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स्त्रियों की पराधीनता/२

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स्त्रियों की पराधीनता
जॉन स्टुअर्ट मिल, अनुवादक शिवनारायण द्विवेदी

कलकत्ता: हरिदास एण्ड कम्पनी, पृष्ठ ८२ से – १४० तक

 
दूसरा अध्याय।

१-अब तक स्त्रियों की पराधीनता का सामान्य विवेचन किया गया है। प्रारम्भ से इस विषय का विवेचन करते-करते हम जिस विभाग तक आ पहुँचे थे, अब उससे आगे का ही विवेचन करना ठीक है, अर्थात् अब हमें यह खोजना है कि इस देश तथा अन्य देशों के क़ायदों में कौन-कौन से बन्धन विवाह के क़ौल-करारों के आवश्यक परिणाम माने जाते हैं। विवाह करना ही स्त्रियों का परम कर्त्तव्य है, समाज की ऐसी अचूक शिक्षा प्रचलित रहने के कारण, और निरन्तर यह सिखाते रहने के कारण कि विवाह के द्वारा पुरुष के अधीन होने के सिवाय स्त्री की और कोई गति ही नहीं है, तथा विवाह-व्यवस्था पर झकमार कर उन्हें राज़ी होना ही पड़े, इस हेतु को सिद्ध करने के लिए सब सामाजिक और राजनीतिक दरवाजे उनके लिए बन्द कर दिये गये, तथा इस विषय की उनकी दाद-फ़रियाद सुनने के लिए रूढ़ि और नीतिशास्त्र के द्वारा सब के कान भर दिये है-यदि साधारण तौर पर हम विवाह के विषय में यही अनुमान करें तो इसमें कुछ भी बुरा नहीं कहा जा सकता। किन्तु स्थिति इससे निराली है। अपना हेतु सिद्ध करने के लिए समाज ने और बहुत सी बातों के समान इस में भी सीधा रास्ता छोड़ दिया है और उलटा पकड़ा है। पर उन बहुत सी बातों में पीछे से टेढ़े रास्ते को छोड़ कर सीधा ही रास्ता पकड़ा गया है, किन्तु केवल इस ही विषय में लोग अब तक वही टेढ़ा मार्ग पकड़े हुए हैं। प्राचीन समय में लोग स्त्रियों को ज़ोर-ज़ुल्म से छीन ले जाते थे या उनके मा-बापों को हाट के सौदे की तरह दाम देकर ख़रीद लेते थे। इस ही प्रकार योरुप के इतिहास को देखेंगे तो मालूम होगा कि थोड़े ज़माने पहले ही वहाँ लड़की के सुख का अधिक ख़याल नहीं किया जाता था, उसके बाप को हक़ होता था कि वह जैसे चाहे वैसे अपनी बेटी का विवाह अपनी इच्छा के अनुसार करे*[] और विवाह में लड़की से तो कुछ पूछने की आवश्यकता ही नहीं थी। ईसाई धर्म की विधि के अनुसार विवाह में कन्या को "हाँ" करनी पड़ती थी, पर यह हाँ राज़ी ख़ुशी की और सच्चे दिल की हो ही कहाँ से सकती थी अपने बाप के दबाव से कन्या को ज़बर्दस्ती हाँ करनी पड़ती थी; क्योंकि बाप के हठ के सामने कन्या का कोई वश नहीं था कि वह उसकी मन्शा में विघ्न डाले। अधिक से अधिक वह बिचारी यह कर सकती थी कि यदि उसके माता-पिता उसकी इच्छा के विरुद्ध करते थे तो वह धर्म-मन्दिर का आश्रय ले लेती थी और अपनी बाक़ी जीवनी तपश्चर्या और संन्यास में खो देती थी; कन्या जब यह मार्ग स्वीकार कर लेती थी तब पिता का उस पर अधिक ज़ोर नहीं चलता था, क्योंकि उस समय धर्माचार्यों की सत्ता बड़ी प्रबल थी। विवाह होते ही उसका पति उसके शरीर और आत्मा दोनों का स्वामी बन जाता था, तथा पति को अधिकार होता था कि वह अपनी स्त्री की चाहे जैसी दशा करे। मारने वाला वही होता था और जिलाने वाला भी वही, अन्य किसी को बीच में बोलने का बिल्कुल अधिकार नहीं था, कायदा भी पति की सत्ता के आगे व्यर्थ हो जाता था। पति को अधिकार होता था कि वह जब चाहे तब अपनी स्त्री का त्याग कर देवे, पर पति के विरुद्ध इस प्रकार का अधिकार स्त्री को नहीं होता था। यह स्थिति ईसाई धर्म के प्रचार से पहले थी। इंग्लैण्ड के पुराने क़ायदों के अनुसार पुरुष अपनी स्त्री का पति, प्रभु या "लॉर्ड" माना जाता था। पति को अपनी स्त्री का राजा भी कह सकते थे; क्योंकि पतिहत्या के दोष को क़ानून में छोटा सा राजद्रोह (petty treason) कहा गया है। और पति की हत्या करने वाली स्त्री को राजद्रोह से भी अधिक सज़ा दी जाती थी, वह जीती आग में जलाई जाती थी!! ऐसी अत्याचार से भरी हुई रूढ़ियाँ इस समय बन्द होगई हैं, इसलिए लोग समझने लगे हैं कि विवाह-सम्बन्ध में जो कुछ सुधार होना चाहिए था वह हो चुका। लोग बार-बार इस बात की पुकार मचाते हैं कि सुधार और ईसाई धर्म इन दोनों के कारण स्त्रियों का जितना सुधार होना चाहिए उतना हो चुका। पर सच बात तो यह है कि आज भी स्त्री का दरजा पति के घर की दासी के बराबर ही है और जो क़ानून की दृष्टि में देखेंगे तो उसका स्थान ग़ुलामों से बढ़ कर नहीं है। विवाह के समय उसे जन्मभर पति की ताबेदारी में रहने की प्रतिज्ञा करनी पड़ती है, और उससे इस प्रतिज्ञा को पूरी कराने के लिए क़ानून सदा तैयार रहता है। बहुत से कहेंगे कि पति की आज्ञा में रहना स्त्री का मर्यादित कर्त्तव्य ही है, क्योंकि उदाहरण के तौर पर यदि पति स्त्री को किसी दोष में शामिल रहने के लिए कहे तो उसे क़ानून के अनुसार नाँ हीं कर देने का हक़ है; पर यह तो निश्चित है कि बाक़ी और सब बातों में उसे पति का कहना करना ही पड़ेगा-पति का यही अनियंत्रित अधिकार है। पति की आज्ञा के बिना स्त्री को किसी काम के करने की इजाज़त नहीं है। स्त्री जो कुछ सम्पत्ति प्राप्त करे उस पर नियमानुसार उसके पति का हक़ होता है। वारिसों के हक़ से छूट कर जो सम्पत्ति स्त्री की कहलाई उसी पर झट से पति का हक़ हुआ। इस स्थिति में पड़ी हुई इंग्लैंड देश की स्त्रियाँ अन्य देशों के ग़ुलामों से भी ख़राब थीं। उदाहरण के तौर पर रोमन लोगों के क़ायदे के अनुसार प्रत्येक ग़ुलाम की दासधन (Peculium) नामक थोड़ी बहुत स्वाधीन पूँजी होती थी, और अपनी इच्छा के अनुसार उसका प्रबन्ध करने का उसे अधिकार होता था, इस धन पर उसके स्वामी या और किसी का कोई अधिकार नहीं पहुँचता था। इस देश (इँग्लैण्ड) में भी भूस्वामी-वर्ग कानून को रद करके रोमन लोगों के अनुसार अपनी स्त्रियों को विशेष ख़र्च के लिए कुछ देते हैं, जिसे स्त्रीधन (piu-money) कहते हैं। लड़की के पिताका प्रेम स्वाभाविक रीति से दामाद की अपेक्षा लड़की पर अधिक होता है, यह एक स्वाभाविक नियम है, क्योंकि चाहे जो हो पर फिर भी दामाद पराया ही है। इसलिए बहुत से धनी अपने धन की व्यवस्था कर जाते हैं कि उनकी बेटी को जो सम्पत्ति उनकी वसीयत से मिलेगी उसका तमाम या थोड़ा सा भाग भी दामाद के हाथ न पड़े- अर्थात् विवाहित होने पर भी लड़की ही उसकी अधिकारिणी बनी रहे। पर इस प्रकार की व्यवस्था से भी यह बात तो पैदा नहीं की जा सकती कि उस सम्पत्ति पर उस लड़की का ही पूरा स्वत्व बना रहे, यह कैसे हो सकता है। जियादा जियादा यही किया जा सकता है कि उसके ख़ाविंद को उस सम्पत्ति के बर्बाद करने का हक़ न हो, पर वह उसके मालिक यानी स्त्री से भी पूरी उपभोग में नहीं लाई जा सकती। अर्थात् प्रत्यक्ष सम्पत्ति तो और किसी के अधिकार में नहीं आ सकती; और उसकी पैदाइश के बारे में भी यदि कोई पिता अपनी पुत्री का अधिक से अधिक हित करे तो यह हो सकता है कि उसका पति उस सम्पत्ति की पैदाइश बालाबाला नहीं ला सकता-यानी उसकी आमद भी बेटी के ही हाथ में पहुंँचे। पर स्त्री के हाथ में आई हुई रक़म उसका पति यदि ज़बरदस्ती भी उससे छीनले तो उसकी फ़र्याद सुनने वाला कोई नहीं है। छीन लेने पर उसे क़ानूनन सज़ा भी नहीं होसकती और यह आज्ञा भी नहीं दी जासकती कि स्त्री को वह रकम वापिस देवे। इस देश (इँग्लैण्ड) के नियमों के अनुसार सब से अधिक प्रबल भूस्वामी-वर्ग भी यदि अपनी पुत्री की पति से रक्षा करना चाहे तो वह भी मजबूर है*[]। बाक़ी और स्त्रियों के साथ तो इस प्रकार की कोई व्यवस्था होती ही नहीं, इसलिए स्त्रियों के तमाम अधिकार, सम्पूर्ण सम्पत्ति, सम्पूर्ण व्यावहारिक स्वाधीनता पर पति का पूरा अधिकार हो जाता है। क़ानून की दृष्टि में स्त्री और पुरुष मिल कर एक व्यक्ति ही माना जाता है, पर इसका अर्थ इतना ही होता है कि जो कुछ स्त्री का है वह उसके पति का ही है। इससे उलटा यह अर्थ कोई नहीं करता कि जो कुछ पति का है वह सब स्त्री का ही है। दूसरे शब्दों में कहें तो "जो कुछ तेरा सो मेरा, और मेरा सो है ही" यही पुरुषों का नियम है। पुरुषों के विरुद्ध इस प्रकार का न्याय कभी नहीं किया जाता। जैसे अपने जानवर या अपने ग़ुलाम के काम का जवाबदार उसका मालिक समझा जाता है, स्त्रियों के विषय में उनके पति वैसे ही समझे जाते हैं। इस बात से मेरा मतलब यह नहीं कि पुरुष स्त्रियों के प्रति जो बर्ताव करते हैं वह ग़ुलामों से किसी प्रकार अच्छा नहीं होता; पर स्त्रियाँ पुरुषों की पराधीनता में रह कर जिस परिमाण में ग़ुलामी भोगती हैं उस परिमाण में कोई पुरुष-दास भी ग़ुलामी नहीं भोगता। स्वामी की देख-रेख में रहने वाले दासों के सिवाय किसी ग़ुलाम को चौबीसों घण्टे ग़ुलामी नहीं भोगनी पड़ती। प्रत्येक दास का काम निश्चित होता है, उसे पूरा करने के बाद वह अपने बाक़ी समय को स्वाधीनता-पूर्वक बिता सकता है। फिर वह अपने कुटुम्ब का आनन्द उपभोग कर सकता है, उसका स्वामी भी उस में किसी प्रकार का विघ्न नहीं डालता। पर स्त्रियाँ तो ग़ुलामों के बराबर भी स्वाधीन नहीं हैं, बल्कि ग़ुलामों से निकृष्ट उनकी यह दशा है कि, यदि दासियों का स्वामी उनसे उनकी इच्छा के विरुद्ध सम्भोग-सुख प्राप्त करना चाहे तो वे कानूनन उसे रोक सकती है। पर विवाहित स्त्री को तो ऐसा कोई हक़ ही नहीं है। दुर्भाग्य से स्त्रियाँ चाहे जैसे क़साई-प्रकृति वाले पुरुषों के अधीन हो गई हों, वह उन्हें चाहे जैसे हैरान करके आनन्द मनाता हो, और उसका बर्ताव सर्व्वथा ऐसा ख़राब हो कि उसकी ओर से स्त्री के मन में धिक्कार आती हो, फिर भी उसे ऐसा काम करने से जिसमें मनुष्य-प्राणी की घोर अवमानना भरी है, अर्थात् स्त्री की इच्छा के विरुद्ध उससे रतिसुख प्राप्त करने से क़ायदा उसे नहीं रोक सकता। इस प्रकार स्त्री को अपने मन, आत्मा और शरीर बेच कर भी पतित से पतित और नीच से नीच ग़ुलामी जन्म भर भोगनी पड़ती है; इतना ही नहीं बल्कि अपने पेट से पैदा हुए बच्चे के विषय में भी स्त्री का किसी प्रकार का अधिकार नहीं माना जाना। लड़के पर स्त्री और पुरुष दोनों का समान प्रेम होता है, और उसकी भलाई में दोनों को प्रसन्नता होती है, पर यह सब कुछ होते हुए भी क़ानून की नज़र से लड़का बाप की मिल्कियत समझा जाता है। और क़ायदे में मा-बाप का जो थोड़ा सा हक़ भी माना जाता है, उसे भी बाप ही भोगता है। बाप की सम्मति के बिना मा लड़के के विषय में अपने आप कुछ नहीं कर सकती। बाप के मरने के बाद भी मा लड़के की वारिस नहीं करार दी जाती,-केवल वसीयत के अनुसार जिसे वह अधिकारी बना गया हो वही वारिस होता है। यदि बाप चाहे तो लड़के को मा से अलग कर सकता है, और यह भी कर सकता है कि उन दोनों को कभी मिलन न देवे, उनका पत्र-व्यवहार भी न होने देवे। क़ानून ने स्त्रियों की यह दशा बना डाली है, और उनके हाथ में ऐसा कोई साधन है ही नहीं कि जिसके सहारे वे ऐसी पराधीनता से छुटकारा पा सकें। यदि वे अपने पति को छोड़ कर जाना चाहें, तो वे अपने साथ अपने लड़के को भी नहीं ले जा सकतीं, इतना ही नहीं बल्कि वह धन, जो खास उनकी मिल्कियत है उसे भी अपने साथ नहीं ले जा सकतीं। पर यदि पति चाहे तो क़ानून के ज़ोर पर या शारीरिक बल पर ही स्त्री को अपने घर से निकाल सकता है और यदि वह यह भी न करके दूसरे रास्तों का भी सहारा पकड़े तब भी वह आजाद है। यदि अपनी भागी हुई स्त्री मिहनत-मज़दूरी करके कुछ कमावे, या उसे उसके रिश्ते-नाते वालों से कुछ सहायता मिले-और पति उसके हाथ में आई हुई वह रक़म छीनना चाहे तो छीन सकता है, पर क़ानून उस पर किसी तरह का एतराज़ नहीं कर सकता। यदि पति के आश्रय को छोड़ कर भागी हुई स्त्री को फाँसी की तख़्ती पर से भागे हुए कै़दी पर क्रोधित जेलर के समान पति के आश्रय में फिर न जाना पसन्द हो, और अपनी कड़ी मिहनत-मज़दूरी का पैसा यदि वह दुरात्मा पति से छीना जाना पसन्द न करती हो, तो उसे न्यायालय का आश्रय लेकर पति से न्यारी रहने का हुक्मनामा प्राप्त करना चाहिए। क़ानून की सहायता से अपने विवाह-सम्बन्ध को तोड़ने में आजतक इतना ख़र्च होता था कि रईस-घरानो की स्त्रियों को छोड़ कर साधारण स्त्रियाँ उनसे कोई लाभ नहीं उठा सकती थीं। इस समय यदि पति ने अपनी स्त्री घर के बाहर निकाल दी हो, या उसका उस पर बहुत ही घातकी व्यवहार हो-यदि इन दोनों बातों में से एक भी साबित न हो तब भी विवाह-बन्धन खुल जाता है, ऐसा होजाने पर लोगों की पुकार है कि तलाक़ देने का काम इस ज़माने में बड़ा ही सीधा होगया है। सचमुच समाज ने स्त्रियों को पति की ग़ुलामी के अलावा और कोई आज़ादी नहीं दी, इसलिए यदि स्त्रियों के सौभाग्य से उन्हें ऐसा पति मिलजाय जो उन्हें कम से कम बोझा ढोने वाला जानवर न समझ कर, पालतू जानवर ही समझे, तब ही उन्हें थोड़ा बहुत सुख मिलना सम्भव है। फिर जिस पति पर उसके सम्पूर्ण जीवन के सुख-दुखों का आश्रय है और सदैव जिसको ग़ुलामी करनी है, उसकी जाँच करने का केवल एक ही अवसर मिलना क्या उसकी कमनसीबी नहीं है? इन सब बातों से यह अनुमान निकलता है कि उसका सम्पूर्ण सुख पति के अच्छे-बुरे निकलने ही पर है, फिर एक दूसरे की आज़माइश करके अच्छे-बुरे के पजोख लेने की आज्ञा उसे अवश्य होनी चाहिए। इस बात से मेरा मतलब यह नहीं है कि स्त्रियों को यह हक़ मिलना चाहिए, क्योंकि यह बात ही न्यारी है। इस विवेचना का विषय यह नहीं है कि एक पति के साथ वाले विवाह को रद करके दूसरे के साथ विवाह करने का हक़ स्त्री को होना चाहिए-यह मतलब नहीं है। मेरा कहना सिर्फ़ यह है कि समाज ने जिनके लिए ग़ुलामी का दरवाज़ा छोड़ कर और कोई रास्ता ही नहीं खोला, उन्हें इतनी आजादी ज़रूर मिलनी चाहिए कि वे ग़ुलामी के लिए अपना मालिक अपने-आप पसन्द करें, इससे उनके दुखों में थोड़ी-बहुत कमी हो ही होगी। इतनी सी भी आज़ादी न देना-उन्हें ग़ुलामी और नीची से नीची ग़ुलामी भुगवाने के समान है। क्योंकि जो मालिक अपने ग़ुलामों से अत्यन्त घातकी व्यवहार करते थे, उन्हें क़ानूनन अपने ग़ुलामों को बेचने के लिए मजबूर होना पड़ता था; पर इङ्गलैण्ड जैसे सुधरे हुए देश में पति अपनी स्त्री पर चाहे जैसा घातकी व्यवहार करे, पर जब तक न्यायालय में उसे व्यभिचारी साबित न किया जाय तब तक उस बिचारी का उस कसाई से छुटकारा नहीं हो सकता।

२-अपने बोलने में अतिशयोक्ति लाने की मेरी इच्छा नहीं है, और मेरा विषय भी ऐसा है जिस में अतिशयोक्ति की आवश्यकता भी नहीं है। मैंने क़ानून के अनुसार स्त्रियों की दशा का दिग्दर्शन कराया है, लोग प्रत्यक्ष रीति से उनके साथ कैसा व्यवहार करते हैं यह मैंने नहीं लिखा। बहुत से देशों के क़ानून उसे अमल में लाने वाले लोगों से भी अधिक ख़राब होते हैं, और बहुत से क़ानून जो क़ानून के रूप में टिके रहते हैं उसका कारण यह होता है कि उनका प्रयोग कहीं-कहीं ही होता है। क़ानून में स्त्री-पुरुषों की जैसी कल्पना की गई है, वैसी ही विवाहित स्त्री-पुरुषों की स्थिति यदि प्रत्यक्ष होती तो निस्सन्देह मनुष्य समाज नरक हो जाता। सद्भाग्य से मानसिक वृत्तियों का यह हाल होता है कि अपने अधीनस्थ पर अत्याचार कराने वाली जो कुप्रवृत्तियाँ होती हैं उन्हें मनुष्य की स्वार्थबुद्धि और अन्तःकरण की साधु वृत्तियाँ अपने अंकुश में रखती है, अर्थात् साधुवृत्तियों के कारण मनुष्य संयम में रहता है। पुरुष में स्त्री के प्रति जो मोह-माया होती है, वह ऐसी वृत्तियों का उत्कृष्ट उदाहरण है। ऐसी वृत्तियों का दूसरा अच्छा उदाहरण पिता-पुत्रका वात्सल्य प्रेम है; और यह सम्बन्ध पति-पत्नी के बीच में किसी प्रकार रुकावट न डाल कर उलटा उसे अधिक दृढ़ करता है। ऐसी दशा होने के कारण तथा ऊपर बताई हुई ममता के वश होकर पुरुष अपने अधिकार को पूरा काम में नहीं लाते, अर्थात् पुरुष स्त्री को जितना कष्ट दे सकते हैं उतना नहीं देते। इसलिए वर्त्तमान समाज-व्यवस्था के पक्षपाती यह सिद्धान्त निकालते हैं कि वर्त्तमान व्यवस्था के अनुसार स्त्री-पुरुषों के सम्बन्ध में जो कुछ ख़राबियाँ हैं वे क्षन्तव्य हैं और इसके विरुद्ध कुछ भी बोलना व्यर्थ है, क्योंकि प्रत्येक अच्छी बात के साथ कुछ न कुछ खोट लगा ही रहता है। क़ानून के अनुसार किसी प्रकार का अत्याचार करने की इजाज़त हो, पर प्रत्यक्ष व्यवहार में लोग बहुत ही सीधे और नरम बने हों, यानी क़ानून के आज्ञा होने पर भी अत्याचार न किया जाता हो, तो क्या इससे यह सिद्ध होता है कि उस अन्याय को अस्तित्त्व में रखना योग्य है; बल्कि इससे यही सिद्ध होता है कि प्रचलित रूढ़ि चाहे जितनी ख़राब और नीच हो, फिर भी मनुष्य-स्वभाव में ऐसी विलक्षण शक्ति होती है कि उसको टक्कर खाते हुए भी अपनी सुजनता प्रकट करती ही है। कुटुम्ब-व्यवस्था में एक आदमी के हाथ अनियन्त्रित सत्ता के सौंपने में और राज-व्यवस्था में एक आदमी के हाथ अनियन्त्रित सत्ता के सौंपने में कुछ भी अन्तर नहीं होता; एक पद्धति ने खण्डन या मण्डन में जो दलीलें काम में लाई जा सकती हैं, वे ही दूसरी पद्धति के खण्डन या मण्डन में भी लाई जा सकती हैं। ऐसा कभी नहीं होता कि अपने महल की खिड़की में बैठा हुआ राजा अपने ज़ुल्म से लम्बी आहें भरती हुई प्रजा को आनन्द से देखे, इस ही प्रकार प्रत्येक राजा यह भी नहीं करता कि कड़ाके की सरदी में अपनी दीन प्रजा के अङ्गों के चीथड़े उतार कर उन्हें थरथराते और मरते देखता रहे; पर ऐसा न होने पर भी क्या यह कहा जा सकता है कि सब प्रकार की राजपद्धतियों से एकसत्ताक राज्यतन्त्र अच्छा है? फ्रान्स के सोलहवें लुई का राज्य फिलिप, लीवेल, नादिरशाह और कालीगुला आदि इतिहासप्रसिद्ध घोर अत्याचारी राजाओं के समान नहीं था, फिर भी उसने जो कुछ अत्याचार किया था वह उसकी प्रजा को राज्यक्रान्ति कर देने के लिए काफी था, और उस राज्यक्रान्ति में जितने भयङ्कर और निन्द्य काम कर डाले गये वे सब राजकीय अत्याचार के सामने फीके थे। कदाचित् कोई यह कह सकता है कि स्त्री पुरुष का सम्बन्ध यदि अत्याचार की ही नींव पर स्थापित किया गया है तो, बहुत बार उन में जो अलौकिक प्रेम दिखाई दे जाता है, वह कैसे सम्भव हो सकता है? तो इसका उत्तर केवल यही है कि ग़ुलामी के इतिहास में भी ग़ुलाम और मालिक की वफ़ादारी के ऐसे बहुत से उदाहरण मिल जाते हैं। रोम और ग्रीस के इतिहास में बहुत से ग़ुलामों ने अपने मालिकों को विश्वासघात करके फँसाने की अपेक्षा उनके बदले ख़ुद अपनी जान दी है, ऐसे उदाहरण बहुत मिलते हैं। ग्रीस और रोम के आन्तरिक विग्रहों (civil wars) में बड़े-बड़े आदमियों को देहान्त-दण्ड, देश-निकाले आदि की सज़ा हो जाती थी। ऐसे नाज़ुक मौक़ों पर बेटों ने अपने बापों को फँसवा दिया है, किन्तु स्त्रियों और ग़ुलामों ने ऐसे अवसरों पर अचल स्वामिभक्ति और विलक्षण धैर्य्य दिखाया है-ऐसे उदाहरणों से इतिहास के पृष्ठ भरे पड़े हैं। इतना होते हुए भी, उन्हीं इतिहासों में उन्हीं ग्रीकों, रोमन लोगों के द्वारा ग़ुलामों पर घोर अत्याचार होने की बात लिखी है। पर इस पर आश्चर्य करने की कोई बात नहीं है; क्योंकि जहाँ कड़ी से कड़ी रूढ़ियाँ प्रचलित होती हैं, वहीं स्वामिभक्ति, पति-निष्ठा, अनन्य प्रेम आदि तीव्र मनोधर्म भी अपने आप फूट निकलते हैं। इस संसार में जो अनेक प्रकार की विलक्षण बातें हैं, उन में से ही एक यह भी है कि जिन मालिकों के हाथ में सम्पूर्ण सत्ता होती है और वे अपने अधिकार को भयानक कड़ाई से काम में न लाकर सह्रदयता और मनुष्यता से काम में लाते हैं तो उनके अधीनस्थों में जैसी भक्तियुक्त कृतज्ञता उत्पन्न होती है, वैसी अनन्यभक्ति और कहीं देखने को नहीं मिलती। बहुतों की धार्मिक निष्ठा में यह भावना बड़ी प्रबल होती है, और इसका हम विचार ही न करें तो अच्छा है। क्योंकि हम देखते हैं कि, पड़ोसियों की अपेक्षा मुझ पर ही परमेश्वर की कृपा विशेष है, यही विचार करके बहुत से लोग परमेश्वर का आभार मानते हैं।

जिस रूढ़ि या जिस विचार की रक्षा करनी होती है वह चाहे ग़ुलामी हो, चाहे अनियन्त्रित राजसत्ता हो, या कुटुम्ब के अगुआ की अनियन्त्रित सत्ता ही हो-उसके हिमायती उसके अच्छे-अच्छे उदाहरण सामने रख कर उस रूढ़ि की योग्यता और न्यायपुरस्सरता सिद्ध करने को तैयार हो जाते हैं। उनके प्रतिपादन करने की शैली इस प्रकार होती है,-"अहाहा देखोओ, अमुक-अमुक अनुष्य अपने अधिकारों को कितने सदय अन्तःकरण से पूरा करते हैं, और उनके अधीनस्थ जन उनके प्रति कितना प्रेम और नम्रता प्रकट करते हैं, ये सेव्य पुरुष प्रति दिन ऐसा ही काम करते हैं जिससे उनके आश्रितों का भला हो। और उनके सेवकों की मुखाकृति सदैव कैसी प्रसन्न बनी रहती है, मानो अपने मालिकों की मङ्गलकामना करते हों!!" पर यदि कोई यह प्रतिपादन करना चाहे कि संसार में सर्व्वथा भला मनुष्य होना ही दुर्लभ है—तो उसके उत्तर में ऊपर कहे हुए शब्द अवश्य ही सयुक्तिक होंगे। यदि कोई अनियन्त्रितसत्ता भोगने वाला मनुष्य सुशील और सदय अन्तःकरण वाला हो, तो उसके अधिकार में रहने वाले मनुष्य सुखी होंगे, और उसके प्रति शुद्ध स्वामिभक्ति और स्नेह करेंगे,-इससे इन्कार कौन करता है? इस पर सन्देह ही कौन करता है? पर क़ानून ऐसे अच्छे मनुष्यों को ही उद्देश करके नहीं बनाया जाता। रीति-रिवाज निश्चित करते समय केवल अच्छे आदमियों का ही ख़याल नहीं रक्खा जा सकता। बल्कि उन क़ायदे-क़ानूनों पर यह भली भाँति सोच-विचार लिया जाता है कि यदि एक-एक खोटे मनुष्य के हाथ वह होगा तो उसके द्वारा कैसा उपयोग होना सम्भव है। इस ही प्रकार विवाह-सम्बन्ध थोड़े से भले मनुष्यों को लक्ष्य करके निश्चित करने योग्य चीज़ नहीं है-बल्कि इसका सम्बन्ध संसार के बहुत से मनुष्यों से है। विवाह-विधि से पूर्व्व उनसे कोई इस प्रकार की लिखावट या सनद नहीं माँगी जाती कि जो अधिकार उन्हें प्राप्त होंगे उनका वे दुरुपयोग न करेंगे या अपने अधीनस्थ पर वे अधिकार करने के सर्वथा योग्य हैं। जिनका अन्तःकरण सदय और प्रेम से भरा होता है वे अपनी स्त्री और बच्चों से विशेष प्रेम करते हैं; और दूसरे मनुष्य जो अन्य व्यवहारों में निष्ठुर और शुष्क-हृदय होते हैं फिर भी वे अपनी स्त्री और बच्चों से सदय व्यवहार रखते हैं यह बात यद्यपि सत्य है, पर इसके साथ ही यह भी लक्ष्य में रखने योग्य है कि संसार में जिस प्रकार सुजनता और दुर्ज्जनता घट-बढ़ कर होती है वैसे ही कुटुम्ब-प्रेम भी मनुष्यों में घट-बढ़ कर होता है-और यहाँ तक कि बहुत से मनुष्यों का हृदय तो वज्र के समान कठोर और शुष्क होता है, उन्हें कुटुम्ब-स्नेह की गन्ध भी नहीं छू जाती। ऐसे मनुष्य किसी प्रकार के सामाजिक बन्धन से जकड़े नहीं होते, इस लिए उन्हें दाव में रखने के लिए समाज को क़ानून के द्वारा सज़ा का उपयोग करना पड़ता है। ऐसे निन्द्य, कठोर स्वभाव वाले मनुष्यों के हाथ में भी क़ायदे के अनुसार पतिपन के सब अधिकार होते हैं। अत्यन्त नीच और दुष्ट स्वभाव वाले मनुष्य के हाथ में भी कमनसीब स्त्री की तक़दीर सौंपी जाती है, और उसे क़ानून के अनुसार जान से मारने को छोड़ कर बाक़ी और सब कुछ अधिकार होता है, और यदि वह तरीक़ों और युक्तियों से काम ले तो उस बिचारी की ऐसी हालत भी कर सकता है कि वह अपने आप ही मर जाय; पर क़ानून का हाथ उसकी रक्षा नहीं कर सकता-उसे बचा नहीं सकता। प्रत्येक देश में हज़ारों ऐसे निम्न श्रेणी के मनुष्य होते हैं जो अपने आपको निर्बल या अयोग्य समझ कर दूसरों के सामने पड़ने का भी साहस नहीं करते-उन्हें हिम्मत भी नहीं होती कि वे दूसरों के सामने बोल भी सकें, इसलिए क़ानून की दृष्टि से वे दोषी नहीं ठहराये जा सकते, पर वे ही मनुष्य "कमज़ोर ख़ाविन्द औरत पर शेर" वाली कहावत के अनुसार अपनी दीन स्त्री पर अपना बुख़ार उतारते हैं; उसे हर तरह से तङ्ग और हैरान करने में उन्हें प्रसन्नता प्राप्त होती है; क्योंकि उन्हें इस बात का विश्वास होता है कि उस में अपना सामना करने की ताक़त नहीं है, और वह उनके हाथ से छूट भी नहीं सकती। उन मनुष्यों के मनों में इस प्रकार के विचार तो आते ही नहीं कि यह बिचारी अबला सब प्रकार से निराधार है और हम सब प्रकार से स्वाधीन हैं, उसके जीवन का सब कुछ आधार हमीं पर अवलम्बित है और उसका जीवन विश्वास के साथ हमारे हाथ में आया है, इसलिए उसके प्रति उदारता, सहृदयता और प्रेम से बर्ताव करना और अपने आवेश के अंकुश को अपने वश में रखना हमारा कर्त्तव्य है-इसे तो वे सोचते ही नहीं, बल्कि उस बिचारी को वैसी निराधार स्थिति देख कर उनका मन सङ्कुचित होने के बदले उलटा दुष्टता धारण करता, और वे इस प्रकार के विचार करते हैं कि,-"यह मेरी निजू चीज़ के समान है, मै इसका जैसे चाहूँ वैसे उपभोग कर सकता हूँ-क़ायदे-क़ानून सब मेरे पक्ष में हैं। अन्य अपनी बराबर वाले या साधारण लोगों से भी जितनी नम्रता और सभ्यता दिखाई जाती है, उतनी नम्रता और सभ्यता से भी उसके साथ पेश आने की क्या ज़रूरत है।" कुटुम्बों के भीतर इस प्रकार के अन्याय चर्म्मसीमा पर पहुँचे रहने पर भी क़ानून उनका कोई निपटारा नहीं कर सकता। अभी थोड़े समय से इस प्रकार का क़ानून बना है जो ऐसे अत्याचार पर कुछ अङ्कुश रखता है, पर उसके विषय में यदि यह कहा जाय कि वह निष्फल ही रहा तो ठीक होगा। क्योंकि यह कैसे हो सकता है कि एक ओर तो बकरे को उसी क़साई के हाथ रखना, और दूसरी ओर यह चाहना कि बकरे को मारने वाली क़साई की मनोवृत्ति अङ्कुश में रहे। हमारी बुद्धि और संसार का अनुभव कहता है कि ये दो बातें एक साथ कभी हो ही नहीं सकतीं। जिस पति पर अपनी स्त्री को शारीरिक दुःख पहुँचाने का अपराध साबित हो, या जो मनुष्य दूसरी बार भी ऐसा ही अपराध करे,-उस स्त्री को विवाह-बन्धन तोड़ने का अधिकार होगा या वह पति से भिन्न रहने की हक़दार होगी—जब तक इस प्रकार का नियम नहीं बनता तब तक केवल पति को थोड़ी सजा दे देने से इस विषय का सुधार हो ही नहीं सकता। क्योंकि या तो स्त्रियाँ पति के विरुद्ध दावा ही न करेंगी, या उन्हें पूरे सुबूत ही न मिल सकेंगे और ऐसी स्थिति में पति अपना अत्याचार करते ही जायँगे।

४-प्रत्येक देश में पशुओं के समान और पशुओं से कुछ अधिक उच्च जङ्गली स्वभाव वाले मनुष्यों की तादाद सब से अधिक होती है। और ऐसे नर-पशु भी विवाह के कायदे के अनुसार एक शिकार तो ले ही मरते है; यदि इस अन्याय का पूरा विचार किया जाय तो मालूम होगा कि विवाह की प्रथा के दुरुपयोग से कितनी विशाल मनुष्य-जाति पर भयङ्कर अत्याचार हो रहा है। किन्तु ऊपर वाला उदाहरण अत्यन्त नीच या अधमाधम श्रेणी वाले मनुष्यों का है। इन्हें तो यदि संसार का कूड़ा कहें तो कोई अत्युक्ति न होगी; किन्तु इनसे कुछ उच्च, और उनसे फिर कुछ उच्च, इस प्रकार नीचे वाले वर्ग से कम निन्द्य और कम भयङ्कर मनुष्यों की संख्या सब से नीच अर्थात् अधमाधम और सब से उच्च अर्थात् उत्कृष्ट वर्ग वाले मनुष्यों से बहुत अधिक है। कुटुम्ब हो चाहे राज्य हो; एक मनुष्य के हाथ में बिना किसी रोक-टोक के तमाम की तक़दीर सौंप देने से, उस अधिकार का अमानुषी लाभ उठाने के लिए जो नर-राक्षस समय-समय पर प्रकट हो जाते हैं, उस ही समय अनियन्त्रित सत्ता का सच्चा रूप जान पड़ता है; उस समय ऐसा मालूम होता है कि यदि सत्ताधीश अपनी सत्ता का पूरा-पूरा उपयोग करना चाहे तो संसार का ऐसा कोई निन्द्य काम नहीं है जो वह कर न सके। और छोटे-मोटे निन्द्य और भयङ्कर काम सत्ताधीश कितने करते हैं, इसका अन्दाज़ा तो बड़ी सरलता से हो सकता है। संसार में जिस प्रकार देवता के समान साधु पुरुषों की संख्या बहुत ही कम होती है, उसी प्रकार पिशाच और राक्षस के समान अधमाधम मनुष्यों की संख्या भी कम होती है। पर प्रसङ्ग आने पर जो सहज ही कड़े और नरम बन जायँ और हार्दिक भावों को छिपा कर प्रसङ्ग के अनुसार भाव बना लें, ऐसे मनुष्यों की संख्या सब से अधिक होती है, अर्थात् संसार साधारण दुष्ट वर्ग वाले मनुष्य सब से अधिक है। संसार के मुकुट की मणियों के समान सहज सज्जन-वर्ग वाले महापुरुषों को सर्वोच्च शिखर पर रक्खा जाय, और एक राक्षस वृत्ति वाले पिशाचों को फंदे में रक्खा जाय, तो स्वार्थी. बनावटी, तथा समय देख कर पशु-वृत्ति पूरी करने वाले मध्य श्रेणी के मनुष्यों की तादाद बीच में रखी जायगी। बहुत मे मनुष्य बाहरी चाल-चलन, बोल-चाल और व्यव हार में प्रतिष्ठित जान पड़ते हैं, तमाम बाहरी व्यवहारों में वे क़ा नून के सामने सिर झुकाकर चलते हुए मालूम होते हैं, उन व्यक्तियों के साथ वे बड़ी ही नर्मी और सभ्यता से पेश अति देखे जाते है जिन पर उनका दबाव नहीं पड़ता, पर भीतर से वे ऐसे दुष्ट होते हैं कि जो अभागा प्राणी उनके आश्रय में आपड़ा है, जिसे संसार भर में केवल उन्हीं का सहारा है उससे वे त्राहि- त्राहि कराते है; उस प्राधीन प्राणी पर उनका ज़ुल्म इतना धुणित और कड़ा होता है कि उसे अपना जीवन भार और समय काटना आफ़त मालूम होता है। मनुष्य को अनियन्त्रित सत्ता के अयोग्य सिद्ध करना, उदाहरण और दलीलें देना, इसका पिष्टपेषण करना ही है, पाठकों का समय व्यर्थ लेना है; क्योंकि भिन्न-भिन्न राज्य-पद्धतियों के विषय में कई शताब्दियों तक लोगों में जो चर्चा चली थी, वे सब दलीलें सभ्य देश वालों को ज़ुबानी याद हो गई है, फिर भी एक सूत्र लिखे बिना इस स्थान से छुटकारा नहीं हो सकता; इसका उपयोग मुझे इसी विषय में करना है। हम जिस सत्ता के विषय में विचार कर रहे हैं वह सत्ता किन्हीं खास-खास व्यक्तियों को नहीं दी जाती, बल्कि प्रत्येक बालिग़ मनुष्य को यह सत्ता प्राप्त होती है, और आश्चर्य की बात तो यह है कि अत्यन्त नीच राक्षस के समान मनुष्य भी इससे कोरा नहीं रहता। जो मनुष्य बाहरी बर्ताव से सच्चरित्र मालूम होता हो, या जिन पर उसका ज़ोर न हो उनसे बड़ी सभ्यता और मर्यादा से व्यवहार करता हो-तो केवल इस दिखावटी व्यवहार पर यह अनुमान बाँधना भूल है कि वह अपने अधीन मनुष्यों पर भी वैसी ही सभ्यता से पेश आता होगा; साधारण से साधारण मनुष्य अपनी तामसी, स्वार्थी और नीच मनोवृत्तियाँ अपने बराबर वालों के सामने भी प्रकट नहीं करते, किन्तु जिन पर उनका पूरा हक़ होता है और जिन में उसके ख़िलाफ़ पलट कर जवाब देने तक की ताक़त नहीं होती-उसी ही पर वे अपनी कुत्सित मनोवृत्तियाँ प्रकट करते हैं। यदि मनुष्य के दुर्गुणों का मूल और उसका उत्पत्ति-स्थान देखना है तो सेन्य-सेवक-सम्बन्ध को ही देखना चाहिए, मूल उत्पत्ति का स्थान इसी सम्बन्ध से है। जिस मनुष्य का व्यवहार अपनी बराबर वालों से भी कड़ा होता हो, तो वह अपने से नीची श्रेणी वाले मनुष्यों के सहवास में रहा हुआ होना चाहिए, और उन्हें धमका कर अपने दबाव में रखने वाला होना चाहिए-यह निस्सन्दह है। लोग कहते हैं कि उत्तम कुटुम्ब, सहृदयता, सहानुभूति, पर-दुःख-कातरता आदि उत्तमोत्तम गुणों का सबसे अच्छा स्थान घर है; यद्यपि अधिक अंशों में यह बात सत्य है, पर इसके साथ ही यह बात भी ध्यान में होनी चाहिए कि प्रत्येक कुटुम्ब में कुटुम्बी नेता के अन्तःकरण पर ही कुटुम्ब की रचना होती है। उस ही से गृहस्थाश्रम स्वार्थी, अन्यायी, दुराचारी, उद्धत, ज़ुल्मी आदि दुगुर्णों का पोषक होजाता है। उस में स्त्री और बच्चों के प्रति जो ममता के अंश होते हैं वे स्वार्थत्याग के अंश नहीं कहे जा सकते, बल्कि एक प्रकार से उनका सुख ही उसका लाभ है, क्योंकि उन्हें यह अपनी निजू चीज़ समझ कर पोषण करता है; और जब ख़ास उसके शारीरिक स्वार्थ पर आ बनती है तब स्त्री-बच्चों के सुख और स्वास्थ्य की बलि देने में वह ज़रा भी हानि नहीं समझता। जब तक वर्तमान वैवाहिक रूढ़ि इस ही प्रकार चली जायगी तब तक इससे अच्छे परिणाम की आशा रखनी व्यर्थ है। हम ऊपर विवेचना कर आये हैं कि मनुष्य की दुष्ट प्रवृत्तियाँ आधीनता-पराधीनता से ही उत्पन होती है, यदि इन प्रवृत्तियों को अधिक स्वाधीनता न दी जाय तो वे किसी मर्यादा में रह सकती हैं। इसी ही प्रकार जब किसी एक व्यक्ति को बहुत से मनुष्य सम्मान देने लगते हैं, तब उसको आदत हो जाती है कि वह उन सब को दबाता ही रहे-यह हम प्रति-दिन के अनुभव में देखते हैं; यदि हम किसी मनुष्य से नम्र बन कर चलते हैं तो पीछे इरादे-पूर्वक न हो तब भी उससे नम्र होकर चलने की आदत पड़ जाती है, वह आदत या प्रवृत्ति बढ़ कर हमारी स्वाधीनता पर अधिकार करती है और अन्त में उसके उद्धत व्यवहार के विरुद्ध होना पड़ता है, क्योंकि सहनशीलता की भी हद होती है। मनुष्य-स्वभाव की साधारण प्रवृत्ति ही इस प्रकार की है-और इस पर वर्तमान समय के समाज का संगठन इस प्रकार का है कि प्रत्येक मनुष्य को एक-एक मनुष्य पर अनियन्त्रित अधिकार चलाने का हक़ है-और मनुष्य भी वह जो निरन्तर उसके सहवास में रहे-प्रति समय उसकी नज़र के सामने रहे, इन सब का परिणाम यह होता है कि पुरुष के प्रकृतिरूपी मन्दिर के ओने-कोने में जो स्वार्थ के बीज छिपे छिपाये पड़े रहते हैं वे निकल पड़ते हैं; इस ही बात को यदि आलङ्कारिक भाषा में कहें तो यह कह सकते हैं कि स्वार्थ और दुष्टता की कजलाती हुई आग को यह दुष्ट सत्ता रूपी पवन फिर से प्रज्वलित करती है, शान्त आग को फिर दहका देती है। मनुष्य अपनी स्वाभाविक दुष्ट प्रवृत्तियों को अन्य मनुष्यों के सामने दाब रखता है और सदैव इस ही प्रकार करने से वे निःसत्त्व भी हो सकती हैं, पर उन दुष्ट प्रवृत्तियों को इस सत्ता का सहारा मिलने से उसे अधिकाधिक उत्तेजना मिलती है। इस प्रश्न का उत्तरार्द्ध और है, इसके विषय में भी मैं कहूँगा। मैं इसे स्वीकार करता हूँ कि पुरुषों का सामना करने से स्त्रियों का जो कुछ होना चाहिए वह अधिकांश नहीं होता, पर अनेक प्रकार से अपना ग़ुबार निकालने की तरकीबें हैं। अवश्य स्त्रियों के हाथ में ऐसे भी साधन हैं कि यदि वे चाहें तो पुरुषों की ज़िन्दग़ी किरकिरी कर दें और केवल इस ही शक्ति पर वे बहुधा पुरुषों के ख़िलाफ़ भी की जाती हैं। बहुत बार वे ऐसे अनुचित लाभ भी उठा लेती हैं जो उन्हें न उठाने चाहिएँ। पर अपनी रक्षा के इस हथियार का प्रयोग केवल फूहड़, कर्कश और कुमार्य ही करती हैं; और इस में यह मुख्य दोष है कि जो पुरुष सीधा-सादा और भले स्वभाव वाला होता है; उसही पर उस शस्त्र का प्रयोग सबसे अधिक होता है; और इसका लाभ सबसे नीच स्त्रियाँ उठाती हैं। अधिकाँश तामसी प्रकृति वाली और लड़ाकी स्त्रियाँ ही इस शस्त्र का विशेष उपयोग करती है; अर्थात् पुरुषों को जितने अधिकार दिये गये हैं, यदि इतने ही अधिकार स्त्रियों को भी दिये जायँ, तो जिन स्त्रियों के हाथ से इस सत्ता का सर्वथा दुरुपयोग होना सम्भव है––वे स्त्रियाँ ही ऐसे हथियार से पुरुषों की जीवनी बिगाड़ डालती हैं। सुशील और सहृदय स्त्रियाँ तो इस हथियार का उपयोग ही नहीं कर सकतीं, और जो विशाल हृदय वाली तथा उच्च गुणों वाली स्त्रियाँ होती हैं वे तो ऐसे शस्त्र को तुच्छ समझती हैं। दूसरी ओर जिन पुरुषों के ऊपर इस शस्त्र का प्रयोग किया जाता है वे विचार सौम्य प्रकृति वाले और निरुपद्रवी होते हैं; उन्हें यदि हद से ज़ियादा भी चिढ़ाया जाय तब भी वे अपने अधिकार का उपयोग कड़ाई से नहीं करते। स्त्रियों में जो पुरुषों को सताने का माद्दा होता है, उसका परिणाम यह होता है कि, एक ओर पुरुष जैसे स्त्रियों पर अत्याचार करता है, वैसे ही ऐसे घरों में स्त्रियाँ पुरुषों पर अत्याचार करती है। अधिकांश उन पुरुषों को ही स्त्रियों के अत्याचार सहने पड़ते हैं जो सर्वथा सीधी-सादी वृत्तिवाले होते हैं और कड़ाई करना जानते ही नहीं।

५-सत्ता के द्वारा मनुष्य को दूषित करने वाले जो परिणाम उत्पन्न होते हैं, उनकी संख्या इतनी अधिक होने पर भी व्यवहार में वे हमें क्यों नहीं दीखते? दूसरे शब्दों में, पुरुष के हाथ में अनियन्त्रित सत्ता होने पर भी संसार में इतनी भलमनसाहत क्यों दीखती है? यद्यपि स्त्रियों के हाव-भाव और बनाव आदि के सम्मोहक गुण कुछ व्यक्तियों के हृदयों पर विशेष असर करते हैं, फिर भी वर्तमान स्थिति के स्वरूप को एकदम बदल डालने की उन में शक्ति नहीं है, क्योंकि हाव-भाव कटाक्ष आदि की सत्ता तो तरुणाई तक ही होती है; और बहुत बार तो यह सम्मोहकता वहीं तक टिकती है जब तक मोहकता ताज़ी होती है,-और विशेष परिचय या अति निकट सम्बन्ध के कारण जब यह मोहकता नष्ट हो जाती है, तब उसकी सत्ता भी नहीं टिक सकती। और बहुत से पुरुषों को तो स्त्रियों का लावण्य या सुन्दरता मोहित कर ही नहीं सकती। इसलिए अधिकार का नैसर्गिक सौम्यता नीचे लिखे कारणों से प्राप्त हो सकती है। एक तो दम्पति में समय के अनुसार एक दूसरे के प्रति बढ़ता हुआ प्रेम,-पर इसके लिए यह ज़रूरी है कि पुरुष का हृदय प्रेमाङ्कुर के विकाश के अनुकूल हो, और स्त्री की प्रकृति उस अंकुर के पोषण करने की आदत हो,-दूसरे संतान के सम्बन्ध में दम्पति का सामान्य हित, इस ही प्रकार अन्य दुखी मनुष्यों के सम्बन्ध में उनके हित का ऐक्य, तीसरे पुरुष के प्रतिदिन के सुख, उपभोग और स्वास्थ्य के लिए स्त्री की आवश्यकता तथा अपने स्वार्थ और सुखके लिए जो कुछ वह स्त्री की क़ीमत समझता हो वह (जो पुरुष सहृदय अन्तःकरण वाले है उन में तो इसके परिणाम स्वरूप शुद्ध प्रेम की उत्पत्ति होती है।) और सब से अन्तिम निरन्तर निकट सहवास के कारण मनुष्य-मनुष्य में जो स्वाभाविक सहानुभूति होती है वह, क्योंकि निरन्तर निकट रहनेवाले मनुष्य यदि अभाव पैदा करने वाले या तिरस्कार करने वाले न हों तो, वे स्वामी की सत्ता पर इतना अधिकार प्राप्त कर लेते हैं कि, बहुत बार हमें भी वह हद से ज़ियादा और अनुचित मालूम होने लगता है। यह परिणाम उस ही स्थिति में रुक सकता है जब स्वामी का हृदय कठोर हो। इन अनेक साधनों के द्वारा स्त्रियाँ पुरुषों पर अधिकार करती हैं, और अनेक बार तो जिन बातों में पड़ने से उनका सर्व्वथा नुक़सान होना सम्भव होता है, उन में भी वे अपनी ही मनमानी करा लेती हैं। बहुत बार स्त्रियों का प्रस्ताव नीति-विरुद्ध होता है-उस में बुद्धिमत्ता का लेश भी नहीं होता, यदि पुरुष उन बातों को अपने ही विचार से करें तो लाभ होना अधिक सम्भव भी होता है, ऐसा होने पर भी उन्हें स्त्रियों की सलाह के अनुसार चलना पड़ता है। किन्तु राजनैतिक बातों के अनुसार कुटुम्ब-सञ्चालन में भी सत्ता का लाभ इस स्वाधीनता की हानि का बदला नहीं है। स्वाधीनता खोने से जो हानि होती है वह सत्ता प्राप्त होने से पूरी नहीं हो सकती। यह सत्य है कि पुरुष को अपने अधिकार में करके स्त्री उन बातों पर भी अपना हक़ जमा लेती है जिन पर उसका हाथ पहुँच ही नहीं सकता-पर इससे अपने सच्चे हक़ स्थापित करने की सामर्थ्य उसमें नहीं आती। सुलतान के ज़नाने में जो बड़ी दासी होती है, उसके नीचे और बहुत सी दासियाँ होती हैं और उन पर वह अत्याचार भी करती है-पर सचमुच क्या उसकी स्थिति पसन्द करने लायक है। इच्छित स्थिति तो यह है कि उसे दूसरे की दासी होना ही न चाहिए, उस ही प्रकार अन्य दासियों पर अधिकार भी न भोगना चाहिए। यदि कोई स्त्री पति के अस्तित्त्व में अपना अस्तित्त्व सम्पूर्ण रोति से मिला देवे, जिन बातों में दोनों का समान लाभ हो उनमें अपनी इच्छा को प्रधान न रख कर पति की इच्छा को ही प्रधान रक्खे और अपना मत भी वैसा ही जनावे, यदि कुछ नहीं तो पति के सामने ऐसा ढोंग बनाते मानों पति की इच्छा से भिन्न उसकी कोई स्वतंत्र इच्छा है ही नहीं; और पति को मनोवृत्तियों पर अपना अधिकार रखने में तथा अपने मनचाहे ढंग से उन्हें झुकाने में ही अपने जीवन की कृतकृत्यता माने, इस प्रकार का आचरण रखने से एक प्रकार उस स्त्री को सन्तोष का कारण मिलेगा, और वह इस प्रकार का होगा कि, जिन सांसारिक व्यवहारों की योग्यता या अनुभव उसने बिल्कुल नहीं प्राप्त किया और जिन विषयों में वह कोई सम्मति देने योग्य नहीं है, इसलिए उन-उन कामों में वह निष्पक्ष लाभ की सम्मति न देकर पक्षपात, दुराग्रह आदि बाह्य कारणों से खोटी सम्मति ही दे सकती है, उन में भी अपनी सम्मति को ही प्रधान रखवा कर वह पति को उस ग़लत रास्ते पर चला देगी-यही उसकी सत्ता होगी-यही उसके लिए अन्तोष का कारण होगा। किन्तु इसका परिणाम हानिकारक होता है; जो सीधे स्वभाव वाला पुरुष अपनी स्त्री से अत्यधिक ममता रखता है, स्त्री उसे बहुत कुछ अपनी मन्शा के अनुसार चलाती है, और कुटुम्ब से बाहर वाले व्यवहारों में स्त्री की सलाह के अनुसार चलते हुए उसे बहुत कुछ हानि उठानी पड़ती है। क्योंकि इस समय की प्रथा के अनुसार स्त्रियों को बचपन से ही यह शिक्षा दी जाती है कि घर के काम-काजों को छोड़ कर बाहर के व्यवहारों में मन लगाना या सोचना स्त्री-जाति का काम ही नहीं है। इसलिए ऐसी बातों का विचार वे तभी करती हैं जब या तो उनके सिर उसकी जवाबदिही हो या उनका कोई ख़ास स्वार्थ हो। राजनैतिक बातों में उन्हें यह ख़बर ही नहीं होती कि सच्चा पक्ष कौन सा है और झूठा कौन सा है; पर अपने घर में धन या प्रतिष्ठा किस प्रकार होगी, अपने पति को कोई बड़ी पदवी किस प्रकार मिलेगी, अपने पुत्रों को अच्छे पद किस प्रकार मिलेंगे, या अपनी कन्याको अच्छा पति किस प्रकार मिलेगा-इन सब बातों का उन्हें पूरा ख़याल होता है।

६-इस स्थल पर शायद यह प्रश्न उठेगा कि, एक मनुष्य के हाथ में नियामक और निर्णायक सत्ता आये बिना समाज की गाड़ी किस प्रकार चल सकती है? राज्य के समान कुटुम्ब को चलाने वाला एक अधिकारी या सत्ताधीश होना ही चाहिए। क्योंकि यदि ऐसा न होगा तो एक बात में मान लो कि मालिक और मालकिन में मतभेद हो गया; ऐसी स्थिति में उनका निर्णय कौन करेगा? कोई काम दोनों की मन्शा के मुताबिक़ तो हो ही नहीं सकता; चाहे जैसा हो उसका निर्णय करना ही होगा। ऐसी दशा में बड़ी गड़बड़ होगी। इस शंका का समाधान नीचे के अनुसार है।

७-जिन मनुष्यों का यह कहना है कि जिन दो मनुष्यों ने प्रसन्नता से अपना सम्बन्ध स्थिर किया है, उन में एक का उच्च रहना आवश्यक है, उनका कथन यथार्थ नहीं है; इस ही प्रकार यह सिद्धान्त भी ग्राह्य नहीं हो सकता कि क़ानून के अनुसार यह स्थिर किया जाय कि उन दोनों में किसे उच्च पद दिया जाय। दो मनुष्यों के प्रसन्नता से बाँधे हुए सम्बन्ध का उदाहरण विवाह-सम्बन्ध है। इस ही प्रकार के दूसरे उदाहरण उद्योग-धन्धे और व्यापार के सम्बन्ध में है। जो कई मनुष्य बराबर का हिस्सा लेकर किसी व्यापार को करना शुरू करते हैं, उनमें इस प्रकार का नियम बनाने की कभी ज़रूरत नहीं पड़ती कि सब अधिकार एक हिस्सेदार के हाथ में रहेंगे और बाकी हिस्सेदार उसके ताबे में रह कर केवल आज्ञापालन करेंगे। क्योंकि कोई हिस्सेदार इस बात को मञ्जूर करे हीगा नहीं कि उसके सिर जवाबदारी तो मालिकपन की हो और अधिकार केवल गुमाश्तगीरी के हों। वैवाहिक सम्बन्ध के विषय में क़ायदा जिस तरीक़े पर चलता है, यदि वही तरीक़ा अन्य सम्बन्धों में भी माना या प्रचलित किया जाय तो, उसका स्वरूप इस प्रकार हो कि, दूकान का तमाम कारोबार और उससे सम्बन्ध रखने वाले तमाम हक़ केवल एक आदमी के हाथ में सौंप दिये जायँ, और उसे तमाम काम अपने घरू स्वाधीन कामों के अनुसार करने चाहिएँ, और बाक़ी के हिस्सेदारों को उतने ही पर खुश रहना चाहिए जितने वह अपने आप उन्हें दे। और जो भागीदारों का एक सर्वस्व या सत्तीधीश बनाया जाय, वह किसी साधारण नियम के अनुसार होना चाहिए-जैसे उदाहरण के तौर पर, जो उमर में सबसे अधिक हो वही सत्ताधीश बनाया जाय। पर क़ायदे-क़ानून से इस प्रकार का निर्णय कभी नहीं किया जाता; क़ायदे की दृष्टि में इस प्रकार के नियम बनाने की आवश्यकता ही सिद्ध नहीं हुई कि, अमुक नियम के अनुसार हिस्सेदारों के हक़ कम या ज़ियादा होने चाहिएँ, या हिस्सेदार आपस में अपने व्यवहार का जो नियम निश्चित करें उनके अनुसार उन्हें न चलने देकर अमुक प्रकार से उन्हें चलाना चाहिए। अनुभव के द्वारा ऐसे नियम की आवश्यकता ही सिद्ध नहीं हुई। किन्तु यह तो स्पष्ट ही है कि विवाह-सम्बन्ध में एक हिस्सेदार को तमाम हक़ सौंप दिये जाते हैं, यदि किसी कोठी के हिस्सेदारों में भी एक को सब सत्ता सौंपने का नियम हो, तो जिन हिस्सेदारों को सत्ताधीश के नीचे रहना पड़ता और उनका जितना नुक़सान होता, उसकी अपेक्षा भी इस सम्बन्ध में अधिक नुक़सान होता है-क्योंकि प्रत्येक हिस्सेदार इस बात में तो स्वाधीन होगा कि जब वह चाहे तब अपना सम्बन्ध न्यारा कर ले। किन्तु स्त्री को इस प्रकार का कोई हक़ नहीं होता, और यदि कोई हक़ हो भी तो, तो पहले उस हक का उपयोग करके देखे, यह और भी ध्यान देने योग्य है।

८-यह तो सत्य है कि जिन बातों का निर्णय रोज़ का रोज़ करना पड़ता है, और जो व्यवस्था निर्णय के लिए रुक नहीं सकती, या जिन में स्वाधीनता पूर्वक काम लेने की आवश्यक ही है ये निर्णय तक नहीं रोकी जा सकतीं, इनके लिए आवश्यक है कि ये एक ही मनुष्य की इच्छा के अनुसार होने चाहिएँ। पर इससे यह सिद्धान्त नहीं निकल सकता कि यह मुख़्तारगीरी सदा सब बातों में एक ही आदमी के हाथ रहनी चाहिए। यदि स्वाभाविक व्यवस्था की ओर देखेंगे तो दोनों के अधिकार सत्ता तक पहुँचते रहने चाहिएँ। प्रत्येक को जो-जो काम सौंपा जाय उस में वह पूर्ण स्वाधीन होना चाहिए; किन्तु उस काम करने की पद्धति या व्यवस्था में कुछ लौट-फेर करना हो तो उसमें दोनी की सलाह होनी चाहिए। प्रत्येक कार्य के स्वामित्व आदि का निश्चय क़ायदे-क़ानून को द्वारा नहीं हो सकता, बल्कि इसका आधार प्रत्येक व्यक्ति की योग्यता और अनुकूलता पर है। यदि दोनों की इच्छा हो तो जिस प्रकार विवाह-सम्बन्ध से पहले रुपये पैसे की सब बातें निश्चित हो जाती है उस ही प्रकार प्रत्येक के करने योग्य कामों की व्यवस्था भी पहले ही से निश्चित कर डाली जाय-यह हो भी सकता है। साधारगा तौर पर यह नहीं हो सकता कि दोनों को इस प्रकार के निश्चय करने में अमित कठिनाइयाँ हों। किन्तु यदि पुरुष और स्त्री में पहले से ही विषमता होगी तो और बातो में जैसे लड़ाई-झगड़ा बना रहेगा, उस ही प्रकार इस विषय में भी रहेगा। जहाँ ऊपर लिखे अनुसार एक बार उनके काम और कर्त्तव्य निश्चित हो जायँगे, तब परस्पर के अधिकार भी दोनों की सलाह से सरलता-पूर्व्वक निश्चित हो सकेंगे, किन्तु क़ानून के अनुसार कभी अधिकार निश्चित न होने चाहिएँ। विशेष करके यह व्यवस्था प्रचलित लोक-रूढ़ि के अनुसार ही हो जायगी, और जब उस में आवश्यक परिवर्त्तन करने की ज़रूरत होगी तब दोनों सोच-विचार कर फेरफार कर लेंगे।

९-क़ायदा दो में से चाहे जिसे सत्ताधीश बनावें, किन्तु यह तो प्रत्यक्ष है कि काम-काज का निर्णय विशेष करके बुद्धिमत्ता के आधार पर ही होता है। विशेष करके पुरुष के स्त्री से उमर में बड़ा होने के कारण, उसकी सम्मति पर ही अधिक दबाव होता है; और कम से कम यह प्रकार उस समय तक तो चले हीगा जब तक स्त्री-पुरुष समान आयु, वाले और समान बुद्धि-सम्पन्न न होंगे। दूसरे, स्त्री-पुरुषों में जो प्रत्यक्ष आत्मरक्षा यानी जीविका का उपार्जन करेगा उसकी सम्मति स्वयं अधिक मान्य होगी; इसलिए स्त्री-पुरुषों में जो असमानता देखी जाती है उसका कारण वैवाहिक सम्बन्ध नहीं होता, बल्कि मनुष्य-जाति की साधारण स्थिति है। इस ही प्रकार बुद्धिविषयक विशेषतः (फिर चाहे वह साधारण हो या विशेष) मन को स्थिरता, स्वभाव को उदारता आदि गुणों के कारण एक पक्ष जो उच्चता भोगता है, वह भोगे हीगा। इस समय भी यही दशा है। व्यापार-धन्धे करने वाले हिस्सेदार जिस प्रकार जवाबदारी के अनुसार विचार कर प्रत्येक के हक़ क़ायम कर लेते हैं, उस ही प्रकार स्त्री-पुरुष जो आजन्म सांसारिक व्यवहारों के हिस्सेदार बनते हैं वे हिस्सेदार व्यापारियों की तरह अपने लिए नियम निश्चित कर सकते हैं। इस विषय में जिनका यह ख़याल है कि स्त्री पुरुष व्यापारियों की तरह नियम निश्चित नहीं कर सकते, उनका मतलब कितना नापायदार है, यह ऊपर की बातों से भली भाँति ज्ञात होगा। उन स्त्री-पुरुषों की बात जाने दीजिये जिन्हें विवाह करको पछताना पड़ा हो, किन्तु बाक़ी के सब स्त्री-पुरुष ऐसी ही व्यवस्था करते हैं। जिन स्त्री-पुरुषों ने विवाह-संबंध में गहरी भूल नहीं की, जिनका सम्बन्ध टूटने ही में विशेष आनन्द न हो, उन्हें छोड़ कर और बाकी स्त्री-पुरुषों के सम्बन्ध देखेंगे तो ऐसा कभी नहीं दीखेगा कि एक ओर तो केवल सत्ताधीशता हो और वैसे ही दूसरी ओर केवल आज्ञापालन हो। इस स्थल पर कदाचित् यह प्रश्न उठाया जायगा कि स्त्री-पुरुषों में मत-भेद होकर पीछे से जो समाधान होता है, उसका कारण यह है कि स्त्री के मन में यह बात बैठी रहने के कारण कि पुरुषों को क़ानूनन हक़ है और उसके बल पर वह अपनी बात ऊँची रख सकता है, इसीलिए उसे नम्र बन कर अन्त में पुरुष की बात प्रधान रखने के लिये लाचार होना पड़ता है। उदाहरण के तौर पर जो लोग पञ्चों के द्वारा अपने झगड़ों का फ़ैसला कराते हैं, वे यह समझते हैं कि ऐसा न करने से मामला कचहरी में पहुँचेगा, और वहाँ पहुँचने पर न्यायाधीश की आज्ञा माननी ही पड़ेगी—इसलिए आपस में फ़ैसला कर लेना ही अच्छा है। किन्तु इन दोनों उदाहरणों में विशेष सादृश्य नहीं है। यदि कचहरी का फ़ैसला निष्पक्ष न होकर, सदैव एक पक्ष में रहा करे-मान लो कि प्रतिवादी के लाभ में ही सदैव न्याय दिया करे, उस दशा में दोनों उदाहरण समान हो सकते हैं। यदि कचहरी में सदैव प्रतिवादी के लाभ में ही फ़ैसला हुआ करे, तो सचमुच वादी के मन में यही बात पैदा हो कि कचहरी में जाने की अपेक्षा चार भले आदमियों में निपटारा हो जाना ही अच्छा है और केवल उन्हीं के फैसले पर वह सन्तोष भी मान ले। यदि ऐसा ही हो तो प्रतिवादी को फ़ैसले को ग़रज़ ही क्या हो? इस ही प्रकार क़ानून के अनुसार पुरुषों को अनियन्त्रित अधिकार होने ही के कारण, यदि स्त्री अपना दुराग्रह छोड़ दे तो यह हो भी सकता है। क्योंकि वह मन ही मन समझ सकती है कि कचहरी में पुकारने से कोई लाभ न होगा, इसलिये घर में ही जितने अधिकार वह ले सकती हो उतने ले लेवे। पर बहुत बार जो पुरुष स्त्री की इच्छा को प्रधान रखता है, उसका तो यह कारण हो ही नहीं सकता, क्योंकि उसे क़ानून या कचहरी का डर तो होता ही नहीं। क़ानून या लोकाचार स्त्री-पुरुष के लिए उनमें से एक ही का बन्धन नहीं बनता, फिर हम यह भी देखते हैं कि जो मनुष्य सभ्य, विवेकी और उत्कृष्ट प्रजाति वाले होते हैं उनकी प्रत्येक व्यवहार में विवेक की छाया होती है, और स्त्री-पुरुषों के पारस्परिक अधिकारी से इसी प्रकार समाधान होता है। इस से यह सिद्ध होता है कि जब दो मनुष्यों का जीवन एकत्र होता है, तब वे समझ-बूझ कर अपने सब व्यवहारी में एक दूसरे को सन्तुष्ट रखने की कोशिश में रहते है। उन में ऐसी प्रेरणा कराने वाले कारण स्वाभाविक होते है। कावून ने जो सत्ता एक दो हाथ में दे रक्खी है उसका उपयोग व्यवहार में नहीं होता देखा जाता। फिर कायदे दो अनुसार गृहस्थी की दीवार एक पक्ष को सम्पूर्ण अधिकार देकर और दूसरे पक्ष को निर्बल बना शर खड़ी करने का मतलब समझ में नहीं आता। ऐसी स्थिति में व्यावहारिक रीति से इस बात का कोई खास नहीं दिखाई देता कि न्यायधीश जो-जो मन में चाहे सो अधिकार देवे और जब मन में आवे तब छीन लेवे- ऐसे कायदे का कुछ अर्थ ही नहीं है। इसके अलावा यह भी मामूली पर गहरी बात है कि रिले अनिश्चित नियमों पर दी हुई खाधीनता बहुमूल्य भी नहीं हो सकती। कायदा तराज़ू के एक पलड़े लें ज़ियादा बोभा डालता है, इसलिए ऐसे नियमों का यथान्याय होना कभी सम्भव नहीं। जिस कानून के द्वारा दो मनुष्यों में से एक को सम्पूर्ण अधिकार दे दिये जाते हों, और दूसरे को केवल अधिकारी की इच्छा पर ही छोड़ दिया जाता हो, साथ ही धर्म और नीति के ऐसे ज़बर्दस्त बन्धन उसके गले में बाँध दिये जाते हों कि अधिकारी उस पर चाहे जितना अत्याचार करे फिर भी वह उसके सामने नज़र न उठावे-क़ानून की ऐसी आज्ञा होने पर भी यदि वे दोनों व्यक्ति मिल-जुल कर सब बातों में स्नेह-ममता से काम करते हों, तो ऐसी स्थिति में उनके सम्बन्ध और व्यवहार को यथान्याय या क़ानून के अनुसार नहीं कह सकते।

१०-इस अवसर पर कोई दुराग्रही प्रतिपक्षी यह कहेगा कि पुरुष तो विचारे सीधेसादे होते हैं, और वे अपनी स्त्री के योग्य अधिकारों को स्वीकार कर लेते हैं, उनसे उदार व्यवहार करने को सदा तैयार रहते हैं, तथा इस बात में उन्हें उनका कर्त्तव्य बताने की आवश्यकता ही नहीं होती; किन्तु स्त्रियाँ ही हठीली और ना-समझ होती हैं। यदि स्त्रियों को थोड़ी सी भी और स्वाधीनता दे दी जाय; और यदि पुरुष अपने अधिकार से सदा उन्हें दबाते न रहें तो, स्त्रियाँ उनके प्रति ज़रा भी नम्रता न दिखावें। यह प्रतिपादन करने की रीति ऐसी है जो अब से सौ वर्ष पहले के मनुष्यों को शोभा दे सकती थी, क्योंकि उस समय हर एक तरह से, उठते-बेठते खाते-पीते स्त्रियों की अवमानना करने की आदत ही होगई थी। अपने आप पुरुषों ने स्त्रियों की जो दशा बना डाली थी, उसके हँसने योग्य उदाहरण देकर, उनकी निन्दा और भर्त्सना करके ही उस समय के मनुष्य प्रसन्न होते थे। पर इस समय कोई सभ्य या प्रतिष्ठित मनुष्य इस तरह के आक्षेप करने को तैयार ही न होगा। इस समय के सुशिक्षित पुरुषों की यह धारणा रही कि जिन पुरुषों के साथ स्त्रियों का अति निकट सम्बन्ध होता है उनके प्रति ममता और सद्भाव में वे पुरुषों से पीछे रहती हैं। बल्कि आज-कल तो हमारे सुनने में यह आता है कि पुरुषों से स्त्रियाँ अच्छी हैं। पर आश्चर्य की बात है कि जो पुरुष स्त्रियों के अच्छेपन को डौंडी पीटते फिरते हैं, यदि उनसे कहा जाय कि तुम स्त्रियों को पुरुषों से अच्छी बताते हो इसलिए उनके साथ वैसा ही बर्ताव भी करो तो उन्हें यह बात पसन्द ही नहीं आती। ऐसे मनुष्यों के मुँह से निकले हुए शब्दों की क़ीमत केवल दाम्भिक वाद ही हो सकती है, उन मनोहर शब्दों का उद्देश केवल इतना ही होता है कि अपने किये हुए अत्याचार को सुन्दर वेष में खड़ा कर देना। गुलिवर (Gulliver) का वर्णन किया हुआ लिलिपट (Lilliput) देश का राजा अपने अपराधी को कठोर से कठोर दण्ड देने से पहले दया के शब्दों से भरे हुए व्याख्यान की रेल-पेल कर दिया करता था––ऊपर वाला वर्णन भी ऐसा ही है। पुरुषों की अपेक्षा यदि स्त्रियाँ किन्हीं बातों में सब से अधिक अच्छी हैं तो वह गृह-व्यवस्था है। विलक्षण आत्मनिग्रह के साथ वे अपने कुटुम्बियों को प्रत्येक प्रकार से सुखी रखने के साधन जुटाती हैं। पर इस बात को मैं कभी महत्त्व दूँगा ही नहीं, क्योंकि पुरुषों ने स्त्रियो की ऐसी समझ बना डाली है कि,––"स्त्रियों का जन्म तो दूसरों के लिए है, स्त्रियाँ केवल दुःख सहकर दूसरों को सुखी करनेही के लिए हैं।" मेरा सिद्धान्त यह है कि, संसार के तमाम कारोबार जब स्त्री-पुरुषों के अधिकार समान मान कर चलने लगेंगे, तब स्त्रियों की उदात्त कल्पना को जो आत्मसंयम और अपने सुखों के दुर्लक्ष्य का पक्का सबक़ सिखाया गया है वह विशेष करके नष्ट हो जायगा, और उस दशा में अच्छी से अच्छी स्त्री एक अच्छे पुरुष से अधिक आत्मसंयम और परार्थी नहीं होगी। उस दशा में पुरुष अब से अधिक निस्वार्थी और संयमी होंगे; क्योंकि पुरुषों को आज तक जो ऐसी सीख मिलती रही है कि,––"हमारी इच्छा ऐसी बलवान् चीज़ है कि अन्य मनुष्य-प्राणियों (स्त्रियों) को उसे क़ानून कह कर सिर पर चढ़ाये हुए चलना पड़ता है," यह बन्द हो जायगी। पुरुष के मन में बड़ी सरलता से यह बात बैठती है कि, "मैं सब का पूज्य हूँ, सब से होशियार हूँ।" आज तक जिन-जिन को विशेष अधिकार प्राप्त हुए हैं, जो-जो जातियाँ विजयी बनी हैं––उन सब को यही शिक्षा मिली होती है। हमारी दृष्टि जैसे-जैसे नीची श्रेणी वालों पर पहुँचती जाती है, वैसे ही वैसे यह भावना और भी अधिक स्पष्ट होती जाती है, और विशेष करके जिस पुरुष को अपनी अभागिनी स्त्री और बच्चों को छोड़ कर और कोई हुकूमत करने के लिए नहीं मिलता, या जिन्हें कभी दूसरो पर हुकूमत करने का मौक़ा मिलना ही सम्भव नहीं-उन मनुष्यों में यह दोष सब से अधिक देखा जाता है। ऐसे मनुष्य बहुत मिलेंगे जो अन्यान्य दोषों से मुक्त हों; किन्तु ऐसे पुरुष तो कोई कहीं ही होंगे जो इस दोष से मुक्त हों। धर्म्मभाव और तत्त्वज्ञान भी मनुष्य को इस दोष से नहीं बचा सकते, बल्कि उसकी पद्धति उलटा इस दोष को बचाती है-इसकी रक्षा करती है। धर्म्मशास्त्र का जो इस प्रकार का मुख्य तत्त्व है कि सब मनुष्य-प्राणी समान है (वसुधैवकुटुम्बकम्), इसके ही कारण इस दुष्प्रवृत्ति पर कुछ अङ्कुश है। किन्तु जब तक एक मनुष्य दूसरे से अधिक समझा जायगा, एक दूसरे पर अधिकार करता जायगा, इस सिद्धान्त पर स्थापित की हुई रूढ़ियाँ प्रचलित रहेंगी, और प्रचलित बातों के विरुद्ध धर्म्माचार्य्य इस तत्त्व का उपदेश न करेंगे, तब तक लोगों का बर्त्ताव समान नहीं होगा।

११-निस्सन्देह ऐसी भी स्त्रियाँ होती हैं कि, यदि उन्हें पुरुषों के समान अधिकार भी दे दिये जायँ और उनसे समानता का व्यवहार भी किया जाय तब भी उन्हें सन्तोष नहीं होता। जैसे सब व्यवहार मेरी ही इच्छा के अनुसार होने चाहिएँ, इस बात के मानने वाले पुरुषों की संख्या सबसे अधिक होती है, वैसे ही ऐसे स्वभाव वाली स्त्रियाँ भी अधिक होती हैं। अपनी बात प्रधान रक्खे बिना उन्हें रोटी नहीं हज़म होती। ऐसे मनुष्यों के लिए ही विवाह-बन्धन तोड़ने या तलाक़ के क़ायदे बनाये जाते हैं। वे मनुष्य अकेले रहने के लिए ही पैदा होते हैं, इसलिए किसी को उनके साथ अपनी जीवनी बाँधने की आवश्यकता नहीं है। पर इस समय क़ायदे के अनुसार जैसी स्त्रियों को पराधीनता जारी है, यह जब तक न मिटेगी तब तक ऐसे स्वभाव वाली स्त्रियों की संख्या भी न घटेगी, बल्कि उत्तरोत्तर बढ़ती ही जायगी। यदि पुरुष अपने अधिकार का पूरा उपयोग करे तो निस्सन्देह स्त्रियों की दुर्दशा ही हो; पर उसके साथ जो मोह-माया स्त्रियों को जताई जाती हैं, यदि अधिकार प्राप्त करने का दरवाज़ा भी वैसा ही ढीला हो जाय तो स्त्रियाँ उन पर कितना स्वत्त्व कर लेंगी सो कोई नहीं कह सकता। इस समय के क़ानून ने स्त्रियों के अधिकारों की कोई मर्य्यादा निश्चित नहीं की, पर उसका माध्यम यही है कि उन्हें किसी प्रकार के अधिकार हैं ही नहीं: इसलिए व्यवहार में इनकी ऐसी दशा हो जाती है कि ये जितने अधिकारों पर कब्ज़ा कर सकें उतने ही इनके हैं। उन्हीं अधिकारों को वे भोग सकती हैं।

१२-सब से बढ़ कर सुख का मार्ग और न्याय के मूल पर स्थापित किया हुआ सङ्गठन यही हो सकता है कि क़ानून की दृष्टि में स्त्री और पुरुष दोनों के हक़ बराबर गिने जायँ, यह दैनिक व्यवहार और दैनिक जीवन में नैतिक शिक्षा का स्वरूप प्राप्त करावेंगे-इसके सिवाय और कोई साधन नहीं। समान अधिकार वालों का सहवास ही नैतिक शिक्षा की मुख्य शाला है। यद्यपि यह तत्त्व कई पीढ़ियों तक लोगों के दिलों में नहीं घुसेगा, सर्व्वमान्य नहीं होगा, फिर भी इसकी सचाई में किसी प्रकार का अन्देशा वही है। मनुष्य-जाति की नैतिक शिक्षा आज तक "लाठी उसकी भैंस" वाले नियम पर बनाई गई है और ऐसे नियमों पर जताई हुई प्रथा का यही सब से अच्छा उपाय है। जङ्ली आदमी अपनी बराबर वाले में किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रखते, क्योंकि उन समाजों में बराबर का होना ही शत्रु या प्रतिस्पर्धी होने के समान है। समाज का सङ्गठन ऊपर लटकती हुई साङ्कल के समान हैं, प्रत्येक व्यक्ति अपने एक पड़ौसी से ऊपर और दूसरे से नीचा है। एक मनुष्य पर यह ख़ुद हुकूमत करता है और दूसरा उस पर हुकूमत करता है। इसलिए वर्त्तमान नीति सेव्य-सेवक-भाव लिए हुए है। दुर्भाग्य से आज्ञा देनी और आज्ञा पालन करनी, ये दोनों बातें आवश्यक हो गई हैं, पर सचमुच मनुष्य-जीवन की यह उत्कष्ट स्थिति नहीं। मनुष्य-जाति की वास्तविक स्थिति समानता या बरोबरी की है। वर्त्तमान समय के सुधार की धारा जैसे-जैसे आगे बढ़ती जाती है, वैसे ही वैसे सेव्य-सेवक-भाव का सङ्गठन ढीला पड़ता जाता है, और सब कहीं समानता के अधिकारों का विकाश होता जाता है। पुराने ज़माने की लोक-नीति इस प्रकार की थी कि, उस समय सत्ता को सम्मान देकर चलना प्रत्येक का कर्त्तव्य समझा जाता था। उससे पीछे जो ज़माना संसार से गुज़रा उस में सबलों को निर्बलों की रक्षा का सङ्गठन हुआ और सबलों के प्रति निर्बलों को सब प्रकार से सन्तुष्ट रहने का पाठ पढ़ाया गया-इस ही सङ्गठन पर नीति की रचना हुई। किन्तु जो नीति एक ख़ास समाज के अनुरूप बनाई गई हो, वह नीति भिन्न तत्त्वों पर सङ्गठित किये गये समाज में मान्य क्यों होनी चाहिए। पराधीनता के तत्त्वों पर बनाई हुई नीति हमने बहुत दिनों तक चलने दी है; उसके बाद पराक्रम, औदार्य्य आदि उदात्त गुणों पर स्थापित की हुई नीति का अनुभव भी हम अनुभव कर चुके हैं; और यह वर्त्तमान समय न्याय की नींव पर नीति रचने का समय है। यह मानना चाहिए कि, प्राचीन काल में जिस-जिस समय समाज-सङ्गठन में समानता का तत्त्व मिलाया जाता था, उस-उस समय से न्याय-देवता नीति-मन्दिर में अपना अधिकार करते थे। प्राचीन काल के स्वाधीन प्रजासत्ताक राज्यों में यही होता था। किन्तु सब से अच्छे प्रजासत्तात्मक राज्य में भी समानता के तत्त्व का अनुसरण सब मनुष्यों के व्यवहार में नहीं होता था। केवल पुरुष-वर्ग वाले पुरवासी उसका लाभ उठाते थे। ग़ुलाम, स्त्रियाँ और जिन विदेशियों को नगर-निवासी-पन का अधिकार न होता था उन सबके साथ वही शक्ति वाला अत्याचारी नियम काम में लाया जाता था। पीछे रोमन लोगों के उदाहरण और ईसाई धर्म्म की शिक्षा के प्रचार से ऐसे भेद मिटते गये और यह सिद्धान्त सर्व्वमान्य हुआ कि जाति या क़ौम के अनुसार सामाजिक भेद न माना जाकर सब मनुष्यमात्र समान माने जायँ। जिस समय ऐसे-ऐसे भेद मिटने लगे थे उस समय उत्तर देश वाले लोगों ने सब देशों को जीत कर अपने अधिकार में कर लिया, और अपना राज्य दृढ़ बनाये रखने के लिए उन्होंने फिर से उस व्यवस्था को ज़िन्दा किया। एक प्रकार से अर्व्वाचीन इतिहास इस भेद को धोरे-धीरे, किन्तु नियमित शक्ति से, दूर हटाने का इतिहास है। इसके बाद जिस ज़माने का प्रादुर्भाव होना है, उस में न्याय को सब अच्छे गुणों से पहला स्थान मिलेगा, और यह न्याय की नींव पहले के समान समता के तत्त्व पर रहेगी, तथा सहानुभूति का गुण भी इसका सहकारी होगा। जैसे पहले लोग स्व-संरक्षण के लिए ही एक दूसरे से समानता का व्यवहार करते थे, वैसे अब न होगा, बल्कि अब एक दूसरे के साथ दया और प्रेम उत्पन्न होगा। इस अवसर पर संसार का कोई मनुष्य भिन्न न रह सकेगा, बल्कि सब के साथ समान व्यवहार होगा। आने वाले ज़माने में लोगों का व्यवहार-क्रम कैसा परिवर्त्तित होगा। इसका अनुमान अभी लोग कर भी नहीं सकते, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। लोगों के विचार और मनोभाव भूतकाल के अनुसार होते हैं, तथा आगे आने वाले समय के अनुसार कभी नहीं हुआ करते-और साधारण तौर पर लोगो को इसका ख़याल भी नहीं होता। यह भी कोई आश्चर्य की बात नहीं है। मनुष्य-जाति की भावी स्थिति जान लेना सब मनुष्यों का काम नहीं है, इसे संसार के थोड़े से बुद्धिसम्पन्न मनुष्य ही जान पाते हैं। जो पुरुष इन भावी स्थितियों का विचार और मनोभावों का प्रत्यक्ष अनुभव करे, ऐसा तो संसार में कोई कहीं ही होता है; और विशेष करके उस पुरुष को लोगों का अत्याचार सहना पड़ता है। नये ज़माने के शुरू हो चुकने पर भी रूढ़ियों, आचार-विचारों, पुस्तकों और शालाओं के द्वारा मनुष्यों को पुराने विचारों की ही शिक्षा मिलती रहती है। फिर जिस समय नया ज़माना शुरू ही न हुआ हो उस समय तो पुराने आचार-विचारों की मुक्त शिक्षा लोगों को मिलती है-यह स्पष्ट है। किन्तु मनुष्य-जाति का सच्चा गुण यही है कि एक दूसरे के साथ सहानुभूति का व्यवहार करके समानता को उच्च स्थान दिया जाय। दूसरे मनुष्य को हम जितना सम्मान देते हैं उस से अधिक सम्मान ख़ुद अपने लिए मत चाहो। किसी ख़ास प्रसङ्ग को छोड़ कर किसी मनुष्य पर हुकूमत करने की इच्छा मत रक्खो, और वह इच्छा भी उस प्रसङ्ग को पूरा करने के लिए हो; जहाँ तक हो सहवास के लिए ऐसे आदमी चुनो जो सलाह भी दे सकते हों और दूसरे मौके पर जिन्हें सलाह देने की भी ज़रूरत हो; इस प्रकार प्रसङ्ग के अनुसार दोनों को गुरु शिष्य होने का अवसर मिलना आवश्यक है। इस प्रकार की योग्यता सम्पादन करने ही में सद्गुणों का विकाश है। वर्त्तमान समय के मनुष्य-समाज में इन गुणों के विकाश होने और बढ़ने के साधन बहुत ही कम है। वर्त्तमान समय का ग्राहस्थाश्रम अनियन्त्रित धारा की मुख्य पाठशाला है, और स्वाधीनता के सगुण सत्ता के दुर्गुणों के साथ घिसटते फिरते हैं। स्वाधीन देशों में नागरिक के अधिकार समानता के तत्त्व पर रचे गये समाज-बन्धन के अनुभव के नमूने हैं, पर अभी तक स्वाधीन नागरिक-जीवनी बहुत कुछ इधर-उधर टकराती है, क्योंकि इस समय के दैनिक व्यवहार का उनके हृदयों पर जो असर होता है, उससे स्वाधीन नागरिकता का विकाश रुकता है।

यह निर्विवाद है कि यदि कुटुम्ब का सङ्गठन आदर्श ढंग पर हो जाय तो ग्रहस्थाश्रम स्वाधीनता के सब अच्छे गुणों की खान बन जाय। तथा अन्य आवश्यक सद्गुणों की शिक्षा भी वहीं से प्राप्त की जा सकती है। कुटुम्ब रूपी पाठशाला में बच्चों को माता-पिता की आज्ञा में रहना और माता-पिता को अपनी सन्तान आज्ञाकारी बनाना आदि विषयों की शिक्षा तो सदा मिलती रहती है; किन्तु इस में कमी यही है कि स्त्री-पुरुषों को एक दूसरे के साथ समान व्यवहार की शिक्षा नहीं है। कुटुम्ब रूपी पाठशाला में इस शिक्षा के होने की आवश्यकता है कि मालिक और मालकिन एक दूसरे के प्रति समान व्यवहार करें, एक दूसरे को प्रेम और सम्मान से स्मरण करें। एक के हाथ में अधिकार रहना और दूसरे का केवल आज्ञापालन करना सर्व्वथा उठ जाना चाहिए। दम्पति में प्रत्यक्ष ऐसा सम्बन्ध होना चाहिए। यह सम्बन्ध जब गृहस्थाश्रम में स्थान पावेगा तभी बाहर के व्यवहार और सम्बन्धों में इसकी शिक्षा का प्रचार होगा। स्त्री-पुरुषों की एक दूसरे के प्रति पूज्य बुद्धि तथा परस्पर अनुकरणीय बर्ताव होने ही के कारण बच्चे वैसे आचरण वाले बनेंगे। क्योंकि अपनी अज्ञानवस्था तक माता-पिता की देख-रेख में रहने के कारण, माता-पिता के प्रत्यक्ष आचरण को वे अनुकरण करने योग्य समझते हैं और बाद में वे स्वाभाविक रीति से वैसा ही आचरण रखते हैं। मनुष्य-जाति में जो अनेक प्रकार के सुधार होने लगे हैं, इनका उद्देश मनुष्य को उच्च जीवन के योग्य बनाना है, और यदि यही है तो नैतिक शिक्षा के द्वारा भी इसकी उन्नति ही होनी चाहिए; किन्तु जो नैतिक नियम मनुष्य-जाति की प्रारम्भिक स्थिति के लिए हो योग्य थे, उन्हीं नियमों का व्यवहार जब तक कुटुम्ब में प्रचलित रहेगा, तब तक मनुष्य-जाति की नैतिक शिक्षा का सुधार सफल होही नहीं सकता-यह निर्विवाद है। जिस मनुष्य का उत्कट स्नेह केवल अति निकट और अधीनस्थों पर ही होगा, उसके हृदय में निवास करने वाली स्वाधीनता की प्रीति किसी समय शुद्ध और उच्च प्रकार की नहीं होगी-वह प्रेम संसार का भूषण नहीं होगा; बल्कि अति प्राचीन या मध्ययुग वाले मनुष्यों मैं यह स्वीकार करता हूँ कि क़ायदे की वर्तमान स्थिति में जो बहुत से स्त्री-पुरुष परस्पर समानता का ही व्यवहार रखते हैं, और उनके व्यवहार में इतना सीधा-पन है, यानी वे प्रकृत क़ानून का ही पालन कर रहे हैं। और मुझे स्त्री-पुरुषों की समानता वाले तथ्य पर जो यह आशा होती कि एक दिन यह सर्वमान्य होगा––वह भी इसी बुनियाद पर। क्योंकि जिन के नैतिक विचार प्रचलित क़ानून से आगे बढ़े हुए या सुधरे हुए हों, ऐसे पुरुषों की तादाद जब बढ़ती है तभी क़ानून में सुधार होता है, अर्थात् ऐसे सुधरे हुए बहुसंख्यक मनुष्यों का हो जाना ही क़ानून सुधरने का समय आ जाना है। इस ग्रन्थ के द्वारा मैं जिन विचारों का प्रतिपादन कर रहा हूँ, उन्हें ऐसा व्यवहार रखने वाले पुरुष ही सब से पहले अपनावेंगे, क्योंकि मेरे विचारों का उद्देश ही यह है कि इन स्त्री-पुरुषों का जैसा पारस्परिक व्यवहार है वैसा ही संसार के बहु-संख्यक मनुष्यों का हो। किन्तु संसार में सदा इस प्रकार घटा करता है कि जो मनुष्य बहुत ही सुआचरणी या सदाचार-सम्पन्न होते हैं, यदि वे भी विचार-शील नहीं होते तो प्रचलित रीति-रिवाज या क़ानून उन्हें भी हानिकारक नहीं मालूम होता, क्योंकि ख़ुद उनके भीतर जो कुछ दुष्परिणाम हैं उसका अनुभव उन्हें कभी नहीं होता। वे सोचते हैं कि यह रीति-रिवाज बहुत से मनुष्यों की पसन्द के अनुसार है, इसलिए यह लाभकारी ही होनी चाहिए, ऐसी दशा में उसके विरुद्ध शोर करना व्यर्थ है। पर उनके विचारों में बहुत सी गलतियाँ होती हैं। वे समझते है कि क़ानून ने स्त्री-पुरुषों के अधिकार समान बनाये हैं, बहुधा इसी समझ के अनुसार अपना सम्बन्ध भी रखते हैं, इसलिए विवाह-सम्बन्ध को क़ानून ने किन बन्धनों से जकड़ रक्खा है, इस बात का उन्हें वर्ष में एक बार भी ज्ञान नहीं होता। अपनी समझ और व्यवहार को इस प्रकार का रखने के कारण वे समझते हैं कि संसार के अधिकांश विवाहित दम्पति इस ही प्रकार अपना व्यवहार रखते हैं, और जो स्वामी कठोर और निर्दय स्वभाव वाला होता है वही अपनी स्त्री से अत्यधिक कड़ा व्यवहार रखता है। इस प्रकार मानना-ऐसे भ्रम के वश होना-संसार की घटनाओं और मनुष्य-स्वभाव के सच्चे स्वरूप के विषय में अन्यथा ज्ञान रखने के समान है। सत्ता भोगने वाला जैसा ही कमज़ोर ही और बलवान् उसे अपने पर सत्ता भोगने दे, यह जितना कम सम्भव है, उतनी ही क़ायदे की दी हुई सत्ता उसे अधिक बहुमूल्य मालूम होती है, और उसे वह अधिक सम्मान देता है; बल्कि "मैं नियमानुसार सत्ता को भोग सकता हूँ" इस मीठे और प्रिय सिद्धान्त को सतेज रखने के लिए, उस अधिकार को क़ायदे के अनुसार जहाँ तक फैला सके, तथा (उस के ही समान लोगों का प्रचलित) लोकाचार उसे जिस सीमा तक वह अधिकार फैलाने दे-उस हद तक वह उसे बढ़ाता है और इस प्रकार सत्ता भोगने में आनन्द मनाता है। इस से विशेष इस प्रकार का व्यवहार भी हमारे देखने में आता है कि नीच श्रेणी वाले मनुष्यों में जो पुरुष अत्यन्त जङ्गली और पशुवृत्ति वाले होते हैं, तथा जिन्हें प्रारम्भ ही से नैतिक शिक्षा नहीं मिलती, उन में क़ायदे के अनुसार स्त्री की ग़ुलामी, और अन्य चीज़ों या जानवरों के समान उन पर अधिकार करने का हक़ क़ानून के द्वारा खुला होने के कारण उन्हें यह मालूम होता है कि,-"अपनी विवाहित स्त्री तो एक तुच्छ से तुच्छ पदार्थ के समान है, इसलिए उसे प्रत्येक व्यवहार में धिक्कार देते हुए और तुच्छता से ही बरतना चाहिए।" वे अपनी स्त्री को जितने धिक्कार-योग्य बर्ताव की पात्री समझते हैं, वैसा बर्ताव वे किसी अन्य स्त्री या पुरुष से नहीं करते। मनुष्य के ऊपरी चिन्हों से हृदय की बात जानने की सूक्ष्म दृष्टि वाले जो पुरुष हैं, वे यदि योग्य प्रसङ्गों पर इस बात का ख़याल रख कर देखेंगे तो मैंने जो कुछ ऊपर कहा है वह अक्षर-अक्षर ठीक मालूम हुए बिना न रहेगा। और यदि बारीकी से जाँचने के बाद मेरी बात पूरी उतरे, तो जिस रूढ़ि के प्रचार से मनुष्य के मन इतने कलुषित होने सम्भव हैं, उस से उन्हें धिक्कार और घृणा हुए बिना न रहेगी।

१४-इस स्थल पर कदाचित् यह प्रश्न बहुत से करेंगे कि स्त्रियों को पति की आज्ञा में रहना धर्मशास्त्र के अनुसार है। हमारा यह अनुभव है कि, लोग बुद्धिवाद से जिस की रक्षा नहीं कर सकते उस के विषय में धर्मशास्त्र की आड़ पकड़ लेते हैं। अवश्य ईसाई धर्म के अनुसार जो सूत्र-ग्रन्थ लिखें गये हैं उन में ऐसी आज्ञाओं का उल्लेख है, किन्तु प्रत्यक्ष ईसाई धर्म में किसी स्थल पर ऐसा शासन नहीं दीख पड़ता-धर्म के मूल तत्त्वों के सहारे भी यही अनुमान सिद्ध होता है। ऐसे लोग कहते हैं कि सेन्टपाल ने लिखा है-"स्त्रियों, तुम अपने स्वामियों की आज्ञा में रहो।" पर यही महापुरुष एक स्थान पर यह भी लिखता है कि, "ग़ुलामो, तुम अपने मालिकों की आज्ञा में रहो।" सेन्टपाल का उद्देश ईसाई धर्म का फैलाना था, इसलिए प्रचलित लोक-रीति और क़ायदे क़ानून के विरुद्ध क्रान्ति का उपदेश देने से उसे कोई मतलब ही न था, उसके सम्पूर्ण कार्य का उद्देश ही इससे बिल्कुल भिन्न था। इस धर्म-प्रसारक साधु ने यह भी उपदेश दिया है कि,-"राजा जो राजसत्ता भोगते हैं, वह केवल परमात्मा की इच्छा से ही भोगते हैं।" ऐसी दशा में इस वचन का क्या यह अर्थ करना चाहिए कि ईसाई लोग 'एकसत्ताक राज्यतन्त्र' को ही सब से अच्छा समझते हैं; इसलिए ईसाई देशों की इसी पद्धति को सम्मान देना चाहिए? इसी ही प्रकार अपने समय के प्रचलित आचार-विचार और रीति-रिवाजों को साधु सेन्टपाल ने विशेष सम्मान दिया था, तो क्या इस बात का मतलब यह हो सकता है कि समय के अनुसार प्रत्येक बात के परिवर्तन और सुधार से वह सहमत न था? प्रचलित रीति-रिवाज और प्रचलित पद्धतियों में बिल्कुन्त लौट-फेर न होने देना, और प्रचलित राज्यपद्धति को सदा-सर्वदा के लिए स्थायी बनाना-और परिवर्तन न करने का ईसाई धर्म का दावा करना तो इस धर्म को मुसल्मानी या हिन्दू धर्म की नीची श्रेणी पर ले आना है। सच बात तो यह है कि ईसाई धर्म ने सुधार का विरोध कभी नहीं किया, इसलिए की संसार की जिस जाति ने सुधार में सब से आगे क़दम बढ़ाया उसका यही धर्म हो गया, और मुसल्मान तथा हिन्दू सुधार में सब से पीछे हैं, या पीछे हटनेवालों में सब से अव्वल है। ईसाई धर्म के इतिहास से मालूम होता है कि इसे भी अपने समान बना लेने का विशेष प्रयास इन्होंने कई बार किया, अर्थात् बाइबिल की जगह क़ुरान प्रचलित करने की कोशिश की गई और सुधार के मार्ग में विघ्न डाले। इस पर विशेषता यह कि इन लोगों की सत्ता भी प्रबल हो गई थी, और इनका सामना करने वाले बहुत से मनुष्यों को इस संसार से विदा लेनी पड़ी थी; पर फिर भी इनका प्रयास व्यर्थ हुआ। यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि इनका सामना करने वाले लोग समय-समय पर प्रकट हो जाते थे इसलिए ही हम वर्तमान स्थिति पर पहुँचे, और अब इससे भी उत्तम स्थिति पर पहुँच सकेंगे।

१५-स्त्रियों की पराधीनता के विषय में अब तक जो कुछ विवेचना की गई है, इसका लक्ष्यपूर्वक जिसने अनुसरण किया होगा, उसके ध्यान में स्त्रियों पर पुरुषों के मौरूसी हक़ के विषय में तमाम अनुचित बातें आ गई होंगी, और उसके लिए अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं है। विवाह होने से पहले अपने मौरूसी हक़ से, या अपने हाथकी कमाई से जिस स्त्री ने सम्पत्ति सम्पादन की हो, विवाह के बाद भी उस सम्पत्ति पर उसका अविवाहित दशा के समान हक़ रहना जो लोग अनुचित समझते हों-जो लोग पूर्ववत् हक़ स्वीकार करने के लिए दलीलें और सुबूत चाहते हों-उन लोगों पर इस ग्रन्थ का असर होना महा कठिन है-उनके लिए यह व्यर्थ है। स्त्री-धन के विषय में, मैं जिस नियम का प्रतिपादन करना चाहता हूँ वह सीधा और सरलता से समझने योग्य है। सम्पत्ति के सम्बन्ध में ऐसे ढँग से व्यवहार होना चाहिए मानो स्त्री-पुरुष का विवाह ही नहीं हुआ; अर्थात् स्त्री की सम्पत्ति पर स्त्री का अधिकार रहे और पुरुष की सम्पत्ति पर पुरुष का-यही सम्बन्ध विवाह और विवाहित दशा में सदैव बना रहना चाहिए। विवाह के परिणाम स्वरूप जो सन्तान होंगी, उनकी भलाई के लिए सम्पत्ति की जो व्यवस्था की जायगी, उस में इस नियम के द्वारा किसी प्रकार की बाधा न उत्पन्न होगी। विवाह से दो भिन्न-भिन्न जीवन एक होते हैं। विवाह के विषय में इस प्रकार की जो विशाल कल्पना है; उस में सम्पत्ति और धन के भिन्न-भिन्न रहने से विरोध और असंगतता का दोष आता है; और स्वयं मुझे एकत्रता का विचार बहुत रुचिकर होता है। पर इस से मैं सहमत तभी हूँगा जब दोनों के हृदय एक हो गये हों और दोनों में तिलार्द्ध भिन्नता भी शेष न रह गई हो। पर "तेरा सो मेरा और मेरा सो है ही" इस नियम पर जो सम्बन्ध होता है वह मुझे ज़रा भी रुचिकर नहीं। यदि इस प्रकार के सम्बन्ध से स्वयं मुझे लाभ हो रहा हो तब भी मैं ऐसे सम्बन्ध को कभी स्वीकार करने का नहीं।

१६-स्त्रियों पर इस प्रकार का प्रचलित अन्याय, सामान्य लोगों की दृष्टि में भी और बातों से पहले पड़ता है, और अन्य अनर्थों को हटाये बिना भी यदि इसे हटाना चाहें तो हटा सकते हैं। इसलिए यह आशा की जाती है कि यही अन्याय सब से पहले दूर होगा। अमेरिका के पुराने और नये राज्यों में जो नियम बनाये गये हैं, उन में सम्पत्ति पर स्त्रियों का अधिकार पुरुषों के समान रक्खा गया है, इस से और कुछ नहीं तो जिन स्त्रियों की थोड़ी बहुत सम्पत्ति होती है उनकी दशा विवाहित स्थिति में भी बहुत कुछ सुधर सकती है, क्योंकि सत्ता के तमाम हथियार खोते-खोते अकेला यही तो उनके हाथ रहता है। इस नियम का दूसरा शुभ परिणाम यह होता है कि जो नीच पुरुष विवाह का दुरुपयोग करके अनुचित लाभ उठाते थे वह नहीं घटता। ऐसे नीच पुरुष किसी भोली-भाली कुमारी का धन छीनने के लिए उसे प्रेम के जाल में फँसाते, और स्त्री-धन के विषय में किसी प्रकार का नियम निश्चित किये बिना उससे विवाह कर लेते। इस के परिणाम में उस बिचारी की सब सम्पत्ति पति की बन जाती, और वह धोखेबाज़ यदि उसे छोड़ देता तो वह बिचारी न दीन की रहती और न दुनियाँ की। वर्तमान नियम के अनुसार अमेरिका में यह होना सम्भव नहीं। यदि कुटुम्ब के निर्वाह के लिए पुरखों की सम्पत्ति नहीं होती, अर्थात् अपनी कमाई पर ही जिनका गुज़ारा होता है, उन कुटुम्बों में देखा जाता है कि पुरुष कमाई करके लाता है और स्त्रियाँ घर की देख-रेख करती हैं-और उनके लिए यही व्यवस्था में अच्छी समझता हूँ। स्त्रियों को सब से पहले तो सन्तानोत्पादन का शारीरिक कष्ट और बच्चों को छुटपन में उन्हें योग्य रीतियों से पालन करना फिर उत्तम प्रकार की गृह-शिक्षा देना-ये जवाबदारी के काम तो उसके ज़िम्मे होते ही हैं। इसके अलावा पति की कमाई का योग्य और किफ़ायतशारी के साथ व्यय करना और प्रत्येक बात में कुटुम्ब के सुख को अपने लक्ष्य में रखना भी यदि वह अपने ही ज़िम्मे रखे तो स्त्री और पुरुष दोनों को जो शारीरिक और मानसिक कष्ट गृहस्थाश्रम के कारण होते हैं, उनमें स्त्री ने अपने सिर पूरा भाग ले लिया, बल्कि अपने हिस्से से अधिक भाग ही उसने लिया है। इसके सिवाय यदि कोई बाहर का काम भी अपने ज़िम्मे ले लेवे तो फिर भी गृहकृत्य से तो वह मुक्त हो ही नहीं सकती, बल्कि उस दशा में गृहकृत्य जितना अच्छा होना चाहिये उतना नहीं होता। यदि गृहव्यवस्था और सन्तान-पालन का काम वह अपनी ओर नहीं रखती तो उस काम को और कोई लेता नहीं। परिणाम यह होता है कि सन्तान जिस-तिस प्रकार अव्यवस्था में पल कर बड़ी होती है, और अव्यवस्था के कारण स्त्री जो कुछ कमा कर लाती है वह उस में खर्च हो जाने पर भी कुछ नहीं बचता। इसलिए मेरा मत गृहस्थाश्रम के विषय में यही है कि, स्त्रियों को जहाँ तक हो स्वयं परिश्रम करके घर की आय बढ़ाने की चिन्ता में नहीं ही पड़ना चाहिये। दूसरी ओर गृहस्थी की दशा यदि ख़राब हो, और स्त्री को पराधीनता में रहना पड़ता हो, ओर स्त्री अपनी कमाई से गृहस्थी का भरण-पोषण करती हो-तो इससे स्त्री को लाभ होगा; क्योंकि क़ानूनन पुरुष स्त्री का अधिकारी है और इस बात से उसकी नज़र में स्त्री की क़ीमत अधिक होती है; पर कई बार इस बात का दुरुपयोग भी होता है, क्योंकि फिर पति स्त्री को कुटुम्ब का पोषण करने के लिए मजबूर करता है, और घर का सब बोझ उस बिचारी के सिर डाल कर स्वयं आलस्य या मद्यपान में अपना समय बिताता है। किसी प्रकार की मौरूसी मिल्कियत न रखने वाली स्त्रियों के लिए स्वतन्त्र रीति से द्रव्योपार्जन की शक्ति रखना अपनी प्रतिष्ठा का अच्छा प्रमाणपत्र है, किन्तु विवाहित दशा में यदि दोनों के अधिकार समान माने जाने की रीति हो, और एक को दूसरे की अधीनता न सहनी पड़ती हो, अर्थात् जिस पक्ष पर बलात्कार होता हो वह प्रकार न घटने दिया जाता हो, और स्त्री के योग्य कारण बताने पर पति से भिन्न रहने और स्वाधीन व्यवसाय करने की आज़ादी हो, अर्थात् इस प्रकार की अनुकूलताएँ हों तो विवाहित दशा में द्रव्योपार्जन की शक्ति को काम में लाने का अवसर ही स्त्री को नहीं मिलेगा।

जब पुरुष उदर-निर्वाह के लिए किसी काम को पसन्द करता है, तब साधारण तौर पर यह समझा जाता है कि वह अपनी शक्तियों का उपयोग उस ही ओर करने के लिए विशेष उपयुक्त है। उस ही प्रकार जब स्त्री विवाह करती है तब घर के काम-काज करने, सन्तान के पालन-पोषण करने, गृह-शिक्षा देने, गृहस्थी चलाने आदि कामों ही को सब से अधिक पसन्द किया है, यह समझना चाहिए। दूसरे बाहरी कामों में ध्यान देने से उसके इस मुख्य कार्य में हानि आनी सम्भव है, उन कार्यो के कर्त्तव्य से मुक्त होने ही के लिए मानो उसने विवाह किया है। इस प्रवृत्ति-नियम के अनुसार जो व्यवसाय घर से बाहर जाने पर हो सकते हैं या जो घर में बैठे रहने पर भी हो सकते हैं वे दोनों ही वर्ज्य हो जाते है। किन्तु सामान्य नियमों की रचना के समय इस बात का पूरा खयाल रखना चाहिए कि उन नियमों के द्वारा व्यक्ति मात्र के विशेष गुणों का विकाश न रुके और प्रत्येक व्यक्ति को अपनी शक्ति बढ़ाने की पूरी स्वाधीनता हो। अर्थात् विवाह के अनन्तर भी यदि किसी स्त्री की बुद्धि किसी अन्य कार्य में विशेष चल सकती हो, तो उसमें प्रवृत्त होने में उसे किसी प्रकार का बन्धन न होना चाहिए, केवल यह व्यवस्था होनी चाहिए कि यदि वैसा करने से गृहिणी के कर्त्तव्य में किसी प्रकार की कमी रहती हो तो उसे अन्य साधनों के द्वारा पूरा किया जाय। सारांश यह है कि, यदि लोगों में स्त्री-पुरुष की समानता का प्रवाह चल पड़े तो ऐसी छोटी- मोटी बातों के लिए नियम बनाने की आवश्यकता ही कभी न आवे, और इसका निर्णय लोगों की राय पर भी छोड़ा जा सकता है।

  1. * हमारे देश में तो यह प्रथा अभी तक पूर्ण रूप से प्रचलित है। कहावत है कि 'कन्या और गाय जिसे दी जायँ उसके साथ बिना बोले चली जाती हैं।' लड़का और लड़की अपने विवाह के विषय में कुछ सोच ही नहीं सकते। कन्या-विक्रय भी खूब ही है। प्राचीन काल में शास्त्रोक्त विवाह आन प्रकार के थे, जिन में पैशाच, आसुर और राक्षस तो जंगलीपन के ही नमूने थे।
  2. * इस पुस्तक के प्रसिद्ध होने के बाद स्त्रियों की दशा सुधारने के लिए इँग्लैंड में बड़ा शोर मचा था। और उसके परिणाम में १८०० ई॰ में Married women's property act नामक कानून प्रचलित किया गया था, इसमें स्त्रियों को अपनी सम्पत्ति के थोड़े हक मिले थे, पर सम्पत्ति के सम्बन्ध में पूरी स्वाधीनता १८८२ ई॰ के कानून से हुई है।