सौ अजान और एक सुजान/१९

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सौ अजान और एक सुजान  (1944) 
द्वारा बालकृष्ण भट्ट

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उन्नीसवाँ प्रस्ताव

विपदि सहायको बन्धुः।[१]

निशा का अवसान है। आकाश मे दो-एक चमकीले तारे अब तक जुगजुगा रहे हैं। अरुणोदय की अरुणाई से पूर्व दिशा मानो टेसू के रंग का वस्त्र पहने हुए दिननाथ सूर्य की अगवानी के लिये उद्यत-सी हो अपनी सौत पश्चिम दिशा को ईर्ष्या-कलुषित कर रही है। लोग जागने पर रात के सन्नहटे को हटाते हुए अपने-अपने काम में लगने की तैयारी करते सब ओर कोलाहल-सा मचाए हुए हैं। कोई सवेरे उठ भगवान्


[ ११२ ]के पवित्र नामोच्चारण में प्रवृत्त हैं; कोई शौच कर्म के लिये हाथ

में सोंटा और लोटा लिए बहिर्भूमि को जा रहे है; कोई दंत- धावन के लिये वृक्ष की डालियॉ तोड़ रहे हैं; कोई अपने छोटे- छोटे बालकों को गुरूजी के यहॉ ले जा रहे हैं,कोई मचलाए हुए लड़कों को फुसला रहे हैं; खेतिहर बैल और हल लिए खेत की ओर जा रहे हैं।

ऐसे समय सुजानसिह दारोगा तीन कांस्टेबिल साथ लिए बावू की कोठी के द्वार पर यमदूत-सा,आ बिराजे, और यही कोशिश में थे कि ज्यों ही दोनो बाबुओं में से कोई भी बाहर निकले कि उन्हे वारेट दिखा गिरफ्तार कर ले।

बावुओं की हवेली के पिछवाड़े खिड़की-सा एक छोटा दरवाजा जनाने मकान का था। हीराचद के समय तो बीसों दास-दासी भोर ही से अपने-अपने टहल के काम मे लग जाते थे, पर वह तो अब किस्सा-किहानी की बात हो गई। पर अब भी मखनिया नाम की पुरानी चाकरानी, जो हीराचद की स्त्री के बहुत मुॅह लगी थी. पुराना घर समझ अव तक टहल के काम से लगी ही रही। यह मखनिया हीराचंद का समय देख चुकी थी। बाबुओ के जघन्य आचरण पर मन ही मन कुढती थी। कोठी के दरवाजे पर पुलिस को बैठे देख खिड़की को धीरे से खटखटाया। सेठानी निकल आई, और किवाडा खोल इसे भीतर ले गई। इसे भौचक्की-सी देख कारण पूछा, तो यह कहने लगी–"बहूजी, आज काहे दुवार पर पुलिस [ ११३ ]के चपरासी बैठे हैं ?" यह सुनते ही सेठानी के हाथ-पॉव फूल गए, घबड़ा उठी–"हाय ! सब तो गया ही था, अब क्या सेठ के नाम में भी कलंक लगा चाहता है ? हाय ! कपूत किसी के न जन्में–अच्छा, तो जा चदू को बुला ला, तब तक मैं जा उन दोनो बाबुओं को जगाती हूँ, और सावधान किए देती हूँ।"

सेठानी_(मन में ) हाय ! मुझ निगोड़ी को मौत न आई।सेठ के स्वर्गवास होते ही सोने का घर छार में मिल गया । सच है "पूत सपूते तो धन क्या. पूत कपूते तो धन क्या" सेठ के समय का राजसी ठाठ तो न जानिए कहाँ बिलाय गया । किसी तरह अपनी बात बनी रहे और जिंदगी के दिन कटें, इसी को मैं अपना सौभाग्य मानती थी, सो उसमें भी बट्टा लगा। हाय ! तिमहले पर दोनो बाबू सो रहे हैं ; इतनी सीढ़ियाँ मुझसे चढ़ी न जायँगी, और यहॉ से पुकारना ठीक नहीं, तो अब क्या करूँ? अच्छा, चदू को आने दो।

चंदू भी अचंभे में आया कि आज इतने सवेरे सेठानी ने क्यों बुलाया। बाहर पुलिस का पहरा देख उसी खिड़की से भीतर गया।

चंदू–बहूजी, क्या आज्ञा होती है ?

सेठानी–(रो-रोकर ) चंदू, मैं तुम्हारे ऋण से उऋण नहीं [ ११४ ]भयंकर बयार बह रही है कि कहीं पता न लगता (कान में कुछ कह)।

चंदू–अच्छा, तो तुम इतनी फिकिर रक्खो कि बाबू बाहर न निकलने पावें, मै सब ठीक कर लूँगा।


  1. जो विपत्ति मे सहायता करे ,वही बंधु है।