सेवासदन/११

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सेवासदन  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद

[ ४८ ]

११

दरवाजे पर आकर सुमन सोचने लगी कि अब कहाँ जाऊँ। गजाधर की निर्दयता से भी उसे इतना दु:ख न हुआ था जितना इस समय हो रहा था। उसे अब मालूम हुआ कि मैंंने अपने घर से निकलकर बडी़ भूल की। मैं सुमद्रा के बल पर कूद रही थी। मैं इन पण्डितजी को कितना भला आदमी समझती थी। पर अब यह मालूम हुआ कि यह भी रँगे हुए सियार है। अपने घर के सिवा अब मेरा कही ठिकाना नही है। मुझे दूसरो की चिरोरी करने की जरूरत ही क्या? क्या मेरा घर नही था? क्या मैं इनके घर जन्म काटने आई थी। दो-चार दिन में जब उनका क्रोध शान्त हो जाता, आप ही चली जाती। ओह! नारायण! क्रोध में बुद्धि कैसे भ्रष्ट हो जाती है। मुझे इनके घर में भूलकर भी न आना चाहिए था, मैंने अपने पाँव में आपही कुल्हाड़ी मारी। वह अपने मन मे न जाने क्या समझते होंगे।

यह सोचते हुए सुमन आगे चली, पर थोड़ी ही दूर चलकर उसके विचारो ने फिर पलटा खाया। मैं कहाँँ जा रही हूँ? वह अब मुझे कदापि घर में न घुसने देगे। मैने कितनी विनती की, पर उन्होंने एक न सुनी। जब केवल रात दों घण्टे की देर हो जाने से उन्हें इतना सन्देह हो गया तो अब मुझे पूरे चौबीस घण्टे हो चुके है और में शामत की मारी वही आई जहाँँ मुझे न आना चाहिए था। वह तो अब मुझे दूर ही से दुत्कार देंगे। यह दुत्कार क्यों सहूँ? मुझे कही रहने का स्थान चाहिए। खाने [ ४९ ] भर को किसी-न-किसी तरह कमा लूंगी। कंपडे भी सीऊंगी तो खाने भर को मिल जायगा, फिर किसी की धौस क्यो सहूँ? इनके यहाँ मुझे कौन-सा सुख था? व्यर्थ मे एक बेडी पैरों में पड़ी हुई थी और लोक-लाज से वह मुझे रख भी ले तो उठते-बैठते ताने दिया करेगे। बस चलकर एक मकान ठीक कर लू, भोली क्या मेरे साथ इतना भी सलूक न करेगी? वह मुझे अपने घर बार-बार बुलाती थी, क्या इतनी दया भी न करेगी?

अमोला चली जाऊँ तो कैसा हो? लेकिन वहाँ कौन अपना बैठा हुआ है। अम्मां मर गई। शान्ता है, उसीका निर्वाह होना कठिन है, मुझे कौन पूछने वाला है। मामी जीने न देंगी। छेद-छेदकर मार डालेगी। चलू भोली से कहूँ, देखू क्या कहती है। कुछ न हुआ तो गंगा तो कही नही गयी है? यह निश्चय करके सुमन भोली के घर चली। इधर-उधर ताकती जाती थी कि कही गजाधर न आता हो।

भोली के द्वारपर पहुँचकर सुमन ने सोचा, इसके यहाँ क्यो जाऊँ? किसी पड़ोसिन के घर जाने से काम न चलेगा? इतने मे भोली ने उसे देखा ओर इशारे से ऊपर बुलाया। सुमन ऊपर चली गई।

भोली का कमरा देखकर सुमन की आंखें खुल गई। एक बार वह पहले भी गई थी, लेकिन नीचे के आंगन से ही लौट गई थी। कमरा फर्श, मसनद, चित्रो और शीशे के सामानो से सजा हुआ था। एक छोटी सी चौकीपर चाँदी का पानदान रक्ख हुआ था। दूसरी चौकीपर चाँदी की एक तश्तरी और चाँदी का एक ग्लास रखा हुआ था। सुमन यह सामान देखकर दंग रह गई।

भोली ने पूछा आज यह सन्दूकची लिए इधर कहाँ से आ रही थी?

सुमन-यह रामकहानी फिर कहूँगी, इस समय तुम मेरे ऊपर इतनी कृपा करो कि मेरे लिए कही अलग एक छोटा-सा मकान ठीक करा दो। मैं उसमे रहना चाहती हूँ।

भोली ने विस्मित होकर कहा, यह क्यो, शौहर से लडा़ई हो गई है?

सुमन--नही, लडा़ई की क्या बात है? अपना जी ही तो है। [ ५० ] भोली-जरा मेरे सामने तो ताको। हाँँ, चेहरा साफ कह रही है। क्या बात हुई?

सुमन--सच कहती हूँ कोई बात नही है। अगर अपने रहने से किसी को कोई तकलीफ हो तो क्यों रहे।

भोली-अरे तो मुझ से साफ-साफ कहती क्यों नही, किस बातपर बिगड़े है?

सुमन--बिगड़ने की बात नही है। जब बिगड़ ही गये तो क्या रह गया?

भोली--तुम लाख छिपाओ मैं ताड़ गई सुमन, बुरा न मानो तो कह दूँ। मैं जानती थी कि कभी-न-कभी तुमसे खटकेगी जरूर। एक गाडी़ में कहीं अरबी घोडी़ और लद्द टटटू जुत सकते है? तुम्हें तो किसी बड़े घर की रानी बनना चाहिए था। मगर पाले पडी़ एक खूसट के, जो तुम्हारा पैर धोने लायक भी नहीं। तुम्हीं हो कि यों निबाह रही हो, दूसरी होती तो ऐसे मियाँपर लात मारकर कभी की चली गई होती। अगर अल्लाहताला ने तुम्हारी शक्ल सूरत मुझे दी होती तो मैंंने अब तक सोने की दीवार ख़डी कर ली होती, मगर मालूम नहीं, तुम्हारी तबीयत कैसी है। तुमने शायद अच्छी तालीम नही पाई।

सुमन--मैं दो साल तक एक ईसाई लेडी से पढ़ चुकी हूँँ।

भोली--दो तीन साल की ओर कसर रह गई। इतने दिन और पढ़ लेती तो फिर यह ताक न लगी रहती। मालूम हो जाता कि हमारी जिन्दगी का क्या मकसद है, हमें जिन्दगी का लुत्फ कैसे उठाना चाहिए। हम कोई भेड़ बकरी तो है नहीं कि माँ-बाप जिसके गले मढ़ दें बस उसी की हो रहे। अगर अल्लाह को मंजूर होता कि तुम मुसीबतें झेलो तो तुम्हें परियों की सूरत क्यों देता? यह बेहूदा रिवाज यहीं के लोगो में है कि औरत को इतना जलील समझते है, नहीं तो और सब मुल्कों में औरतें आजाद है अपनी पसन्द से शादी करती है और जब उससे रास नही आती [ ५१ ] तो तलाक दे देती है। लेकिन हम सब वही पुरानी लकीर पीटे चली जा रही है।

सुमन ने सोचकर कहा, क्या करूँ बहन, लोकलाज का डर है, नही तो आराम से रहना किसे बुरा मालूम होता है?

भोली--यह सब उसी जिहालत का नतीजा है। मेरे माँ-बाप ने भी मुझे एक बड़े मियाँँ के गले बाँध दिया था। उसके यहाँँ दौलत थी और सब तरह का आराम था, लेकिन उसकी सूरत से मुझे नफरत थी। मैंने किसी तरह छः महीने तो काटे, आखिर निकल खडी़ हुई। जिन्दगी जैसी निआमत रो-रोकर दिन काटने के लिए नहीं दी गई है। जिन्दगी का कुछ मजा ही न मिला तो उससे फायदा ही क्या? पहले मुझे भी डर लगता था कि बड़ी बदनामी होगी, लोग मुझे जलील समझगे, लेकिन घर से निकलने की देर थी, फिर तो मेरा वह रंग जमा कि अच्छे-अच्छे खुशामद करने लगे। गाना मैने घर पर ही सीखा था, कुछ और सीख लिया, बस सारे शहर में धूम मच गई। आज यहाँ कौन रईस, कौन महाजन, कौन मौलवी, कौन पंडित ऐसा है जो मेरे तलुवे सहलाने में अपनी इज्जत न समझे? मन्दिर में, ठाकुर द्वारे में मेरे मुजरे होते है। लोग मिन्नते करके ले जाते है। इसे मैं अपनी बेइज्जती कैसे समझू? अभी एक आदमी भेज दू तो तुम्हारे कृष्णमन्दिर के महन्तजी दौड़े चले आवें। अगर कोई इसे बेइज्जती समझे तो समझा करे।

सुमन--भला यह गाना कितने दिन में आ जायगा?

भोली--तुम्हे छ: महीन मे आ जायगा! यहाँ गाने को कौन पूछता है, ध्रुपद और तिल्लाने की जरूरत ही नहीं। बस चलती हुई गजलों की धूम है, दो-चार ठुमरियाँ और कुछ थियेटर के गाने आ जायें और बस फिर तुम्ही तुम हो। यहाँ तो अच्छी सूरत और मजेदार बाते चाहिये, सो खुदा ने यह दोनों बात तुममे कूट-कूटकर भर दी है। मैं कसम खाकर कहती हूँ सुमन, तुम एक बार इस लोहे की जंजीर को तोड़ दो, फिर देखो लोग कैसे दीवानो की तरह दौड़ते है। [ ५२ ]

सुमन ने चिन्तित भाव से कहा, यही बुरा मालूम होता है कि....

भोली--हाँ हाँ कहो, यही कहना चाहती हो न कि ऐरे गैरे सब से बेशरमी करनी पड़ती है। शुरू में मुझे भी यही झिझक होती थी। मगर बाद को मालूम हुआ कि यह खयाल ही खयाल है। यहाँ ऐरे गैरो के आने की हिम्मत ही नही होती। यहाँ तो सिर्फ रईस लोग आते है। बस, उन्हें फंसाये रखना चाहिए। अगर शरीफ है तब तो तबीयत आप ही आप उससे मिल जाती है और बेशरमी का ध्यान भी नही होता, लेकिन अगर उससे अपनी तवीयत न मिले तो उसे बातो से लगाये रहो, जहाँ तक उसे नोचते-खसोटते बने, नोचे-खसोटो। आखिर को वह परेशान होकर खुद ही चला जायगा। उसके दूसरे भोई और आ फँसेगे। फिर पहले पहल तो झिझक होती ही है, क्या शोहर से नही होतो? जिस तरह धीरे-धीरे उसके साथ झिझक दूर होती जाती है, उसी तरह यहाँ होता है।

सुमन ने मुस्कराकर कहा, तुम मेरे लिए एक मकान तो ठीक कर दो।

भोली ने ताड़ लिया कि मछली चारा कुतरने लगी, अब शिस्त को कड़ा करने की जरूरत है। बोली, तुम्हारे लिये यही घर हाजिर है। आराम से रहो।

सुमन—तुम्हारे साथ न रहूंगी।

भोली--बदनाम हो जाओगी क्यो?

सुमन--(झेंपकर) नहीं, यह बात नही है।

भोली--खानदान की नाक कट जायगी?

सुमन--तुम तो हंसी उडा़ती हो।

भोली—-फिर क्या, पंडित गजाधर प्रसाद पाँडे नाराज हो जायेंगे?

सुमन—-अब में तुमसे क्या कहूँ?

सुमन के पास यद्यपि भोली का जवाब देने के लिए कोई दलील न थी, भोली ने उसकी शंकाओं का मजाक उडा़कर उन्हें पहले से ही निर्बल कर दिया था, यद्यपि अघर्म और दुराचार से मनुष्य को जो स्वाभाविक घृणा होती है वह उसके हृदय को डावाँडोल कर रही थी। वह इस समय [ ५४ ] कालिख मुंह मे लग ही गयी। अब चाहे सिर पर जो कुछ पड़े मगर उस घर मे न जाऊंगी।

यह कहते-कहते सुमन की आंखें भर आई। भोली ने दिलासा देकर कहा, अच्छा पहले हाथ-मुंह धो डालो, कुछ नाश्ता कर लो, फिर सलाह होगी। मालूम होता है कि तुम्हें रातभर नींद नही आई।

सुमन—यहाँ पानी मिल जायगा?

भोली ने मुस्कराकर कहा, सब इन्तजाम हो जायगा। मेरा कहार हिन्दु है। यहाँ कितने ही हिन्दु आया करते है। उनके लिए एक हिन्दु कहार रख लिया है।

भोली की बूढी मामा सुमन को गुसलखाने मे ले गई। वहाँ उसने साबुनसे स्नान किया। तब मामा ने उसके बाल गूथे। एक नई रेशमी साडी़ पहिनने के लिए लाई। सुमन जब ऊपर आई और भोली ने उसे देखा तो मुस्कुराकर बोली, जरा जाकर आईने मे मुँह देख लो।

सुमन शीशे के सामने गई। उसे मालूम हुआ कि सौन्दर्य की मूर्ति सामने खडी़ है। सुमन अपने को कभी इतना सुन्दर न समझती थी। लज्जायुक्त अभिमान से मुख-कमल खिल उठा और आँखों में नशा छा गया। वह एक कोच पर लेट गई।

भोलो ने अपनी मामा से कहा-—क्यो जहूरन, अब तो सेठजी आ जायगे पंजेमे?

जहूरन बोली, तलुवे सुहलायेगे--तलुवे।

थोडे़ देर में कहार मिठाइयाँ लाया। सुमन ने जलपान किया, पान खाया और फिर आइने के सामने खडी़ हो गई। उसने अपने मन में कहा, यह सुख छोड़कर उस अन्धेरी कोठरी में क्यो रहूँ?

भोली ने पूछा, गजाधर शायद मुझसे तुम्हारे बारे में कुछ पूछे तो क्या कह दूँगी?

सुमन ने कहा, कहला देना कि यहाँ नही है।

भोली का मनोरथ पूरा हो गया। उसे निश्चय हो गया कि सेठ [ ५५ ] बलभद्रदास जो अब तक मुझसे कन्नी काटते फिरते थे, इस लावण्यमयी सुन्दरी पर भ्रमर की भाति मडलायेगे।

सुमन की दशा उस लोभी डाक्टर की सी थी जो अपने किसी रोगी मित्र को देखने जाता है और फीस के रुपये अपने हाथो से नही लेता। संकोचवश कहता है, इसकी क्या जरूरत है लेकिन जब रुपये उसकी जेब में डाल दिये जाते है तो हर्ष से मुस्कुराता हुआ घर की राह लेता है।