साहित्य सीकर/१२—पुस्तक-प्रकाशन

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१२—पुस्तक-प्रकाशन

पुस्तक-प्रणयन का काम जितने महत्व का है, पुस्तक प्रकाशन का भी उतने महत्व का है। किम्बहुना उससे भी अधिक महत्व का है। क्योंकि पुस्तक चाहे जितनी उपयोगी, आवश्यक और लाभदायक क्यों न हो, यदि वह प्रकाशित न हुई तो उसका निर्माण ही बहुत कुछ व्यर्थ समझना चाहिये। पुराने ज़माने में पुस्तक प्रकाशन के उपाय वैसे सुलभ न थे जैसे आजकल हैं। इसी से अनन्त ग्रंथ-रत्न नष्ट हो गये; और यदि उनमें से कहीं कोई अब तक छिपे-छिपाये पड़े भी हैं तो उनका होना न होने के बराबर है। क्योंकि उनके अस्तित्व से सर्व साधारण का लाभ नहीं पहुँचता। जिस समय छापने की कला का आविष्कार नहीं हुआ था। उस समय किसी नवीन ग्रन्थ की नकल करने में बड़ा परिश्रम पड़ता था। इसी से अमीर आदमियों को छोड़कर, साधारण जनों के लिये बहुत परिमाण में, अच्छे-अच्छे ग्रन्थों का अवलोकन, परिशीलन और संग्रह प्रायः असम्भव सा था। अतएव विद्या-वृद्धि में बहुत बाधा आती थी।

इस समय छापे के यन्त्रो की बदौलत पुस्तकों को छपकर प्रकाशित होना, पहले की अपेक्षा, बहुत आसान हो गया है। जो देश अधिक सुरक्षित है, जहाँ विद्या और कला-कौशल की खूब अभिवृद्धि है जहाँ पढ़ने लिखने की विशेष चर्चा है, वहाँ साल में सैकड़ों नहीं हज़ारों उत्तमोत्तम ग्रन्थ बनते हैं, निकलते और हाथों हाथ बिक जाते हैं। योरप और अमेरिका में लाखों, करोड़ों, रुपये की पूँजी लगाकर कितनी ही कम्पनियाँ [ ९१ ]खड़ी हुई हैं जिनका एकमात्र व्यवसाय पुस्तकों को प्रकाशित करना और उन्हें बेचकर सर्वसाधारण को लाभ पहुँचाना है। पुस्तक-प्रकाशन का व्यवसाय करने वालों की बदोलत शिक्षा और विद्या के प्रचार में जो मदद मिलती है तो मिलती ही है; उनसे एक और भी उपकार होता है। वह यह कि पुस्तक-प्रणेता जनों के परिश्रम को सफल करके ये लोग उन्हें उनके परिश्रम का पुरस्कार भी देते है। इससे ग्रन्थकर्त्ता लोग जीवन निर्वाह के लिये और झझटों में न पड़कर, आराम से उत्तमोत्तम पुस्तकें लिखते हैं, और उन्हें पुस्तक-प्रकाशकों को देकर उनसे प्राप्त हुये धन से आनन्दपूर्वक अपना निर्वाह करते हैं। इस प्राप्ति की बदौलत उनको रुपये पैसे की कमी नहीं रहती। पेट की ज्वाला बुझाने के लिये उन्हें दौड़-धूप नहीं करनी पड़ती। जितनी ही अच्छी, जितनी ही उपयोगी; पुस्तक व लिखते है उतना ही अधिक पुरस्कार भी उन्हें मिलता है। इससे उनका उत्साह बढ़ता है और अच्छे अच्छे ग्रन्थ उनकी कलम से निकलते है। सुशिक्षित देशों में ग्रन्थ लिखने का एक व्यवसाय ही हो गया है। इस व्यवसाय के लोग बड़े आदर की दृष्टि से देखते है।

जहाँ पुस्तक प्रकाशन का व्यवसाय होता है वहाँ पुस्तक लिखने वालों को, अपनी पुस्तकें छपाकर प्रकाशित करने में, प्रयास नहीं पड़ता, और यदि पड़ता भी है तो बहुत कम। उन्होंने पुस्तक लिखी और किसी अच्छे प्रकाशक के सिपुर्द कर दी। उससे पुरस्कार लिया और दूसरी पुस्तक के लिखने में लगे। प्रकाशक ने उस पुस्तक को प्रकाशित करके उसके करोड़ों विज्ञापन दुनियाँ भर में बाँटे। यदि पुस्तक अच्छी हुई तो थोड़े ही दिनों में उसकी हज़ारों कापियाँ बिक गई। ऐसी पुस्तकें लिखनेवालों को लाभ भी बहुत होता है। भारतवर्ष के वर्तमान सेक्रेटरी आफ स्टेट, जान मालें साहब, ने ग्लैडस्टन साहब का जीवनचरित लिखकर लाखों रुपये कमाये हैं। पोप कवि, [ ९२ ]होमर की इलियड नामक काव्य के अनुवाद ही की बदौलत, अमीर हो गया। परन्तु, याद रहे, यह विलायत का जिक्र है, यहाँ का नहीं। यहाँ विद्या और शिक्षा की जैसी दशा है उसके होते यहाँ वालों को विलायत के ग्रन्थकारों के पुरस्कार का शतांश क्या सहस्रांश भी मिलना असम्भव है। यहाँ उनकी लिखी हुई पुस्तकें ही काई प्रकाशक मुफ़्त में छाप दे तो गनीमत समझना चाहिये। पुरस्कार तो तब मिलेगा जब पुस्तक अच्छी होगी; हजार दो हज़ार कापियाँ बिकने की उम्मीद होगी। प्रकाशकों के छापेखाने में कारूँ का खजाना नहीं गड़ा जो रद्दी किताबों की लिखाई दो दो चार-चार तोड़े देते चले जायँ।

योरप और अमरिका में प्रकाशक लोग ग्रंथकारों को एक ही बार पुरस्कार देकर फुरसत नहीं पा लेते। किसी पुस्तक का कापी-राइट (स्वत्व) मोल लेकर जो कुछ ठहर जाता है वह तो वे देते ही हैं; पर इसके सिवा वे प्रत्येक संस्करण पर कुछ "रायल्टी" भी देते है। अर्थात् जिस पुस्तक का स्वत्व खरीदत हैं उसकी प्रत्येक आबृत्ति पर फी सैकड़ा या फी हजार, जो निश्चय हो जाता है वह भी ग्रन्थकार को बराबर देते रहते हैं। यदि कोई पुस्तक चल गई तो लिखने वाले का दुःख-दरिद्र एक ही पुस्तक के बदौलत दूर हो गया समझिये।

पुस्तक-प्रणेता बहुधा निर्धन हुआ करते हैं। अतएव उनकी पुस्तकों को छापने का यदि किसी की सहायता से प्रबन्ध न हुआ तो उनका अप्रकाशित रह जाना असभव नहीं। क्योंकि रुपया पास न होने से मुफ़्त में तो किताब छपती नहीं। इसीसे पस्तक-प्रणेताओं को पुस्तक प्रकाशकों के आश्रय की बड़ी जरूरत रहती है। निर्धन आदमी ने यदि किसी तरह माँग-जाँच कर अपनी कोई पुस्तक खुद ही प्रकाशित की और उसकी बिक्री न हुई तो उस बेचारे का सारा उत्साह मिट्टी में मिल गया समझना चाहिए और धनवान आदमी के लिए भी अपनी लागत से पुस्तकें छपाना, और यदि न बिकें तो हानि उठाना [ ९३ ]भी तो नैराश्यजनक है। एक दो दफे कोई चाहे भले ही इस तरह हानि उठावे, पर बार-बार कोई भी घर का रुपया व्यर्थ न फेंकना चाहेगा। पुस्तक-प्रकाशकों की बात दूसरी है। उनको इस व्यवसाय के दाँव-पेंच मालूम रहते हैं। उनके पास बहुधा निज का छापाखाना भी होता है। इससे पहले तो वे कोई ऐसी पुस्तक लेते ही नहीं जिससे हानि की सम्भावना हो। और यदि हानि हुई भी तो किसी और पुस्तक की विशेष बिक्री से वह हानि पूरी हो जाती है। फिर इन लोगों को विज्ञापन देने के ऐसे-ऐसे ढङ्ग मालूम रहते हैं कि एक कम उपयोगी पुस्तक के लिये भी वे आकाश-पाताल एक कर देते हैं। हजारों पुस्तकें अन्यान्य देशों को भेज देते हैं। कितनी ही कमीशन पर, बिक्री के लिए, दूकानदारों को दे देते हैं। मतलब यह कि पुस्तक बेंचकर उससे यथेष्ट लाभ उठाने के साधनों को काम में लाने में वे कोई कसर नहीं करते।

इँगलैंड के समाचार पत्रों और सामयिक पुस्तकों के सम्पादकों को पुस्तक-प्रकाशकों से बहुत लाभ होता है। अथवा यों कहना चाहिए कि परस्पर एक दूसरे की मदद के बिना उसका काम ही नहीं चल सकता। समाचार पत्रों में पुस्तकों के जो विज्ञापन छपते हैं उनसे उन्हें लाखों रुपये की आमदनी होती है और विज्ञापनों की ही बदौलत प्रकाशकों की पुस्तकें बिकती हैं। इंगलैंड में 'लण्डन-टाइम्स' नाम का एक सब से अधिक प्रभावशाली पत्र है। इस पत्र के मालिकों और इँगलैंड के पुस्तक-प्रकाशकों में, कुछ दिन हुए, अनबन हो गई थी। इस विषय में दोनों पक्षों में घनघोर विवाद ठना। दोनों तरफ से बड़े बड़े लेख लिखे गये। प्रकाशकों ने "टाइम्स" को विज्ञापन देना बन्द कर दिया। जिन प्रकाशकों ने "टाइम्स" ने पहले ही से वर्ष-वर्ष दो-दो वर्ष विज्ञापन छापने का ठेका करके रुपया वसूल कर लिया था, सिर्फ उनके विज्ञापन छपते रहे। बाकी प्रकाशकों ने एका करके [ ९४ ]"टाइम्स" का "बायकाट" कर दिया। बहुत दिन बाद लड़-झगड़ आपस में निपटारा हो गया और फिर "टाइम्स" में विज्ञापन छपने लगे। एक बात जो इससे सिद्ध होती है वह यह है कि इँगलैंड के प्रकाशक इतने प्रबल और शक्तिमान हैं कि "टाइम्स" जैसे पत्र की भी वे नाकोदम कर सकते हैं।

बड़े खेद की बात है कि इस देश की भाषाओं में—विशेष करके हिन्दी में—जैसे सुपाठ्य पुस्तकों की कमी है वैसे ही प्रकाशकों की भी कमी है। प्रकाशकों की कमी नही, किन्तु यह कहना चाहिये कि उनका प्रायः अभाव सा है। अच्छी-अच्छी पुस्तकों के न बनने और उनके न प्रकाशित होने के जो कारण हैं उनमें सुयोग्य प्रकाशकों का न होना भी एक कारण है। बाबू दिनेशचंद्र सेन, बी॰ ए॰ ने "बङ्ग भाषाओं साहित्य" नामक एक अद्वितीम ग्रन्थ लिखा है। उसके पहले संस्करण की छपाई इत्यादि का खर्च स्वाधीन त्रिपुरा के अधिपति, महाराज वीरचंद्र माणिक्य, ने दिया। तब वह पुस्तक छपकर प्रकाशित हो सकी। पुस्तक ऐसी उत्तम थी कि एक ही वर्ष में उसका पहला संस्करण बिक गया। गवर्नमेंट ने इस पुस्तक को इतना पसन्द किया कि दिनेश बाबू को २५ रुपया मासिक पेन्शन हो गई। परन्तु इस पुस्तक को लिखने में पुस्तककर्त्ता ने इतना परिश्रम किया कि उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया और जिस नौकरी की बदौलत उनकी जीविका चलती थी उससे हाथ धोना पड़ा। फल यह हुआ कि वे रोटियों के लिए मुहताज हो गये और गवर्नमेंट की पेन्शन ही से किसी तरह पेट पालना पड़ा। इस दशा में वे अपने पूर्वोक्त पुस्तक का दूसरा संस्करण न निकाल सके। उस के लिए २००० रुपये दरकार थे। इतना रुपया उनके पास कहाँ? अतएव बहुत दिनों तक उसकी दूसरी आवृत्ति न निकल सकी! अन्त में सन्याल एण्ड कम्पनी ने किसी तरह इस परमोपयोगी ग्रन्थ को प्रकाशित करके उसे सर्वसाधारण के लिए सुलभ कर दिया। अब [ ९५ ]कहिए, यदि यह कम्पनी न होती तो यह उतनी अच्छी पुस्तक शायद दुबारा छप ही न सकती। राजे महराजे हैं सही, और कभी-कभी वे किसी-किसी की मदद कर भी देते हैं; पर उनका यह व्यवसाय नहीं। फिर, कुछ ही राजे-महराजे ऐसे हैं जिनको पढ़ने लिखने का शौक है। बाकी के विषय में कुछ न लिखना ही अच्छा है।

बंगाल में पुस्तक प्रकाशन का थोड़ा-बहुत सुभीता है। दक्षिण में भी कई आदमी मराठी पुस्तकें प्रकाशित करने का व्यवसाय करते हैं। वहाँ कई एक प्रेस भी ऐसे हैं जो हमेशा नई-नई पुस्तकें निकाला करते हैं। कितनी ही मासिक पुस्तकें ऐसी हैं जिनमें अच्छे-अच्छे ग्रन्थ, थोड़े थोड़े, निकलते रहते हैं और पूरे हो जाने पर अलग पुस्तकाकार प्रकाशित किये जाते हैं। दक्षिणात्य प्रकाशकों में हम दाभोलकर-उपनामधारी एक सज्जन के प्रकाशन सम्बन्धी काम को सबसे अधिक प्रशंसनीय समझते हैं। उन्होंने कई साल से उत्तमोत्तम अँगरेज़ी-ग्रन्थों का अनुवाद, प्रतिष्ठित विद्वानो से मराठी में कराकर, प्रकाशित करने का क्रम जारी किया है। आजतक उन्होंने कोई ३० ग्रन्थ प्रकाशित किये होंगे। उनमें कुछ ही ग्रन्थ बिलकुल नये हैं। अधिकतर अँगरेजी के अनुवाद हैं। बाबाजी सखाराम एंड कम्पनी ने भी कई उपयोगी ग्रन्थ प्रकाशित किये हैं। उसका प्रकाशन-कार्य अभी तक जारी है। निर्णय-सागर प्रेस के मालिक और जनार्दन महादेव गुर्जर आति भी चुप नहीं हैं। वे भी पुस्तक-प्रकाशन में अधिकाधिक अग्रसर हो रहे हैं। परन्तु निर्णयसागर से विशेष करके संस्कृत ही के ग्रन्थ अधिक निकलते है। हाँ, महाराजा गायकवार का नाम हम भूल ही गये। आपने बरौदे से आज तक न जाने कितने अमूल्य ग्रन्थ मराठी में प्रकाशित कराये होंगे। आपके नाम के मराठी में ग्रन्थों की एक माला की माला ही निकलती है। आपकी इस माला में जितने ग्रन्थ निकले हैं एक से एक अपूर्व हैं। इस समय हम लोगों को ऐसे ही ग्रन्थों की जरूरत [ ९६ ]हैं। महाराजा गायकवार को विद्या का बेतरह व्यसन है। ग्रंथकारों के तो वे कल्पवृक्ष ही हैं। किसी ग्रन्थकार का कोई अच्छा ग्रंथ उनके सामने आया कि ग्रंथकार को पुरस्कार मिला। आपने कितनी ही दफे मराठी मासिक पुस्तकों के सम्पादकों के लेखों पर प्रसन्न होकर हज़ारों रुपये दे डाले हैं। इस समय आपके साहाय्य से महाभारत का एक बहुत ही अच्छा अनुवाद, मराठी में, हो रहा है।

इन प्रान्तों में पुस्तक-प्रकाशन का व्यवसाय करके मुंशी नवल-किशोर ने बड़ा नाम पाया, बहुत लाभ भी उठाया और सर्वसाधारण में विद्या का प्रचार भी बढ़ाया। उन्होंने हिन्दी, उर्दू, फारसी और संस्कृत के ग्रंथ प्रकाशित करके, बहुत सी अच्छी-अच्छी पुस्तकें, थोड़ी कीमत पर, सुलभ कर दी। यदि मुंशीजी इस काम को न करते तो तुलसीदास की रामायण गाँव-गाँव में न देख पड़ती। यह व्यवसाय करके उन्होंने खुद भी लाभ उठाया और हज़ारों पुस्तकें प्रकाशित करके शिक्षा-प्रचार और ज्ञान-वृद्धि भी की। परन्तु मुंशीजी के सद्व्यवसाय का हृदय से अभिनन्दन करते हुये, हम यह भी कहना अपना कर्तव्य समझते हैं कि उन्होंने विशेष करके उन्हीं पुरानी पुस्तकों के प्रकाशन की ओर अधिक ध्यान दिया जिनका थोड़ा-बहुत धर्म्म से सम्बन्ध था। अथवा उन्होंने किस्से-कहानी आदि की ऐसी किताबें प्रकाशित की जिनको सब लोग पसन्द नहीं करते। परन्तु इसके साथ एक बात यह भी है कि उन्नतविचार-पूर्ण पुस्तकें पढ़ने की लालसा पढ़े-लिखे आदमियों में अभी कुछ ही दिन से जागृत हुई है। अतएव यदि मुंशी जी को इस तरह की पुस्तकें मिलतीं और वे उन्हें प्रकाशित भी करते, तो भी उनके पढ़नेवाले बहुत न मिलतें।

श्रीवेङ्कटेश्वर प्रेस के मालिक ने भी प्रकाशन का काम करके साहित्य की बहुत कुछ उन्नति की है। पहले आपके यहाँ विशेष करके संस्कृत [ ९७ ]ही के ग्रन्थ छपते थे; पर अब हिन्दी के भी छपने और प्रकाशित होने लगे हैं। पुराण, ज्योतिष और वैद्यक आदि के ग्रन्थों का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित करके आपने संस्कृत न जानने वालों के लिए इन ग्रन्थों से लाभ उठाने का द्वार उन्मुक्त कर दिया। यह आपने बहुत बड़ा काम किया। जब से आप श्रीवेङ्कटेश्वर-समाचार को निकालने लगे हैं तब से हिन्दी की भी अच्छी-अच्छी पुस्तकें आपके यहाँ से निकलने लगी हैं। जहाँ तक हमने सुना है, आप अच्छे-अच्छे ग्रन्थकारों, अनुवादकों और प्राचीन पुस्तक प्रदाताओं को धन और पुस्तक आदि से सहायता देकर उनका उत्साह भी बढ़ाते हैं। यह आपके पुस्तक प्रकाशन में विशेषता है।

और भी इस समय कई सज्जन हिन्दी में पुस्तक-प्रकाशन का काम करते हैं। उनका भी उद्योग अभिनन्दनीय है। परन्तु इस तरह के प्रकाशकों में जो लोग सुशिक्षित हैं उनके यहाँ से प्रायः अनुपयोगी पुस्तकें निकलते देख खेद होता है। अब शिक्षित जनों का ध्यान देशोन्नति की तरफ जाने लगा है, शिक्षाप्रचार की तरफ जाने लगा है, विद्या, विज्ञान और कला-कौशल के अभ्युदय की तरफ जाने लगा है। अतएव ऐसा समय आने पर भी, शिक्षित होकर जो व्यवसायी इन विषयों की एक भी पुस्तक न प्रकाशित करके केवल उपन्यास, नाटक और किस्से कहानियाँ ही छाप कर रुपया बटोरना चाहते हैं वे अभिनन्दन के पात्र नहीं। हम यह नहीं कहते कि नाटक ओर उपन्यास न बनें, जरूर बनें और जरूर प्रकाशित हों। पर फी सदी बहुत नहीं तो दस पुस्तकें तो समयानुकूल निकले। बनारस और मुरादाबाद आदि के प्रकाशकों का ध्यान जरूर इस तरफ जाना चाहिए। हम उपन्यासों के विरोधी नहीं। अँगरेजी भाषा का साहित्य कितना उन्नत हैं। पर उसमें भी डिकेम्पन, हेपटोरन, लन्दन ओर पेरिस के कोर्ट्स के रहस्य, जोला आदि के उपन्यास भरे पड़े हैं। पर हमारे यहाँ तो [ ९८ ]और कुछ नहीं, प्रायः इसी तरह की अनुपयोगी पुस्तकों की भरमार है। काम-शास्त्र और रति-शास्त्र प्रकाशित करना, अथवा कुछ का कुछ लिख कर गन्दे नाम से देश भर में विज्ञापन छपाते फिरना बड़ी लज्जा की बात है। कुछ लोग कानून के डर से मजमून तो अश्लील नहीं होने देते, पर लोगों को भ्रम में डालने के लिये, नाम कोई गन्दा सा रख देते हैं, जिसमें नाम देख कर ही लोग पुस्तक मँगावें। यह अत्यन्त निन्दनीय काम है। क्या ही अच्छा हो यदि गवर्नमेंट पेनल कोड के अश्लील साहित्य-सम्बन्धी सेक्शन का जरा और व्यापक करके इन कोकशास्त्रियों की पुस्तकें मुरादाबाद की राम-गंगा और झाँसी के लक्ष्मी तालाब में डुबो दें।

जब किसी भाषा की उन्नति का आरम्भ होता है तब उपन्यासों ही से होता है। उपन्यासों के पढ़ने में मन को परिश्रम नहीं पड़ता! बुद्धि की भी सञ्चालना नहीं करनी पड़ती। अतएव सब लोग, मनोरञ्जन के लिये उपन्यासों को प्रेम से पढ़ते हैं। हिन्दी में जो इस समय उपन्यासों का जोरशोर है वह हिन्दी के भावी अभ्युदय का सूचक है। परन्तु उपन्यासकारों का धर्म्म है कि यथासम्भव वे अच्छे उपन्यास लिखें। क्या वङ्किम बाबू ने बँगला में उपन्यास नहीं लिखे? यदि यह कहे कि उपन्यासों के सिवा उन्होंने और कुछ लिखा ही नहीं तो भी अत्युक्ति न होगी। उनका एक भी उपन्यास बुरा नहीं। क्यों फिर उनकी इतनी कदर है? इसीलिए कि उनका रचना-कौशल उत्तम है, उनका कथानक अच्छा है, उनके प्रत्येक पात्र का क्रिया-कलाप स्वाभाविक है, जहाँ जिस रस की अपेक्षा थी वहाँ उसका पूरा परिपाक हुआ है। यदि लेखक अच्छा है तो वह अपने उपन्यास में मनुष्यों के चरित को स्वाभाविक और सार्वजनानुमोदित चित्र खींच कर पढ़ने वालों को मुग्ध जरूर कर देगा। और यदि लेखक अच्छा नहीं तो वह चाहे अपने पात्रों को जितना कुरुचि-कषाय पिलावे, चाहे जितने रहस्यों [ ९९ ]को स्फोट करें और चाहे जितने हरमों का हाल लिखे उसके उपन्यास से कभी यथेष्ट आनन्द न मिलेगा। अतएव लेखकों को चाहिये कि अच्छे-अच्छे उपन्यास लिखें और प्रकाशक उनके गुण-दोषों पर अच्छी तरह विचार करके उन्हें प्रकाशित करें।

यदि प्रकाशक अपने व्यवसाय को अच्छी तरह जानता है, यदि वह लोगों की रुचि को पहचानता है, यदि उसे अपने लाभ के साथ अपने देश और अपने देशवासियों के लाभ का भी कुछ खयाल है तो वह अच्छे-अच्छे भी उपन्यास प्रकाशित कर रुपया पैदा कर सकता है। यदि वह अच्छे लेखकों को उत्साहित करेगा तो वे अच्छी पुस्तकें उसके लिए जरूर लिखेंगे। इसमें उसे कुछ अधिक खर्च करना पड़ेगा। परन्तु बहुजन मान्य पुस्तक प्रकाशित करने से लाभ उसे अधिक होगा। और यदि थोड़ा ही लाभ हो, तो भी उसे यह सोचकर सन्तोष करना चाहिये कि मैंने एक अनुपयोगी और दुर्नीती-वर्द्धक पुस्तक का प्रचार करके अपने देश भाइयों की रुचि को नहीं खराब किया।

हर्ष की बात है, कुछ प्रकाशकों का ध्यान अब अच्छी-अच्छी देशोपयोगी पुस्तकों के प्रचार की तरफ गया भी है। हिन्दी और हिन्दुस्तान के हितचिन्तक पण्डित माधवराव सप्रे, बी॰ ए॰ ने नागपुर में एक कम्पनी स्थापित की है। उसका उद्देश हिन्दी में अच्छे-अच्छे ग्रन्थ प्रकाशित करने का है। उसके प्रबन्ध से हिन्दी ग्रन्थमाला नाम की एक मासिक पुस्तक निकलने लगी है, उसमें हिन्दी के अच्छे-अच्छे ग्रंथ प्रकाशित करने का है। उसके प्रबन्ध से हिन्दी ग्रन्थमाला नाम की एक मासिक पुस्तक निकलने लगी है, उसमें हिन्दी के अच्छे-अच्छे ग्रन्थ निकलने शुरू हुए हैं। यदि हिन्दी पढ़ने वाले उस पर कृपा करते रहें तो उसके द्वारा हिन्दी के उत्तमोत्तम ग्रन्थों के प्रचार की बहुत बड़ी आशा है। [ १०० ]कुछ समय से इंडियन प्रेस ने भी पुस्तक प्रकाशन काम जारी किया है। हिन्दी-लेखकों के लिये यह बहुत ही शुभ अवसर है। इंडियन प्रेस का काम कैसा है, उसका नाम कैसा है, उसका प्रबन्ध कैसा है—इस विषय में कुछ भी कहने की जरूरत नहीं। अकेली "सरस्वती" या अकेला "रामचरितमानस" ही इन बातों की उत्कृष्ट सरटीफिकेट है। हाँ, इतना हम जरूर कह देना चाहते हैं कि सब विषयों में विशेषता होने ही के कारण इन प्रांतों की गवर्नमेंट ने, अनेक देशी और विदेशी पुस्तक-प्रकाशकों के साथ प्रतियोगिता में, इंडियन प्रेस ही को श्रेष्ठता दी है और उसी की पाठ्यपुस्तकें अपर और लोअर प्राइमरी स्कूलों में जारी करने के लिये मंजूर की हैं।

प्रकाशक अच्छा होने से ग्रन्थ और ग्रन्थकार दोनों की अधिक कदर होती है। इससे ग्रन्थकार की विशेष यशोवृद्धि होती है। जो अच्छे लेखक हैं वे अच्छे ही प्रकाशकों को अपनी पुस्तकें देते हैं औरों के लिए लिखना वे अपने विरद के विरुद्ध समझते हैं। उत्तरी ध्रुव अथवा विकास-सिद्धान्त पर लेख लिखने के लिए चाहे कोई कोई बरसों विज्ञापन दिया करें और चाहे वह जितने पदक देने का लालच दिखावें कोई उसके लिये कलम न उठावेगा। मतलब यह कि अच्छा प्रकाशक अच्छे ग्रन्थकारों को बड़े भाग्य से मिलता है! यदि ऐसे प्रकाशक से कुछ लाभ की भी आशा हो तो फिर सोने में सुगन्ध समझना चाहिये।

इंडियन प्रेस प्रयाग, ने धार्मिक सामाजिक, ऐतिहासिक, औपन्यासिक, वैज्ञानिक—सभी विषयों पर पुस्तक प्रकाशन करने की घोषणा की है। यही नहीं, किन्तु संस्कृत-ग्रन्थों के अनुवाद प्रकाशित करने का भी संकल्प उसने किया है। परन्तु पुस्तकें उपयोगी होनी चाहिएँ। हिन्दी लेखकों के ग्रंथ प्रकाशन मार्ग में जो बाधाएँ थीं उन्हें इस प्रेस के परमोत्साही, और बङ्गवासी होकर भी हिन्दी के हितैषी, स्वामी ने एकदम दूर कर दिया। अब भी उनके इस औदार्य्य से यदि [ १०१ ]हिन्दी में उपयोगी ग्रन्थ लिखकर लोग लाभ न उठावें तो हम यही कहेंगे कि हिन्दी के दुर्भाग्य की चिकित्सा ही नहीं हो सकती। यह बिलकुल ही असाध्य हो गया है। ईश्वर करे, हमारी यह सम्भावना गलत निकले।

[जनवरी, १९०८