सौ अजान और एक सुजान/१४

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सौ अजान और एक सुजान  (1944) 
द्वारा बालकृष्ण भट्ट

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चौदहवाँ प्रस्ताव

बह-वह मरैं बैलवा, बैठे खायँ तुरंग।

पाठक जन, आप लोगों को याद होगा, हमारे इस किस्से के पहले प्रस्ताव का पहला दृश्य एक घुड़सवार था, जो आधी रात के समय काग़ज़ का एक पुलिंदा लिए आया था, [ ८० ]और दरवाजे का फाटक खुलवाय पुलिंदा दे चला गया था। हमारे पढ़नेवालों को अवश्य इस बात के जानने की रुचि हुई होगी कि यह कागज का पुलिदा क्या था, और क्यों ऐसा ताबड़तोड़ मॅगाया गया।

हम ऊपर कह आए हैं, सेठ हीराचंद का अनंतपुर मे एक बहुत पुराना घराना था । हीराचंद से पॉच पुश्त पहले इसके पुरखों में से एक कोई मानिकचंद नाम का, घर से पॉच कोस पर अपने ही नाम का एक गॉत्र बसाय. बाग, बागीचा, कुऑ, तालाब, रमने इत्यादि कई एक रमणीक सजावटों से इस स्थान को अत्यंत मन रमानेवाला कर आप वहीं जाय रहने भी लगा। उपरांत इसके कई एक लड़के-लड़कियॉ, पोते-परपोते हुए, और यह सब भॉति रॅजा- पुजा होकर संसार में भाग्यवानी की सीमा को पहुॅच गया था; बल्कि बीच में हीराचंद के घराने की बड़ी अवतरी आ गई थी, यह तो हीराचंद ही ऐसा भाग्यवान् पुरुष हुआ कि पहले से भी अधिक इस घराने को चमका दिया । मानिकपुरवाले सेठों का तो कोई नाम भी न जानता था, पर हीराचंद का विमल यश चहूँ ओर छाया था। जिस समय का हाल मैं लिखता हूँ, उस समय मानिक- चंद के घराने में बची-बचाई पुरानी दौलत तो थोड़ी- बहुत रह गई थी, पर उसका सुख विलसनेवाला कोई न रहा । ७० वर्ष का एक बुड्ढा बच रहा ; जैसे किसी हरे-भरे [ ८१ ]बाग़ के उजड़ जाने पर उसमें कटीले पेड़ का एक ठूठँ बच रहे। मानिकपुर भी उजड़कर कसबे से एक छोटा-सा पचास घर का पुरवा रह गया। सिवाय इस बुड्ढे के मानिकचंद की लड़कियों के संतान में भी एक आदमी बच रहा था । नाम इसका मिट्ठल, मानो नहूसत और दरिद्रता का एक पुतला था। इस बुड्ढे के घर से अलग एक दूसरे कच्चे मकान में यह रहा करता था। शकल से महादिहाती ग्रामीण मालूम होता था। न केवल सूरत ही शकल से यह दिहाती था, वरन् शऊर और ढंग भी इसके सब दिहातियों के से थे। दस-पॉच बिगहे की खेती करता था, और वही इसकी आजीविका थी। कभी-कभी अर्थ-पिशाच वह बुड्ढा भी इसकी कुछ सहायता कर देता था। रिश्ते में वह उसका भानजा लगता था । नाम इस यक्षवित्त कृपण बुड्ढे का धनदास था। धनदास कुछ तो बुढ़ापे के कारण, जब कि और सव इंद्रियाँ शिथिल हो केवल तृष्णा और लोभ ही को विशेष बढ़ा देती हैं, और कुछ इस कारण से भी कि इसकी बारी फुलवारी बिलकुल उजड़ गई थी, ठूठॅ-सा अकेला आप ही बच रहा था, लड़के, पोते, नाती, अपनी स्त्री तक को इसने फूँके तापा था, इसलिये इसका जी सब भाँति बुझ गया था, और कभी किसी बात के लिये हौसिला ही नहीं उभ- ड़ता था। सॉप-सा खाट बिछाए उसी संदूक के पास पड़ा रहता था, जिसमें इसके सब काग़ज, पत्र, रुपया पैसा, नोट इत्यादि रक्खे हुए थे। सिवाय थोड़ी-सी पुराने फैशन की फारसी के [ ८२ ]और कुछ पढ़ा-लिखा न था, न इसे कभी किसी सभ्य नमाज में शरीक होने या अच्छे सभ्य लोगों से मिलने का मौका मिला था। वेईमानी या ईमानदारी से जैसे बन पड़े केवल रुपया जमा होता चला जाय, इसी को यह बड़ी पंडिताई, बड़ी चतुराई, बड़ा धर्म समझे हुए था। इस दशा में मनुष्य को उदार भाव कहाँ से आ सकता है। न जानिए कितनों की तो इसने थाती पचा डाली थी, इन्हीं कारणों से इसके लिये अर्थपिशाच की पदवी बहुत सुघटित बोध होती है। सत्तर वर्षे का हो ही गया था एक-एक अंग पलित और जीर्ण हो चले थे, रोगग्रसित रहा करता था। अचानक एक साथ ऐसा बीमार हो गया कि विलकुल खाट से लग गया, और मालूम होता था कि दो ही एक दिन में इसका वारा-न्यारा हुआ चाहता है। इसकी बीमारी की खबर वावुओं को पहुंची। खवर पाते ही इन दोनो के जी में खलबली पड़ी। इसलिये नहीं कि बुड्ढा बीमार है. चलकर उसकी कुछ सेवा-टहल करें, या दवा-दारू की कुछ फिकर करे बल्कि इसलिये कि जल्द चलकर जो उसके पास माल-मताल है. उसे जैसे हो अपने कब्जे में लाये। चलती बार नंदू भी इनके साथ हो लिया। दोनों का चोली-दामन का साथ था भला यह क्योंकर वावुओं को छोड़ अपनी चालाकी से चूकता, और बाबू को भी इसके विना कहाँ कल पड़ सकती थी। दो-एक दिन तो धनदास बहुत ही बुरी हालत में रहा ; लोग अगुलियो घड़ी और लहमा गिन रहे थे कि इसकी [ ८३ ]हालत कुछ सुधरने लगी। दो-तीन दिन तो पड़ा रहा, उपरांत बोला भी और कुछ खाने के लिये इसने इच्छा प्रकट की। बाबू इसे चंगा होते देख मन में बड़े उदास हुए, सब उम्मीदें जाती रहीं, और जो बात सोच रक्खी थी एक भी न हो सकी ; पर ऊपर से ऐसी लल्लो-पत्तो और चुना-चुनी करते जाते थे कि धनदास को किसी तरह पर यह विश्वास न हुआ कि यह मेरा अनिष्ट सोच रहा है, और मेरे साथ कुछ खेल खेला चाहता है। इसके बाद भी अपनी दुरभिसंधि छिपाने को बाबू दो-एक दिन वहाँ रहकर धनदास से बिदा हुए, और नंदू को वहाँ ही छोड़ गए। भीतर-भीतर इशारा तो कुछ और ही था, पर ऊपर से धनदास के सामने नंदू से कहा– "नंदू बावू. मैं तो अब जाऊँगा, पर तुम चचा साहब की अच्छी तरह फिकर रखना। देखो, इन्हें किसी तरह की तकलीफ न हो। इनके पथ्य और इलाज इत्यादि की तद- वीर रखना।" और धनदास से बोला-'चाचा साहब, क्या करूँ, मै बड़ा लाचार हूँ। मेरे न रहने से कोठी तथा इलाकों का सब कारबार बंद होगा । मै नंदू बाबू को छोड़े जाता हूँ, यह मेरे बड़े रफीक हैं, आपकी सेवा-टहल की सब फिकिर रक्खेगे, और किसी तरह की तकलीफ आपको न होने पावेगी । मै घुड़सवार एक हलकारे को छोड़े जाता हूँ, जब आपको किसी बात की जरूरत आ पड़े, तुरंत इसे भेज मुझे इत्तिला देना।" यह कह बुड्ढे को सलाम कर यह वहाँ से बिदा हुआ। [ ८४ ]नदू , जो चालाकी मे पूरा उस्ताद था और अपने को इसमें एकता समझता था, ऐसे ढंग से रहा और ऐसी सेवा-टहल की कि धनदास का यह बड़ा विश्वसित हो गया। यहाँ तक कि इसने अपनी ताली-कुंजी सब इसके सिपुर्द कर रक्खा। अपने पुराने नौकरों की भी बात न मान जो यह कहता वैसा ही धन- दास करने लगा। एक तो बूढ़ा था, दूसरे बीमारी के कारण चिरचिरा हो गया था। नंदू को यह एक बड़ी हिकमत हाथ लगी कि जब इसे किसी पर झुंझलाते और चिरचिराते देखता, तो इश्तियालक देने की भॉति दो-एक कोई ऐसी बातें , कह देता कि इसकी चिरचिराहट और चौगुनी बढ़ जाती थी । जिस पर यह झुँझला उठता था, उसकी मानो शामत आई । और, इस झुंझलाहट में वह चिल्लाता था, रोने लगता था, यहाँ तक कि मूड़ भी पीट डालता था। ऐसे मौके पर नंदू को अपनी खैरख्वाही जाहिर करने का मौका मिलता था। निदान यह बुड्ढा विलकुल सठिया गया । होशहवास भी दुरुस्त न रहते थे। मृत्यु के दिन समीप होने के जितने लक्षण होने चाहिए, सब इसमें आ गए । इस प्रकार के कृपण, कदर्य जीवन से जीनेवालों का यही तो परिणाम होता है, जो मानो आदमी के भले-बुरे होने की बड़ी भारी परख है। सुकृती मनुष्य की मरण-अवस्था ऐसी सुख की होती है कि किसी को मालूम नहीं होता कि कब उसके चोला से जान निकल गई; आनन-फानन पलक भॅजते-भॅजते शरीर से उसके [ ८५ ]प्राण की यात्रा होती है। वह दुष्कृती, जैसा यह बुड्ढा था, महीनों तक पड़े अनेक, यातना और यत्रणा भोगते हैं, पर प्राण-वियोग शरीर से नही होता।

एक दिन रात को यह कहरता-कहरता सो गया, और इसके सब पुराने नौकर भी नींद के बस हो गए कि नंदू ने ताली का गुच्छा, जो इसकी तकिया के नीचे रक्खा रहता था, धारे से खींच वह संदूक जिसे धनदास अपना प्राण समझता था, आहिस्ते से खोल, काग़ज़ का पुलिंदा उसमें से निकाल लिया, और संदूक फिर बंद कर ताली वैसे ही तकिया के नीचे रख दिया। इसने पुलिंदा उसी अहल्कारे को दिया और कहा-"तुम अभी जाकर इस पुलिंदे को बाबू साहब को दे आओ, पर खबरदार होशियार रहना, यह बड़े काम का कागज़ है, इसमें से कोई भी गिर जायगा, तो बड़ा हर्ज होगा।" अहल्कारा सलाम कर पुलिंदे को अपनी कमर में कस रवाना हुआ। नंदू भी जाकर चुपके सो रहा, पर अपनी इस अभिसंधि में कृतकार्य होने की खुशी में देर तक इसे नींद न आई, सोचता था "लाखों की जायदाद मालमताल अब मेरे बाबुओं को बेखरखसे हाथ लग जायगी, बाबू से चहारुम मेरा ठहर गया ही है, तब क्या हमीहम कुछ दिनों में देख पड़ेंगे। चहारुम क्या, यह बिलकुल माल मैं अपना ही समझता हूँ, क्योंकि बाबुओं को तो मैने अपने जाल में फंसा ही रक्खा है। बाबू के पास जो कुछ है, उसके सब कर्ता-धर्ता सिवाय मेरे दूसरा [ ८६ ]है कौन। हा ! हा ! हा ! मैं भी अपने फन में क्या ही उस्ताद हूँ, कैसे अपनी डॉक जमा रक्खी है कि अब बाबू के दरबार में मैं-ही-मैं हूँ। उस उजड्ड पंडित चंदू ने हरचंद चाहा, कितना ही फटफटाया, पर उसकी एक भी दाल न गली। सब तरह पर बाबुओं को मैंने अपनी मूठी में करी तो लिया। छि.! यह पडित भी अहमकों की जमात का एक नमूना देख पड़ा ; बदतमीजी की यह बानगी है, मानो शऊर और समझ के चश्मे पर बड़ा भारी पत्थर का ढोंका रख दिया गया हो। खूबी यह कि कौड़ी-कौड़ी मात हो रहा है, फिर भी अब तक अपनी शरारत से बाज नहीं आता। मै भी मौका तजवीज रहा हूँ, बचा को ऐसा फॅसाऊॅगा कि अब की बार जड़-पेड़ से उखाड़ डालूँगा, और अनंतपुर में कहीं इसका निशान भी न रह जायगा। मैंने एक बार पहले भी संदूक को खोला था, ताकि देखूॅ इसमें क्या है, सिवाय और चीजों के उस पुलिंदे को भी पाया, जिसमें पचास हजार के कई किता सिर्फ नोट के उसमें थे। दस हजार का एक किता तो मैंने अपने लिए अलग उड़ा रक्खा । और भी कई एक दस्तावेज़ उसमें हैं। यहाँ से चलकर मैं सबों को ठीक करुँगा। इसीलिये तो बुद्धदास को अपने घर के पास ही टिका रक्खा है, और सब तरह की नाज़बरदारी उसकी उठा रहा हूँ। खासकर उस वसीयत को दुरुस्त करना है, जिसमें बुड्ढे ने मिट्ठूमल के लिये कुछ इशारा कर दिया है । मिट्ठू-ऐसे खूस देहकानी को इतनी [ ८७ ]कसीर रकम मिलकर क्या होगी, इसे तो हम लोगों के हाथ में आना चाहिए। बाबुओं का रंग-ढंग देख घर की सब रकम बड़ी सिठानी ने दाब रक्खी, दोनों बाबू मॉ के मरने के वादे पर कर्ज ले-लेकर इन दिनों अपना काम चला रहे हैं। अब इतनी कसीर रकम एक साथ मिल जाने से, कुछ दिनों के लिये सुबीता हो गया। खैर, देखा जायगा। इसमें शक नही, आज मैं महीनों की कोशिश और तदबीर के बाद आखिर कामयाब हुआ।" इतने में उसे नींद आ गई. और वह सो गया।