साहित्य सीकर

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साहित्य सीकर  (1929) 
द्वारा महावीर प्रसाद द्विवेदी
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साहित्य-सीकर

आलोचना व निबन्ध

लेखक

आचार्य पं॰ महावीरप्रसाद जी द्विवेदी





प्रकाशक

तरुण-भारत-ग्रन्थावली

दारागंज, प्रयाग


ग्यारहवीं बार]
१९४९
[ निवेदन ]
निवेदन

भाषा उन्नत हो या अनुन्नत, यदि वह किसी सभ्य और शिक्षित जन-समुदाय की भाषा है तो उसके साहित्य का समग्र ज्ञान सम्पादन कर लेना किसी साधारण मनुष्य का काम नहीं। अपनी हिन्दी भाषा ही को लीजिये। यद्यपि उसका साहित्य अभी तक विशेष समृद्ध नहीं, तथापि कोई आठ-नौ वर्ष से उसमें ग्रन्थ-रचना होती आ रही है। आधुनिक खोज से पता चला है कि चन्द-बरदायी ही हिन्दी का आदि-कवि नहीं। उसके पहले, ईसा की दसवीं शताब्दी में, जैन पण्डितों ने उस समय की हिन्दी में पुस्तक-प्रणयन का आरम्भ कर दिया था। इस दशा में अकेली हिन्दी ही के साहित्य का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लेना किसी एक आदमी के लिए प्रायः असम्भव सा है। फिर यदि एक नहीं कई भाषाओं के साहित्य की ज्ञानप्राप्ति का दावा कोई करे तो उसका वह दावा कदापि साधारण नहीं माना जा सकता। इस पुस्तक में जो लेख संग्रहीत हैं उनमें हिन्दी के सिवा कई अन्य भाषाओं के साहित्य सम्बन्धी विचारों की भी पुट है। इससे यह न समझना चाहिये कि लेखक या संग्रहकार उन सभी साहित्यों का ज्ञाता है। उसने यदि दो बातें अपने ज्ञान के आधार पर लिखी हैं तो चार दूसरों के द्वारा वितरण किये गये ज्ञान के आधार पर। इसी से उसने इस साहित्य-लेख-संग्रह के नाम में सीकर-शब्द का प्रयोग किया है। सीकर कहते हैं छींटे को। अतएव साहित्य तथा उससे सम्बद्ध जिन अन्य विषयों की चर्चा उसने इस पुस्तक में की है उस चर्चा को पाठक, अपने-अपने विषयज्ञान की छींटे मात्र समझने की कृपा करें।

ज्ञान-सागर की थाह नहीं, उसकी इयत्ता नहीं। अल्पज्ञ मनुष्य अपने आप बहुत ही थोड़ी ज्ञान-प्राप्ति कर सकता है। ज्ञान की अधिकांश प्राप्ति उसे अपने पूर्ववती विद्वानों के द्वारा वितरित ज्ञान ही से होती है। इस दशा में जो लोग पूर्व संचित ज्ञान से लाभ उठाते हैं और उससे दूसरों को भी लाभान्वित करने की चेष्टा करते हैं उनका [  ]यह कार्य्य यदि स्तुत्य नहीं तो निन्द्य भी नहीं कहा जा सकता। अतएव इस पुस्तक में सन्निविष्ट लेख लिखने में दूसरों के ज्ञान से लाभ उठाने के लिए इस निवेदन का कर्त्ता क्षमा करने योग्य है!

इसमें जिन लेखों का समावेश है उन सबका कुछ न कुछ संबंध साहित्य से अवश्य है—वह साहित्य चाहे हिन्दी का हो, चाहे प्राकृत का, चाहे लौकिक या वैदिक संस्कृत का। कापी-राइट ऐक्ट एक ऐसा कानून है जिसका ज्ञान प्रत्येक पुस्तक प्रकाशन और साहित्य सेवी लेखक को होना चाहिये। इस कानून पर भी दो लेख इस संग्रह में मिलेंगे। विदेशी विद्वान क्यों और कितना श्रम उठाकर संस्कृत भाषा सीखते हैं, इसका भी निदर्शन इस पुस्तक में किया गया है। इसके सिवा अन्य लेख भी इसमें ऐसे ही रक्खे गये हैं जो साहित्य क्षेत्र की सीमा के सर्वथा भीतर ही हैं। आशा है, साहित्य-सेवी और साहित्यप्रेमी सभी के मनोरंजन की कुछ न कुछ सामग्री उनसे मिलेगी। यदि उनसे किसी की ज्ञानवृद्धि अथवा मनोरंजन न भी हो, तो भी पाठकों को उनसे इतना तो अवश्य ही मालूम हो सकेगा कि जिस समय वे लिखे गये थे उस समय हिन्दी में किस प्रकार के लेखों के प्रकाशन की आवश्यकता समझी जाती थी तथा उस समय की स्थिति से आजकल की स्थिति में कितना अन्तर हो गया है। सौभाग्य से, आगे, किसी समय यदि हिन्दी-साहित्य का इतिहास लिखने का उपक्रम हुआ तो इतिहास-लेखक को, साहित्य की सामयिक अवस्था की तुलना करने में, इस पुस्तक से थोड़ी-बहुत सहायता अवश्य ही मिलेगी। क्योंकि इसमें हर लेख के नीचे उसके लिखे जाने का समय दे दिया गया है।

इस संग्रह में कुछ लेख औरों के भी हैं। पर अभिन्नात्मा समझे जाने के कारण उनके भी वे लेख इसमें रख दिये गये।

दौलतपुर (रायबरेली)
१ जनवरी, १९२९
[ विषय-सूची ]
 
विषय-सूची
लेखांकलेख का नाम पृष्ठ
१—वेद ...
२—प्राकृत भाषा ... १२
३—संस्कृत-साहित्य का महत्व ... १८
४—सर विलियम जोन्स ने कैसे संस्कृत सीखी ... ३४
५—पुराने अँगरेज अधिकारियों के संस्कृत पढ़ने का फल ... ४१
६—योरप के विद्वानों के संस्कृत-लेख और देवनागरी लिपि ... ५०
७—अँगरेजों का साहित्य-प्रेम ... ५८
८—शब्दार्थ विचार ... ६१
९—हिन्दी शब्दों के रूपान्तर ... ६६
१०—कापी-राइट ऐक्ट ... ७७
११—नया कापी-राइट ऐक्ट ... ८१
१२—पुस्तक-प्रकाशन ... ८६
१३—समाचार-पत्रों का विराट् रूप ... ९७
१४—संपादकीय योग्यता ... १०२
१५—संपादकों के लिए स्कूल ... १०६
१६—अमेरिका के अखबार ... १०९
१७—चीन के अखबार ... ११९
१८—विलायत का टाइम्स नामक प्रसिद्ध समाचार पत्र ... १२३
१९—खुदाबख्श-लाइब्रेरी ... १३१
२०—मौलिकता का मूल्य ... १३४
२१—क़वायद परेड की पुस्तकों में रोमन-लिपि ... १३७

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