सौ अजान और एक सुजान/११

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सौ अजान और एक सुजान  (1944) 
द्वारा बालकृष्ण भट्ट

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ग्यारहवाँ प्रस्ताच ।

अवलम्बनाय दिनभर्तु रभून पतिप्यतः कर-

सहस्नमपि । ( भारवि )

अनंतपुर की घनी बस्ती के बीचोबीच लंबे दो खंड का एक पक्का मकान था, यद्यपि यह मकान बड़ा लंबा-चौड़ा तो न था, पर चारो ओर से हवादार और ऐसे क्लिता का बना था कि रहनेवाले कोसिब ऋतु में आराम पहुंच सकता था। इस मकान के आगे के हिस्से में ऊँची पाटन का एक वसीह


  • नीचे को गिरते हुए सूर्य की हजार किरणें भी उसको सँभाल न सकी। [ ६४ ]
    कमरा था, जिसकी दीवारें चटकीली सुफैदो पुती ऐसी घुटी

हुई थीं, मानो संगमरमर की बनी हों। और, यह कमरा इस ढंग से आरास्ता था कि इसमें थोड़ी ही अदल-बदल करने से अॕगरेजी ढंग का उमदा ड्राइंगरूम भी हो सकता था। बाहर से देखनेवाले समझते होंगे कि यह मकान बराबर ऐसा ही पुख्ता, वसीह और सुथरा होगा, किंतु इस बघमुॕहे मकान में यह कमरा ही सबकी नाक था । इस कमरे के पीछे पॉव रखते ही ओकाई आने लगती थी, और दुर्गध से नाक सड़ जाती थी।

हम पहले कह पाए हैं, हीराचंद के समय जो अनंतपुर काशी और मथुरा का एक उदाहरण था, वह इन बाबुओं के जमाने में दिल्ली और लखनऊ का एक नमूना बन गया । कुछ अरसे से इस मकान में एक ऐसे जीव आ टिके थे, जिनकी हुस्नपरस्तों के बीच उस समय अनंतपुर में धूम थी । यह कौन थे, कहाँ से आए थे, और कब से यहाँ आकर बसे थे, कुछ मालूम नहीं, न यही कुछ पता लगता कि किस वसीले से.यहाँ अनंतपुर-ऐसे छोटे कस्बे में यह आ रहे । यद्यपि दिल्ली, लखनऊ, कलकत्ता, बबई, लंदन, पेरिस आदि बड़े-बड़े नगरों में ऐसे जीवों की कमती नहीं है, हिंदू, मुसलमान, पारसी, यहूदी, कश्मीरी, आरमीनी, अॕगरेज इत्यादि हरएक क़ौम और जाति मे एक-से-एक चढ़-बढ़ के खूबसूरती और सौंदर्य में एकता हुस्नवाले सैकड़ों मौजूद
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हैं. पर यहाँ स्थान-भ्रष्ट के समान ऐसों का आ टिकना अल- बत्ता एक अचरज या कौतुक था । जो हो, यहाँ के लोग इसके निस्बत भॉति-भॉति की कल्पनाएँ कर रहे थे। कोई लखनऊ की बेगमातों में इसे मानते थे; कोई कहते थे 'नही-नही यह दिल्ली के शाही घरानों में से हैं"; किसी का ख्याल था यह कश्मीर से आई है इत्यादि ; और कोई इसे यहूदिन समझता था । वयक्रम इसका देखने में बाईस के ऊपर ओर पचीस के भीतर मालूम होता था। गोरा रंग, हीना से दामिनी-सी दमकती हुई इसके एक-एक सुडौल साँचे के ढले अगो पर सुंदरापा बरस रहा था। बातचीत, चाल-ढाल और वजेदारी से यह किसी अच्छे घराने की मालूम होती थी। इसको परदे में रहते न देख लोगों के मन में दृढ़ विश्वास जम गया था कि यह बंबई की कोई पारसिन या यहूदिन है । थोड़ा उर्दू-फारसी भी पढ़ी थी, इसलिये इसकी जबान साफ और शीन-क़ाफ दुरुस्त था। एक प्रकार की संजीदगी और शऊर इसके चेहरे की मिठास और सलोनापन के साथ ऐसी मिल-जुल गई थी कि देखने- वाले के लोचनों की इसे बार-बार देखने की ग्यास कभी बुझती ही न थी । यह अपने घने केश-जालो मे अलकावली की गूथन से तथा विकसित-पुडरीक-नेत्रों से वर्षा और शरत ऋतुओं का अनुहार कर रही थी । पद्मराग-समान लाल और पतले होंठ, गोल ठुड्डी, ऊँचा-चौड़ा माथा, कुद की कली-से दॉत, सीधी और बराबर उतार-चढ़ावदार सुग्गा
[ ६६ ]के टोंट-सी या तिल के पुष्प-सी नासिका गोल कपोल, सुदर आँख, रेशम के लच्छे-से सिर के बाल, सब मिल इसके चेहरे पर एक अनोखी छवि दरसा रहे थे। यह अपने को हुमा वेगम के नाम से प्रसिद्ध किए थी। यह हुमा केवल खूबसूरती और शऊर में ही एकता न थी, कितु गाना- बजाना इत्यादि कई तरह के हुनर में भी अपनी सानी न रखती थी।अनंतपुर-ऐसे छोटे-से कस्बे में तो इस कोकिलकठी के सौंदर्य और गाने की धूम थी।यद्यपि यहाँ के छोटे-बड़े रईस सभी इसके मुश्ताक हो रहे थे, कितु नदू तो इस पर तन-मन से लट्टू था।अपने मामूली काम-काज से फुरसत पाते ही वहाँ पहुँचता था । हुमा भी, जो शऊर और ढंगदारी में पल्ले दर्जे की चालाक थी, इसकी नस-नस पहचान गई थी, और इसे अपना खेलौना बनाए थी।अस्तु।उच्च पद से नीचे गिरते हुए मनुष्य की हजार-हजार तदबीर सब व्यर्थ होती है । सूर्य जब डूबने लगता है, तो उसे हजार किरने सब एक साथ थामती हैं, पर वह नहीं रुकता, इसी तरह डूबते हुए इन बाबुओ को सम्हाल रखने को चदू तथा रमा ने कितनी-कितनी तदबीरे और यतन किए, कितु एक भी कारगर न हुए, अत को विष की गॉठ-सी यह हुमा ऐसी यहाँ आ बसी कि नंदू-सरीखे कुढगियों को अपने ढंग पर इन बाबुओं को दुलका लाने और गढ़कर अपना ही-सा बना देने के लिये मानो औजार हुई। मसल है "एक तो तित लौकी, दूसरे चढी [ ६७ ]नीम" ये बाबू लोग तो यों ही यौवन और धन के मद से अंधे हो रहे थे । चंदू-सरीखें चतुर, सयाने, प्रवीण के उपदेश का बीज लाख-लाख तरह पर उलटी-सीधी बात सुझाने से कभी-कभी जम आता था, तो चारो ओर से दुःसंग ओले के समान गिर उस टटके जमे हुए अंकुर का कहीं नाम और निशान भी न रहने देते थे । इसी दशा में रूप-राशि हुमा ने अपने रूप का ऐसा गहरा जादू इन पर छोड़ा कि अब फिर सम्हलने की कोई आशा न रही । पर चंदू इनकी ओर से सर्वथा निराश न हुआ था, यह इन्हें बार-बार सीधी राह पर लाने की फिकिर में लगा ही रहा । सौ अजान में एक सुजान पर ध्यान जमाए हमारे पाठक यदि हमारे साथ ऐसे ही धीरे-धीरे चले चलेगे, तो अंत को एक बार चंदू को कृतकार्य होते पावें हींगे।