सौ अजान और एक सुजान/१२

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सौ अजान और एक सुजान  (1944) 
द्वारा बालकृष्ण भट्ट

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बारहवाँप्रस्ताव

धूतैर्जगहच्यते[१]

अनंतपुर में छोटे-छोटे मुक़दमों की काररवाई के लिये तीसरे दरजे की मुंसिफी, तहसीली की कचहरी और पुलिस का एक थाना के सिवाय और कुछ न था। फौजदारी तथा दीवानी के जो कोई भारी और पेचीदा मुक़द्दमें होते थे,सब वहाँ के जिले की कचहरी लखनऊ में भेज दिए जाते थे।


[ ६८ ]हाल में एक मुसिफ सुकर्रर होकर आए थे। यह कौन थे, क्या इनका मजहब था, कुछ पता न लगता था; कितु अपने रंग-ढग से नेचरिए जाहिर होते थे। पोशाक इनकी बिलकुल अॅगरेजी वजा की थी, यहाँ तक कि कभी-कभी अॅगरेजी टोपी (हैट) भी इस्तेमाल करते थे; खाने-पीने में भी इन्हें किसी तरह का परहेज़ न था, पैदाइश के तो हिंदू ही थे पर यह नहीं मालूम कि इनकी क्या जाति थी। कोई इन्हें कश्मीरी समझता

था कोई इस समय के तालीमयाफ्ता पढ़े-लिखे लालाओं में मानता था। डाढ़ी और चुटिया दोनो इनके न थी, रंग भी गोरा था, इसलिये जियादह लोगों की यही राय थी कि यह कोई हाफकास्ट केरानी या योरपियन है। पंडित या वावू की उपाधि से इन्हें बड़ी चिढ़ थी, यह साहब बनने और अपने नाम के आगे मिस्टर लिखने की चाल बहुत पसंद करते थे, और अपने दोस्तों से इस बात की ताकीद भी कर दी थी। यह मिजाज या बर्ताव में अपने को सुशिक्षितों के सिरमौर मानते थे, पर दिल पर सुशिक्षा का असर पहुंचा हो, इसका कहीं कुछ लेश भी न था। चालाकी में अच्छे-खासे पट्ठे थे, दस-पंद्रह वर्ष मुंसिफ और सदराला रह कही कुछ थोड़ा- बहुत नीचा खाकर वल्कि पिट-पिटाकर भी आठो गाँठ कुम्मैद हो चुके थे । भॉड़ों की नकल है कि दो सौ जूते खाकर भी इज्जत न गॅवाई । अपना रग जमाने में तथा पाकेट गरम करने के फन मे यह पूरे उस्ताद गुरुओ के भी गुरु थे, बल्कि [ ६९ ]यह ऐसे ही लोगों का कौल है कि ऐसा बलद इख्तियार हासिल कर जिसने दियानतदारी की, और फूॅक-फूॅक पॉव रखता हुआ कोरे-का-कोरा बना रहा, उसे चुल्लू-भर पानी में डूब मरना चाहिए। ऐसे लोग इसकी दो वजह कहते हैं–एक तो सियाह-सुफैदी का कुल इख्तियार हाथ मे आना, दूसरे बमुकाबिले अँगरेजों के, जो छोटे-से-छोटे ओहदे पर डेढ़ हज़ार-दो हज़ार महीने में तनख्वाह सहज में फटकारा करते हैं, हम जो जन्म-भर नौकरी कर लियाकत का जौहर दिखलाते हुए बराबर नेक नाम रह बुड्ढे होते-होते पॉच सौ-छ सौ महीने में पाने लायक समझे गए, तो इतने में होता ही क्या है, इतना तो हमारे शराब-कवाब का खर्च है। ऐसे लोगों की, जो अपने गुनों में सब तरह भरे-पूरे हैं, किसी नए जिले में पहुंचते ही पहली बात सरिश्ते की जॉच और मातहतों पर तंदीही करना है। जिन्हें अपने काम में बर्क और जॉच की कसौटी में कसने पर खरे और बेलौस पाया, उन्हें तबदील या मौकूफ़ करने की फिकिर मे लगे। यह सब इसलिये करते हैं, जिसमें ऊपर के हाकिमों को सबूत हो जाय कि यह दफ्तर की सफाई और अपने सरिश्ते का काम दुरुस्त रखने में बड़ा निपुण है। निश्चय जानिए यह सब उसी से बन पड़ेगा, जो कलम का जोरावर, जबान का तर्रार और हिम्मत का दबंग हो। जो ऐसा नहीं है, बोदा और लियाकत में खाम है, वह पाकेट गरम करने में भी सदा डरा करेगा, उसे चालाकी के खुल जाने [ ७० ]का खौफ हमेशा दामनगीर रहेगा। पहले वर्ष-छः महीने भीतर-भीतर उस जिले का हाल दरियाफ्त करेगे कि यहाँ कौन- कौन रईस हैं, किस हैसियत के मुकदमे लड़नेवाले हैं, क्या उनकी चाल चलन है, किस तरह की उनको सोहबत है, क्या काम उनके यहाँ होता है, इत्यादि-इत्यादि। किसी छोटे वकील को अपने इजलास में बड़ा रखना भी एक ढंग ऐसे लोगों का रहता है। अस्तु। हमारे उक्त मुसिफ साहब यह सब भरपूर समझ-बूझ गए थे, और अब इस समय डेढ़ वर्ष के ऊपर यहाँ जमे इन्हें हो भी गया था। उनके जिले-भर में जो जहाँ जैसे छोटे-बड़े ताल्लुकेदार, रईस तथा सेठ, साहूकार, महाजन थे, सब इनकी निगाह पर चढ़ गए थे। उन्हीं में ये दोनो बाबुओं का भी सब कच्चा हाल दरियाफ्त किए हुए यही ताक में थे कि किसी तरह कोई मुकद्दमा इन बाबुओं का दायर हो। दो-एक मुलाकाते भी उनकी इनसे हो चुकी थीं, तोहफे और नजर-भेंट की चीजे तो अक्सर आया ही करती थीं। नंदू, जिसे बाबुओं ने थोड़े दिनों से अपना मुख्ताराम कर रक्खा था, मुंसिफ साहब तक बाबुओं की रसाई करा देने का एक जरिया था। मसल है "चोरै चोर मौसियायत भाई"। इधर ये तो कुछ अपनी गौं में थे कि यह बड़े आला रईस के घर का गुर्गा है, इसके जरिए मनमाना माल कट सकता है, उधर नंदू अपनी ही घात में था कि ऐयाशी का चस्का तो इसे [ ७१ ]लगा ही है, किसी तरह इस मरदूद को भी बाबुओं की भाँति अपने चंगुल में फंसा ले। तब क्या, हमी हम देख पड़े, और अवध में बड़े-से-बड़े नवाबों से मेरा रुतबा और ठाठ कुछ कम न रहे। बस, यही हुमा बेगम इसके लिये भी काफी होगी। इसी नियत से यह अक्सर किसी-न-किसी बहाने लखनऊ में महीनों आकर टिका रहता था, और मुसिफ साहब से रफ्त-जप्त भी खूब पैदा कर ली थी। यहाँ अपनी गैरहाजिरी में हकीम साहब से खूब ताकीद कर दिया था कि वह बाबुओं के रहन- सहन और चाल-चलन को अच्छी तरह, चौकसी के साथ, देखते रहें, क्योंकि उसे, यह डर बनी ही रही कि कहीं ऐसा न हो कि चंदू फिर कोई उपाय बाबुओं को ढंग पर लाने का कर गुजरे और उसका जमा-जमाया सब खेल उचट जाय। इस बीच यहाँ हकीम साहब से बड़े बाबू साहब की वेहद घिष्ट-पिष्ट बढ़ गई, दिन-दिन-भर रात-रात-भर बाबू गायब रहते थे। बाबू, हकीम और नंदू, ये तीनो हुमा के ऐसे भक्त हो गए कि रातोदिन उसकी उपासना मे लगे रहा करते थे। पर इसमें मुख्य उपासना बाबू ही की थी, क्योंकि वे दोनो तो मानो भारे के टट्टू-से थे, उपासनाकांड का पूरा दारमदार केवल बाबू ही पर आ लगा था। उधर छोटे बाबू की एक निराली ही गुट्ट कायम हो गई और दोनो मिलकर आवारगी में औवल दरजे की सार्टीफिकेट के बड़े उत्साही कैंडिडेट हो गए। हम ऊपर कह आए हैं, बड़े बाबू को चिट्ठी-पत्रियों [ ७२ ]पर दस्तखत करना भी बहुत जन होता था। कोठी तथा इलाकों का सब काम मुनीम, गुमास्ते और कारिदों के हाथ में आ रहा। बहती गंगा मे हाथ धोने की भॉति सभी अपना-अपना घर भरने लगे। नदू मालामाल हो गया, क्योंकि हुमा की फरमाइशे इसी के जरिए मुहैया की जाती थीं और वहाँ का कुल हिसाब-किताब सब इसी के सिपुर्द था। यद्यपि बाबू की हुमा से रसाई कराने का खास जरिया हकीम हा था, पर इसके हाथ केवल ढॉक के तीन पत्ते रहे। कारण इसका यही था कि नदू जात का बकाल रुपए को अपनी जिंदगी का सर्वस्व माननेवाला महा टच बनिया था, रुपए की कदर समझता था, और यह इसका सिद्धांत था कि मान, प्रतिष्ठा. बड़ाई. शील, संकोच, मुलाहिजा सब रुपए के अधीन है। उसमे यदि हानि होती हो, तो उमदा-उमदा सिफ्ते और बड़े-बड़े गुन भार में झोंक दिए जायॅ–

अर्थोऽस्तु नः केवल–येनैकेन विना गुणास्तृणलवप्रायाः समस्ता इमे[२]

इधर हकाम एक तो मुसलमान, दूसरे पुराने समय , की अमीरी को वू मे पगा हुआ था, घर में भूॅ जी भॉग भी चाहे न हो, पर जाहिरा नुमाइश नवाबो ही की-सी रहना चाहिए। हकीम साहब, जो दाने-दाने को मुहताज थे, बाबू की बदौलत अमीरो के-से सब ठाठ-बाट और ऐश-आराम मे गर्क हो गए।


[ ७३ ]बाबुओं का सवाई डेहुड़ा खर्च हकीम साहब का हो गया। जोड़ने की कौन कहे, कर्जदार रहा किए। दूसरी बात हकीम साहब के यह भी जिहननशीन थी कि हुमा की यह सब कमाई जो इस समय बाबू को फंसा बेशुमार माल चीर रही है, वह भी तो आखिर मेरी ही है ; क्योंकि सिवा मेरे हुमा के और दूसरा है कौन, हुमा भी जाहिरा में तो हकीम से कुछ सरोकार न रखती थी, पर भीतर-भीतर दोनों एक ही थे। दोनो के सूरत- शकल में भी एक ऐसा मेल था कि ताड़बाजों के लिये बहुत कुछ शक करने की गुंजायश थी। रमा अपने दोनो लड़कों के कुढंग से सोने का घर मिट्टी होते देख भीतर-ही-भीतर चूर-चूर थी, खाना-पीना तक छोड़ दिया, और दुबलाकर लकड़ी-सी हो गई थी। सौ-सौ तदबीरें उनके सम्हलने की कर थकी. पर इन दोनो को राह पर आते न देख जहाँ तक हो सका कार- बार सब तोड़ बैठी। बाहर की दूकानें सब उठा दिया, केवल उतना ही मात्र रख छोड़ा जिसे वह अपने आप सम्हाल सकती थी, और जिसे इसने देखा कि उठा देने से बड़े सेठ हीराचंद के नाम की हलकाई होगी, और उसके स्थापित ठौर-ठौर धर्म- शाला, पाठशाला सदाबत इत्यादि का खर्च न सट सकेगा। दूसरी बात रमा को यह भी मालूम हुई कि एक चंदू को छोड और जितने लोग पुराने पुराने इस घर के असरइत थे, सबों ने, किसी को सम्हालनेवाला न पाकर. जिससे जहाँ जितना लूटते-खाते बना, मनमानता लूटा-खाया; मानो ये लोग सेठ [ ७४ ]के घराने के बिगड़ने के लिये उलटी माला-सी फेर रहे थे। चंदू अलबत्ता बाबुओं को राह पर लाने की फिकिर मे लगा ही रहा। छिपा-छिपा रोज-रोज का इन दोनो का सब रंग-ढंग तजवीजा किया, और अपने भरसक छल-बल-कल से न चूका, जब-तब आकर रमा को भी ढाढ़स दे जाता था। रमा का मन तो यद्यपि इन लडकों की ओर से बिलकुल बुझ-सा गया था, पर यह अब तक हिम्मत वॉधे था कि इन दोनो को राह पर एक दिन अवश्य ही लाऊँगा, किंतु जब तक ये गदहपचीसी के पार न होंगे, और नई उमर का तकाजा ज्वर के समान चढ़ा रहेगा, तब तक इनका ढंग से होना दुर्घट है। उसे विश्वास था कि यदि बडे सेठ साहब की सुकृत की कमाई है, और वह सिवाय भले कामों के मन से कभी किसी बुरी बात की ओर नहीं गए, तो संभव नहीं कि उनकी औलाद पर उस भलाई का असर न पहुँचे। यह कहावत कि 'बाढ़ै पूत पिता के धर्मे" कभी उलटी होगी ही नहीं। चंदू इसी फिकिर में था कि किसी तरह नंदू से बाबुओं का लगाव छूट जाता, तो इन दोनों का ढंग से हो जाना कुछ कठिन न होता। इधर नंदू भी मन में खूब समझे हुए था कि यह पंडित मेरा पक्का दुश्मन है । यह यहाँ का रहनेवाला नहीं, एक अजनवी पर-

देशी ने ऐसा कदम जमा रक्खा है कि बड़ी सेठानी बहू मा जो यह कहता है, वही करती हैं ; नहीं तो जैसा मैंने बाबू को काठ का उल्लू बनाय अपने ताबे में कर छोड़ा था, वैसा ही [ ७५ ]रमा बहू को भी, स्त्री की जाति हैं, मुट्ठी में करते क्या लगता था । इसलिये इसे चंदू से मेरे जी में हर तरह पर खटका है, क्या जानिए यह एक दिन मेरी सब चालाकी बाबू . के जी में नक्श करा दे। खैर, देखा जायगा; अब तो इस समय हीराचंद की कुल दौलत और राज-पाट सब मेरे हाथ में है, अभी तो जल्द बाबू का वह नशा उतरनेवाला है नहीं, तब तक में तो मै कुल दौलत सेठ के घराने की खींच लूॅ गा; पीछे से ये दोनो लड़के होश मे आ ही के क्या करेंगे।

सच है, धूर्त और कुटिललोगों की कार्रवाई का लखना बड़ा ही दुर्घट है । कोई निरालाही तत्त्व है, जिससे वे गढ़े जाते हैं। ऐसों की जहरीली कुटिल नीति ने न जानिए कितनों को अपने पेच में ला जड़-पेड़ से उखाड़ डाला । इसलिये जो सुजान हैं, वे ही उनकी कुटिलाई के दॉव-पेंच से बचे हुए अपनी चतराई के द्वारा दूसरों को भी अँधियारे गड्ढे में गिरने से रोक लेते है।

  1. धूर्त लोग संसार को ठगते है।
  2. *हमे केवल धन चाहिए, जिस एक के बिना जितने गुण हैं, सब तिनके के समान हैं।