सौ अजान और एक सुजान/९

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सौ अजान और एक सुजान  (1944) 
द्वारा बालकृष्ण भट्ट

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नवाँ प्रस्ताव

चार दिना की चाँदनी, फिर अंधियारा पाख ।

चदू के उपदेश का असर बड़े बाबू पर कुछ ऐसा हुआ कि उस दिन से यह सब सोहबत-संगत से मुंह मोड़ अपने काम में लग गया। सवेरे से दोपहर तक कोठी का सब काम देखता-भालता था, और दोपहर के बाद दो बजे से इलाकों का सब बंदोबस्त करता था। वसूल और तहसील की एक- एक मद खुद आप जाँचता था । उजड़े असामियों को दिलासा दे ओर उनकी यथोचित सहायता कर फिर से बसाता था, और जो कारिंदों की गफलत से सरहंग हो गए थे, उन्हे दबाने और फिर से अपने कब्जे में लाने की फिक्र करता था। सुबह-शाम जब इन सब कामो से फुरसत पाता था, तो गृहस्थी के सब इंतजाम करता था। भाई-बिरादरी, नाता[ ५३ ]
रिश्ता तथा हबेली में किस बात की ज़रूरत है, इसकी सब सलाह और पूछ-ताछ नित्य घड़ी-आध घड़ी अपनी मां से किया करता था। इसकी मां रमादेवी अब इसे सुचाल और क्रम पर देख मन-ही-मन चदू की बड़ी एहसानमंद थी, और जी से उसे असीसती थी । चदू का इन बाबुओं से यद्यपि कोई लगाव न रह गया था, पर रमादेवी से सब सरोकार इसका वैसा ही बना रहा, जैसा हीराचद से था। रमा बहुधा चंदू को अपने घर बुलाती थी, और कभी-कभी खुद उसके घर जाय इन बाबुओं का सब हाल और रग-ढंग कह सुनाती था । चदू पर रमा का पुत्र का-सा भाव था. बल्कि इन दोनो की कुचाल से दु:खी और निराश हो चंदू को इसने अपना निज का पुत्र मान रक्खा था । रमा यद्यपि पढ़ी- लिखी न थी, पर शील और उदारता में मानो साक्षात् शची- देवी की अनुहार कर रही थी। पुरखिन और पुरनियॉ स्त्रियों के जितने सद्गुन हैं, सबका एक उदाहरण बन रही थी। सरल और सीधी इतनी कि जब से अपने पति हीराचंद का वियोग हुआ, तब से दिन-रात में एक बार सूखा अन्न खाकर रह जाती थी। सब तरह के गहने और भाॅति-भॉति के कपड़ों के रहते भी केवल दो धोतियों से काम रखती थी। कितनी रॉड-बेवाओं और दीन-दुखियाओं को, जिन्हें हीराचंद गुप्त रूप से कुछ-न-कुछ दिया करते थे यह बराबर अपनी निज की पॅजी से, जो सेठ इसके लिये अलग कर गए थे, बराबर
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देती रही। शील और संकोच इसमें इतना था कि जो कोई इसे अपनी जरूरत पर आ घेरता था. उसके साथ, जहाॅ तक बन पड़ता था, कुछ-न-कुछ सलूक करने से नहीं चूकती थी। घर के इंतजाम और गृहस्थी के सब काम-काज में ऐसी दक्ष थी कि बहुधा जाति-बिरादरीवाले भी काम पड़ने पर इससे आकर सलाह पूछते थे। बूढ़ी हो गई थी, पर आधा घूघट सदा काढ़े रहती थी। केवल नाम ही की रमा न थी, गुण भी इसमे सब वैसे ही थे, जिनसे इसका रमा यह नाम बहुत उचित मालूम होता था। प्रायः देखा जाता है कि सास और बहुओं में और बहू-बहू में भी बहुत कम बनती है, और इस न बनने मे बहुधा हम उन कमबख्त सासों ही का सब दोष कहेंगे, क्योंकि बहू बेचारी का तो पहलेपहल अपने मायके से ससुर के घर मे आना मानो एक दुनिया को छोड़ दूसरी दुनिया में प्रवेश करना है, फिर से नए प्रकार की जिंदगी में पॉव रखना है , जिसे यहाँ कुछ दिनो तक सब जितनी बातें नई-नई देख पड़ती हैं। जैसे कोई पखेरू, जो पहले स्वच्छंद मनमाफिक विचरा करता था, पिंजड़े मे एकबारगी लाय बंद कर दिया जाय, सब भॉति पराधीन, आजादगी को कभी ख्वाब में भी दखल नहीं, अतिम सीमा की लाज और शरम ऐसा गह के इसका ऑचल पकड़े रहती है कि अभी एकदम के लिये भी छुट्टी नहीं दिया चाहती। इस दशा में जो चतुर-सयानी घर की पुरखिने है, वे ऐसे ढग से साम-दाम के साथ नई बहुओं
[ ५५ ]से बरतती हैं कि उन्हें किसी तरह का क्लेश न हो, और सब भाँति अपने बस की भी हो जायँ। सास यदि फूहर और गँवार हुई, तो दोनो में दिन-रात की कलकल और दाँताकिट-किट हुआ करती है। इस हालत में वह घर नहीं, वरन् नरक का एक छोटा-सा नमूना बन जाता है। इस रमा का क्या कहना है, यह तो मानो साक्षात् कोई देवी थी। स्त्रियों के दुर्गुणों की इसमें छाया तक न आई थी। इसने अपनी दोनो बहुओं को ऐसे ढंग से रक्खा कि वे दोनों इसकी अत्यंत भक्त और आज्ञाकारिणी हुईं, और आपस में ऐसा मिल-जुलकर रहती थी कि बहन-बहन मालूम होती थी। यह कोई नहीं कह सकता कि ये देवरानी-जेठानी हैं। ससुरार के सुख के सामने मायके को ये दोनों बिलकुल भूल गईं। पाठकजन, हम आशा करते हैं, आप लोगों को ऐसी ही रमा की-सी घर की पुरखिन और दो सुशीला बहुओं की-सी बहू मिलें, जैसी सेठ हीराचंद और इन दोनो बाबुओं को मिली हैं।