सौ अजान और एक सुजान/१५

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सौ अजान और एक सुजान  (1944) 
द्वारा बालकृष्ण भट्ट

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पंद्रहवाँ प्रस्ताव

नाधर्मश्चरितो लोके सद्यः फलति गौरिव।

शनैरावर्तमानस्तु कर्तुर्मूलानि कृन्तति॥ (मनु.)

अधर्म करने का फल अधर्मकारी को वैसा जल्दी नहीं मिलता, जैसा पृथ्वी में बीज बो देने से उसका फल बोनेवाले को थोड़े ही दिन के उपरांत मिलने लगता है। किंतु अधर्म का परिपाक धीरे-धीरे पलटा खाय जड़-पेड़ से अधर्मी का उच्छेद कर देता है।

अनंतपुर से आध मील पर सेठ हीराचंद का बनाया हुआ नंदन-उद्यान नाम का एक बाग है। हीराचंद के समय यह बारा सच ही नंदन-वन की शोभा रखता था । सब ऋतु के फल-फूल इसमें भरपूर फलते-फूलते थे । ठौर-ठौर सुहावनी लता और [ ८८ ]कुंज वृदावन की शोभा का अनुहार करते थे। संगमर्मर की रविशों पर जगह-जगह फौवारेजेठ-वैशाख की तपन मे सावन- भादों का आनंद बरसा रहे थे। एक ओर इस बाग के बड़ी लंबी-चौड़ी बारहदुवारी थी, जिसमें हीराचंद नित्य अपने काम-काज से सुचित्त हो संध्या को यहाँ आते थे, पंडित, साधु, अभ्यागत तथा गुणी लोगों से यहीं मिलते थे. और अपने वित्त के अनुसार सबों का थोड़ा या बहुत, जो कुछ हो सकता सत्कार-सम्मान करते थे। अस्तु । हीराचंद की बात उन्ही के साथ गई, अब उसको गाई गीत के समान फिर-फिर गाने से लाभ क्या ?

आगे के दिन पाछे गए, हरि से कियो न हेत ,

अब पछिताए क्या भया, चिडियाचुन गई खेत । ,

जिस फलवत धरती मे अमृत रसवाले दाखफल और केसर उपजते थे, उसी मे काल पाय ऊँटकटारे और अनेक कटैले पेड़ जम आए, तो इसमें अचरज की कौन-सी बात है ! कालचक्र की गति सदा एक-सी रहे, तो वह चक्र क्यों कहा जाय-"नी- चैर्गच्छत्युपरि च दशा चक्रनेमिक्रमेण ।"

गत. स कालो यत्रास्ते मुक्तानां जन्म बल्लिषु ;

उदुम्बरफलेनापि स्पृहयामोऽधुना वयम् ।


("उदुम्बरफलेनापि" के स्थान पर "उदुम्बरफलेभ्योऽपि" पढिए) वह समय गया, जब लताओं मे मोती पैदा होते थे। अब तो गूलर के भी लाले पड़े हैं। [ ८९ ]
बरसात का आरंभ है। रिमझिम-रिमझिम लगातार पानी की छोटी-छोटी फूही ग्रीष्म-संताप-तापित वसुधा को सुधादान के समान होने लगीं। काली-काली घटाएँ सब ओर उमड़- उमड़ बरसने लगीं, मानो नववारिद वन-उपवन, स्थावर-जंगम, जीव-जंतु-मात्र को बरसात का नया पानी दे जीवदान से जितने दानी और वदान्य जगत् में विख्यात हैं, उनमें अपना औवल दरजा कायम करने लगे। या यों कहिए कि ये बादल जालिम कमबख्त जेठ माह के जुल्म से तड़पते. हाँपते, पानी- पानी पुकारते जीवों को देख दया से पिघल खिन्न हो आँसु 'बहाने लगे। नदी-नाले उमड़-उमड़ अपना नियमित मार्ग छोड़ वैसा ही स्वतंत्र बहने लगे, जैसा हमारे इस कथानक के मुख्य नायक दोनो बाबू बेरोक-टोक विवेक के मार्ग को छोड़, शरम ओर हया से मुॅह मोड़, दुस्संग के प्रवाह में बह निकले। विमल जलवाले स्वच्छ सरोवर जिनमे पहले हस, सारस, चक्रवाक कलध्वनि करते हुए विचरते थे, उनके मटीले गॅदले पानी में अब मेंढक वैसे ही टर- टर करने लगे, जैसा इन बाबुओं के दरबार में, जहाँ पहले चंदू-सा मतिमान्, सुजान, महामान्य था, वहाँ नंदू तथा रग्घू-सरीखे कई एक ओछे छिछोरे बाबू को दुर्व्यसन के कीचड़ में फंसाय आप कदर के लायक हुए । सूर्य, चंद्रमा, तारागण सबों का प्रकाश रात-दिन मेघ से उप मंद पड़ जाने से जुगुनू कीडों की क़दर हुई, जैसा दुर्दैव-दलित
[ ९० ]भारत की इस भारत दशा में चारों ओर जब अज्ञान-तिमिर की घटा उमड़ आई, तो साधु, सदाचारवान्, सत्पुरुष कही दर्शन को भी न रहे; झूठे, पाखंडी, दुराचारी, मक्कार पुज- वाने लगे। दिन में सूर्य का, रात में चंद्रमा का दर्शन किसी- किसी दिन घड़ी-दो घड़ी के लिये वैसे ही धुणाक्षर-न्याय- सा हो गया, जैसा अन्यायी राजा के राज्य में न्याय और इंसाफ कभी-कभी विना जाने अकस्मात् हो जाता है। पृथ्वी पर एकाकार जल छा जाने से भू-भाग का सम-विसम-भाव, तत्त्वदशी शांतशील योगियों की चित्तवृत्ति के समान, जाता ही रहा । हिंदोस्तान में बरसात का मौसिम बड़े आमोद-प्रमोद का समझा जाता है, और उस समय जब इस उन्नीसवीं सदी की आशाइशे और आराम रेल, तार इत्यादि कुछ न थे, सभी लोग बरसात के सबब अपना-अपना काम-काज छोड़ देने को लाचार हो जाते थे। यही कारण है कि जितने तिहवार और उत्सव सावन-भादों के दो महीनों में होते हैं, उतने साल-भर के बाकी दस महीनों में भी नहीं होते। उद्यमी और काम- काजी लोग भी जिनको विना कुछ उद्यम और परिश्रम किए केवल हाथ पर हाथ रख बैठे रहने की चिढ़ है, और एक क्षण भी ऐसा व्यर्थ नहीं गॅवाया चाहते, जिसमें वे अपने पुरुषार्थ का कुछ नमूना न दिखलाते हों। वे वर्षा ऋतु में शिथिल और ढीले पड़ जाते हैं। तो आवारगी और व्यसन के हाथ में अपने को सौपे हुए इन दोनों बाबुओं का क्या कहना! [ ९१ ]जिनको हर दम कोई नई दिल्लगी, नए शगल की तलाश. रहती है। मसल है "एक तो तित लौकी, दूजे चढ़ी नीम"

कपिरपि च कापिशायन,
मदमत्तो वृश्चिकेन संदष्ट. ;
अपि च पिशाचप्रस्त
किम्ब्रमो वैकृतं तस्य।*[१]

'रईस और प्रतिष्ठित लोगों में बरसात के दिनों में बाहरी ओर बाग-बगीचों में आमोद-प्रमोद का आम-दस्तूर हो गया है । सुबीतेवाले सभी अपने इष्ट-मित्रों को साथ ले बहुधा बगीचों में जाय नाच-रंग, खाना-पीना दो-एक बार अवश्य करते हैं। ये दोनों बाबू तो जब से बरसात शुरू हुई, तब से रातोदिन बगीचे ही मे जा रहे, कभी आठवें-दसवें घड़ी-दो घड़ी के लिये घर आते थे। एक दिन साँझ हो गई थी। घटा चारों ओर छाई हुई थी; राह-बाट कुछ नजर न पड़ती थी; बगीचे के बाहर खेतों की मेड़ पर ठौर-ठौर खद्योतमाला हरी-हरी घासों पर हीरा-सी चमक रही थी; छिनछिन पर गरजने के उपरांत काली-काली घटाओं में दामिनी क्रोधित कामिनी-सी दमक रही थी, सब ओर सन्नाटा छाया हुआ था; केवल नववारिद-समागम से प्रफुल्ल भेक-मंडली


[ ९२ ]नाऊ की बरात के समान सब अलग-अलग ठाकुर बने टरटर

ध्वनि से कान की चैलियाँ झार रहे थे । एक ओर झीगुर अलग अपनी वाचाट वक्तृता से दिमाग चाटे डालते थे। पेड़ के पत्तों पर गिरने से वर्षा के जल का टप-टप शब्द भी सुनाई देता था। कभी-कभी पेड़ पर बैठे पखेरुओं का ओदे पंख झारने का फड़फड़ शब्द कान में आता था। बारह- दुवारी भीतर-बाहर सजी और झाड़-फनूसो से आरास्ता थी; रोशनी की जगमगाहट से चकाचौधी हो रही थी, जशन की तैयारी थी । नदू, हुमा और हकीम, तीनों बैठे प्याले पर प्याला ढलका रहे थे। दोनों बावुओं की हुस्नपरस्ती में धूम थी, इसलिये तमाम लखनऊ और दिल्ली के हसीन यहाँ आ जुटे थे।

बुद्धृ पॉड़े अफीम के झोंक में ऊँघता तलवार की मुठिया हाथ में कस के गहे डेहुड़ी पर बैठा हुआ मानो वरीय रहा था-"कहाँ-कहाँ के चौपट चरन इकट्ठ भए हन, अस मन ह्वात है कि इन हरामखोरन का अपन बस चलत तो काला- पानी पठे देतेन । हाय ! यह वही बाग और बारहदुआरी अहै, जहाँ इनहिन बरसात के दिनन मा नित्य वेद-पाठ और बसत- पूजा ह्वात रही। अनेकन गुनी जनन केर भीर-की-भीर आवत' रही, और बड़े सेठ सबन केर पूजा-सम्मान करतु रहे, तहाँ अब। भाड़, भगतिए, रंडी, मुंडी पलटन-की-पलटन आय जुरे हैं। एक बार एक मुसलटा बारहदुवारी के भीतर घुस गवा रहा, [ ९३ ]
तब बड़े सेठ साहब सगर बारहदुआरी धोआइन रहा, वही अब निरे मुसलमानै मुसलमान भरे हैं। न जानै इन दोनों बाबुअन का का है गवा । नंदुआ का सत्यानास होय, कैसा जादू कर दिहिस है कि चंदू महाराज और सेठानी बहू हजार- हजार उपाय कर थकी, कोउनौ भॉति दोनों बाबू राह पर नहीं आवत । वादिना बाबू बुद्धदास का बुलवाइन रहा, हम रात के वहिके घर गइन रहा, पर एहका कुछ भ्याद नखुला, ओकर बाबू से गिष्ट पिष्ट अच्छी नहीं । ऊ तो बड़े कजाक और जालिया है।" हमने अपने पढ़नेवालों को इस सच्चे स्वामि- भक्त का परिचय एक बार और दिलाना इसलिये उचित समझा कि यह मनुष्य भी हमारे इस किस्से का एक प्रधान पुरुष है; यह आगे बड़ा काम देगा, इसलिये इसे हमारे पाठक याद रक्खें।

अब और एक नए आदमी का परिचय यहाँ पर देना मुनासिब जान पड़ता है, क्योंकि ऐसे दो-एक और लोगों को बिना भरती किए हमारे कथानक की श्रृंखला न जुड़ेगी। क्यक्रम इस पुरुष का ३५ और ४० के भीतर था, नाम इसका पंचानन था। पंचानन के जोड़ का दिल्लगीबाज और रसीली तबियत का आदमी कम किसी ने देखा या सुना होगा। मनुष्य चाल-चलन का किसी तरह बुरा न था, बल्कि चंदू- सरीखे शुद्ध-चरित्र को मैत्री के भरपूर लायक था, और कसौटी के समय चाल-चलन की शिष्टता भी 'इसमें चंदू ही के
[ ९४ ]टक्कर की थी, इसी से चदू से इसकी पटती भी थी और अनंतपुर की छोटी-सी बस्ती में दोनों का घर भी एक ही जगह पर वरन् सटा-सटा था। दोनो के घर के बीच केवल एक दीवाल-मात्र का अंतर था। गंभीरता या संकोच का यह जानी दुश्मन था । मुसिफो तक की मुख्तारी एक मामूली ढर्रे पर कर लेना, जो कुछ मिले, उतने ही से अपने लड़के-बालों को खाने-पीने से सब भाँति प्रसन्न रखना, 'न ऊधो के देने न माधो के लेने" और सॉझ को निश्चित लंबी तान सो रहना, केवल इतने ही को यह अपने जीवन का सार समझता था। अच्छा खाना, अच्छा पहनने का इसे हद से ज़ियादह शौक़ था, तेहवार और कचहरी में तातील का बड़ा मुश्ताक था। किसी के यहाँ जियाफत में शरीक होने का इसे बड़ा हौसिला था । किसी के यहाँ कुछ काम पड़ने पर दावत खाना या उसको बेवकूफ बनाय जियाफ़त दिलवाने में यह बहुत कम फ़र्क समझता था । सारांश यह कि इसका मुख्य उद्देश्य यही था कि जिसमे कुछ हॅसी व दिलबहलाव हो, वही करना । हर हाल में खुश रहना और दूसरों को खुश रखना इसका सिद्धांत था । इसी से क्या छोदे, क्या बड़े, सव उमर के लोगो से यह मिलता था. और उचित तथा योग्य बर- ताव से सबो को प्रसन्न रखता था। जिस तरह अपने हम- उमरवालों से मिलता था, उसी तरह कम उमरवाले लड़को से भी मिल उनको राजी कर देता था। वरन् इसके मसख़रे[ ९५ ]
पन से बूढ़े लोग भी खुश रहते थे, और कोई इसे बुरा न कहता था। यह बात तो कभी इसके मन में आती ही न थी कि ऊँचे पद से और रुपए के कारण मनुष्य की प्रतिमा और इज्ज़त में कुछ अंतर आ सकता है। इसलिये जहाँ कहीं कुछ चुटकी लेने का अवसर मिलता था, यह विना कुछ बोले नही रहता था. चाहे वह आदमी कौड़ी-कौड़ी का मुहताज हो या करोड़पती क्यों न हो। संसार में यदि किसी से दबता था, या किसी की बुजुर्गी करता था, तो केवल चंद्रशेखर की। पंचानन के मन में चंद्रशेखर का ऐसा रोब जमा हुआ था, जिसे ख्याल कर अचरज होता था। यद्यपि चदू से भी कभी- कभी यह दिल्लगी छेड़ बैठता था. किंतु दो-एक गंभीर विचार की भावना कभी को कुछ देर के लिये इसके मन में अवकाश पाती थी, तो चंदू ही के बार-बार की नसीहत और उपदेश से ! मसखरापन का बर्ताव यह साधारण रीति पर सबके साथ रखता था, कितु मन में सोचता था कि हम बड़े गौरव के साथ लोगों से बर्तते हैं । इस तरह यह लोगों के बीच अपने को खिलौना बनाए था सही, पर सबों का सेवक और सबसे छोटा अपने को मानता था । सर्व-साधारण में यह परोपकारी विदित था, और अपने इख्तियार-भर जो किसी का कुछ भला हो सके, तो उससे मुॅह नहीं मोड़ता था। घमंड का इसमें कहीं लेश भी न था, सूरत भी भगवान ने इसकी ऐसी गढ़ी थी कि इसे देख हसी आती थी। बढ़ी
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लंबी नाक, नीचे को झुके हुए छोटे-छोटे मोंछे, पस्त क़द, पेट के ऊपर दोनो खड्डेदार छाती-जैसा किसी गहरी नदी के ऊपर आगे की ओर झुका हुआ कगारा हो। बाल सुफेद हो चले थे, पर जुल्फ सदा कतराए रहता था। अस्तु, आज के जलसे में यह भी शरीक था । वहाँ हुमा को देख वह बोला-"बाबू ऋद्धिनाथ, तुमने ऐसा चुंबक पत्थर अपने पास रख छोड़ा है कि किस पर इसकी कोशिश का असर नहीं पहुंच सकता ? ठीक है, ऐसी सोने की चिड़िया आपके हाथ लगी है, तभी तो आपने हम लोगों को बिलकुल भुला दिया।"

ऋद्धिनाथ-खैर, गड़े मुरदे न उखाड़िए, बतलाइए, अब आप लोगों की क्या खातिरदारी की जाय (जूही का एक- एक गजरा सबों के गले में छोड़)। चलिए, आप लोगों को बाग़ की सैर करा लावे (एक बड़ी भारी संदूक दो कुलियों के सिर पर लदाए हुए रग्घू को दूर से आता देख ) । लाओ- लाओ, अच्छे वक्त से लाए।

सब लोग-'यह क्या है ? यह क्या है ?" (संदूक खोल सब लोग एक-एक बाजा उठा लेते हैं)-वाह रे । रग्घू महाराज, अच्छी जून यह तुहका तुम लाए, और क्या हिसाब से लाए कि डेढ़ कोड़ी बाजे और यहाँ डेढ़ ही कोड़ी बाजे के बजवइए भी।

नंदू-(ऋद्धिनाथ से) बाबू साहब, हमने कहा था, बाजे
[ ९७ ]हरगिज़ ज़ियादह न होंगे, बल्कि हुमा का हाथ फिर भी बाजा से खाली ही रहा।

पंचानन-अच्छा, आप लोग अपना-अपना बाजा ले चुके हों, तो हम 'प्रोपोज़' करते हैं कि हुमा हम सब लोग बाजा बजानेवाले की बैंडमास्टर की जाय।

नंदू-मैं आपके इस प्रोपोजल को सेकंड करता हूँ। (मन में ) हुमा या ये दोनों बाबू सैब इस वक्त मेरे क़ब्जे में हैं हुमा में हुमापन पैदा करनेवाला भी मैं ही हूँ। आज यह पुराना चंडूल पंचानन अच्छा आ फंसा । यह उस गँवार पंडित का जिगरी दोस्त है। यह भी मेरे दल में आज आ शरीक हुआ, इस बात की मुझे बड़ी खुशी है । बुद्धदास के जरिए मैंने जो कार्रवाई की थी, उसमें भी मैं भरपूर कामयाब हुआ, सच है, ऐब करने को भी हुनर चाहिए।

बुधू पॉड़े अफीम के झोंक में एक बारगी चौक पड़ा, और अपने सामने पुलिस के दो आदमियों को बातचीत करते देख चौकिन्ना हो पूछने लगा-"तुम कौन हो ? किसके पास आए हो?"

पुलिस-सेठ हीराचद के वलीअहद ऋद्धिनाथ व नंदू व बुद्धदास तीनों कहाँ हैं ? उनके नाम का वारेंट है, तोनों फ़ौजदारी सिपुर्द हुए हैं । साथ हथकड़ी के तीनों को अदालत में हाज़िर करने का हुक्म हमें है। [ ९८ ]बुद्धू –(मन में) हमने तो पहले सोचा था कि इन चौपटहों का साथ हमारे बाबू को किसी दिन खराब करेगा। जो वात आज तक इस घराने में कभी नहीं हुई, उसकी नौवत पहुँची, तो अब बाकी क्या रहा। सच है, बुरे काम का बुरा अंजाम। देखिए, आगे अब और क्या-क्या होता है ?

  1. * एक तो बंदर, दूसरे शराब के मद में मतवाला, तीसरे बीछी से डसा हुआ, चौथे पिशाच से ग्रसित ऐसे की दशा का क्या कहना।