सौ अजान और एक सुजान/८

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सौ अजान और एक सुजान  (1944) 
द्वारा बालकृष्ण भट्ट
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आठवाँ प्रस्ताव

कोयला होय न ऊजरो सौ मन साबुन लाय ।

यद्यपि इन दोनो बाबुओं की ऑख का पानी ढरक गया था, शरम और हया को पी बैठे थे, कार्य-अकार्य में इन्हें कुछ संकोच न रहा, धृष्टता, अशालीनता और बेहयाई का जामा पहन सब भाँति निरंकुश और स्वच्छंद बन गए थे ; पर उस दिन इनका पुलीस के घेरे में आ जाना और बसंता के साथ इनकी भी लेव-देव करने पर लोगों की ताक देख दोनो कुछ- कुछ सहम-से गए, और मन-ही-मन अपनी कुचाल पर कायल होने लगे। वह आदमी, जिसे हम सौ अजान में एक सुजान कहेंगे, और जो इन दोनो को भीड़ से बाहर निकाल लाया, जिसका पूरा परिचय हम अपने पाठकों को दे चुके हैं, उसने इन्हें घर पहुँचाय इनसे बिदा मॉगी। ये दोनो अत्यंत लजित थे। ऑख इसके सामने न कर सके। सिर नीचा किए घर तक गाड़ी पर बैठे चले आए। गाड़ी से उतरते भी इनकी कुछ बोलने की हिम्मत न होती थी; कितु उनके उस समय के हृद्गत भाव से प्रकट होता था कि ये दोनो उस महात्मा सुजान के बड़े एहसानमंद हैं। इन्हें अत्यंत लज्जित और बुझा मन देख यह बोला-"बाबू, तुम कुछ मत डरो, न किसी तरह का संकोच मन में लाओ। बीती बात का अब विचार ही क्या ? 'गतं न शोचामि ।' आगे के लिये सॅभलकर चलो। अभी कछ बिगड़ा नहीं, सवेरे का भूला साँझ को घर आवे, [ ४४ ]
तो उसे भूला न कहेंगे । अब इस समय तो रात हो गई, थके- थकाए हो, जाओ, खा-पीकर आराम करो। कल सबेरे मैं तुम्हारे यहॉ फिर आऊँगा।” यह कहकर उसने अपने घर की राह ली।

अब नित्य के आनेवाले सन्नाटा पाय लौटने लगे। कोई कहता था-"आज क्या सबब, जो बाबुओं के बैठने का कमरा बंद है। बसंता भी नही देख पड़ता । बाबुओं को भगवान् सलामत रक्खे, हम लोगों की घड़ी-दो घड़ी बड़े चैन और दिल्लगी में कटती है। हम लोग यहाँ बैठ कितना हल्ला- गुल्ला और धौलधक्कड़ किया करते हैं, पर बाबू साहब कभी चूँ नहीं करते।" दूसरे ने कहा-"सच है, रियासत के माने ही यह हैं । इस समय अब इस दहार में तो दूसरा ऐसा रईस नहीं है। हरकसेबाशद कोई आवे, यहाँ से आजुर्दा न लौटेगा।" तीसरे ने कहा-"सच है, इसमें क्या शक । बाबुओं की जितनी तारीफ की जाय, सब जा है । पर यार बसंता भी बड़ा, बेनजीर आदमी है । यह सब उसी के दम का जहूरा है। जब से वसंतराम का अमल-दखल हुआ, तब से हम लोगों ने भी इस दरबार में जगह पाई। बड़ी बात, मनहूस कदम उस पंडत का तो पैरा उड़ा। बसंता ही ऐसा था, जिसने हजार-हजार कोशिशों के बाद बाबुओं को उसके चंगुल से छुड़ाय आजाद किया। न जानिए कहाँ का मरा बिलाना कुंदेनातराश इस दरबार में आ भिड़ गया था।"

इधर इन दोनो सेठ के लड़कों में बड़े को, जिसे छोटे की
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अपेक्षा कुछ-कुछ समझ आ चली थी, मन में भाँति-भॉति का हरन-गुनन करते टाइमपीस पर घंटा और भिनट गिनते नींद न पड़ी। रात भोर हो गई। चिड़िया चहचहाने लगीं; स्कूल के पढ़नेवाले परिश्रमी बालक ब्राह्मी वेला समझ अपना-अपना पाठ घोख-घोख सरस्वतीदेवी का अनुशीलन करने लगे। प्रत्येक घरों में वृद्धजन समस्त दिन के कल्याणसूचक हरि के पवित्र नामोच्चारण में तत्पर हो गए; चंडूखानों में अफीमची और चंडूबाजों की रात-भर की पार्लियामेंट के बाद पीनक की सुखनींद का प्रारंभ हो गया; आस-पास मंदिरों में मंगला- आरती के समय का सूचक घड़ियाली और शंख-शब्द सुन भक्त जन जय-जय कहते दर्शन के लिये दौड़े फेरीवाले भिख- मंगे भोर ही अलापते गलियों में घूमने लगे; पौफट होते ही अपनी प्रेयसी निशा-नायिका का वियोग समझ चंद्रमा के मुख पर उदासी छा गई । बने-बने के सब साथी होते हैं, बिगड़े समय कोई साथ नहीं देता, मानो इस बात को सिद्ध करते हुए अपने मालिक चंद्रमा को विपत्ति में पड़ा देख नमकहराम नौकर की भॉति तारागण एक-एक कर गायब होने लगे ; अथवा काल-कैवर्त ने आकाश-महासरोवर में निशारूपी जाल बड़ी दूर तक फैलाय जीती हुई मछली की भाँति सबों को एक साथ समेट लिया; अथवा यों कहिए कि सूर्य लका कबूतर की तरह अपनी काबुक से निकलते ही चावल की बड़ी-बड़ी किनकी-से इन तारों को एक-एक कर
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सबों को चुग गया ; अथवा प्रातः संध्या अपने रक्तोत्पल- सहश हाथ को सब ओर फैलाय-फैलाय अपनी प्रिय सखी. वासर-श्री का उसके कांत दिनमणि सूर्य से मिलने का समय जान, इन तारा-मौक्तिकों का हार उसके लिये गूंथने को इन्हें इकट्ठा कर रही है। अपने विजयी प्रभाकर की विजय-पताका- समान सूर्योदय की लाली सब ओर दिशा-विदिशाओं में छा जाते ही अंधकार का हृदय-सा मानो फट सौ-सौ टुकड़े हो गया। शनैः-शनैः उदयाचल बालमदार के फूलों का गुच्छा-सा, अथवा पूर्व-दिगंगना के लिलार पर रोली का लाल बेदा-सा, या उसी के कान का कुंडल-सा या आसमान-गंबज पर सोने का कलश-सा अथवा देवांगनाओं के मस्तक का शीस- फूल-सा अथवा चराचर विश्व-मात्र को निगल जानेवाले काल महासर्प का अडा-सा सूर्य का मंडल कमल के वन को प्रफुल्लित करता हुआ, चक्रवाक के विरहाग्नि को बुझाता हुआ, जगल जगत्मात्र के नेत्रों को प्रकाश पहुॅचाता हुआ श्रोत्रिय धर्मशील ब्राह्मणों को संध्या और अग्निहोत्र आदि कर्म मे प्रवृत्त करता हुआ पूर्व दिशा मे सुशोभित होने लगा।

सब लोग अपने-अपने रोज़मरे के काम मे प्रवृत्त हुए। बाबू भी रात-भर जागने की खमारी में अलसाने-से शौचकर्म और दतून-कुल्ला से फारिग हो अपने कमरे मे आबैठे । कितु आज रोज़ का-सा इनका चेहरा खश न था। देखते ही भासित हो जाता था कि चित्त में इनके कोई गहरी चोट का धक्का लग गया
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है। नौकर-चाकर तथा और सब लोग, जो इनके पास नित्य के आनेवाले थे, इन्हें उदास और बुझामन देख मन-ही-मन अनेक तरह के तर्क-वितर्क करने लगे। पर इनकी उदासी का कारण न जान सके।

इसी समय चंदू दूर से आता हुआ देख पड़ा। पंडि- ताई, नेकचलनी और पल्ले सिरे का खरापन इसके चेहरे पर झलक रहा था। इसकी गंभीरता और सागर-समान गुफ- गौरव में स्वच्छ उदार भाव मानो लहरा रहा था। इन बाबुओं की भलाई और खैरख्वाही इसे दिल से मंजूर थी। लल्लोपत्तो, जाहिरदारी और नुमाइश की ज़रा भी गुंजाइश इसके मिजाज में न पाय दुनियादारों की इसके सामने कुछ न चलती थी। जो लोग बाबुओं को फॅसाय अब तक बेखटके लूट-मार खा-पो रहे थे, उनके जी में खलबली-बैठ गई। कानोकान कहने- लगे-"क्या है, जो यह मनहूस-क़दम आज फिर यहाँ देखा पड़ा । इसके सामने अब हम लोगों की एक भी न चलेगी। बड़ी मुश्किलों से इसका पैरा यहाँ से बह गया था। क्या सबब हुआ, जो बाबुओं को आज इसकी फिर चाह हुई ?" चंदू को आता देख बाबू उठ खड़े हुए। इसके पॉव छू, हाथ पकड़ अलग कमरे में ले गए, और मना कर दिया कि यहाँ कोई न आवे । यहाँ बैठ इधर-उधर की दो-एक और बातें कहने के उपरांत चंदू बोला-

"बाबू, अब तुम्हे इन साथियों की परख हुई होगी। ये सब
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अपने मतलब के यार हैं, तुम्हें सब तरह पर बिगाड़ अपने-अपने घर बैठेंगे। सपूती के ढंग से बड़े सेठजी के दिखाए पथ पर जो अब तक तुम चले गए होते, तो तुम्हारे सुयश की सुगंध संसार में चौगुनी फैलती। सभ्य-समाज और बड़े लोगों में प्रतिष्ठा और इज्जत पाते; धन-संपत्ति भी चंद्रमा की कला-समान दिन-दिन बढ़ती जाती। बाबू, मै जी से तुम्हारा उपकार और भला चाहता हूँ; किंतु जब मैंने अपनी ओर तुम्हारी अश्रद्धा और अरुचि देखी, तो अलग हो गया। अस्तु। अब भी तुम चेतो, और अपने को सँभालो, अभी कुछ बहुत नहीं बिगड़ा। सेठजी के पुण्य-प्रताप से तुम्हें कमी किस बात की है? बाबू तुम ऐसे निरे मूर्ख भी नहीं हो, जो अपना भला-बुरा न समझ सकते हो। किंतु तुम भी क्या करो, यह नई जवानी का मदरूप अंधकार ऐसा ही होता है, जो नसीहत और उपदेश की सहस्रदीपावली की जगमगाहट से भी दूर नहीं हो सकता। इस उमर में जो एक प्रकार की खुदी सवार हो जाती है, जिसे दर्पदाहज्वर की गरमी कहना चाहिए, वह सैकड़ों शीतोपचार से भी नहीं घट सकती। विष-समान विषयास्वाद से उत्पन्न मोह ऐसा नहीं होता कि झाड़-फूँक और टोना-टनमन का कुछ असर उस पर पहुँचे।

"इस चढ़ती जवानी में यदि कहीं ईश्वर का दिया भोग-विलास का सब सामान और मनमानी धन-संपत्ति मिली, तो
[ ४९ ]शिक्षा, विज्ञान, चातुरी और फिलासफी सब उलटा ही असर पैदा करती हैं। उपदेश और विद्याभ्यास, दोनो इसीलिये है कि आदमी को बुरे कामों की ओर से हटाय भले कामों मे लगावे । यह एक प्रकार का ऐसा स्नान है, जो शरीर के नहीं, वरन् मन के मैल को धोकर साफ कर देता है। इस पुनीत तीर्थोदक में एक बार भी जिसने भक्ति-श्रद्धा से स्नान किया, वह जन्म-भर के लिये शुद्ध और पवित्र हो जाता है । और, इस तार्थोदक से स्नान का उपयुक्त समय यही था। सेठजी-से बुद्धिमान् यह सब सोच-समझ तुम्हें मेरे सिपुर्द कर आप निश्चिंत हो बैठे थे। मैंने पहले ही कहा कि श्रद्धा इसके लिये पहली बात है। जब उसमें कमी देखी गई, तो मै अलग हो गया। फिर भी सेठजी का पूर्व-उपकार समझ जी न माना, इसलिये आज फिर मैंने तुम्हें एक बार और चिताने का साहस किया। आशा है, अब आप मेरे इस कहने पर कान देगे, और अपने काम-काज मे मन लगावेगे।

"तुम्हें चाहिए कि तुम ऐसे ढंग से चलो कि भले मनुष्यों में तुम्हारी हॅसी न हो; बड़े लोग तुम्हें धिक्कारे नहीं; तुम्हारे हितैषी तुम्हारा सोच न करे; धूर्त भॉड़-भगतिए तुम्हें ठगे नही; चतुर सुजान तुम्हारा निरादर न करे;खु़शामदी लोग अपने कपट-जाल में तुम्हें फॅसाय शिकार न वनावे; ओछे और टुच्चों की सोहवत से दूर हटते रहो । बुद्धिमान् लोग

कह गए हैं– [ ५० ]

नाक, लाज अरु आफ़त काज—
द्रव्य बचा के राखो साज।

"यह मत समझो, सेठजी की कमाई सदा ऐसी ही स्थिर बनी रहेगी। बराबर ख़र्च करते रहो, और उसमें मिलाओ कभी कुछ नहीं, तो असंख्य धन भी नहीं रह जाता। और भी कहा है—

घर का ख़र्च देखा करो;
भारी देखो, हलका करो।

"बाबू, अभी तुम्हें नहीं मालूम होता, पीछे पछताओगे। चिकने मुँह के ठग की भाँति इस समय सभी तुम्हारी हाँ में हाँ मिलाते हैं। पीछे तुम्हारी छाया तक बरकाने लगेंगे। कहावत है—'छूछा, तोहिं को पूछा?'

तिहीदस्ती भी चलाती है कहीं अच्छी चाल;
ख़ाली थैली न खड़ी होती कभी लक्खों साल।

'मन नहिं सिधु समाय।' इस मन की उमंग को बढ़ाते क्या लगता है। एक बात में ज़रा-सा तरहदारी और अच्छेपन का दखल-भर होना चाहिए। अच्छी धोती को अच्छा अँगरखा, अच्छी पगड़ी न होगी तो सजावट और तरहदारी कोसों दूर भगेगी। जब अच्छा दुशाला हुआ, तो मोतियों की माला क्यों न हो। नफ़ीस पोशाक के लिये नफ़ीस सवारियाँ भी होनी चाहिए। जब सवारी हुई, तो दस-पाँच यार-दोस्त क्यों न हों? अब खान-पान, लेन-देन सब [ ५१ ]उज्ज्वल होने की ओर ख्याल दौड़ा। तात्पर्य यह कि एक बात में भी जहाँ ज़रा-सी तरहदारी और अच्छेपन को जगह दी गई कि वह रुई की आग हो जाती है। किसी ने सच कहा है—

एक शोभा के लिये मन मारा,
तो किया अनेक पीड़ा से निस्तारा।

"बाबू, तुम समझते हो सदा दिन ही रहेगा, रात कभी होगी ही नहीं। बड़े सेठ साहब कितनी मेहनत और उद्योग से तुम्हारे लिये कुबेर की-सी संपदा संचित कर गए हैं। तुम्हारी सपूती इसी में है कि तुम उसे बनाए रहो। तुम कहोगे, यह जाति का दरिद्र ब्राह्मण अमीरी की क़दर जाने क्या! पर मैं कहता हूँ, वह अमीरी किस काम की, जिससे पीछे, फक़ीरी झेलनी पड़े। सच है—

धनवंतों के घर के द्वार।
सब सुख आवै बारबार।
जिसके होवै पैसा हाथ,
उसका देवैं सब कोई साथ।
उद्योगी के घर पर अड़ी
लक्ष्मी झूमें खड़ी-खड़ी।

"धनी के पास सब आते हैं, वह किसी को ढूँढ़ने नहीं जाता। कहा है—

प्यासा ढूँढै मीठा कूप;
कूप न ढूँढै प्यासा भूप।

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"बाबू, मैंने यावत् बुद्धिबलोदय तुम्हें चिताने में कोई बात उठा नहीं रक्खी । मानना-न मानना तुम्हारे अधीन है-

"स्याने को जरा इशारा; मूरख को कोडा सारा।"

यह कह चंदू उठ खड़ा हुआ । बाबू ने बड़ी नम्रता-पूर्वक प्रणाम किया । चंदू आशीस दे घर की ओर चंपत हुआ। कुछ दिन तक इसकी नसीहत का बाबू पर बड़ा असर रहा, और ठीक-ठीक क्रम पर चला किया।अत को हज़ार मन साबुन से धोते रहो, वही कोयले का कोयला।

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