सौ अजान और एक सुजान/२०

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सौ अजान और एक सुजान  (1944) 
द्वारा बालकृष्ण भट्ट

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बीसवाँ प्रस्ताव

बन्धनानि किल सन्ति बहूनि
प्रेमरज्जुकृत बन्धनमन्यत्;
दारुभेदनिपुरणोऽपि षडङ्घ्रि-
र्निष्क्रियो भवति पङ्कजबद्धः।*[१]

पाठक ! आज अब यहाँ हम प्रेम-पुष्पावली के दो भ्रमरों का कथानक आपको सुनाना चाहते हैं। कुछ लिखने के पहले आपको सावधान किए देते हैं कि हमारे ये दोनों भ्रमर निःस्वार्थ प्रेमी हैं। इन्हें आप उस कोटि के प्रेमी न सम- झना, जैसा इन दिनों वहुतेरे अपना मतलब साधने के लिये परस्पर प्रेमी बन जाते हैं। जरा भी अपने स्वार्थ में चूक हो जाने पर मैत्री क्या, बल्कि सॉप और नेवले का-सा हाल उन दोनों का हो जाता है। हमारे पाठक पंचानन से परिचित होंगे, जिनकी भेट हम अपने पढ़नेवालों को पहले करा चुके


[ ११५ ]हैं। इस प्रेम के दूसरे भ्रमर का बार-बार नामसंकीर्तन अनुप-

युक्त है। बस, समझ रक्खो, इस सौ अजान में यही एक सुजान हैं, जिसे हम प्रेम की फुलवारी का दूसराभ्रमर कह परिचय देते हैं। पंचानन ठठोल तो था ही, पर इसका ठठोलपन सबके साथ एकसा नहीं रहता था। किसी तरह के तरदुद, फिकिर और चिंता से इसे चिढ़ थी। किंतु जब अपने किसी एकांत प्रेमी को तरद्दुद में पड़ा देखता था, तो जहाँ तक बन पड़ता था, आप भी उसे तरद्दुद से बाहर करने को भिड़ी तो जाता था। इस समय चंदु को कुछ न सूझा, और कोई बात मन में न आई कि कैसे सेठ के घराने को दुर्गति से बचावें, केवल इतना ही कि पंचानन से मिल इससे इसकी कुछ सलाह करें; इसलिये कि पंचानन अदालती कार्रवाइयों को भरपूर समझता है; वह कोई ऐसी बात निकालेगा कि जिससे भरपूर निस्तार हो जाय। यद्यपि इन दोनों की गाढ़ी मैत्री तो थी, पर पंचानन अपनी ठठोल आदत से बाज़ न आ चंदू को 'चकोर' कहता था, और चंदू भी इसे 'चारु चं चरीक' कहा करते थे। आज अपने यहाँ भोर ही को चंदू को आए देख पंचानन बोले– 'आज चकोर को दिन में चकाचौंधी कैसी ? क़ु सूर माफ 'अद्य 'प्रातरेवानिष्टदर्शनम्'।"

चंदू–सच है, अनिष्ट-दर्शन भी इष्ट-दर्शन न हुआ, तो चारु चंचरीक के चिरकाल का प्रेम कैसा ?

पंचानन–आप तो जानते ही हैं कि कुशल-प्रश्न के पूछने में [ ११६ ]कैसी पेचिश उठा करती है, इससे मैंने यही बेहतर समझा कि इस आदत से बाज रहूँ। और, फिर वह प्रेम ही क्या,जब इस प्रेम के बारा के माली को प्रेम-पुष्प की सुगंधित कली हृदय के आलबाल में खिल परस्पर एक दूसरे को प्रमुदित न कर सकी।

चंदू–सच है, यदि उस आलवाल के चारों ओर कटीले पौधे न उग आए हों, इसलिये जब तक उन कटीले पौधों को उखाड़ न डालेगा, तब तक उस माली की सराहना ही क्या?

पंचानन–खैर, आप भी इस दुर्नयवी पेच में आ फंसे। "वाद मुद्दत के फॅसा है यह पुराना चंडूल !” (हॅसता है)

चंदू–मित्र. अब इस समय ठठोलबाज़ी रहने दो, कोई ऐसी बात सोचो, जिसमें सेठ के घराने की पत रह जाय। हम लोग निरे पोथी बॉचनेवाले अदालत की कार्रवाइयॉ और क़ानून के पेचों को क्या समझे। तुम अलबत्ता इसमें परिपक्व-बुद्धि हो। कोई ऐसी बात सोचके निकालो कि इन दोनों बावुओं का निस्तार हो, नंदू और बुद्धदास को अपने किए का फल मिले।

पंचानन-जी हॉ, बावुओं ने तो समझा था कि बढ़के हाथ मारा है। रकम इतनी हाथ लगती है कि कुछ दिन के लिये चैन है। अच्छा, तो मैं अब इस बात की खोज करुँगा कि वह जाली दस्तावेज किस ढग पर लिखा गया है, और वावुओं की साजिश उसमे कहाँ तक है। तो अब इस जून तो आप पधारे. हम इसकी फिकिर करेगे, पर पुलीस के कुत्तों का मुॅह मार पिंड छुटवाना वाजिब है । [ ११७ ]अस्तु। चंदू ने उन दोनों के बचाने को क्या किया, सो आगे खुलेगा। पंचानन को जी से लग गई कि अपने मित्र चंदू की इच्छा पूरी करे। अब यह सोचने लगा कि क्या उपाय होना चाहिए कि चंदू का मनोरथ भी सिद्ध हो, और उन दोनो बदमाशों को उनके किए का फल मिले। पंचानन चालाकी और कानूनी बारीकियों के समझने में किसी से कम न था, बल्कि उस प्रांत के नामी वकील पेचीदह मुकदमों में बहुधा इसकी राय लिया करते थे। कभी-कभी तो ऐसा भी हुआ है कि जिस मुकदमे में इसने जैसी राय दी, वह हाईकोर्ट तक बहाल रही। बड़े-बड़े जालियों को यह बात-की-बात में ऐसा पकड़ लेता था कि उनकी एक भी नहीं चलती थी। पर इन सब गुणों के रहते भी इसे जो सच्चा, न्याय और इंसाफ होता था, वही पसंद आता था। "सॉच को ऑच क्या" यह पालिसी हमेशा इसे रुचा की। इसलिये इसको यही पसंद आया कि हीराचंद के दोनों वंशधर खुद अदालत में जाय हाजिर हों और जो सच हो, सो कह दें। इससे वे दोनों तो जरूर हो फॅस जायॅगे, और बाबुओं के बचाव की कोई सूरत निकल आवेगी। अब रह गया इनका एकरार कर देना, इस पर बहस और तक़रीर की बहुत कुछ गुंजाइश रहेगी। सच, पूछो, तो बड़े-बड़े बैरिस्टर और वकील जो हजारों एक दिन की बहस मुअकिल से पुजाय बेचारे को उलटे छुरा मूड़ भरपूर अपना मतलब गॉठते हैं, सो इसी [ ११८ ]तकरीर और बहस की बदौलत । वाह ! धन्य विधाता.! यह जो प्रचलित है कि "बात की करामात' सो क्या ही सटीक है। बात में बात पैदा कर देना अॅगरेजी ही कानून हमे सिखाता है। पर तोफगी तो यह, जैसा मसल है "चोर से कहो चोरी करे, शाह से कहो जागता रहे।" इसी का नाम है। हमे क्या, हमे तो दिलबहलाव चाहिए, हम मुक़दमों की पेचीदगी ही में अपना दिलबहलाव निकाल लेते हैं। पर सच पूछो तो ( Litigation ) कानून की बारीकियाँ ही बेईमानी और फरेब लोगों को सिखा रही हैं। इसी से मुझे यही इसमें बचाव की सूरत मालूम होती है कि बाबू जो कुछ सच्चा हाल हो, अदालत मे जा एकरार कर दे। कानून की मशा है कि जुर्म करनेवाला कुसूरवार नहीं है, बल्कि वह जो उस जुर्म का उसकानेवाला होता है। ऐसा होने से मुकदमे में वहस की कई सूरतें पैदा हो जायॅगी। कदाचित् बड़े सेठ के रईस घराने पर रहम कर हाकिम बाबुओं की रिहाई कर दे।

  1. * यों तो संसार मे बहुत प्रकार के बंधन हैं, किंतु प्रेम की डोरी का
    बंधन कुछ और ही प्रकार का है । देखिए, जो भ्रमर काठ के छेदने में निपुण
    है, वही भ्रमर प्रेम के वश में हो कमल में बंधकर लाचार हो जाता है।