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सेवासदन/१२

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सेवासदन
प्रेमचंद

इलाहाबाद: हंस प्रकाशन, पृष्ठ ५५ से – ५९ तक

 

१२

पद्मसिंह के एक बड़े भाई मदनसिह थे। वह घर का कामकाज देखते थे। थोडी़ सी जमीदारी थी, कुछ लेन-देन करते थे। उनके एक ही लड़का था, जिसका नाम सदनसिंह था। स्त्री का नाम भामा था।

माँ-बाप का एकलौता लड़का बड़ा भाग्यशाली होता है। उसे मीठे पदार्थ खूब खाने को मिलते है, किन्तु कड़वी ताड़ना कभी नही मिलती। सदन बाल्यकाल मे ढोठ, हठी और लड़ाका था। वयस्क होने पर वह आलसी, क्रोधी और बड़ा उद्दड हो गया। मॉ-बाप को यह सब मंजूर था। वह चाहे कितना ही बिगड़ जाय पर आँख के सामने से न टले। उससे एक दिन का विछोह भी न सह सकते थे। पद्मसिंह ने कितनी ही बार अनुरोध किया कि इसे मेरे साथ जाने दीजिये, मैं इसका नाम किसी अंग्रेजी मदरसे में लिखा दूँगा, किन्तु माँ-बाप ने कभी स्वीकार नही किया। सदन ने अपने कस्बेही के मदरसे में उर्दू और हिन्दी पढ़ी थी। भामा के विचार मे उसे इससे अधिक विद्या की जरूरत ही नही थी। घर मे खाने को बहुत है, वन-वन की पत्ती कौन तोड़वाये? बला से न पढ़ेगा, आंखो से देखते तो रहेगे।

सदन अपने चाचा के साथ जाने के लिए बहुत उत्सुक रहता था। उनके साबुन, तोलिये, जूते, स्लीपर, घड़ी और कालर को देखकर उसका जी बहुत लहराता। घर मे सब कुछ था; पर यह फैशन की सामग्रियाँ कहाँ? उसका जी चाहता, मै भी चचा की तरह कपडो़ से सुसज्जित होकर टमटमपर हवा खाने निकलूँ। वह अपने चचा का बड़ा सम्मान करता था। उनकी कोई बात न टालता। माँ-बाप की बातो पर कान न धरता, प्राय: सम्मुख विवाद करता। लेकिन चचा के सामने वह शराफत का पुतला बन जाता था। उनके ठाट-बाट ने उसे वशीभूत कर लिया था। पद्मसिंह घर आते तो सदन के लिए अच्छे-अच्छे कपडे़ जूते लाते। सदन इन चीजो पर लहालोट हो जाता।

होली के दिन पद्मसिंह अवश्य घर आया करते थे। अबकी भी एक सप्ताह पहले उनका पत्र आया था कि हम आवेंगे। सदन रेशमी अचकन और वारनिशदार जूतो के स्वप्न देख रहा था। होली के एक दिन पहले मदनसिंह ने स्टेशन पर पालकी भेजी। प्रातकाल भी; सन्ध्या भी। दूसरे दिन भी दोनो जून सवारी गई, लेकिन वहाँ तो भोली बाई के मुजरे की ठहर चुकी थो, घर कौन आता। यह पहली ही होली थी कि पद्मसिंह घर नही आये। भामा रोने लगी। सदन के नैराश्य की तो कोई सीमा ही न थी, न कपड़े, न लत्ते, होलो कैसे खेले! मदनसिह भी मन मारे बैठे थे, एक उदासी सी छाई हुई थी। गाँव की रमणियाँ होली खेलने आई। भामा को उदास देखकर तसल्ली देने लगी, बहन, पराया कभी अपना नही होता। वहाँ दोनों जने शहर की वहार देखते होगे, गाँव में क्या करने आते। गाना बजाना हुआ, पर भामा का मन न लगा। मदनसिंह होली के दिन खूब भांग पिया करते थे। आज भांग छूई तक नही। सदन सारे दिन नंगे बदन मुंह लटकाये बैठा था। सन्ध्या को जाकर माँ से बोला, मै चचा के पास जाऊंगा।

भामा—वहाँ तेरा कौन बैठा हुआ है?

सदन—क्यो, चचा है नही?

भामा—अब वह चचा नही है। वहाँ कोई तुम्हारी बात भी न पूछेगा।

सदन--मै तो जाऊंगा।

भामा—एक बार कह दिया मुझे दिक मत करो, वहाँ जाने को मैं न कहूँगी ।

ज्यों ज्यों भामा मना करती थी सदन जिद पकड़ता था। अन्त में वह झुझलाकर वहाँ से उठ गई। सदन भी बाहर चला आया। जिद सामने को चोट नही सह सकती, उस पर बगली वार करना चाहिए।

सदन ने मन मे निश्चय किया कि चचा के पास भाग चलना चाहिए। न जाऊँ तो यह लोग कौन मुझे रेशमी अचकन बनवा देंगे। बहुत प्रसन्न होंगे तो एक नैनसुख का कुरता सिलवा देगे। एक मोहनमाला बनवाया है तो जानते होंगे जग जीत लिया। एक जोशन बनवाया है तो सारे गॉव में दिखाते फिरते है। मानो मैं जोशन पहनकर बैठूंगा। मैं तो जाऊँगा, देखूँ कौन रोकता है?

यह निश्चय करके वह अवसर ढूँढ़ने लगा। रात को जब सब लोग सो गये तो चुपके से उठकर घर से निकल खड़ा हुआ। स्टेशन वहॉ से तीन मील के लगभग था। चोथ का चाँद डूब चुका था, अँधेरा छाया हुआ था। गाँव के निकास पर बाँस की एक कोठी थी। सदन वहाँ पहुँचा तो कुछ चूँचूँ सी आवाज सुनाई दी। उसका कलेजा सन्न हो गया। लेकिन शीघ्र ही मालूम हो गया कि बाँस आपस मे रगड़ खा रहे है। जरा और आगे एक आम का पेड़ था। बहुत दिन हुए इसपर से एक कुर्मी का लड़का गिरकर मर गया था। सदन यहाँ पहुँचा तो उसे शंका हुई जैसे कोई खड़ा है। उसके रोगटे खड़े हो गये, सिर में चक्कर-सा आने लगा। लेकिन मन को सम्भाल कर जरा ध्यान से देखा तो कुछ न था। लपककर आगे बढ़ा। गाँव से बाहर निकल गया।

गाँव से दो मीलपर पीपल का एक वृक्ष था। यह जनश्रुति थी कि वहाँ भूतों का अड्डा है। सबके सब उसी वृक्ष पर रहते है। एक कमली वाला भूत उनका सरदार है। वह मुसाफिरो के सामने काली कमली ओढे खडाऊँ पहने आता है और हाथ फैलाकर कुछ माँगता है। मुसाफिर ज्योही देने लिए हाथ बढ़ाता है, वह अदृश्य हो जाता है। मालूम नही, क्रीड़ा से उसका क्या प्रयोजन था! रात को कोई मनुष्य उस रास्ते से अकेले न आता और जो कोई साहस करके चला जाता, वह कोई-न-कोई अलोकिक बात अवश्य देखता। कोई कहता गाना हो रहा था, कोई कहता पञ्वायत बैठी हुई थी। सदन की अब यही एक शंका और थी। वह पहले से हृदय के स्थिर किये हुए था, लेकिन ज्यो-ज्यों वह स्थान समीप आता जाता था, उसका हिसाब बर्फ के समान पिघलता जाता था। जब एक फलग्डि शेष रह गया तो उसके पग न उठे। वह जमीनपर बैठ गया और सोचने लगा कि क्या करूँ। चारों ओर देखा कही कोई मनुष्य न दिखाई दिया। यदि कोई पशु ही नजर आाता तो उसे धैर्य हो जाता। अब घंटे तक वह किसी आने-जानेवाले की राह देखता रहा, पर देहात का रास्ता रात को नही चलता। उसने सोचा, कब तक बैठा रहूँगा, एक बजे रेल आती है, देर हो जायगी तो सारा खेल ही बिगड़ जायगा। अतएव वह हृदय में बल का संचार करके उठा और रामायण की चौपाइयाँ उच्च स्वर से गाता हुआ चला। भूत-प्रेत के विचार को किसी बहान से दूर रखना चाहता था। किन्तु ऐसे अवसरों पर, गर्मी की मक्खियो की भाँति विचार टालने से नही टलता। हटा दो, फिर आ पहुँचा थे। निदान वह सघन वृक्ष सामने दिखाई देने लगा। सदन ने उसकी ओर ध्यान से देखा। रात अधिक जा चुकी थी, तारों का प्रकाश भूमिपर पड़ रहा था। सदन को वहाँ कोई वस्तु न दिखाई दी, उसनें और भी ऊँचे स्वर में गाना शुरू किया। इस समय उसका एक-एक रोम सजग हो रहा था। कभी इधर ताकता, कभी उधर, नाना प्रकार के जीव दिखाई देते, किन्तु ध्यान से देखते ही लुप्त हो जाते। अकस्मात्उ से मालूम हुआ कि दाहिनी ओर कोई बन्दर बैठा हुआ है। कलेजा सन्न हो गया। किन्तु क्षणमात्र में बन्दर मिट्टी का ढेर बन गया। जिस समय सदन वृक्ष के नीचे पहुँचा, उसका गला थरथाराने लगा, मुँह से आवाज न निकली। अब विचार को बढाने की आावश्यकता भी न थी, मन और बुध्दि की सभी शक्तियों का संचय परमावश्यक था। अकस्मात् उसे कोई वस्तु दौड़ती नजर आई। वह उछल पड़ा, ध्यान से देखा तो कुत्ता था। किन्तु वह सुन चुका था कि भूत कभी कभी कुत्तों के रूप में भी आया करते है। शंका और भी प्रचंड हुई, सावधान होकर खड़ा हो गया, जैसे कोई वीर पुरुष शत्रु के वार की प्रतीक्षा करता है। कुत्ता सिर झुकाए चुपचाप कतराकर निकल
गया। सदन ने जोरसे डाँटा, धत्। कुत्ता दुम दबाकर भागा। सदन कई पग उसके पीछे दौड़ा। भयकी चरम सीमा ही साहस है। सदन को विश्वास हो गया, कुत्ता था, भूत होता तो अवश्य कोई न कोई लीला करता। भय कम हुआ, किन्तु वह वहां से भागा नहीं। वह अपने भीरु हृदय को लज्जित करने के लिए कई मिनट तक पीपलके नीचे खड़ा रहा। इतना ही नहीं उसने पीपलकी परिक्रमा की और उसे दोनों हाथो से बलपूर्वक हिलाने की चेष्टा की। यह विचित्र साहस था। ऊपर पत्थर, नीचे पानी, एक जरा-सी आवाज, एक जरा-सी पत्तीकी खड़कन उसके जीवन का निपटारा कर सकती थी। इस परीक्षा से निकलकर सदन अभिमानसे सिर उठाए आगे बढ़ा।