सौ अजान और एक सुजान/१७

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सौ अजान और एक सुजान  (1944) 
द्वारा बालकृष्ण भट्ट

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सत्रहवाँ प्रस्ताव

अपना चेता होत नहिं, प्रभु-चेता तत्काल।

पंचानन नदू को उसी बाग़ में पुलिस के दारोगा से मिलाय आप चंपत हुआ। दारोगा अपने ढंग पर था कि इससे कुछ पुजावे भी, और बात-ही-बात में इससे कबुलवा भी ले कि'मै कुसूरवार हूँ।" इधर नंदू अपने ढंग पर था कि दारोगा को जरा भी उस बात की टोह न लगे, जिसके लिये वारेट आया है, और फॅसे, तो हम और वाबू दोनो इसमें शामिल रहें। बाबू भी शरीक रहेंगे, तो मुकदमे की भरपूर पैरवी की जायगी। मैं अकेला पड़ गया, तो वे मौत की मौत मरा।

नंदू–(मन मे) पंचानन का यहाँ से चला जाना मेरे हक मे निहायत मुजिर हुआ। वेशक मैने ग़लती की, जो इसे अपनी जमात मे शरीक किया। मैंने कुछ और सोचा, यहाँ कुछ और ही वात हो गई। यह तो मैं जानता था कि यह उसी चंदू का [ १०३ ]दोस्त है, लेकिन मैंने समझा कि यह ठठोल,दिल्लगीबा, मुफ्त- खोरा है; हमेशा अपने को खुश रखना किसी दूसरे को फॅसाय दिल्लगी देखना और हमेशा आराम से जिदगी काटना इसका मकूला है। इसी से मैने अपनी जमात में इसे बुलाया भी पर इस वक्त की कार्रवाई से मैं इसे पहचान गया। यह चंदू का निहायत सच्चा दोस्त है, चालाक तो पंचानन वेशक है, कितु बड़ा खरा, बेलौस और सच्चा आदमी जान पड़ता है, यह मेरे आमालों को जानता है, क्योकि अब मै खयाल करता हूॅ, तो इसे छनक मेरी ओर से तभी से थी, जब से इसने यहॉ कदम रक्खा। क्या तअज्जुब यह वारेट भी चदू और पंचानन दोनो की सॉट में आया हो। खैर, यहाँ तो मै इस मरदूद दारोगा से किसी भॉति निपटे लेता है, पर मेरे घर पर मेरी गैरहाजिरी में यह पंचानन और चंदू दोनो मिल कोई फसाद बरपा करेगे कि मुझे जरूर फॅस जाना पड़ेगा। बुद्धदास का भी नाम इस वारेंट में है. उसे बिलकुल इसकी खबर नहीं है, उसको भी चंदू तके हुए है। बाबू को तो वह किसी-न-किसी तदबीर से बचा लेगा, यह मुसीबत मुझे और बुद्धदास, दोनो को भुगतना पड़ेगी। खैर, तो अब इसे टटोले; देखे, यह किसी तरह मेरे चंगुल में आ सके, तो बहुत अच्छा हो। (प्रकाश) हुजूर मै ग़रीब आदमी हूँ, और सब तरह पर बेकसूर हूॅ, मै तो जानता भी नहीं, यह क्या बात है। हाँ, अलबत्ता इन बाबुओ का मेरा दिन-रात का साथ है। खैर, अब मेरी इज्जत हुजूर के हाथ है, [ १०४ ]मुझे आपकी खिदमत करने में भी कोई उन नहीं है। मेरी जैसी औकात है,बाहर नहीं हूँ।.

दारोगा–(मन में) मैं इस बदमाश को खूब जानता हूँ। इसमें शक नहीं, इन बावुओं को इसी ने खराब किया है।बाबुओं को क्या! इसने न जानिए कितने रईसों को बिगाड़ डाला। इस मूॅजी को तो मै बहुत दिनों से तके था, कई बार मेरे चंगुल में आया, पर अपनी चालाकी से बचता चला गया। अच्छा, पहले इसे टटोले तो, इसमें कहाँ तक दम है।मुझे पूरा विश्वास है, यह सब शरारत इसी की है। पर तो भी इससे पता लग जायगा कि इन बाबुओं की कहॉ तक इसमें दम्तं दाजी है, और कौन-कौन लोग इसमें शरीक हैं। मैने उस हैरत-अंगेज बुद्धदास की भी फिकिर कर रक्खी है । सेठ हीरा- चद की शराफत का खयाल कर इन बाबुओं पर मुझे भी रहम आता है, पर इन बदमाशो को तो हरगिज न छोडूंगा। (प्रकाश) कहिए, आप क्या कहते हैं। इज्जत तो इस नाजक ज़माने में, मैं हूँ या आप हों, बचा रहना खूदा के हाथ में है. इसोलिये अलमद लोग फूॅक-फूॅक पॉव रखते हैं। मसल है 'सॉच को ऑच क्या?" अगर आप इसमे है नहीं, तो डर किस बात का | "कर नहीं, तो डर क्या ?" अदालत इंसाफ के लिये है, वहाँ दूध का दूध पानी का पानी छान- बीन अलग-अलग कर दिया जाता है, आप बेफिकिर रहें, कुसूर नहीं किया, तो तुम्हारा कुछ न होगा। [ १०५ ]नदू–जी हॉ, माफ कीजिए, आपकी बात कटती है।अदा- लत में इंसाफ होता है, यह आप नाहक कह रहे हैं।उलटे का सीधा, सीधे का उलटा वहॉ हमेशा होता है। इंसाफ तो ऐसा ही कभी साजनादिर होता है। दूसरे यह कि अदालत तो रुपए की है। अदालत ही पर क्या, रुपए से क्या नहीं होता। खैर, हुजूर से मै तकरीर नहीं किया चाहता, आप जो कहें, मै उसे अंगीकार किए लेता हूँ।

दारोगा–(मन में ) बुराइयों के करने में इसका जहबा खुला है। अदालत ऐसे-ही-ऐसों की करतूत से बिगड़ती जाती है। अक्सर रुपए के जोर से यह अब तक बचता चला आया, , इसी से इसके दिमाग में यह बात समाई हुई है कि अदालत रुपए की है। खैर, तुम बचा हमी से ठीक लगोगे। (प्रकट) "मुझे यकीन कामिल हो गया कि तुम जरूर इसमें कुसूरवार हो, वह कोई दूसरा खलीफ मामला रहा होगा, जब तुम रुपए के खर्च से बच गए । जानते हो, यह कैसा टेढ़ा मुकदमा है; जनाब ये जाल के मुकद्दमे हैं, इसमें चौदह और डा- मिलं की सजाएँ हैं। ऐसे-ऐसे गंदे ख्यालों को दूर रखिए कि अदालत मे उलटे का सीधा और सीधे का उलटा होता है । अदालत इंसाफ के लिये है । ऐसे लोगों ने, जैसे आप हैं. अलबत्ता अदालत को बदनाम कर रक्खा है।"

चौदह और डामिल का नाम सुन इसका चेहरा जद [ १०६ ]पड़ गया, नस-नस ढीली हो गई। जो समझे था कि मैं अपनी चालाकी से बच जाऊॅगा, और पुलिस को भी अपना तरफदार कर लूॅगा; वे सब उम्मीदे जाती रही, गिड़गिडाकर बोला-"अच्छा, तो अब मेरे निस्तार की क्या सूरत हो सकती है ? आप निश्चय जानिए, मै बेकसूर हूँ, बाबू का मेरा दिन-रात का साथ है, इससे आपको मेरी ओर भी शक है, और मैं भी खरावी में पड़ता हूँ।"

दारोगा–जी हॉ, ठीक है, आप बिलकुल बेकसूर हैं। तुम समझते हो, मेरे आमाल छिपे हैं।जनाब, आप ही ने वाबू को भी खराव किया। आप-ऐसे लोगों का ऐसे-ऐसे मुकहमों से निस्तार होना मानो आवारगी और बुराई को फरोग़ पाने के लिये इशतियालक देना है। अच्छा, आप तो अब रवाना हों, उन दोनो की भी फिकिर की जायगी। नकीअली। लो, तुम इन्हें ले चलो, मै अब बाबू और बुद्धदास के लिये जाता हूँ। खैर, बाबू को तो मै जानता हॅू, बुद्धदास का पता क्योंकर लगाऊॅ ? वाबू नदलाल, आप बतला सकते हैं, बुद्धदास कहॉ मिल सकेगा। मैं समझता हूँ, बुद्धदास का नंबर तुमसे बहुत चढ़ा-बढ़ा है, बल्कि उसी के भरोसे तुम्हे भी ऐसे-ऐसे कामों के लिये हिम्मत होती है।

नंदू–मै सच कहता हॅू बुद्धदास से मुझे कोई सरोकार [ १०७ ]नहीं है, सिर्फ इतना ही कि वह भी कभी-कभी बाबू साहब के यहाँ आया-जाया करता है। मुझे तो यह भी खबर नहीं है कि वह कौन-सा काम है, जिसके लिये आप मुझे और बुद्धदास को इस वारेट में गिरफ्तार करते हैं।

दारोगा–जी हॉ, आप कुछ नहीं जानते, आप तो कोई मुनरिख हैं।खैर, मुझे इससे क्या ग़र्ज़ है, मुझे तो अदालत के हुक्म का तकमीला करने से ग़र्ज़ है।आप वहीं जाकर अपनी सफाई कर लेना। लो, इसके हाथ में हथकड़ियॉ छोड इसे ले जाओ, मै अब उन दोनो के तलाश में जाता हॅू।