दिलखते जायेंगे। हमारी पौराणिक कथाओ पर न जाने कितने नाटक और कितनी कथाएँ रची गयी है। यूरोप मे भी यूनान की पौराणिक गाथा कवि-कल्पना के लिए अशेष आधार है । 'दो भाइयो की कथा', जिसका पता पहले मिस्र देश के तीन हजार वर्ष पुराने लेखों से मिला था, फ्रान्स से भारतवर्ष तक की एक दर्जन से अधिक प्रसिद्ध भाषाओं के साहित्य मे समाविष्ट हो गयी है। यहाँ तक कि बाइबिल मे उस कथा की एक घटना ज्यो की त्यो मिलती है।

किन्तु यह समझना भूल होगी कि लेखकगण आलस्य या कल्पना- शक्ति के अभाव के कारण प्राचीन कथाओ का उपयोग करते है। बात यह है कि नये कथानक मे वह रस, वह आकर्षण नहीं होता जो पुराने कथानकों मे पाया जाता है। हॉ, उनका कलेवर नवीन होना चाहिए।
'शकुन्तला' पर यदि कोई उपन्यास लिखा जाय, तो वह कितना मर्म- स्पर्शी होगा, यह बताने की जरूरत नही ।

रचना-शक्ति थोडी-बहुत सभी प्राणियो मे रहती है। जो उसमें अभ्यस्त हा चुके है, उन्हे तो फिर झिझक नहीं रहती-कलम उठाया और लिखने लगे। लेकिन नये लेखको को पहले कुछ लिखते समय ऐसी झिझक होती है मानो वे दरिया मे कूदने जा रहे हो । बहुधा एक तुच्छ सी घटना उनके मस्तिष्क पर प्रेरक का काम कर जाती है । किसी का नाम सुनकर, काई स्वप्न देखकर, कोई चित्र देखकर, उनकी कल्पना जाग उठती है । किसी व्यक्ति पर किस प्रेरणा का सब से अधिक प्रभा पड़ता है, यह उस व्यक्ति पर निर्भर है । किसी की कल्पना दृश्य-विषय से उभरती है,किसा की गन्ध से, किसी की श्रवण से।किसी को नये,सुरम्य स्थान की सैर से इस विषय मे यथेष्ट सहायता मिलती है। नदी के तट पर अकेले भ्रमण करने से बहुवा नयी-नयी कल्पनाएँ जाग्रत होती हैं। ।

ईश्वरदत्त शक्ति मुख्य वस्तु है । जब तक यह शक्ति न होगी जप देश, शिक्षा, अभ्यास सभी निष्फल जायगा । मगर यह प्रकट कैसे हो कि किसमे यह शक्ति है, किसमे नही ? कभी इसका सबूत मिलने मे बरसो गुजर जाते है और बहुत परिश्रम नष्ट हो जाता है। अमेरिका के एक पत्र सपादक ने इसकी परीक्षा करने का नया ढग निकाला है। दल के दल युवको मे से कौन रत्न है और कौन पाषाण ? वह एक कागज के टुकडे पर किसी प्रसिद्ध व्यक्ति का नाम लिख देता है और उम्मेदवार को वह टुकड़ा देकर उस नाम के सम्बन्ध मे ताबड़तोड़ प्रश्न करना शुरू करता है-उसके बालो का रंग क्या है ? उसके कपड़े कैसे है ? कहाँ रहती है ? उसका बाप क्या काम करता है ?जीवन मे उसकी मुख्य अभिलाषा क्या है ? आदि । यदि युवक महोदय ने इन प्रश्नो के संतापजनक उत्तर न दिये, तो उन्हे अयोग्य समझकर बिदा कर देता है । जिसकी निरीक्षण-शक्ति इतनो शिथिल हो, वह

उसके विचार मे उपन्यास-लेखक नहीं बन सकता । इस परीक्षा-विभाग मे नवीनता तो अवश्य है पर भ्रामकता की मात्रा भी कम नही है।

लेखको के लिए एक नोटबुक का रहना आवश्यक है। यद्यपि इन पक्तियो के लेखक ने कभी नोटबुक नहीं रखी, पर इसकी जरूरत को वह स्वीकार करता है । काई नयी चीज, काई अनोखी सूरत, कोई सुरम्य दृश्य देखकर नाट बुक मे दर्ज कर लेने से बड़ा काम निकलता है। यूरोप मे लेखको के पास उस वक्त तक नोटबुक अवश्य रहती है जब-तक उनका मस्तिष्क इस योग्य नहीं बनता कि हर प्रकार की चीजो को वे अलग अलग खानो मे सगृहीत कर ले । बरसो के अभ्यास के बाद यह योग्यता प्राप्त हा जाती है, इसमे सन्देह नहीं, लेकिन प्रारम्भकाल मे तो नोटबुक का रखना परमावश्यक है । यदि लेखक चाहता है कि उसके दृश्य सजीव हो, उसके वर्णन स्वाभाविक हो, तो उसे अनिवार्यतः इससे काम लेना पडेगा । देखिये, एक उपन्यासकार की नोटबुक का नमूना-

'अगस्त २१, १२ बजे दिन, एक नौका पर एक आदमी, श्याम वर्ण, सुफेद बाल, ऑखे तिरछी, पलके भारी, आठ ऊपर का उठे हुए और माटे, मछे ऐठी हुई।

"सितम्बर १, समुद्र का दृश्य, बादल श्याम और श्वेत, णनी मे सर्य का प्रतिबिम्ब काला, हरा, चमकीला, लहरे फेनदार, उनका ऊपरी भाग उजला । लहरो का शोर, लहरो के छींटे से झाग उड़ती हुई ।' उन्ही महाशय से जब पूछा गया कि आपको कहानियो के प्लाट कहाँ मिलते है १ तो आपने कहा, 'चारो तरफ । अगर लेखक अपनी आँखे खुली रखे, तो उसे हवा मे से भी कहानियाँ मिल सकती है ।रेलगाडी मे, नौकात्रों पर, समाचार-पत्रो मे, मनुष्य के वार्तालाप मे और हजारो जगहो से सुन्दर कहानियाँ बनायी जा सकती है। कई सालों के अभ्यास के बाद देख-भाल स्वाभाविक हो जाती है, निगाह आप ही आप अपने मतलब की बात छॉट लेती है । दो साल हुए, मै एक मित्र के साथ

सैर करने गया ।बातो ही बातों मे यह चर्चा छिड गयी कि यदि दो के सिवा ससार के और सब मनुष्य मार डाले जाये तो क्या हो ? इस अकुर से मैने कई सुन्दर कहानियाँ सोच निकाली।'

इस विषय मे तो उपन्यास-कला के सभी विशारद सहमत है कि उपन्यासा के लिए पुस्तको से मसाला न लेकर जीवन ही से लेना चाहिये। वालटर बेसेट अपनी 'उपन्यास कला' नामक पुस्तक मे लिखते है-

'उपन्यासकार को अपनी सामग्री, अाले पर रखी हुई पुस्तको से नहीं, उन मनुष्यो के जीवन से लेनी चाहिए जो उसे नित्य ही चारो तरफ मिलते रहते है । मुझे पूरा विश्वास है कि अधिकाश लोग अपनी आँखो से काम नहीं लेते । कुछ लोगो को यह शका भी होती है कि मनुष्यो मे जितने अच्छे नमूने थे, वे तो पूर्वकालीन लेखको ने लिख डाले, अब हमारे लिए क्या बाकी रहा १ यह सत्य है । लेकिन अगर पहले किसी ने बूढे, कजूस, उडाऊ युवक, जुआरी, शराबी, रगीन युवती आदि का चित्रण किया है, तो क्या अब उसी वर्ग के दूसरे चरित्र नहीं मिल सकते ? पुस्तको मे नये चरित्र न मिले पर जीवन मे नवीनता का अभाव कभी नही रहा।

हेनरी जेम्स ने इस विषय मे जो विचार प्रकट किये है, वह भी देखिये-

'अगर किसी लेखक की बुद्धि कल्पना-कुशल है, तो वह सूक्ष्मतम- भावो से जीवन को व्यक्त कर देती है, वह वायु के स्पन्दन को भी जीवन प्रदान कर सकती है । लेकिन कल्पना के लिए कुछ प्राधार अवश्य चाहिए । जिस तरुणी लेखिका ने कभी सैनिक छावनियों नहीं देखीं, उससे यह कहने मे कुछ भी अनौचित्य नहीं है कि आप सैनिक-जीवन मे हाथ न डालें । मै एक अंग्रेज उपन्यासकार को जानता हूँ, जिसने अपनी एक कहानी मे फ्रान्स के प्रोटेस्टेट युवको के जीवन का अच्छा चित्र खीचा था। उस पर साहित्यिक ससार मे बड़ी चर्चा रही। उससे लोगों ने पूछा-आपको इस समाज के निरीक्षण करने का ऐसा अवसर कहाँ
मिला? ( फ्रान्स रोमन कैथोलिक देश है और प्रोटेस्टेट वहाँ साधारणतः नहीं दिखायी पड़ते।) मालूम हुआ कि उसने एक बार, केवल एक बार, कई प्रोटेस्टेट युवकों को बैठे और बाते करते देखा था। बस, एक का देखना उसके लिए पारस हो गया । उसे वह आधार मिल गया जिसपर कल्पना अपना विशाल भवन निर्माण करती है। उसमे वह ईश्वरदत्त शक्ति मौजूद थी जो एक इञ्च से एक योजन की खबर लाती है और जो शिल्पी के लिए बडे महत्त्व की वस्तु है।'

मिस्टर जी० के० चेस्टरटन जासूसी कहानियाँ लिखने मे बडे प्रवीण हैं। आपने ऐसी कहानियों लिखने का जो नियम बताया है, वह बहुत शिक्षाप्रद है । हम उसका आशय लिखते है-

'कहानी मे जो रहस्य हो उसे कई भागो मे बॉटना चाहिए । पहले छोटी-सी बात खुले, फिर उससे कुछ बड़ी और अन्त मे रहस्य खुल जाय । लेकिन हरएक भाग मे कुछ न कुछ रहस्योद्घाटन अवश्य होना चाहिए जिसमे पाठक की इच्छा सब-कुछ जानने के लिए बलवती होती चली जाय । इस प्रकार की कहानियो मे इस बात का ध्यान रखना परमा- वश्यक है कि कहानी के अन्त मे रहस्य खोलने के लिए कोई नया चरित्र न लाया जाय । जासूसी कहानियो मे यही सबसे बड़ा दोष है । रहस्य के खुलने मे तभी मजा है जबकि वह चरित्र अपराधी सिद्ध हो, जिस पर कोई भूलकर भी सन्देह न कर सकता था ।'

उपन्यास कला मे यह बात भी बड़े महत्त्व की है कि लेखक क्या लिखे ओर क्या छोड़ दे। पाठक कल्पनाशील होता है, इसलिए वह ऐसो बाते पढ़ना पसन्द नहीं करता जिनकी वह आसानो से कल्पना कर सकता है । वह यह नहीं चाहता कि लेखक सब कुछ खुद कह डाले और पाठक की कल्पना के लिए कुछ भी बाकी न छोडे । वह कहानी का खाका-मात्र चाहता है, रंग वह अपनी अभिरुचि के अनुसार भर लेता है। कुशल लेखक वही है जो यह अनुमान कर ले कि कौन सी बात पाठक स्वय सोच लेगा और कौन-सी बात उसे लिखकर स्पष्ट कर देनी