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स्त्रियों की पराधीनता/३

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स्त्रियों की पराधीनता
जॉन स्टुअर्ट मिल, अनुवादक शिवनारायण द्विवेदी

कलकत्ता: हरिदास एण्ड कम्पनी, पृष्ठ १४१ से – २२० तक

 
तीसरा अध्याय।

१-मैं जो पीछे गृहस्थी में स्त्री को पुरुष के समान अधिकार होने का विवेचन कर आया हूँ, वह जिसकी समझ में पूरी तरह से आगया होगा, उसे स्त्रियों की समानता के लिए अन्य उपाय समझाने अर्थात् सबल पुरुष-वर्ग ने जिन उद्योग-धन्धों पर केवल अपना ही अधिकार जमा रक्खा है उनमें स्त्रियों के भी प्रविष्ट होने की आवश्यकता साबित करने में कुछ भी कठिनाई नहीं है। मैं यह मानता हूँ कि गृहकार्यों के लिए स्त्रियों को पराधीन रखने में पुरुष प्रसन्न होते हैं, इसका कारण यह है कि कुटुम्ब में यदि कोई बरोबरी का दावा करे तो अधिकांश पुरुषों से यह सहन नहीं हो सकता। यदि यह बात ऐसी न हो तो अर्थशास्त्र और राजनीति की दृष्टि से प्रत्येक मनुष्य सरलतापूर्वक यह कह सके कि, 'अच्छी आय वाले धन्धों से मनुष्य-जाति के आधे भाग को सर्वथा पृथक रखना, और प्रतिष्ठित-अधिकारों से मनुष्य-जाति के आधे भाग को अयोग्य कह देना-घोर अन्याय है। इस ही प्रकार पुरुष-वर्ग का केवल नीच और मूर्ख व्यक्ति भी जिस अधिकार का हक़दार होने योग्य माना जाय, उस ही अधिकार के लिए स्त्रियाँ जन्म से ही अयोग्य समझी जायँ, और किसी उपाय से वे योग्य बनने के लायक़ ही न समझी जायँ, इस प्रकार का निश्चय कर डालना, तथा स्त्रियों के चाहे जितने योग्य होने पर भी केवल पुरुषों के हित की रक्षा के लिए इस प्रकार के अधिकार और धन्धे वर्ज्य और निषिद्ध कर देना-क्या छोटा सा अन्याय है। पिछली दो शताब्दियों में लोगों को जब-जब अमुक काम या अधिकार के लिए स्त्रियों के योग्य न होने का उत्तर देना पड़ता था, तब-तब ये यह नहीं कहते थे कि स्त्रियों की मानसिक शक्ति पुरुषों से कम है। क्योंकि उस समय अनेक सार्वजनिक कामों में स्त्रियाँ प्रकट रूपसे भाग ले सकती थीं, और उनकी शक्ति समय-समय पर कसौटी पर चढ़कर साबित उतरती थी, इसलिए पुरुष इस बात के कहने में हिचकते थे कि स्त्रियों की शक्ति पुरुषों से कम है। उस समय स्त्रियों को अधिकारों के अयोग्य बताने की अपेक्षा यह कारण पेश किया जाता था कि समाज की भलाई के लिए यह आवश्यक है- और समाज की भलाई का अर्थ होता था,-पुरुष-वर्ग की भलाई। "राजकीय कारण" कह कर जिस प्रकार राज्यकर्ता अन्यायी और घातकी कामों में हाथ डालते हैं-उसी ही प्रकार "समाज की भलाई" के नाम से पुरुष-वर्ग का स्त्री-वर्ग पर अन्याय करना सर्वसम्मत था। किन्तु इस समय के अधिकार सम्पन्न लोग बड़ी ही सौम्य भाषा का उपयोग करते हैं, वे जब किसी पर अत्याचार करते है, तब "इसी में उसका हित है," की डौंडी पीट देते हैं। इसी ही प्रकार पुरुष जब स्त्रियों को विशेष-विशेष बातों से रोकना चाहते हैं,-"यह काम तो इनसे होही नहीं सकता, इस काम के लोभ में स्त्रियाँ सचमुच अपने वास्तविक सुख को खो बैठेंगी। ये जीवन की सफलता के सीधे रास्ते को छोड़ कर दूसरी ओर जा रही हैं," तब ऐसे ही ऐसे बहाने निकाले जाते हैं। जिन मनुष्यों की यह धारणा हो कि इन बहानों में भी कुछ सचाई के अंश हैं तो उन्हें अपने तमाम व्यवहारों में इस ही का अनुसरण करना चाहिए। पर यदि इस बात की खोज ही करनी है तो स्त्रियाँ पुरुषों से बुद्धि में कम हैं इसके केवल मान बैठने ही से काम न चलेगा। उच्च प्रतिभा सम्पन्न कामों और कर्त्तव्यों के योग्य बुद्धि रखने वाली स्त्रियाँ उन कामों के योग्य बुद्धि रखने वाले पुरुषों से संख्या में कम हैं, इस बात को केवल कह देने ही से कुछ नहीं होता। बल्कि पुरुषों को डङ्के की चोट यह साबित कर देना चाहिए कि फलाने काम के योग्य बुद्धि रखने वाली स्त्री इस संसार में नहीं मिलेगी और अत्यन्त बुद्धिमान से बुद्धिमान् स्त्री की मानसिक शक्ति भी साधारण से साधारण बुद्धि वाले पुरुष से नीची ही होगी। क्योंकि ऊँचे से ऊँचे अधिकारों को भोगने और अच्छे से अच्छे कामों को करने में जिस स्पर्द्धा को समाज महत्त्व देती है, यदि स्त्रियाँ प्रकृति से वास्तव में नीची ही हैं तो स्त्रियों के लिए भी स्पर्द्धा का दरवाज़ा खोलने में कोई हानि नहीं-डरने का कोई कारण नहीं। यदि यह प्रथा चल जाय तो परिणाम यह होगा कि बड़े से बड़े कामों में पुरुषों से स्त्रियों की संख्या कम हो सकती है, क्योंकि जिस काम में स्त्रियों को दूसरों की स्पर्द्धा का डर न होगा उसे ही वे सब से अधिक पसन्द करेंगी। कोई मनुष्य स्त्रियों के सुधार का चाहे जितना कहर से कट्टर विरोधी हो पर उसका छुटकारा भी इस बात को माने बिना तो नहीं हो सकता कि, प्राचीन इतिहास और वर्तमान समय के हमारे अनुभव से यह सिद्ध हो चुका है कि पुरुष जिन-जिन कामों को करते हैं उन-उन के करने की योग्यता बहुत सी स्त्रियों में होती है, बल्कि उन कामों को बड़ी ख़ूबी से पूरा करके स्त्रियों ने रख दिया है। स्त्रियों के ख़िलाफ़ अधिक से अधिक यही कहा जा सकता है कि कुछ इने-गिने कामों में अभी तक स्त्रियों ने अपने आप को पुरुषों से अधिक साबित नहीं किया-पुरुषों के समान अलौकिक काम अभी तक किसी स्त्री के हाथ से नहीं बन पड़े-सारांश यह है कि कुछ कामों में स्त्रियो ने सब से ऊँचा स्थान नहीं प्राप्त किया। पर इसके साथ ही इस बात पर भी ध्यान रखना ज़रूरी है कि बुद्धि-सामर्थ्य पर आधार रखने वाले कामों में क्या कोई काम ऐसा नहीं है कि जिसमें स्त्रियाँ पहला नहीं तो दूसरा स्थान भी प्राप्त न कर सकी हों? इतना सब कुछ होने पर भी स्त्रियों को पुरुषों के साथ स्पर्द्धा में न उतरने देना-रोकना-क्या अन्याय नहीं है? और समाज को क्या इससे कम हानि है? फिर जिन पुरुषों को वे काम दिये जाते हैं वे बहुत बार स्त्रियों से भी कम योग्यता वाले होते हैं,-यदि उन पुरुषों और स्त्रियों की परीक्षा ली जाय तो वे पुरुष बहुत पीछे रह जायँगे-इस प्रकार के बहुत से उदाहरण हमारी आँखों के सामने से गुज़र जाते हैं-इसे न मानने के लिए कौन तैयार है? यदि यह मान लिया जाय कि उनसे अधिक योग्यता वाले पुरुष और किन्हीं कामों में लगे होंगे, पर इससे वास्तविक स्थिति में क्या अन्तर होता है? क्या प्रत्येक स्पर्द्धा वाले काम में ऐसा नहीं हुआ करता? ऊँचे से ऊँचे अधिकार भोगने के लिए और प्रतिभा सम्पन्न कार्य सम्पादन करने वाले पुरुष क्या संसार में इतने अधिक होगये है कि मनुष्य-समाज की वास्तविक योग्यता-सम्पन्न व्यक्ति से काम लेने के लिए नाँहीं करनी पड़े? किसी महत्त्व के या सार्वजनिक काम के लिए जब किसी योग्य मनुष्य की आवश्यकता हो, तब क्या इस बात का प्रमाण मिल चुका है कि उस योग्यता वाला व्यक्ति पुरुष-वर्ग में से ही मिलेगा। क्या हमें ऐसा कोई ज़बर्दस्त कारण मिल चुका है कि जिसके आधार पर हम मनुष्य-जाति के आधे भाग को बिल्कुल अयोग्य मान लेवें? और उस वर्ग वालों की बुद्धि चाहे जैसी विलक्षण और अलौकिक हो-फिर भी उनके लिए यह निश्चय कर डालें कि वह किसी काम की नहीं-और फिर क्या हम यह भी साबित कर सकते हैं कि हमारे उस निश्चय से समाज को कोई हानि न होगी? कदाचित् हम स्त्रियों की विलक्षण से विलक्षण बुद्धि से भी काम न लेने का दृढ़ संकल्प कर बैठें, और हमारी यह भी दिलजमई हो गई हो कि समाज की भी इससे कोई हानि न होगी-फिर भी संसार में अपना नाम और इज्ज़त कमाने के लिए जो कुछ साधन हैं उन्हें हम स्त्रियों के लिए सदैव बन्द करते हैं और इस सर्वसम्मत सिद्धान्त पर पानी फेरते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन-निर्वाह का काम चुनने में स्वाधीन है-तो क्या यह काम अन्याय नहीं है? फिर यह अन्याय केवल स्त्रियों को ही नुक़सान पहुँचाने वाला नहीं है, बल्कि जो-जो पुरुष स्त्रियों से लाभ उठा सकते थे उन सब का नुक़सान है। यदि यह क़ानून बना दिया जाय कि अमुक-अमुक वर्ग के मनुष्य विकालत, वैद्यक या पार्लिमेण्ट के सभासद होने योग्य नहीं हैं-तो इसका अर्थ यह नहीं है कि जिन मनुष्यों को रोका गया है उन्हीं का नुक़सान होगा-बल्कि जिन-जिन को वकील, वैद्य की आवश्यकता पड़ती है, तथा जिन्हें पार्लिमेण्ट में प्रतिनिधि भेजने का हक़ है-उन सब को बड़ी भारी हानि होनी सम्भव है। सबसे पहले तो जिस क्षेत्र से उम्मीदवार चुने जाते हैं वह क्षेत्र ही उतने परिमाण में कम हो जायगा, दूसरे स्पर्द्धा का जो यह उत्तम गुण है कि अधिक प्रतिस्पर्द्धियों में विशेष परिश्रम और मनोयोग-पूर्वक काम किया जाता है वह कम होगा-जब स्पर्द्धा करने वालों की संख्या कम होगी-तब मनुष्य-समाज को वह लाभ नहीं हो सकता।

२-मैं इस विषय के सविस्तर विवेचन में जो दलीलें पेश करूँगा उन में केवल सार्वजनिक या लोकोपयोगी कामों का विवेचन करना ही काफ़ी होगा, क्योंकि यदि मैं ऐसे कामों में स्त्रियों का स्वाधीन होना पाठकों के सामने साबित कर दूँ तो फिर जो थोड़े से उपयोगी कार्य बचेंगे जिन्हें स्त्रियाँ नहीं करने पातीं-उन में साबित करना बहुत ही सरल होगा। इस समय हम केवल एक ही अधिकार से विवेचना शुरू करते हैं और वह अधिकार भी ऐसा कि जिस में स्त्रियों के अधिकार स्वीकार करने का आधार उनके मानसिक शक्तियों के निराकरण पर बिल्कुल अवलम्बित नहीं है अर्थात् जिस अधिकार को प्राप्त करने में अमुक प्रकार की मानसिक शक्ति की आवश्यकता नहीं पड़ती। मुझ से इस अधिकार का नाम पूछा जायगा तो मैं कहूँगा कि म्यूनिसिपेलिटी तथा पार्लिमेण्ट के सभासद चुनने का अधिकार। जो मनुष्य कोई सार्वजनिक हक़ भोगे उसे पसन्द करना-अर्थात् चुनना और उस अधिकार के लिए उम्मीदवारी करना-इन दोनों में विशेष अन्तर है। यह निर्विवाद है कि यदि ऐसा नियम बनाया जाय कि जो व्यक्ति पार्लिमेण्ट के सभासद होने की योग्यता न रखता हो, उसे सभासद चुनने का भी अधिकार नहीं होगा तो राज्य की डोर थोड़े से आदमियों के हाथ अधिकारों के विषय में सोचेंगे तो जिस देश की राज्यव्यवस्था में, ऐसे नियम बनाये गये हों कि अयोग्य मनुष्य उन अधिकारों तक पहुँच ही न सकें-तो इससे अयोग्य स्त्रियाँ भी उन तक न पहुँच सकेंगी। और यदि ऐसे नियम न हों-तथा अयोग्य मनुष्य उत्तरदायित्व के अधिकारों पर जा पहुँचते हों, तो वे चाहे पुरुष हो या स्त्री-दोनों समान है-उस दशा में अयोग्य स्त्रियों से विशेष हानि ही क्या है। इसलिए जब तक यह स्वीकार किया जायगा कि सार्वजनिक अधिकार भोगने और कर्त्तव्य पूरा करने में थोड़ी-बहुत भी योग्य स्त्रियाँ निकलनी सम्भव है, और जिस क़ायदे को अपवाद बना कर वे रोकी जायँगी वह सार्थक नहीं हो सकता। यद्यपि स्त्रियों की योग्यता का सवाल प्रस्तुत वादविवाद के निर्णय में किसी प्रकार उपयोगी या सहायक नहीं हो सकता, फिर भी यह प्रश्न निरुपयोगी नहीं हो सकता। क्योंकि स्त्रियों की बुद्धि के विषय में यदि निष्पक्ष विचार किया जाय, और लोगों की इस विषय में जो कुछ ख़ामख़याली है वह सुधरे, तो बहुत सी बातों में जो स्त्रियाँ अपात्र समझी जाती हैं, इसके खण्डन में मैं जो दलीलें पेश करना चाहता हूँ उनका बहुत कुछ समर्थन हो। इस ही प्रकार यह सिद्ध करने में भी बहुत सहायता मिले कि व्यावहारिक बातों में विशेष लाभ होगा। इसलिए अब यही विचार करें।

४-मानसशास्त्र की सहायता से जो बातें सिद्ध हो सकती हैं, उन्हें अभी हम एक ओर छोड़ देंगे-अर्थात् स्त्री पुरुष की मानसिक शक्ति में जो भेद माना जाता है, वह किसी प्रकार प्रकृतसिद्ध या स्वाभाविक नहीं है बल्कि कृत्रिम है,-स्त्री वर्ग और पुरुष-वर्ग में जो भेद रक्खा जाता है, तथा प्रत्येक वर्ग के चारों ओर जिन भिन्न-भिन्न कारणों का संयोग बना रहता है, उस भिन्नता के ही कारण उन की बुद्धि-सामर्थ्य में भी अन्तर होता है-ऐसे निश्चय पर हम जिन विचारों की सहायता से पहुँच सकते हैं, उन्हें अभी हम छोड़ते हैं। इस समय हम यही उठाते हैं कि पहले स्त्रियाँ कैसी थीं और अब कैसी हैं-अर्थात् प्रत्यक्ष रीति से स्त्रियों ने अपनी बुद्धि-सामर्थ्य का कितना परिचय दिया है। अधिक नहीं तो जितने काम स्त्रियाँ अब तक कर सकी हैं उतने तो सदैव कर ही सकेंगी-अर्थात् इस बात को तो स्वयंसिद्ध समझना चाहिये कि उतनी शक्ति तो उन में है ही। जिन उद्योग-धन्धों या व्यवसायों की शिक्षा केवल पुरुषों के ही लिये रक्खी गई है और स्त्रियों को जिनके विषय में कुछ भी बताया नहीं गया, बल्कि उसके ख़िलाफ़ शिक्षा देकर उनके मनकी उन उद्योग-धन्धों या व्यवसायों से फिरा देने की पूरी कोशिश की गई है-इस बात को जब हम अपने लक्ष्य में रक्खे हुए ऐसे उदाहरणों पर दृष्टि दौड़ाते हैं, जिन्हें आजतक स्त्रियों ने पूरे करके प्रत्यक्ष दिखा दिये हैं, मैंने इस प्रकार स्त्रियों की बुद्धि-सामर्थ्य नापने का जो निश्चय किया है वह किसी प्रकार स्त्रियों का पक्ष लिये हुए नहीं है, यह स्पष्ट है। क्योंकि अभावदर्शक प्रमाण (Negative evidence) अधिक होने पर भी उतना कार्यकारी नहीं होता जितना प्रत्यक्ष (Positive) प्रमाण थोड़ा होने पर भी निर्णायक और निश्चयात्मक होता है। होमर,*[] अरिस्टाटल,†[] माइकेल एँजेलो,‡[] और विथोवेन§[] आदि ने विद्या में जो उच्चता और उत्कृष्टता का अपूर्व उदाहरण स्थापित किया, ऐसा अपूर्व नैपुण्य आज तक किसी भी स्त्री ने नहीं दिखाया-इसलिए ऐसी प्रवीणता रखने वाली कोई स्त्री निकलनी असम्भव है-यह अनुमान निर्दोष नहीं। इस अभाव दर्शक अनुमान से इतना ही सार निकाला जा सकता है कि संसार में कोई ऐसी योग्यता वाली स्त्री होगी या नहीं, यह निश्चयात्मक रीति से नहीं कहा जा सकता। अर्थात् इस प्रश्न की सहायता से मानसशास्त्र में वादविवाद की गुञ्जाइश निकल सकती है-बस, इससे अधिक नहीं। पर स्त्रियों के लिए यह तो छाती ठोक कर कहा जा सकता है कि उनमें रानी एलिज़ाबेथ,*[] डिबोरा,†[] या जान ऑव् आर्क‡[] बनने की योग्यता है, क्योकि यह कोई आनुमानिक प्रमाण नहीं बल्कि प्रत्यक्ष है। यह सिद्ध हो चुका है कि क़ानून से स्त्रियाँ जिस काम को करने के लिए रोकी गई हैं उस में वे उत्तीर्ण हुई हैं-अर्थात् उसे वे भली भाँति कर सकी हैं। यद्यपि शेक्सपिअर के समान नाटक लिखने तथा मोज़ार्ट§[] के समान संगीत-काव्य बनाने में स्त्रियों को क़ानून ने कभी नहीं रोका, किन्तु यदि वारिसी हक़ से रानी एलिज़ावेथ और महारानी विक्टोरिया को राजपद प्राप्त न होता-तो एलिज़ावेथ ने जो बड़े-बड़े राजकीय कर्त्तव्यों को पूरा किया-उन उदाहरणों का शतांश भी इस समय नहीं कहा जा सकता था।

५-मानसशास्त्र की दृष्टि से विचार न करके, प्रत्यक्ष अनुभव से जो कुछ अनुमान निकल सकता है तो वह केवल यही कि स्त्रियों को जिन कामों की मनाही की गई है, विशेष करके उन्हीं कामों के योग्य वे पाई गई है-उन्हीं कामों में उनकी बुद्धि विशेष दिखाई दी है। क्योंकि राज्य सञ्चालन का जो उन्हें थोड़ा सा अवसर दिया गया, उससे राज्याधिकार के विषय में उनकी योग्यता निश्चयात्मक रूप से सिद्ध हो चुकी, इससे विरुद्ध प्रतिष्ठा-सम्पादन में जो उन्हें पूर्ण स्वाधीनता दी गई है, उस में उन्होंने अपनी उतनी योग्यता नहीं प्रदर्शित की। संसार के इतिहास को देखेंगे तो राज्यकर्त्ता राजाओं की संख्या से राज्यकर्त्री स्त्रियों की संख्या बहुत ही कम है; और उस बहुत कम संख्या में भी जिन्होंने राजकार्य पूरी योग्यता से निभाया ऐसी स्त्रियों की संख्या सबसे अधिक है-उस में भी विशेषता यह है कि कई रानियों के राज्यकाल में राष्ट्र पर बड़े-बड़े विपत्ति के बादल आये और उन्होंने उनसे राष्ट्र की रक्षा की। इसके अलावा विशेष चमत्कार की बात यह है कि स्त्रियों के स्वभाव के विषय में लोगों की जो समझ बन गई है-अर्थात् चञ्चलता आदि दोष जो स्त्रियों के स्वभाव में माने जाते हैं, उन रानियों के चरित्र में इनके विरुद्ध गुणों की तो विशेष ख्याति हुई है। स्त्रियों के राज्य में जितनी अधिक उनकी बुद्धि की सामर्थ्य दिखाई देती है, उस ही के समान उनके मन की दृढ़ता, धीरता, विचार, समदृष्टिपन आदि गुण दिखाई देते हैं। सिंहासन पर बैठने वाली रानियों के अलावा बड़े-बड़े प्रान्तों की सूबेदारिनें, नाबालिग़ राजा के समय में राजकार्य चलाने वाली राजमाताएँ तथा स्त्रियों के अन्य प्रबन्ध-सम्बन्धी कामों की जब हम गिनती करते हैं, उस समय राजकार्य में विशेष यश प्राप्त करने वाली स्त्रियों की संख्या बहुत अधिक होजाती है।*[] यह बात इतनी निर्विवाद है कि इसका कोई उत्तर ही नहीं हो सकता-इसलिए इसी दलील को प्रतिपक्षी उलटी काम में लाने लगे। इस सच्चे प्रमाण में स्त्रियों का उपहास करते हुए उन्होंने यह प्रतिपादन किया कि राजाओं से रानियाँ अधिक योग्यता-पूर्वक राज्य चला सकती हैं इसका कारण यह है कि, राजाओं के राज्यों में वास्तविक सत्ता स्त्रियों के हाथ में होती है; और रानियों के राज्य में वास्तविक सत्ता पुरुषों के हाथ में रहती है।

६-ऐसे उपहास युक्त वचनों का जवाब देना अपने समय को व्यर्थ खोना है; पर ऐसे कथन सर्वसाधारण के मतों पर ज़रूर असर करते हैं, मानो इस बात में कोई महत्त्व भरा है ऐसा जनाते हुए मैंने बहुतों को वादविवाद करते सुना है। हमें भी कोई न कोई विषय उठा कर वाद-विवाद करना है, इसलिए इससे ही प्रारम्भ करना अच्छा है-इसलिए सब से पहले हमें यह खोज निकालना है कि इस कथन में सत्य का अंश कितना है। सब से पहले तो निश्चय-पूर्व्वक यह कहता हूँ कि इस कथन में सत्यताका लेश भी नहीं है-राजाओं के राज्य में वास्तविक राजसत्ता स्त्रियों के हाथ में नहीं होती। यदि ऐसे दृष्टान्त कभी-कभी निकल भी आते हों तो वे अपवाद रूप हैं, तथा राजाओं की निर्बलता के कारण उन पर स्त्रियों का अधिकार होने से जितने राज्यों के ख़राब होने के दृष्टान्त हैं, उतने ही दृष्टान्त पुरुषवर्ग के मर्ज़ीदानों द्वारा राज्य ख़राब होने के मिलते हैं। अर्थात् राजा के निर्बल होने पर स्त्री का उस पर जितना अधिकार होता है, उतना ही पुरुषों का भी होता है। जो विषयासक्त और स्त्रीलम्पट होता है उसका राज्य-प्रबन्ध अच्छा होना तो सम्भव ही नहीं। फ्रान्स देश के इतिहास में दो उदाहरण ऐसे मिलते हैं जिन में राजाओं ने अपनी मरज़ी से स्त्रियों के हाथ में राज्य को लगाम सौंपी। उनमें एक आठवाँ चार्ल्स, जिसने छोटे होने के कारण राजभार अपनी मां को सौंपा; पर ऐसा करने में इसने अपने बाप ग्यारहवें लुई का कहना किया था, जो अपने समय का सब से अधिक बलवान् राजा था। दूसरा राजा सेंट लुई था, जिसने राजभार अपनी बहन को सौंपा था। शार्लमैंन राजा के पीछे, उसके समान बुद्धिमान् और प्रतापी और कोई नहीं हुआ। इन दोनों राजपुत्रियों ने राज को जिस योग्यता से चलाया, उतनी योग्यता उस समय के और किसी राजा ने नहीं दिखाई। सम्राट् पाँचवाँ चार्ल्स अपने समय का बुद्धिमान् और प्रतापी राज्यकर्त्ता था। उसके दर्बार में बुद्धिमान् और नीतिकुशल मन्त्री थे। उसका मन भी इतना निर्बल न था कि अपने शारीरिक स्वार्थ के लिए वह अपने राज्य को किसी प्रकार का धक्का देता। इतना होते हुए भी उसने अपने कुटुम्ब की दो राजकुमारियों को नेदर्लेण्ड प्रान्त की सूबेदारी दी थी, और अपने राज्यकाल-भर में उसने उन्हें अदल-बदल कर क़ायम रक्खा। (पीछे यह अधिकार एक तीसरी राजकुमारी को मिला।) दोनों का कार्य बहुत ही योग्यता वाला निकला, और उनमें आस्ट्रिया को मार्गारेट तो अपने समय की प्रसिद्ध राजनीति जानने वाली हुई है। यह तो इस प्रश्न का एक बाज़ू है। अब इसे दूसरी ओर से देखें। स्त्रियों के राज्य में वास्तविक राजसत्ता पुरुषों के हाथ में होती है, इस कहावत का अर्थ, "राजाओं के राज्य में वास्तविक राजसत्ता स्त्रियों के हाथ में होती है" के समान ही है या इसका और भी कोई मतलब है? क्या लोग यह कहना चाहते हैं कि राजकार्य चलाने के लिए स्त्रियाँ जिन पुरुषों को पसन्द करती हैं, वे और कोई नहीं बल्कि जिन से उन्हें विषय-सुख प्राप्त हुआ हो वे ही होते है? इस विषय में मेरा कहना यही है कि, ऐसे उदाहरण कहीं भूले-भटके ही मिल सकते हैं। दूसरी कैथराइन के समान शिथिल आचरण वाली रानी शायद ही कहीं मिले, पर उसके राज्य में भी कभी यह नहीं घटा। और राज्यकर्तृ रानियों पर पुरुषों का अधिकार होने से जो राज्य का अच्छा होना बताया जाता है-ऐसा संयोग उपस्थित होने पर अर्थात् अपने जार को राज्यतन्त्र की डोर सौंप देने पर, तो राज्य कभी अच्छा होता ही नहीं-ऐसे दृष्टान्तों से कोई राज्य पूरा नहीं उतरा। यदि राजाओं के राज्य से रानियों के राज्य की डोर विशेष बुद्धिमान् मन्त्रियों के हाथ में होनी सच मानी जाती हो, तो इसका कारण यही होना चाहिए कि अच्छे मन्त्री चुनने की बुद्धि स्त्रियों में विशेष होती है। साथ ही यह बात भी मंज़ूर करनी चाहिए कि राज्य करने में पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियाँ अधिक योग्य हैं, तथा प्रधान मन्त्री के पद के भी वे योग्य हैं, और बड़े बड़े ओहदों को वे योग्यता से चला सकती हैं। क्योंकि तमाम राज को अकेले चलाना राजा या प्रधान मन्त्री का ही काम नहीं होता; बल्कि उनका काम यह होता है, कि राज्य भर में से योग्य से योग्य व्यक्ति चुनकर उन्हें उनकी योग्यता के अनुसार पद देते हैं। इस बात को पुरुष भी स्वीकार करते है कि मनुष्य की परीक्षा करने में स्त्रियाँ पुरुषों से योग्य हैं; यदि अन्य गुणों में वे पुरुषों का मुकाबिला थोड़ा-बहुत भी कर सकती हों, तो सत्वर परीक्षा के गुण के कारण राजकार्य चलाने के विशेष योग्य वे ही हैं। राज्य चलाने का मुख्य अङ्ग यही है कि, योग्य से योग्य मन्त्रियों का चुनाव किया जाय-और इस काम में स्त्रियाँ पुरुषों से विशेष योग्य हैं। 'कैथराइन-डी-मेडिमी' के समान सदसद्विचारशून्य राजकुमारी भी 'चान्सलर डोला हॉपिटेल' जैसे राजकार्यकुशल व्यक्ति की योग्यता पहचान सकी थी। इसके सिवा यह बात भी सत्य है कि आजतक जितनी प्रसिद्ध रानियाँ होगई हैं उन्होंने केवल अपने बुद्धिबल और होशियारी से ही प्रतिष्ठा प्राप्त की है, और इस ही गुण के कारण उनके मन्त्रियों ने ईमानदारी से उनका काम किया। राज की डोर के सब सूत्र ये रानियाँ अपने ही हाथ में रखती थीं, समय-समय पर वे अपने बुद्धिमान् मन्त्रियों से सलाह लेतीं, इससे यही सिद्ध होता है कि राज्य के उलझे हुए झगड़ों में जिस गम्भीर विवेक-बुद्धि की आवश्यकता पड़ती है, वह उनमें अवश्य थी, और इसलिए ही वे ऐसे जवाबदारियों के काम के सर्वथा उपयुक्त थीं।

७-जो मनुष्य राज्य के अत्यन्त महत्त्व वाले और जवाबदारी के अधिकार भोगने के योग्य होता है, वही मनुष्य कम महत्त्व वाले अधिकारों के अयोग्य होता है, क्या इस बात को ज़रा देर के लिए भी मान सकते है? प्रसङ्ग के अनुसार जब-जब ज़रूरत पड़ी है तब तब राजाओं की स्त्रियों, बहनों और राजकुमारियों ने राज्यकार्य चलाने में पूरी योग्यता का परिचय दिया है; फिर दर्बारियों, कामदारों, मन्त्रियों, कम्पनियों के संस्थापकों और सार्वजनिक संस्थाओं के सञ्चालकों की स्त्रियाँ, बहनें और पुत्रियाँ क्या अपने-अपने घरवालों का काम चलाने के अयोग्य है? क्या उन्हें अयोग्य मानने का कोई ख़ास कारण है? सच्चा कारण जो कुछ है वह स्पष्ट है; राजघराने में पैदा होने वाली स्त्रियाँ स्त्री होने के कारण पुरुषों से नीची अवश्य समझी जाती हैं, किन्तु कुलीनता के कारण वे अन्य पुरुषों से उच्च होती हैं। इसलिए उन्हें किसी समय इस प्रकार की शिक्षा नहीं दी जाती कि स्त्रियों को राजकार्य में हाथ न डालना चाहिए, यह स्त्रियों को शोभा नहीं देता; बल्कि चारों ओर वैसी ही घटनाओं का सन्निवेश होने के कारण एक स्वाभाविक हौंस का जागना आवश्यक है, और कभी-कभी उन घटनाओं में भाग लेने की भी उन्हें आवश्यकता आही जाती है-इसलिए राजनैतिक विषयों में सोचने-विचारने और भाग लेने की उन्हें स्वाधीनता होती है। संसार में यदि कुछ ऐसी स्त्रियाँ हैं जिनके लाभ की संख्या पुरुषों के समान है और जिनकी शक्तियों का विकाश पुरुषों के समान स्वाधीनतपूर्वक होने दिया जाता है, तो वे राजकुटुम्ब की ही स्त्रियाँ है। और इस ही बात के कारण राजघराने की स्त्रियाँ पुरुषों से किसी बात में कम नहीं होती। जिस-जिस स्थान पर, जिस परिमाण में स्त्रियों को राज्याधिकार भोगने और उनका कर्त्तव्य पूरा करने की शक्ति कसौटी पर पजोखी गई है, उन उन स्थानों पर उस परिमाण में उनकी योग्यता सिद्ध हुई है।

८-स्त्रियों की वास्तविक मनोवृत्तियों और उनकी विशेष बुद्धि के सम्बन्ध में संसार को जो कुछ थोड़ा बहुत और अधूरा अनुभव प्राप्त हुआ है, और उनके विषय में इतनी सी सामग्री से जो कुछ अनुमान बाँधा जा सकता है-वह ऊपर वाले सिद्धान्त से मिलता-जुलता होता है। पर साथ ही इस बात को भी याद रखना चाहिए कि, यह अनुमान उस ही स्थिति के लिए लागू है जो आज तक दिखाई दी है। मैं यह नहीं कहना चाहता कि, स्त्रियाँ पीछे भी अपनी यही दशा बनाये रहेंगी। क्योंकि मैं ऊपर इस बात को अनेक बार जता चुका हूँ कि स्त्रियों का स्वभाविक धर्म या विशेष गुण क्या है और क्या नहीं,-या यह निश्चय कर देना कि पीछे से स्त्रियों का धर्म अमुक होगा और अमुक नहीं-यह बड़े साहस या मूर्खता का काम है। उनके स्वाभाविक विकाश, अर्थात् उनकी मानसिक और अन्य शक्तियों को इतनी कृत्रिमता का रूप दिया गया है कि उनका प्रकृत धर्म बदले बिना न रहा होगा, और बहुत से तो बदल ही गये होंगे-यह निश्चित है। स्त्रियों का स्वाभाविक विकाश यदि पुरुषों के समान स्वाधीनता से होने दिया गया होता, और मनुष्य-जीवन के लिए जिस हद तक स्त्री-पुरुष के स्वाभाविक विकाश को कृत्रिम बनाने की आवश्यकता है, उस से ज़रा भी अधिक कृत्रिमता स्त्रियों के स्वभाव को देने की कोशिश न की गई होती, तो उस दशा में स्त्रियों के स्वभाव और शक्तियों ने जो स्वरूप धारण किया होता, उस में और पुरुषों के स्वभाव और शक्ति में कितना सूक्ष्म अन्तर होता-इसे कोई निश्चयात्मक रूप से नहीं कह सकता। मैं आगे चल कर इसे सिद्ध कर दूँगा कि, स्त्री-पुरुषों के जिन भेदों के विषय में बहुत ही कम मत-भेद है, वे भेद भी ऐसे हैं कि प्रकृतिसिद्ध न होकर संयोगभेद से उत्पन्न हो सके है। हमें स्त्रियों के विषय में जो कुछ प्रत्यक्ष अनुभव है, उससे यदि कोई निश्चयात्मक अनुमान बाँधा जा सकता है तो वह यही कि, उनकी बुद्धि की प्रवृत्ति साधारण तौर पर व्यवहार की ओर अधिक है। पहले की स्त्रियों के और अब की स्त्रियों के विषय में इतिहास से जो कुछ ज्ञान हमें मिलता है, उससे भी इसी अनुमान की पुष्टि होती है। यदि किसी विशेष बुद्धि वाली स्त्री का दृष्टान्त लिया जाय और उसकी मानसिक शक्ति के झुकाव को तलाश किया जाय, तो विशेष करके यह शक्ति ऐसी होगी कि जो संसार के प्रत्यक्ष व्यवहार में अधिक उपयोगी होगी और इसलिए स्त्रियों को व्यावहारिक बातों की ओर ही अधिक प्रवृत्ति होगी। स्त्रियों की बुद्धि को जो प्राप्त-कालज्ञ अर्थात् उपजत-बुद्धि कहते हैं, वह क्या होती है? इसका अर्थ यही है कि, प्रत्यक्ष बात झटपट और स्पष्ट रीति से उनकी समझ में आ जाती है। सामान्य नियमों के साथ इसका कुछ भी सम्बन्ध नहीं होता। सृष्टि के जो शास्त्रीय नियम निश्चित हुए हैं, वे क्या किसी प्रेरणाशक्ति से स्फुरित हुए हैं? इस ही प्रकार कर्त्तव्य के विषय में तथा बुद्धिमत्ता और शिष्टाचार के नियम भी किसी मनुष्य की प्रेरणाशक्ति से सूझे हों, यह कभी नहीं हो सकता। इस प्रकार के जो-जो नियम निश्चित हुए हैं, वे बहुत दिनों का अनुभव एकत्र करके, तथा बहुत बातों की तुलना करके, बड़ी सावधानी और शान्तता से विचार करके निश्चित होते हैं। जिनकी प्रेरणाशक्ति सब से अधिक हो वे स्त्री पुरुष इस विषय में कभी आगे नहीं बढ़े। अपवाद केवल इतना ही है कि इन नियमों को निश्चित कर लेने के लिए जितने अनुभव की आवश्यकता होती है वह यदि बाहरी सहायता के बिना पूरा मिल सका हो, तो उनके हाथ से भी ये नियम निश्चित हो सकते हैं-यह हो सकता है। क्योंकि उनकी प्रेरणाजन्य तीक्ष्ण बुद्धि के कारण स्वावलोकन के जो साधन उन्हें प्राप्त होते हैं उनसे सामान्य नियम बना लेने की योग्यता आती है, इसलिए जो स्त्रियाँ पुरुषों की तरह पठन-पाठन और शिक्षा के द्वारा लोगों का अनुभव प्राप्त करने में भाग्यशाली हो सकती हैं, (भाग्यशाली कहने का अभिप्राय यह है कि, संसार के बड़े-बड़े काम करने की योग्यता जिस शिक्षा या ज्ञान के द्वारा हो सकती है उस ज्ञान को स्त्रियाँ केवल आत्मशिक्षा से ही प्राप्त कर सकती हैं। वे व्यवहारदक्षता का ज्ञान पुरुषों से कहीं अधिक पा सकती हैं। जिन पुरुषों को हद दरजे की ऊँची तालीम दी जाती है उन्हें भी मौजूदा हालतों का ज्ञान कम होता है। जो बातें उन्हें इसलिए सौंपी जाती हैं कि वे उसके ठीक लक्ष्य पर पहुँचें, उन बातों का प्रत्यक्ष तत्त्व तो उन की आँखों के सामने बहुत ही कम आता है और उस तत्त्व के होने की जो शिक्षा उन्हें दी जाती है उसी पर वे जा पहुँचते हैं; पर स्त्रियों के विषय में यह बात बहुत ही कम घटती है। उन में जो प्रत्यक्ष स्वरूप को तत्काल भाँप जाने की शक्ति होती है-उस ही की कृपा से वे ऐसी भूलों से बचती हैं। जिनका अनुभव और बुद्धि समान हो ऐसे दो स्त्री-पुरुषों को चुना जाय-तो जो घटना प्रत्यक्ष रूप से उनके सामने घटित होगी, उसके वास्तविक स्वरूप को पुरुष की अपेक्षा स्त्री अधिक सरलता से समझ लेगी। अभी शास्त्रीय ज्ञान को एक ओर रख कर व्यवहार-ज्ञान पर ही विचार करें, तो वर्तमान काल की स्थिति का सच्चा प्रतिविम्ब मन पर उत्कृष्ट रीति से अङ्कित होने का गुण ही अधिक उपयोगी मालूम होगा। सामान्य नियमों को निश्चित कर डालना काल्पनिक शक्ति का काम है। इस बात को खोज निकालना कि, यह नियम किन-किन बातों में लागू हो सकता है और किन किन में नहीं और इस विचार के अनुसार ही उसका संघटन करना व्यवहारदक्षता का काम है; और इस काम के लिए स्त्रियों की वर्तमान स्थिति उन्हें विशेष योग्य बनाती है। इसे मैं स्वीकार करता हूँ कि, सामान्य नियमों के समझे बिना आचार या व्यवहार से अच्छा फल नहीं प्रकट किया जा सकता, इस ही प्रकार स्त्रियों की शक्तियों में तीव्र ग्राहक-शक्ति या शीघ्रावलोकन के उत्कृष्ट होने से केवल अपने अनुभव पर निस्सीम भरोसा करके अनुमान बनाने में उनसे विशेष भूलें होनी अधिक सम्भव है-यह भी मुझे स्वीकार करना चाहिए। यद्यपि जैसे-जेसे उनका अनुभव बढ़ता जाता है वैसे ही वैसे वे भी अपने विचार बदलने के लिए तैयार होती जाती हैं। किन्तु स्त्रियों में जो यह दोष या न्यूनता है, यदि इसे हटाने की कोशिश की जाय तो यह किया जाय कि उनके लिए मनुष्य-जाति के अनुभव के दरवाज़े खोल दिये जायँ-अर्थात् ऐसे उपाय किये जायँ जिन से उनका सामान्य ज्ञान बढ़े-वे बहुश्रुत बनें। यह दोष शिक्षा के द्वारा टाला जा सकता है-यह कमी शिक्षा से पूरी हो सकती है। स्त्रियों के हाथों से जो भूलें होनी सम्भव है, वे उस ही प्रकार की होंगी जैसो एक होशियार और आत्मशिक्षित पुरुष से होनी सम्भव है। एक ही स्थिति या परिपाटी में पड़ा हुआ मनुष्य जिन बातों को नहीं समझ सकता, उन बातों को स्त्रियाँ सरलता-पूर्वक समझ लेती हैं, पर जिन बातों का ज्ञान संसार को एक अर्से पहले से मिल जाता है उन बातों से अनजान होने के कारण उनके हाथ से ग़लतियाँ होती हैं। जैसे पहले बहुत से ज्ञान का अनुभव उसे हो जाता है, क्योंकि यदि यह भी न हो तो वह आगे बढ़ ही नहीं सकता; पर वह ज्ञान क्रमबद्ध नहीं होता, बल्कि अव्यवस्थित और टुकड़े-टुकड़े होता है। स्त्रियों का ज्ञान भी इस ही प्रकार अव्यवस्थित-बेसिलसिले का होता है।

९-किन्तु एक ओर स्त्रियों को प्रत्यक्ष दृष्टि की प्रवृत्ति के कारण जो गलतियाँ होनी सम्भव हैं, दूसरी ओर इस प्रवृत्ति के न होने पर जिस प्रकार की भूलें हो सकती हैं, उन्हें रोकने के लिए यह प्रवृत्ति ढाल का काम देती है। जिन व्यक्तियों में कल्पनावृत्ति की विशेषतः होती है उन में सब से बड़ी कमी यह होती है कि झटपट प्रतीति कराने के लिए शीघ्रावलोकन-शक्ति उन में कम होती है। इस कमी के कारण, किसी भी महत्त्व के प्रश्न के विषय में वे जो कल्पना करते हैं, वह प्रत्यक्ष बातों की विरोधिनी होने पर भी, उस विरोध का यथार्थ ज्ञान उन्हें नहीं होता। इतना ही नहीं, बल्कि बहुत बार तो वे तत्त्वचिन्तन के मुख्य उद्देश को भी भूल जाते हैं, इसलिये उन की कल्पना-शक्ति पर किसी प्रकार का दबाव ही नहीं रहता, और वे ऐसे प्रदेशों में भ्रमण करने लगते हैं जहाँ सजीव या निर्जीव किसी भी प्रकार की कल्पित सृष्टि नहीं बसती; किन्तु जहाँ केवल अध्यात्मशास्त्र के भ्रान्तियुक्त सिद्धान्तों की सहायता से या केवल शब्द-जाल के गूँथने से उत्पन्न हुए मूर्तिमान् छायामय प्राणी निवास करते हैं। उनकी कल्पनाशक्ति ऐसी छायामय कल्पित सृष्टि को ही अत्यन्त उदात्त और महत्व के तत्त्वचिन्तन का योग्य विषय समझती है। जो अध्ययनशील मनुष्य अनुभव और अवलोकन के द्वारा केवल ज्ञान का सम्पादन करने में लगा रहे, और इस प्रकार प्राप्त हुए ज्ञान पर बड़े-बड़े व्यापक प्रभेद पैदा करके शास्त्रीय सत्य या आचार के नियम निश्चित करने के काम में प्रवृत्त होना चाहता हो-और इसे वह वास्तविक बुद्धि-सम्पन्न स्त्री की देख-रेख या सलाह से करे, तो उसे विशेष लाभ होना सम्भव है। उसके ऊपर उड़ते हुए विचारों को प्रत्यक्ष प्रदेश में तथा संसार में वास्तविक रीति से घटने वाली मर्यादा के भीतर रखने का इससे अच्छा साधन और कोई नहीं हो सकता। क्योंकि केवल कल्पित दृष्टि पर ही रीझने वाली स्त्री भाग्य से ही खोजे मिलेगी। स्त्री के मन का झुकाव सब वर्गों की अपेक्षा नीचे वर्ग पर अधिक होता है, और उनके चित्त वर्तमान क्रिया या मनोवृत्ति को विशेष सोचते हैं, इसलिए जब कोई प्रत्यक्ष व्यवहार में प्रचलित करने योग्य बात उनके सामने आती है तब वे सब से पहले यह विचार करती हैं कि, इसके प्रचलित होने पर लोगों की दशा क्या होगी। इन दोनों गुणों के कारण, जिस कल्पना या व्यवस्था में वास्तविक व्यक्ति का सम्बन्ध नहीं माना गया है, जिस में सजीव प्राणियों के अन्तर्गत मनोभावों का विचार नहीं किया गया, और जिस वस्तुमात्र की स्थिति केवल एक-आध कल्पित प्राणी या व्यक्ति समुदाय का हित लक्ष्य में रख कर बनाई गई हो, जो दीवार ऐसी ही समझ की नींव पर उठाई गई हो-तो केवल ऐसी मानसिक सृष्टि पर स्त्रियों को बिल्कुल विश्वास नहीं होता। इससे स्त्रियों के विचारों को अधिक उदार और विशाल बनाने के लिए पुरुषों के विचार जितने उपयोगी हैं, उतने ही उपयोगी स्त्रियों के विचार तत्त्वचिन्तन में लीन होने वाले पुरुषों के विचारों को व्यवहारोपयोगी बनाने में हैं। जब विचारों की गम्भीरता के विषय में विचार करते हैं, तब पुरुषों की समानता में स्त्रियाँ कम हैं-इस में सन्देह है-अर्थात् विचार-गाम्भीर्य में स्त्रियाँ पुरुषों से कम नहीं है।

१०-इस प्रकार विमर्श या तत्त्वचिन्तन में जैसे स्त्रियों के मानसिक विशेष गुण उनके सहायक हो सकते हैं, वैसे ही चिन्तन के परिणाम में जो सिद्धान्त निश्चित होते है उन्हें व्यवहार में लाते समय भी स्त्रियों के ऊपर कहे हुए विशेष गुण उन्हें पूरी सहायता देते हैं। क्योंकि इस विषय में पुरुषों के हाथों से जिन भूलों का होना सम्भव है, वे भूलें ऊपर कहे हुए विशेष गुणों के कारण स्त्रियों से बहुत कम होनी सम्भव हैं। ऐसे प्रसङ्ग पर एक ही मार्ग का अनुसरण नहीं किया जाता। किसी भी साधारण नियम को किसी विषय पर प्रचलित करने से पहले, उसकी ख़ास बातें बारीकी से जाँची जाती हैं, या खास प्रसङ्गों पर नियम में लौटफेर करना पड़ता है। और ऊपर बताये हुए गुणों के कारण किसी बात में पैर बढ़ाने से पहले आस-पास के संयोगों पर विचार करने की आदत स्त्रियों की अधिक मालूम होती है। अब, एक दूसरे गुण में जो स्त्रियाँ पुरुषों से अधिक समझी जाती हैं, वह गुण पदार्थ की वास्तविक स्थिति को झटपट समझ जाना है। संसार में अपना पैर आगे बढ़ाने के लिए क्या यह गुण अत्यन्त आवश्यक नहीं है? कोई प्रसङ्ग प्राप्त होने पर झटपट उसे समझ कर निर्णय कर डालना, संसार में सफलता का पहला आधार है। तत्त्वचिन्ता के काम में इस गुण की विशेष आवश्यकता नहीं पड़ती। जिसे केवल चिन्तन या मन का काम करना पड़ता है, वह यदि अपने अन्तिम निर्णय पर पहुँचने से पहले विचार के लिए समय माँगे-तो यह हो सकता है। यदि प्रमाण देने के लिए वह कुछ ठहरना चाहे तो उसे बहुत समय मिल सकता है; वह समय की डोर से बँधा नहीं होता कि, अमुक समय तक उसे अपनी मीमांसा पूरी कर ही डालनी चाहिए। प्राप्त अवसर को खो दूँगा तो पछताना पड़ेगा, और प्रारम्भ किया हुआ काम फिर पूरा न कर सकूँगा-ऐसी चिन्ता से उसका पाला ही नहीं पड़ता। हाँ, यह अवश्य है कि जितने प्रमाण हाथ लग सके हों, उनके द्वारा उत्तम से उत्तम सिद्धान्त जितना पुष्ट किया जा सकता है, वह उसे कर देगा। जितनी जानकारी या प्रमाण मालूम हो सके हों, उतनी ही से काम चलाऊ उपपत्ति या सिद्धान्त बना लेने से-उस विषय की अधिक खोज करने का काम बहुत कुछ सरल हो जाता है-और बहुत से अवसरों पर तो ऐसा करने की आवश्यकता ही होती है। किन्तु यह तो निश्चित है कि इस प्रकार की शक्ति या यह गुण-चिन्तन की योग्यता का प्रधान अङ्ग नहीं है, बल्कि सहायक है। तत्त्वचिन्तन के मुख्य कार्य के विषय में तथा उसके सहायभूत गौण कार्य्यों के सम्बन्ध में, तत्त्वचिन्तक जितना समय लेना चाहे उतना लेने को उसे पूरी आजादी है। उसे जो कुछ करना होता है उस में जल्दी या घबराहट का कोई कारण ही नहीं होता-इसके विरुद्ध उसे धैर्य और शान्ति की विशेष ज़रूरत होती है। जिस विषय को वह उठाता है उसके प्रत्येक अङ्ग पर जब तक प्रकाश न पड़े तब तक उसे उसकी राह देखनी पड़ती है-अधूरे ज्ञान पर वह जो तर्क करता है, उसे जब तक सिद्धान्त की योग्यता प्राप्त नहीं होती तब तक स्वस्थ चित्त से उस में ही लगा रहना पड़ता है। दूसरी ओर, जिनका काम नित्य के व्यवहार से पड़ता है-जिन्हें अनित्य और अल्प बातों से लाभ उठाना पड़ता है-ऐसे मनुष्यों के लिए झटपट निर्णय पर पहुँचाने वाली बुद्धि की अधिक आवश्यकता है-बल्कि इसके विषय में यदि यह कहा जाय कि, यह विचारशक्ति के समान ही उपयोगी है तब भी कोई हानि नहीं। जिस व्यक्ति की बुद्धि प्रसङ्ग आते ही झटपट काम करने योग्य नहीं बन जाती, वह निकम्मी सी ही है। वे यदि किसी की टीका-टिप्पणी या समालोचना करना चाहें तो तो भले ही कर सकें, पर किसी काम को करके दिखा देने की योग्यता उन में नहीं होती। इस गुण में सम्पूर्ण स्त्री-वर्ग और स्त्रियों के समान स्वभाव वाले कितने ही पुरुष-अन्य पुरुषों से विशेष हैं। जिन पुरुषों में यह गुण नहीं होता, उनकी अन्य शक्तियाँ चाहे जैसी अपूर्व या अलौकिक हो, पर उन पर पूरा कब्जा तो थोड़े अनुभव के बाद ही कर सकते हैं। जिन बातों के विषय में वे पूरी जानकारी रखते हैं उन बातों के विषय में भी सच्चे और बुद्धिमत्ता से भरे हुए निर्णय पर पहुँचने में उन्हें अधिक समय लगता है। किसी काम को झटपट कर डालने की आदत उन में एक अर्से के बाद और लम्बे प्रयास के अन्त में आती है।

११-अब सम्भवतः बहुतों का यह प्रश्न होगा कि, स्त्रियों के हृदय कोमल और तात्कालिक घटना की ओर विशेष झुकने वाले होते हैं-इसलिए स्वाभाविक रीति से घरेलू काम-काजों को छोड़ कर बाक़ी के लिए वे अयोग्य है। उनके मन बहुत चञ्चल होते हैं, उनके निश्चय घड़ी-घड़ी में बदलते हैं, जो बात उनके मन में जम जाती है उस पर हठ किये रहती है-निश्चय-पूर्व्वक किसी काम को पकड़ने की दृढ़ता उन में नहीं होती, उनकी बुद्धि के अस्थिर होने के कारण उनकी मानसिक शक्ति के व्यापार अनिश्चित और अस्थिर होते है। जब बड़ी-बड़ी ज़िम्मेदारियों और महत्त्व के कामों के अयोग्य स्त्रियों को बताया जाता है, और उनकी अयोग्यता सिद्ध करने के लिए कारण दिये जाते है-तब वे ऐसे ही होते है जैसे हम ऊपर लिख चुके हैं। इस दोष का सच्चा रूप तलाश करेंगे तो मालूम होगा कि, बहुत से अंशों में तो स्त्रियों की कार्य्य-शक्ति योग्य क्षेत्र न मिलने के कारण व्यर्थ चली जाती है, इस ही लिए उन में कुछ दोष उत्पन्न हो जाते हैं, और यदि वह कार्य्यशक्ति अपने योग्य कार्य्य में लगाई जाय, तो वे दोष नष्ट हो जायँगे। कुछ दोष तो अनजान-पन से और कुछ इरादतन जान-बूझ कर बढ़ाये जाते हैं। उदाहरण के तौर पर; वाही-तवाही बकना, भूत-प्रेत का सिर पर चढ़ कर बोलना आदि रोग एक ज़माने में स्त्रियों पर अधिक देखे जाते थे। पर ऐसी हालत में जो इज्ज़त समझी जाती थी वह जब कम होगई तब यह रोग भी नहीं रहा। अब इसका भी विचार करना है कि उच्च वर्ण वाली स्त्रियाँ कैसी स्थिति में बड़ी होती हैं और उन्हें किस प्रकार अपना जीवन बिताना पड़ता है। बाग़ में लगाये हुए नाज़ुक पौधे की तरह उन्हें शुद्ध और खुली हवा कभी नसीब नहीं होती, इसलिए उनकी शारीरिक प्रकृति सर्व्वथा नीरोग नहीं रहती। उन्हें इस प्रकार के उद्योग-धन्धे या कसरत के खेलों की मनाही होती है जिनसे खून बदन में चक्कर मारे और स्नायु मज़बूत हों तथा उनके मनोविकार अस्वाभाविक गति से जाग्रत रक्खे जाते हैं। इन अनेक कारणों से स्त्रियाँ प्रायः क्षयरोग की शिकार बनकर मौत का निवाला बनती हैं, और जो इससे बच जाती हैं उनके शरीर और मन इतने कोमल और नाज़ुक हो जाते हैं कि छोटे-छोटे कारणों के असर से भी उन में विकार पैदा हो जाता है-तथा ऐसे काम जिन में दीर्घकाल तक मन और शरीर लगाने की आवश्यकता होती है, ऐसी शारीरिक या मानसिक शक्ति उन में शेष नहीं रहती। किन्तु जिन स्त्रियों को अपने उदर निर्व्वाह के लिए मिहनत-मजदूरी करनी पड़ती है उन में ऐसी कमज़ोरी बहुत कम देखी जाती है। यह विकार उन में भी प्रविष्ट हो जाता है जिन्हें एक अनारोग्य स्थान पर बैठे-बैठे विवशता में काम करना पड़ता है। जिन स्त्रियों को छुटपन से अपने भाइयों के समान आरोग्यवर्धक व्यायाम और खुली हवा में घूमने-फिरने का लाभ मिलता है, और पीछे से भी जिन्हें स्वच्छ हवा और आवश्यकता के अनुसार शारीरिक व्यायाम करने का अवसर मिलता रहे-वे स्त्रियाँ शारीरिक या मानसिक परिश्रम की योग्यता नहीं खो बैठतीं-तथा ऊपर वाले दोष भी उन में नहीं आते। यह ठीक है कि स्त्रियों तथा पुरुषों में बहुतों की शारीरिक गठन ही इस प्रकार की होती है कि उनका मन बड़ी सरलता से झटपट विकार के अधीन हो जाता है, और इस प्रकार की मानसिक दुर्बलता उन पर बहुत बड़ा असर करती है। शारीरिक विशेष रोग के अनुसार यह दोष भी सन्तान प्रति सन्तान पीढ़ियों तक जाता है और कन्या तथा लड़के में समान रूप से उतरता है; यह भी हो सकता है कि पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों में विशेष हो। मैं इसे स्वीकार कर रखता हूँ कि, ऐसी प्रकृति वाली स्त्रियों की संख्या पुरुषों की संख्या से कहीं अधिक है; पर साथ ही इस विषय में, मैं यह प्रश्न भी करता हूँ कि क्या ऐसी पित्त-प्रकृति वाले पुरुष, पुरुष-वर्ग के करने योग्य कामों के अयोग्य समझ जाते हैं? यदि वे अयोग्य न समझे जाते हों तो उसी प्रकृति वाली स्त्रियाँ क्यों अयोग्य समझी जाती हैं। यह ठीक है कि, बहुत से धन्धों में अधिकांश यह प्रकृति अयोग्य होती है-पर साथ ही यह भी निश्चित है कि बहुत से धन्धों में यही प्रकृति विशेष उपयोगी भी होती है। इसके साथ ही यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि, इस प्रकृति वाले मनुष्य जिस काम में लगे होते हैं-फिर वह चाहे उनको प्रकृति के अनुकूल हो या प्रतिकूल पर हमारे देखने में ऐसे बहुत से उदाहरण आते हैं जिन में उन्हें पूरी सफलता हुई है। अन्य शान्त और सतोगुणी प्रकृति वाले मनुष्यों की अपेक्षा ऐसे मनुष्यों में प्रवेश अधिक होता है, जब ये आवेश में होते हैं तब उनकी शक्ति कई गुणी अधिक दीप्त हो उठती है और उस समय उन्हें अपनी भी याद भूल जाती है-और इसलिए स्वस्थ दशा में जो काम उन के हाथ से नहीं हो सकते, उन्हें आवेश की दशा में वे सरलतापूर्व्वक कर डालते है। फिर यह आवेश या प्रोत्साहक गुण क्षणिक नहीं होता-यह गुण ऐसा नहीं होता कि बिजली की तरह चमक कर लोप हो जाय और फिर कुछ रहे ही नहीं। तामसी और पित्त-प्रकृति वाले मनुष्यों का स्वभाव ही ऐसा होता है कि एक बार वे जी लगा कर जिस काम में लग जाते हैं-फिर उसे पूरा करने तक समान भाव से वैसे ही लगे रहते हैं। व्यवहार में लोग जिसे "पानी" कहते हैं, यह वही गुण है। घुड़-दौड़ में शर्त जीतने वाले "पानीदार" घोड़े कमर या पैर के टूटने तक समान वेग से भागे चले जाते हैं-वे इसी गुण के कारण। कमज़ोर और नाज़ुक स्त्रियों पर अत्याचार किया जाता है, उन पर शारीरिक और मानसिक सङ्कटों की बौछार होती रहती है, और अन्त में सिसका-सिसका कर बेरहमी से उनकी जान ली जाती है-पर वे अपने दृढ़ निश्चय को नहीं छोड़तीं और हजार आपत्ति सह कर भी अपनी मर्य्यादा भङ्ग नहीं होने देतीं-वह इस ही गुण के कारण। यह स्पष्ट है कि, इस प्रकृति वाले व्यक्ति मनुष्य-समाज के उच्च अधिकार भोगने योग्य है। इस प्रकृति वालों में बड़े-बड़े व्याख्यानदाता, लेखक, धर्म्मोपदेशक, तथा लोगों के अन्तःकरण पर उत्कृष्ट चरित्र की मुहर लगा देने वाले व्यक्ति अधिक निकलने सम्भव हैं। सम्भवतः, कोई यह समझता होगा कि, इस प्रकृति वाले व्यक्तियों में न्यायाधीश या मन्त्री आदि के गुण कम होते होंगे; किन्तु यह मानने का कारण उन्हीं व्यक्तियों के विषय में हो सकता है जो हर समय आवेश ही आवेश में रहते हों-किन्तु इस प्रकृति की किसी इष्ट दिशा की ओर झुका देना शिक्षा का काम है। जिनके मनोविकार तीव्र और वेगशाली होते हैं उनका आत्म संयम भी दृढ़ होता है-अर्थात् आत्मनिग्रह के काम में भी वे वीर होते हैं, पर मैं ऊपर जो कुछ कह आया हूँ वैसा मार्ग उन्हें मिलना चाहिए। उन्हें आत्मनिग्रह की शिक्षा मिलनी चाहिए। यदि उन्हें वह शिक्षा मिले तो मन में आते ही वे उस काम को एकदम कर डालने वाली प्रकृति के होते हैं, और आत्मनिग्रह के काम में भी वे पूर्ण रीति से चमक उठते हैं। पिछले इतिहास और हमारे अनुभव से यह सिद्ध होता है कि, जिनके मनोविकार अत्यन्त प्रबल और तीव्र होते हैं, उन्हें जिस ओर झुका दिया जायगा-उस ही कर्त्तव्य-पालन में वे आमरण दक्षता से लगे रहेंगे। किसी काम से न्यायाधीश का झुकाव एक ओर हो जाने पर भी-फिर जो वह बराबर तुला हुआ फैसला करता है तो उसी आत्म संयम और दृढ़ निश्चय से-उसकी न्यायबुद्धि को बारम्बार दृढ़ बनाने में उत्तेजना मिलती है, और इसलिए मनोजय करने वाली उसकी भक्ति बलवान् होती जाती है। जिस प्रासङ्गिक उदात्त उल्लासवृत्ति के कारण मनुष्य एक समय में अपना वास्तविक स्वभाव भूल जाता है, वह उल्लास-वृत्ति उसके स्वभाव पर विशेष असर किये बिना नहीं रहती। प्रसङ्ग के अनुसार जो इस प्रकार की स्थिति हो जाती है, तथा इस स्थिति में अपनी महत्त्वाकाङ्क्षा और अपनी सामर्थ्य का जो अनुभव होता है-उस के साथ ही वह अपने अन्य समय के विचार और बर्ताव की समानता करके देखता है-और इस को ही अनुकरण करने के योग्य समझता है। यदि मनुष्य-जाति की शारीरिक रचना का विचार करें तो यह उत्साह और यह उल्लास वृत्ति क्षणिक ही मालूम होगी, किन्तु ऐसे उत्साह के अवसरों पर उन में जिन उच्च विचारों का सञ्चार होता है, उनके अनुसार ही अपनी टेव बना कर सदा बरतने की इच्छा होती है।

ख़ास व्यक्तियों के तथा समग्र प्रजा के अनुभव को यदि ध्यान में रक्खेंगे तो इस अनुमान को पुष्टि मिलेगी कि, जो मनुष्य आवेश के वश में होजाने वाली प्रकृति के होते हैं वे विचार करने योग्य तथा व्यावहारिक कामों में मिन्न प्रकृति वाले मनुष्यों की अपेक्षा अयोग्य नहीं होते। फ्रेञ्च और इटालियन लोग स्वभाव से ही ट्यूटॉनिक प्रजा से विशेष चञ्चल और रजो- गुण-विशिष्ट प्रकति वाले होते है। और फिर अँगरेजों के साथ उनका मुकाबिला करते हुए तो उनके जीवन-क्रम पर मनो- विकारों का असर बहुत अधिक जान पड़ता है। पर इससे क्या वे शास्त्रीय खोज के काम में, न्याय और कानून के काम में, सार्वजनिक और युद्ध-सम्बन्धी कामकाज में, किसी प्रकार अँगरेजों से कम मालूम होते हैं ? इस ही प्रकार प्राचीन यूनानी भी अपने वंशजों ही के समान आवेश वाले थे -इसके बहुत से प्रमाण हैं। पर मनुष्य-जाति जिन-जिन बातों में आगे बढ़ी, उन सब में यूनानियों ने पहला स्थान लिया- इसके सिद्ध करने की आवश्यकता ही नहीं है। योरप के दक्षिण प्रान्त में रहने वाले यूनानी भी इस ही प्रकृति वाले थे। पर उन्हें जैसी राष्ट्रीय शिक्षा मिलती थी, उसके अनु- सार सौम्य प्रकृति वाले न बन कर वे स्पार्टन लोगों के समान कड़े थे, इसलिए उनके राजनैतिक गुण भिन्न प्रकार के ही बन गये थे। उनकी स्वाभाविक तीव्रता को पीछे से शिक्षा के संयोग के कारण जो मार्ग मिला था, उससे उनका वास्तविक स्वभाव मालूम होता था। आवेश वाली प्रकृति के लोगों को कैसा बनाया जा सकता है, यह ऊपर वाले उदाहरण से अधिक स्पष्ट होता है; किन्तु इस प्रकृति वालों को यदि किसी प्रकार का भुकाव न दिया जाय तो वे कैसे रहें इसका उदाहरण आयरिश और केल्ट लोगों से समझा जा सकता है। (किन्तु ये लोग भी अपनी मूल स्थिति में रहे हैं या नहीं, इस में भी सन्देह है। क्योंकि हज़ारों वर्ष के दुष्ट राज-व्यवहार के परोक्ष असर के कारण, तथा कैथोलिक सम्प्रदाय की विशेष श्रद्धा और उसके धर्मोपदेशकों के असर के कारण,उनकी वास्तविक प्रकृति में लौट-फेर न हुआ हो, यह हो नहीं सकता।) इसलिए आयरिश लोगों का उदाहरण योग्य न समझना चाहिए। फिर भी म ख़ास-खास व्यक्तियों ने अनुकूल अवसरों पर अपने जैसे उच्च विचार प्रकट किये है, वैसे विचार क्या और भी किसी प्रजा ने व्यक्त किये है। फेच्च लोगों की तुलना अँगरेजों के साथ की जाय, आयरिश लोगों को स्विस लोगों से की जाय, यूनानी और इटालियन लोगों की जर्मन लोगों से की जाय तो मालूम होगा कि दोनों समान रीति से एक काम को करने के योग्य हैं-केवल किसी-किसी काम में कोई-कोई मनुष्य ही विशेष प्रवीण होता है। इस ही प्रकार स्त्रियों का मुकाबिला यदि पुरुषों से किया जायगा तो एक काम के लिए दोनों समान योग्यता वाले प्रतीत होंगे; और जैसा सदैव हुआ करता है वैसे ही कुछ कामों में कुछ व्यक्ति विशेष प्रवीण निकल आवेंगे। किन्तु स्त्रियों को आज तक जो शिक्षा दी गई है, इस कारण, और उनकी शारीरिक बनावट के कारण, पैदा होने वाले मूल दोष और भी अधिक दृढ़ और सबल हो गये हैं; यदि अब उस शिक्षा के बदले उन्हें इस प्रकार की शिक्षा दी जाय कि जिसके कारण उनके मूल दोष दृढ़ होने के बदले मिटते जायँ, तो निस्सन्देह स्त्रियाँ भी पुरुषों के समान दृढ़ता और होशियारी से काम कर सकेंगी।

१२-फिर भी यदि हम मान लें कि स्त्रियों के मन पुरुषों की अपेक्षा अधिक चञ्चल होते हैं, दीर्घकाल तक एक ही काम के पीछे पड़ कर उसे पूरा कर डालने का दृढ़ निश्चय उन में नहीं होता, तथा उनकी बुद्धि केवल एक मार्ग का अवलम्बन करके उसकी चर्म्मसीमा तक पहुँचने की अपेक्षा बीच में ही इधर-उधर झुक जाने वाली होती है; तो प्रस्तुत काल की स्त्रियों पर चाहे यह उक्ति पूर्ण रूप से घटती हो। (यद्यपि इस में भी अपवाद के बहुत से उदाहरण निकलते हैं।) जिन विषयों में मन को एक ही विचार और एक ही प्रवृत्ति में रखने की आवश्यकता होती है, उन विषयों में स्त्रियों का पुरुषों से कम रह जाना भी इन्हीं कारणों से होगा-इसका कारण भी यही हो सकता है। फिर भी यह भेद उत्कृष्टता का बाधक तो नहीं हो सकता। इसका परिणाम यही होता है कि अमुक विषय में स्त्रियाँ पुरुषों के समान प्रभावित नहीं होती; पर इससे यह सिद्धान्त नहीं निकलता कि स्त्रियाँ किसी भी बात में पुरुषों की बराबरी नहीं कर सकतीं-इससे यह सिद्ध नहीं होता कि स्त्रियाँ पुरुषों के समान बुद्धिशालिनी नहीं हैं,-तथा इससे यह भी सिद्ध नहीं होता कि व्यवहार में उनकी बुद्धि का उपयोग कम होता है। बल्कि, मानसिक शक्तियों से अन्य काम न लेकर उन्हें एक ही ओर झुका देना-समग्र विचार-शक्ति को एक ही विषय में लीन कर देना-एक ही काम में एकाग्र कर देना; मानुषी शक्तियों के लिए कितना हितकर और स्वयंसिद्ध है, सो बताना अभी बाक़ी है। बुद्धि की एकाग्रता के विषय में मेरा मत है कि, एकाग्रता की आदत के द्वारा बुद्धि का एक विशिष्ट विकाश करने से एक ओर जितना लाभ होता है; दूसरी ओर उतनी ही हानि होती है। क्योंकि एक काम को छोड़ कर संसारके और कामों के योग्य उसकी बुद्धि नहीं रहती। और विमर्श या तत्त्वचिन्तन के विषय में मेरी राय है कि किसी गूढ़ प्रश्न पर निरन्तर अस्खलित रीति से विचार करने की अपेक्षा, बीच-बीच में विश्राम लेते हुए, या अन्य कामों को देख कर फिर उस प्रश्न को हाथ में लेने से अधिक काम होता है। छोटे-मोटे सांसारिक व्यवहारों पर विचार करने से, बुद्धि का बहता हुआ प्रबल वेग मन्द पड़ जाता है और एक विषय से झट पलट कर दूसरे विषय में मन लगाने की शक्ति पैदा होती है-यह गुण बहुत ही कीमती है। स्त्रियों का मन चञ्चल होने के कारण उन्हें दोष दिया जाता है, किन्तु इस दोष के ही कारण उन में ऊपर वाला गुण विशेष होता है। सम्भवतः, यह शक्ति उन में स्वभावसिद्ध होगी, किन्तु यह तो निश्चित है कि शिक्षा और अभ्यास की सहायता से उन में यह शक्ति आई है। क्योंकि लगभग स्त्रियों के सभी व्यवसाय ऐसे हैं कि उन्हें छोटी-मोटी किन्तु विविध प्रकार की बातों को देख-रेख रखनी पड़ती है। इसलिए स्वतन्त्र विचार करने के लिए उन्हें एक पल भी नहीं मिलता-और इसके विरुद्ध एक ही समय में अनेक बातों का ख़याल रखना पड़ता है। यदि किसी विषय पर अधिक समय तक विचार करने की आवश्यकता ही होती है तो विविध कामों से समय काटकूट कर वे उस पर विचार कर ही लेती हैं। बहुत बार तो ऐसे संयोग इकट्ठे हो जाते हैं, और काम को इतनी मारामारी होती है कि विचार करने के लिए जरा भी अवकाश नहीं होता; यदि कोई पुरुष ऐसी स्थिति में फँस जाय तो वह काम बिगाड़ कर यही कहे कि,-"मैं क्या करूँ, मुझे विचार करने की फुरसत ही नहीं मिली।" किन्तु ऐसी स्थितियों में भी स्त्रियों ने विचार कर लिया है-ऐसे बहुत से उदाहरण हमारे सुनने में आते हैं। पुरुष जिस को करता है और जब उससे फुरसत पाता है तब उसका मन विश्राम करता है अर्थात् शून्य रहता है किन्तु स्त्री का मन किसी समय विश्राम नहीं करता। किसी न किसी छोटी-मोटी बात के ही विचार में उसका मन लगा रहता है। यदि स्त्रियों का धन्धा देखेंगे तो यही होगा कि, एक समय में उन्हें अनेक बातों की ख़बरगीरी करनी पड़ती है; इसलिए जैसे सांसारिक व्यवहार किसी समय नहीं रुकते वैसे ही स्त्रियों का मन भी कभी ख़ाली नहीं रहता।

१३-बहुतों का कहना यह भी है कि पुरुषों में स्त्रियों की अपेक्षा बुद्धि अधिक होती है, इसे शरीर-शास्त्र के द्वारा भी सिद्ध किया जाता है-पुरुषों के मस्तिष्क स्त्रियों के मस्तिष्कों से बड़े होते हैं। इस विषय में सब से पहले तो मेरा कहना यही है कि, यह बात ही सन्देह-युक्त है। अभी तक इस बात का पूर्णरूप से निश्चय नहीं हुआ कि स्त्रियों के मस्तिष्क पुरुषों के मस्तिष्क से छोटे होते ही हैं। यदि यह अनुमान इस बात पर बाँधा गया हो कि स्त्रियों के शरीर पुरुषों के शरीर से कुछ छोटे होते हैं, तो इस मार्ग से चलने पर तो इसका परिणाम बहुत ही विचित्र होगा। इस नियम के अनुसार लम्बे-चौड़े शरीर वाले लम्बे-पूरे आदमी छोटे शरीर वाले आदमियों से ज़ियादा अकलमन्द होने चाहिएँ; और हाथी, मगर-मच्छ या व्हेल मछली अकलमन्दी में सब मनुष्यों से अधिक होनी चाहिए!! शरीर-शास्त्र का ज्ञान रखने वालों का कहना है कि न्यारे-न्यारे आदमियों के शरीर और सिर में जितना अन्तर दीखता है उसकी अपेक्षा मस्तिष्क में बहुत ही कम अन्तर है, और इसलिए ऊपर के क़द को देख कर उसका अनुमान किसी प्रकार नहीं निकाला जा सकता। बहुत सी स्त्रियों के सिर पुरुषों के सिरों के बराबर होते हैं। एक खोजी मनुष्य ने बहुत से मनुष्यों के सिर तौल कर देखे थे, उसने मुझसे कहा था कि बहुत सी स्त्रियों के सिर कुवीयर*[१०] के सिर से भी कहीं अधिक वज़नी है। फिर यह बात भी विचारने योग्य है कि, मस्तिष्क और बुद्धि में क्या सम्बन्ध है यह आज तक स्पष्ट नहीं हुआ-इस विषय में बहुत मतभेद है। हाँ, इस बात से कोई नाहीं नहीं कर सकता कि, बुद्धि और मस्तिष्क का सम्बन्ध नहीं है। मस्तिष्क विचार और बुद्धि की इन्द्रिय है। मस्तिष्क के भिन्न-भिन्न भागों का भिन्न-भिन्न मानसिक शक्तियों के साथ कैसा सम्बन्ध है, इस वादग्रस्त विषय को यदि एक ओर रख दें तो यह तो स्वीकार करना ही चाहिए कि इन्द्रिय के आकार और उसके द्वारा होने वाले कामों में नित्य सम्बन्ध है-क्योंकि जैसा उत्पत्ति-स्थान बड़ा वैसे ही उस में से उत्पन्न होने वाली शक्तियों का समुदाय भी बड़ा न होगा-यह अनहोनी सी मालूम होती है-इस बात का कहना जीवन-शक्ति और इन्द्रिय-रचना के विषय में सामान्य नियमों के ज्ञान को भुला देने के समान है। फिर यह भी निश्चय रूप से नहीं कहा जा सकता कि इन्द्रिय की शक्ति उसके आकार पर अवलम्बित है। प्रकृति की सम्पूर्ण रचना में सजीव सृष्टि सब से अधिक नाज़ुक है और उस में भी ज्ञान-तन्तुओं की कृति तो अत्यन्त सूक्ष्म है। प्रकृति की कृतियों के सम्पूर्ण सूक्ष्म व्यापारों में यह एक निश्चित नियम मालूम होता है कि, भिन्न-भिन्न इन्द्रियों के व्यापार से उत्पन्न होने वाले परिणाम में जो भेद होता है, वह जितना इन्द्रिय के आकार पर अवलम्बित है उतना ही उस इन्द्रिय की रचना पर भी अवलम्बित है। यदि किसी यन्त्र की रचना उसके बड़े आकार पर न समझी जाकर उसके कार्य्य की सूक्ष्मता और सुन्दरता पर समझी जाय-यदि यह नियम सत्य हो, तो स्त्रियों के मस्तिष्क पुरुषों के मस्तिष्क से अधिक सूक्ष्म होने चाहिएँ-यह स्पष्ट है। इन्द्रिय-रचना के भेद को निश्चित करने का काम महा कठिन है, इसलिए इसे छोड़ते हैं पर इन्द्रिय की कार्य्यशक्ति का आधार जितना उसके आकार पर होता है, उतना ही उसकी चपलता पर भी होता है-और इस चपलता को निश्चित करने का काम उससे सरल है। इसका आधार उस इन्द्रिय में होकर ख़ून के वेग से बहने पर है, क्योंकि इन्द्रिय को वेग देने वाली और इसे फिर से पूर्व्व-स्थिति पर पहुँचाने वाली शक्ति विशेष करके ख़ून की चाल पर अवलम्बित है। केवल मस्तिष्क के बड़ेपन को देखेंगे तो पुरुष ऊँचे है, और मस्तिष्क के भीतर ख़ून के बहने की चपलता के विषय में स्त्रियाँ बड़ी हैं-इस में अचम्भे की कोई बात नहीं है, क्योंकि स्त्री और पुरुष के मानसिक व्यापार में आज तक जो अन्तर देखा गया है, उसका सारांश इस अनुमान से निकल आता है। दोनों के मस्तिष्क की रचना में इस प्रकार का भेद होने के कारण उनके मानसिक व्यापार में जिस भिन्नता के होने का अनुमान हम करते हैं, वह अनुमान अनेक प्रत्यक्ष भेदों के साथ मिलता है। हमारे पहले अनुमान के अनुसार पुरुषों का मानसिक व्यापार विशेष मन्दगति वाला होना चाहिए। विचार करने में स्त्रियाँ जितनी शीघ्रता कर जाती हैं उतनी शीघ्रता की पुरुषों से हमें उम्मीद नहीं। सुख-दुख का स्पर्श स्त्रियों के मन पर शीघ्र होना चाहिए। पदार्थ जैसे ही आकार में बड़ा होता है वैसे ही उसके हलने-चलने में अधिक समय लगता है; किन्तु जहाँ एक बार वह चल पड़ता है तब अर्से तक उसी स्थिति में चलता रहता है। पुरुष के मस्तिष्क की यही दशा होने के कारण किसी भी मानसिक व्यापार में प्रवृत्त होते हुए उसे अधिक समय लगता है, किन्तु शुरू करने के बाद उस काम के बोझ को वह अर्से तक वहन कर सकता है। जिस दिशा की ओर उसने चलना शुरू कर दिया वह उस ही ओर आग्रह के साथ चला जायगा, काम का एक तरीक़ा बदल कर दूसरा स्वीकार करने में उसे असन्तोष होगा, जिसे उसने करना स्वीकार किया उसे अर्से तक निबाहे जायगा-उसे थकान न दबावेगी-उसकी शक्तियाँ कम न होंगी। और हमारे नित्य के अनुभव में क्या ये बातें नहीं आतीं कि पुरुष जिन बातों के कारण स्त्रियों से उच्च समझे जाते हैं, वे बातें ऐसी होती हैं कि जिन में दीर्घ विचार या लम्बे परिश्रम की आवश्यकता होती है और जिन कामों को झटपट कर डालने की आवश्यकता होती है उन्हें स्त्रियाँ ही करती हैं। स्त्रियों का दिमाग़ बहुत जल्दी थकता है; पर थोड़ी देर के परिश्रम से जैसे जल्दी थक जाता है वैसे ही फिर शीघ्र उसी स्थिति पर आ भी जाता है। पर, फिर मैं यह कहता हूँ कि यह विचारमाला आनुमानिक है; इस विषय की खोज में एक पद्धति विशेष उपयोगी होने का दावा नहीं कर सकती। हम यह पहले ही से कह आये हैं कि स्त्री-पुरुषों की मानसिक सामर्थ्य या उनकी प्रवृत्ति के प्रकृतिसिद्ध भेद वास्तविक रीति से हमें मालूम नहीं हो सकते; फिर ये भेद कौन-कौन से हैं और किस प्रकार के हैं, इसका तो जानना बड़ी दूर की बात है। जब तक प्रस्तुत विषय मानस-शास्त्र से न देखा जाय तब तक मनुष्य के लक्षण कैसे होते हैं और वे कैसे बनते हैं इसका भली-भाँति समझ में आना मुमकिन नहीं। स्त्री-पुरुषों के चाल-चलन और व्यवहार में भेद होने के जो बाहरी कारण दीखते हैं उनकी ओर जिज्ञासु-वर्ग जब तक लक्ष्य न करेगा, तथा वर्त्तमान सृष्टिशास्त्रवेत्ता और मानसशास्त्र के अभ्यासी इन कारणों को तुच्छ समझ कर उपेक्षा की दृष्टि से देखेंगे, तब तक हमें इस विषय में कुछ भी ज्ञान प्राप्त करने की आशा रखनी ही न चाहिए। न्यारे-न्यारे व्यक्तियों में जो मुख्य भेद दीखता है, उसका मूल खोजने के लिए सृष्टिशास्त्र और मानसशास्त्र के अभ्यासी या तो जड़ सृष्टि का या चैतन्य सृष्टि का पृथक्करण करने लगते हैं, किन्तु जो विद्वान यह कहता है कि इन भेदों के कारण भिन्न-भिन्न व्यक्तियों का संसार और समाज का सम्बन्ध भिन्न-भिन्न होता है तो उसे वे तुच्छ दृष्टि से देखते हैं।

१४-लोगों ने स्त्रियों के स्वभाव के विषय में जो गढ़न्त गढ़ा है वह ऐसा हँसी दिलाने वाला है कि उस में पृथक्करण, विमर्श आदि शास्त्रीय पद्धति का तो नाम-निशान भी नहीं मिलता; पर ऊपर ही ऊपर के अन्दाजों, प्रमाणों और जो कुछ दार्शनिक प्रमाण मिल गये उन से जिसे जो अच्छा लगा उसने अपने अनुभव से वैसा ही अनुमान बना डाला। न्यारे-न्यारे देशों के लोक-मत और लोक-स्थिति के असर से उस देश वाली स्त्रियों के स्वभाव के जो-जो अङ्ग विकसित होते हैं-उस ही के अनुसार अन्दाज़े भी बाँधे जाते हैं। एशिया के लोगों की समझ है कि, स्त्री स्वभाव ही में अत्यधिक विषयासक्त होती है। हिन्दुओं में जो स्त्री की निन्दा की गई है,*[११] सो विशेष कर के इसी दोष का आरोपण कर के। अँगरेज़ समझते हैं कि स्त्रियाँ स्वभाव ही से मन्द और निरुत्साही होती हैं। स्त्रियों की चञ्चलता और अस्थिरता की विशेष उत्पत्ति फ्रेंच भाषा से हुई है। इङ्गलैण्ड वालों का ख़याल है कि स्त्रियाँ पुरुषों से ज़ियादा ईमानदार और पवित्र हैं। फ्रान्स से इङ्गलैण्ड में स्त्रियों की बेईमानी अधिक दोषास्पद मानी जाती है, तथा इङ्गलैण्ड की स्त्रियों पर लोकलज्जा का असर विशेष होता है। इस स्थान पर यह कह देना आवश्यक है कि, इङ्गलैण्ड वालों की स्थिति ऐसी होगई है कि स्त्री, पुरुष या समग्र मनुष्य-जाति के विषय में यदि उन्हें अनुमान करना हो कि, कौनसा बर्ताव स्वाभाविक है और कौनसा अस्वाभाविक- तो वे इस में अयोग्य हैं। और यदि केवल अपने ही देश पर से उन्हें यह अनुमान बाँधना हो तो वे और भी अयोग्य हैं। क्योंकि इस देश में मनुष्य का मूल स्वभाव सर्व्वथा बदल गया है। चाहे इसे अच्छा कहो या बुरा, किन्तु संसार की सब जातियों से विशेष इन्हीं की मूल स्थिति में परिवर्त्तन हुआ है। अन्य सब प्रजाओं की अपेक्षा इन पर सुधार और शिक्षा का सब से अधिक असर हुआ है। यदि किसी देश में इस प्रकार की सामाजिक शिक्षा सफल हुई हो कि, जिस में समाज व्यवस्था के सामने पड़ने वाली रुकावटें दाब दी गई हों तो वह इसी देश में हुई है। अँगरेज़ अपना बर्ताव नियम के अनुसार ही नहीं रखते हैं, बल्कि अपने विचार भी नियम के अनुसार ही रखते हैं। दूसरे देशों में समाज के निश्चित किये हुए नियमों के अनुसार चलते अवश्य हैं-अर्थात् उसका चलन व्यक्ति मात्र में होता अवश्य है-किन्तु उसकी सत्ता के नीचे दबा हुआ विशेष स्वभाव निर्जीव नहीं हो जाता, उसकी सजीवता बहुत बार दिखाई दे जाती है। समाज के नियम प्रकृति के नियमो से विशेष सत्ता वाले होते हैं, किन्तु उनका अस्तित्व तो क़ायम ही होता है। इङ्गलैण्ड देश में तो लोक-रूढ़ि के प्रकृत नियमों को पददलित करके उनके स्थान पर वे ही अधिष्ठित हो गये हैं। वहाँ के लोगों की वृत्ति रूढ़ि या नियम के अङ्कुश में रह कर जीवन-व्यापार में प्रवृत्त नहीं होती, बल्कि रूढ़ि से भिन्न चलने वाली और कोई वृत्ति ही उनकी नहीं होती। एक प्रकार से यह परिणाम प्रशंसनीय है, किन्तु साथ ही हानिकर भी है। और चाहे जो कुछ हो, पर परिणाम तो प्रकट है कि कोई अँगरेज़ अपनी जाति के अनुभव से मनुष्य स्वभाव की मूल प्रवृत्ति का पता नहीं लगा सकता-उससे ग़लतियाँ ही होंगी। मनुष्य-स्वभाव की प्रवृत्तियों का अनुभव करने वाले अन्य देशीय विद्वानों से जैसी भूलें होती हैं वे और ही प्रकार की हैं। मनुष्य-स्वभाव के विषय में जब अँगरेज़ो को कुछ ज्ञान नहीं होता तब फ्रेञ्च लोगों को जो ज्ञान होता है वह अयथार्थ और ग़लत होता है। अँगरेज़ों की भूलें अभावदर्शक (negative) होती हैं, और फ्रेंञ्च लोगों की भूलें भावदर्शक (positive) होती हैं। अँगरेज़ निश्चय करते हैं कि अमुक बात का अस्तित्त्व पृथ्वी पर था ही नहीं, क्योंकि उनके देखने में कभी नहीं आया; उस ही समय फ्रेञ्च लोग निश्चित करते हैं कि अमुक बात तो प्रत्येक समय और प्रत्येक देश में होनी चाहिए, क्योंकि उनके देखने में आई है। अँगरेज़ों को मनुष्य के मूल स्वभाव का बिल्कुल ज्ञान नहीं होता; क्योंकि उसके देखने का उन्हें अवसर ही नहीं मिला। फ्रेञ्चों की जानकारी इस विषय में बहुत होती है, पर उसका सच्चा स्वरूप समझने में वे भूलते हैं-क्योंकि जिस स्वभाव का उन्हें अनुभव होता है वह विकृत और अशुद्ध होता है। अवलोकन का जो कुछ विषय होता है, वह समाज-संगठन के असर से ऐसा विकृत हो जाता है कि उसकी नैसर्गिक प्रवृत्तियाँ दो तरह से ढक जाती हैं-या तो उसका कुदरती रूप सर्वथा ही ढक जाता है और या रूपान्तर हो जाता है। जब पहला प्रकार घटता है तब मूल स्वरूप का जो सत्वहीन अवशिष्ट भाग रह जाता है वह अवलोकन के काम में सर्वथा अनुपयोगी नहीं होता; पर जब दूसरा प्रकार घटता है तब उसका विशेष भाग अवशिष्ट अवश्य होता है, किन्तु उसका विकाश स्वेच्छा से होने के बदले अस्वाभाविक ही होता है। १५-मैं ऊपर कई बार इस बात को कह चुका हूँ कि स्त्री-पुरुषों की मानसिक शक्तियों में जो भेद दिखाई देते हैं, उनमें स्वाभाविक और अस्वाभाविक कितने हैं, या कोई भेद स्वाभाविक तथा प्रतिसिद्ध है भी या नहीं-यह जब तक वर्तमान स्थिति बनी रहेगी तब तक नहीं जाना जा सकता। इस ही प्रकार उन कृत्रिम कारणीभूत कारणों को दूर करना चाहो जो दो मानसिक शक्तियों में भेद करने वाले बने हैं, तो अभी हम से यह भी नहीं समझा जा सकता कि उनका स्वरूप कैसा होगा। जिस बात को मैं अशक्य कह चुका हूँ उसे पजोखने को प्रपञ्च में मैं नहीं फँसता-किन्तु सन्देह तर्क और कल्पना का प्रतिबन्धक नहीं होता-मन में जिस विषय का सन्देह हो उसके विषय में यह नहीं हो सकता कि कल्पना भी न बाँधी जाय। यह सम्भव है कि कोई विषय निश्चयात्मक रूप से प्रतिपादित न हो, किन्तु प्रतिपादित न होने पर भी ऐसे साधन मिलने सम्भव हैं, जिनसे मन को सन्तोष हो। इस प्रकार देखने से सब से पहला भेद जो हमारे सामने आता है वह यह है, कि ये भेद किस प्रकार पैदा होने पाये, इस विषय में हम कुछ अन्दाज़ा कर सकते हैं-और इस अन्दाज़े में जिस मार्ग को पकड़ना चाहिए उसे ही पकड़ूँगा-अर्थात् मैं यह निश्चित करूँगा कि आस-पास के संयोगों का मन पर कैसा असर होता है। यदि मनुष्य पर बाहरी कारणों का असर ही न होता, तो उसका मूल स्वभाव कैसा होता-इसे निश्चय करने के लिए स्थितियों से मनुष्य भिन्न नहीं किया जा सकता-हमारे लिए यह असम्भव है। किन्तु हम इसका निश्चय कर सकते हैं कि इस समय मनुष्य की जो स्थिति है वह कैसे संयोगों से होकर आई है, और उन संयोगों का परिणाम यही स्थिति हो सकती है या नहीं।

१६-तो सब से पहले स्त्रियाँ पुरुषों से शारीरिक बल में कम होती हैं, पर इस शारीरिक कमी के विचार को अभी हम छोड़ते हैं, और प्रकट में स्त्रियाँ पुरुषों से जिस बात में कम दीखती हैं उसे ही उठाते हैं। तत्त्वज्ञान, विज्ञानशास्त्र और कला,-इन तीनों विषयों में ऐसी कोई स्त्री आजतक नहीं हुई जिसे हम ऊँचा स्थान दे सकें। अब हमें इस बात की परीक्षा करनी है कि स्त्रियाँ इस बात में सर्वथा अयोग्य हैं-यह बिना माने भी कमी पूरी हो सकती है या नहीं।

१७-सब से पहले यदि मैं यह कहना चाहूँ कि, विषय में जितने प्रमाण हमारे अनुभव में आये हैं, वे किसी सिद्धान्त के निश्चित कर लेने योग्य नहीं हैं तो यह अनुचित न होगा। यदि ऐसे उदाहरणों की खोज करें कि जिन में तत्त्वज्ञान, शास्त्र और कला आदि में स्त्रियों ने कुछ ज्ञान प्राप्त किया हो-तो यह अधिक से अधिक तीन पीढ़ियों तक हो सकता है। यदि इन विषयों की ओर स्त्रियों का ध्यान गया है तो वह उस ही ज़माने में, और इस में भी यदि इँगलैण्ड और फ्रान्स को छोड़ देवें तो बाकी स्त्रियों में ऐसी स्त्रियों की संख्या बहुत ही कम रह जायगी। फिर स्त्रियों से यह आशा रखनी ही व्यर्थ है कि वे इस थोड़े से समय में इस विषय की अच्छी जानकारी या विज्ञता प्राप्त कर सकी होंगी। जिन-जिन बातों में अपनी आज़माइश कारने की स्त्रियों को स्वाधीनता मिली है, उन सब बातों में, और ख़ास करके साहित्य में स्त्रियों ने अपनी दक्षता और विज्ञता का जो परिचय दिया है वह सन्तोषजनक है; क्योंकि उनको मिले हुए समय, और इस विषय की ओर झुकने वालियों की संख्या को यदि हम ध्यान में रख कर इस विषय पर विचार करें तो हम उनसे जितनी आशा रख सकते थे वह पूरी हुई है-यह स्पष्ट है। इस विषय को लेकर यदि हम अब से पहले के ज़माने को खोजने जायँगे तो बहुत थोड़ी स्त्रियों को ग्रन्थलेखन की ओर झुके पायेंगे; किन्तु उन थोड़ी ही स्त्रियों ने अपने काम में अच्छा कौशल दिखाया हैं। ग्रीक लोगों ने सेफो (Sappho) नामक स्त्री की गणना उत्कृष्ट कवियों में की है। इस ही प्रकार पिण्डार नामक प्रसिद्ध कवि मिर्टिस नाम्नी स्त्री से कविता की शिक्षा लेता था; इस ही प्रकार उत्तम से उत्तम कविता का पुरस्कार पिण्डार के हाथ पहुँचने से पहले कोरिन्ना नामक स्त्री ने पाँच बार उसे टोका था। पिण्डार जैसे प्रसिद्ध कवि की तुलना में इन दो स्त्रियों के नाम आये हैं; इससे स्पष्ट है कि इनकी बुद्धि और योग्यता उच्च कोटि की थी; एस्पेशिया नामक स्त्री ने तत्त्वज्ञान पर कोई ग्रन्थ नहीं लिखा, किन्तु यह निश्चित है कि साक्रटीस जैसा उद्भट विद्वान् और सुप्रसिद्ध तत्त्वज्ञानी उसके पास शिक्षा लेने जाता था, और साक्रटीस ने स्थान-स्थान पर इस बात को स्वीकार किया है कि, मुझे उससे बहुत ज्ञान प्राप्त हुआ है। यह बात इतिहास में प्रसिद्ध है।

१८-ग्रन्थ-रचना के विषय में तथा कलाओं के सम्बन्ध में यदि हम आधुनिक स्त्रियों की तुलना पुरुषों से करें तो उनमें एक ही कमी मालूम होती है; यद्यपि वह कमी बड़े महत्त्व की है। अर्थात् स्त्रियों की रचनाओं में नवीनता और अपूर्वता बहुत कम देखी जाती है। यद्यपि सम्पूर्ण नवीनता का तो कभी अभाव होता ही नहीं, क्योंकि प्रत्येक मानसिक कृति में-यदि उसमें कुछ भी दम होगा तो कुछ न कुछ तो नवीनता ही होगी। क्योंकि आख़िर तो वह एक बुद्धि की कल्पना का ही परिणाम होता है, किसी पुरानी कृति का केवल अनुकरण मात्र तो होता ही नहीं। स्त्रियों के द्वारा लिखे हुए ग्रन्थों में नये भाव-अर्थात् दूसरों के चोरी हुए भाव नहीं, बल्कि अपने देखे हुए या निजी मनोविकारों से उत्पन्न हुए भाव बहुतायत से मिलते हैं। किन्तु उनका ऐसा कोई नवीन या विशाल विचार नहीं दिखाई देता जिसके कारण तत्त्वज्ञान के इतिहास में किसी नवीनता का दर्शन हो, इस ही प्रकार कला-विषय पर भी उनके द्वारा कोई नवीनता नहीं दिखाई देती। स्त्रियों की ग्रन्थ रचना विशेष करके संसार के परिचित विचार-समुदाय पर ही होती है; उनकी कृतियाँ प्रचलित नमूनों से अधिक भिन्न नहीं होतीं। अर्थात् स्त्रियों की रचना में सब से बड़ी यही कमी है। क्योंकि ग्रन्थ-रचना, विचार-संकलन, और शैली की सुन्दरता आदि में स्त्रियाँ पोछे नहीं रहतीं; वस्तु-संकलन और ग्रन्थ-रचना में देखेंगे तो हमारे ग्रन्थकार स्त्रीवर्ग के ही मालूम होंगे। अर्वाचीन ग्रन्थों में विचार ‌अङ्कित करने की उत्तम शैली देखेंगे तो मेडम स्टेडल की मालूम होगी। इस ही प्रकार मेडम सेण्ड की गद्य-रचना में ऐसा विलक्षण चमत्कार दिखाई देता है कि, उसके ग्रन्थों को पढ़ते समय प्रसिद्ध सङ्गीतशास्त्री हेडन या मोज़ार्ट के मधुर गीत सुनने के समान हृदय प्लावित हो जाता है। लेकिन स्त्रियों की रचना में उच्च प्रतिभा-शक्ति और अपूर्व कल्पना का अभाव है। अब हमें इस पर विचार करना चाहिए कि इस विषय में स्त्रियों के पिछड़ जाने के कारण कौन-कौन से हैं।

१९-विचार करते हुए सब से पहले हमारी नज़र उस अतीत काल पर पहुँचती है जब मनुष्य पहले के अध्ययन या सञ्चित ज्ञान की सहायता के बिना केवल बुद्धि पर दीर्घगामी सत्य की मीमांसा कारते थे, उस सुधार के प्रारम्भ काल में स्त्रियों का मन ही इस ओर नहीं दीखता। हिपेशिया*[१२] के समय से धार्मिक सुधार के समय तक, यदि किसी स्त्री ने तत्त्वमीमाँसा के काम में यश प्राप्त किया तो वह हेलोइज़ा ही थी। किन्तु उसका जीवन क्लेशपूर्ण होने के कारण वह अपने ज्ञान से संसार को कुछ भी लाभ न पहुँचा सकी, इस बात से तस्वमीमांसा को कितनी हानि हुई होगी, सो कोई नहीं कह सकता। और जब से स्त्रियों की ख़ासी तादाद गम्भीर विषयों पर विचार करने लगी तब से नवीन और विलक्षण विचारों को खोज निकालने का काम उतना सरल नहीं रहा। केवल अपूर्व मानसिक शक्ति से जो विचार सूझ सकते हैं, वे तो संसार में बहुत अर्से से प्रकट हो चुके थे; और "नवीन विचार" शब्द का जो कुछ सच्चा अर्थ होता है वह तो उन्हीं को सूझ सकता है जो वर्तमान उच्च शिक्षा से दीक्षित हुए हैं या जिन्होंने अपने से पहले वाले विद्वानों के ग्रन्थ मनोयोग-पूर्वक पढ़े हैं, अन्यथा और बुद्धिमान् मनुष्यों को उनका सूझना कठिन है। वर्तमान समय की बुद्धि-सामर्थ्य का विवेचन करते समय, मेरी समझ के अनुसार मेरिस ने जो यह कहा है कि जिन्हें अपने से पहले विद्वानों का पूरा ज्ञान होता है, वे ही इस ज़माने में अपने नवीन विचार व्यक्त कर सकते हैं, यह ठीक है। और प्रत्येक समय में यही होगा। ज्ञान की अट्टालिका इतनी ऊपर पहुँच गई है कि जिसे ऊपर वाली मञ्जिल पर काम करने की आवश्यकता होती है और जो वर्तमान को कुछ आगे बढ़ाने की महत्वाकांक्षा रखता है-उसे सब सामान से लैस होकर बहुत ऊपर जाने की आवश्यकता होती है। किन्तु जिन्होंने इतना काम उठाया हो ऐसी कितनी स्त्रियाँ इस समय दिखाई देती हैं? वर्तमान समय में गणितशास्त्र-सम्बन्धी नवीन खोज यदि कोई स्त्री कर सकती है तो वह मिसेज़ समरविल है। जिन दो तीन व्यक्तियों ने गणित-शास्त्र के ज्ञान को इस समय विशेष उच्च बना दिया है, उनके बराबर बैठने का सम्मान यदि यह विदुषी स्त्री न प्राप्त कर सकी, तो क्या इससे यह सिद्ध होता है कि स्त्रियों की बुद्धि हीन है? जब से अर्थशास्त्र का विचार शास्त्रीय पद्धति से होने लगा तब से इस विषय पर उपयोगी ग्रन्थ लिखने वाली दो स्त्रियाँ निकली हैं, किन्तु इतने ही समय में इस विषय पर लिखने वाले जो अनेक पुरुष हुए हैं उन्होंने उनसे अधिक और क्या किया है? यह सत्य है कि अब तक कोई स्त्री उत्तम इतिहास नहीं लिख सकी, पर इस काम के योग्य जितने ज्ञान और जितनी सामग्री की आवश्यकता है, उसे भी क्या कोई स्त्री प्राप्त कर सकी है? इस ही प्रकार भाषाशास्त्र पर प्रकाश डालने वाले ग्रन्य भी किसी स्त्री ने नहीं लिखे, इसका कारण यह है कि संस्कृत, स्लेवोनिक, गोथिक, पर्शियन आदि भाषाओं का अभ्यास करने का अवसर स्त्रियों को नहीं मिला। व्यवहार में भी हम देखते हैं कि जिसकी बुद्धि शिक्षा के द्वारा संस्कृत नहीं होती, वह अपने जिस काम को नई खोज की दृष्टि से देखता है उसकी क़ीमत कुछ नहीं होती। पीछे से उसे मालूम होता है कि यह खोज तो बहुत समय पहले अमुक मनुष्य ने की थी और तब से अब तक उसमें अनेक सुधार भी हो गये हैं। वास्तविक खोजी बनने के लिए मनुष्य को बड़े भारी ज्ञान और सामग्री की आवश्यकता है, यदि यह परीक्षा करनी है कि स्त्रियों में खोज-शक्ति है या नहीं, तो पहले उन्हें स्वाधीनता-पूर्वक पूर्ण ज्ञान और सामग्री, प्राप्त करने दो। क्योंकि प्राचीन अनुभव से जो अनुमान किया जाता है वह निरूपयोगी होता है।

२०-कभी-कभी यह भी होता है कि कोई मनुष्य किसी खास विषय पर सविस्तर विचार या यथार्थ अभ्यास न करने पर भी आन्तरिक कल्पना ही से किसी मार्मिक विचार को निकाल लेता है; वह दूसरे को अपनी कल्पना समझा सकता है, किन्तु उसे कारण सहित सिद्ध करना नहीं आता। किन्तु जब वह कल्पना परिपक्व हो जाती है तब उसके ज्ञान-भण्डार में विशेष वृद्धि होती है। ऐसी कल्पनाएँ बहुतों के दिमाग़ में पैदा होती हैं, किन्तु जब तक कोई सुशिक्षित विद्वान् उस कल्पना को कसौटी पर चढ़ाकर शास्त्रीय व्यवहार का स्वरूप नहीं देता, तथा ज्ञान के भण्डार में उसका योग्य स्थान नहीं निश्चित कर देता, तब तक उसकी क़ीमत किसी के ध्यान में नहीं आती। ऐसी उपयोगी कल्पना स्त्रियों में होती होगी-यह क्या किसी अनुमान से सिद्ध हो सकता है? प्रत्येक बुद्धिमती स्त्री को ऐसे सैंकड़ों विचार सूझते हैं, किन्तु उनमें से अधिकांश व्यर्थ जाते हैं-क्योंकि उनके पति और कुटुम्बी उन विचारों को या तो समाज के समक्ष रखना ही पसन्द नहीं करते और या उनके समझने की ही योग्यता उन में नहीं होती। और यदि कभी-कभी ये विचार संसार के सामने आ भी जाते हैं तो वे किसी पुरुष की कृति के रूप में होते हैं और उसके सच्चे कर्त्ता का नाम अँधेरे में ही होता है। पुरुष-लेखकों के ग्रन्थों द्वारा जितने नवीन विचार प्रकट हुए हैं, उन में कितनी अमूल्य कल्पनाएँ स्त्रियों की विशेष सूचना से लिखी गई हैं, इसका निर्णय कोई नहीं कर सकता। यदि मैं केवल अपने ही अनुभव से इसका अन्दाज़ा लगाऊँ तो ऐसे विचारों की संख्या बहुत अधिक दीखती है।

२१-केवल तत्त्वज्ञान-सम्बन्धी विचारों को छोड़ कर यदि हम साधारण साहित्य और ललित कलाओं पर विचार करेंगे, तो हमें मालूम होगा कि स्त्रियों के हाथ से लिखे हुए ग्रन्थों की कल्पना और सामान्य रूप जो पुरुष-ग्रन्थकारों के सदृश होता है उसका कारण स्पष्ट है। विद्वान् समालोचक समय-समय पर प्रकट करते हैं कि रोमन लोगों का साहित्य ग्रीक लोगों के साहित्य का नमूना है, इसका कारण क्या है? कारण यही है कि, ग्रीक लोग रोमन लोगों से पहले सुधरे थे। यदि स्त्रियाँ एक न्यारी ही दुनियाँ में रहती होतीं और पुरुषों के हाथ की लिखी एक पुस्तक भी उन्होंने न पढ़ी होती तो इसमें सन्देह नहीं कि, उनका साहित्य और ही तरह का होता। किन्तु यह बात तो हो नहीं सकती थी, और स्त्रियों की प्रवृत्ति जिस समय साहित्य की ओर हुई उस समय पुरुषों का साहित्य बहुत उच्च हो चुका था, इसलिए स्त्रियाँ भिन्न प्रकार का साहित्य न बना सकीं। यदि प्राचीन शिल्पकला का ज्ञान नष्टप्राय न हो गया होता, और प्राचीन शिल्प का उद्धार (Renaissance) गोथिक पद्धति से मन्दिर बनाने के पूर्व प्रारम्भ हो गया होता, तो आज जिस प्रकार के गिर्जे दीखते हैं ये किसी और ही ढँग के होते। यह हमारे अनुभव में आई हुई बात है कि फ्रान्स, इटली में प्राचीन लेखन-पद्धति के अनुकरण की प्रथा प्रचलित हो जाने के कारण, वहाँ के लोगों की प्रारम्भ की हुई स्वतन्त्र पद्धति का विकाश रुक गया था। जो जो स्त्रियाँ ग्रन्थ लेखन का काम करती हैं, वे सब बड़े-बड़े पुरुष-ग्रन्थकारों की शिष्या हैं। योरप के सुप्रसिद्ध चित्रकार राफल के प्रारम्भिक दशा के सब चित्र उसके गुरु की निश्चित प्रणाली पर ही बनाये गये हैं। मोज़ार्ट के समान अलौकिक संगीतशास्त्री के प्रारम्भिक दशा के गायन भी उसकी विलक्षण प्रतिभाशक्ति से बहुत कुछ उतरते हुए हैं। एक प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति को अपनी उच्च से उच्च दशा पर पहुँचने में जितने वर्ष लगते हैं, समग्र व्यक्ति-समुदाय को उस पंक्ति पर पहुँचने में उतनी ही पीढ़ियाँ लगती हैं। अर्थात् बुद्धिमान से बुद्धिमान् व्यक्ति की बुद्धि का विकाश भी एकदम नहीं होता, बल्कि धीरे-धीरे एक मुद्दत्त के बाद वह अपनी उच्च दशा पर पहुँचता है-फिर यह तो स्पष्ट है कि समग्र समाज के उस दशा पर पहुँचने के लिए बहुत वर्ष, बल्कि उतनी पीढ़ियाँ लगनी ही चाहिएँ। स्त्री और पुरुष की प्रवृत्ति में जो प्रकृति-सिद्ध भेद हों, और इस कारण पुरुषों की लेखन-पद्धति से स्त्रियों की लेखन-पद्धति भिन्न होनी थोड़ी बहुत भी सम्भव हो-तो इस दशा पर पहुँचने के लिए अब तक जितना समय लगा है इससे कहीं अधिक समय की आवश्यकता है। जो रूढ़िगत प्रभाव सर्वमान्य हो गया है उससे मुक्त होकर, अपनी सहज प्रवृत्ति की ओर झुकने के लिए बड़े लम्बे समय की आवश्यकता है। किन्तु मेरे निश्चय के अनुसार स्त्री और पुरुष की बुद्धि में कोई प्रकृतिसिद्ध भेद नहीं है, तथा दोनों की मानसिक प्रवृत्तियाँ एक ही प्रकार की हैं। अन्त में यह साबित ही होगा, पर*[१३] स्त्री-लेखिकाओं की भी कोई ख़ास प्रवृत्ति तो होनी ही चाहिए। किन्तु वह इस समय प्रचलित रीति-रिवाज और प्रत्यक्ष नमूनों के कारण दबी हुई है। और इस बात पर पहुँचने में अभी अर्सा है कि ऐसी व्यक्तिविशिष्ट प्रवृत्ति उस प्रभाव को नष्ट करके अपनी आँखें ऊँची कर सके।

२२-स्त्रियों में बुद्धि की कमी साबित करने के लिए बुद्धिमान् लोग यह सुबूत पेश करते हैं कि ललितकला सीखने में स्त्रियों को किसी प्रकार की रुकावट नहीं है,-अर्थात् गायनकला, नर्तनकला और बाजे बजाना आदि सीखने में औरतें आज़ाद हैं। इन कलाओं को सीखने में लोकमत या रूढ़ि उनके ज़रा भी ख़िलाफ़ नहीं, बल्कि इन बातों में उल्टा उनका दिल बढ़ाया जाता है कि उन्हें सीखना ही चाहिए; तथा स्त्री-शिक्षा के साथ भी इस पर पूरा ध्यान दिया जाता है और खाते-पीते घरों की स्त्रियों के लिए तो यह विषय सभ्यता का चिह्न माना जाता है, जो स्त्रियाँ इस में निपुण होती हैं वे इज्ज़त की नज़र से देखी जाती हैं। पर यह सब कुछ होते हुए भी स्त्रियाँ और बातों में जैसे पुरुषों से पीछे हैं, वैसे ही इस विषय में भी वे पीछे ही पड़ी है। स्त्रियों के इस प्रकार पीछे रह जाने का कारण वही है जिससे हम भली भाँति परिचित हैं,-अर्थात् जो मनुष्य सिर्फ अपना शौक़ पूरा करने के लिए किसी विद्या, धन्धे या कला को सीखता है, वह उस मनुष्य में पीछे रहता ही है जिसने उस विद्या, धन्धे, या कला को अपना पेट भरने के लिए सीखा है। इस देश (इङ्गलैण्ड) में सभ्य स्त्रियों के लिए ललित कलाओं का सिखाना अवश्य जरूरी समझा जाता है, पर उस सिखाने का लक्ष्य यह नहीं होता कि उस से वे अपना पेट भरें या समाज में उच्च स्थान पा सकें। अधिकांश स्त्रियाँ शौक़ पूरा करने के लिए न्यारी न्यारी कलाएँ सीखती हैं। इस कायदे में ख़राबी तो है ही, पर वह ख़राबी ऊपर वाली बात से और भी ज़ियादा मजबूत हो जाती है। औरतों को गाना जरूर सिखाया जाता है, पर वह सिर्फ ताल के साथ गाना या बजाना ही भर होता है; इसके साथ ही उन्हें गाना बनाने की शिक्षा नहीं दी जाती। इसलिए संगीतकला के जिस हिस्से में पुरुष स्त्रियों से अधिक होते हैं वह संगीत-रचना है। ललितकलाओं में से जिस कला को स्त्रियाँ अपना पेट पालने के काम में लाती हैं वह सिर्फ एक नाट्यकला है; इस कला में यदि स्त्रियाँ पुरुषों से अधिक अच्छी नहीं है तो बहुत खराब भी नहीं हैं। यदि कलाओं के ज्ञान में ही स्त्री और पुरुष की बुद्धि को तौलना है तो उन कला सीखे हुए पुरुषों के साथ उनकी बराबरी करनी ठीक होगी, जिन्होंने पेट पालने के इरादे से कला को नहीं सीखा। उदाहरण के तौर पर जिन पुरुषों ने सिर्फ़ अपना शौक पूरा करने के लिए एक-आध ठुमरी टप्पा बना डाला हो उनसे स्त्रियों के बनाये हुए गीतों का मुकाबिला करने में वे किसी तरह कम न जचेंगी। ऐसी स्त्रियों की तादाद बहुत ही कम है जो तस्वीरें बना कर अपना गुज़ारा करती हों, पर फिर भी इस काम का अनुभव प्राप्त करने के लिए उन्हें जो थोड़ा सा समय मिला है,-इस बात को ख़्याल में रख कर हम स्त्रियों से जितनी होशियारी की उम्मीद रख सकते हैं, उतनी अपनी होशियारी उन्होंने निर्विवाद सिद्ध कर दी। निस्सन्देह इस समय के चित्रकारों से पुराने चित्रकार कहीं अच्छे थे, इसका कारण यह है कि इस समय के चित्रकारों की अपेक्षा अधिक बुद्धिमान् मनुष्य उस समय चित्रकारी पर ध्यान देते थे। चौदहवीं और पन्द्रहवीं शताब्दी के इटली के चित्रकार अपने समय के महा निष्णात व्यक्ति थे। प्राचीन ग्रीस के नेताओं के समान ये चित्रकार भी सब विद्याओं में प्रवीण थे, और उनकी बुद्धि विशाल और उच्च प्रति की थी। साथ ही उस ज़माने में ललितकलाओं का सम्मान सब से अधिक था। आज-कल लोग राजनीति और युद्धकला में प्रवीण व्यक्ति को जो सम्मान देते हैं, वही सम्मान उन समयों में ललितकलाओं में प्रवीण व्यक्तियों को दिया जाता था। राज्य-दर्बारों में अमीर-उमराओं और सरदारों की तरह उनकी इज्ज़त की जाती थी। उनकी कीर्त्ति चारों ओर फैल जाती थी और वे संसार का उपकार करने वाले माने जाते थे; इसलिए इस समय रेनाल्डम या टर्नर के समान बुद्धिमान् पुरुषों का चित्रकारी पर ध्यान देने का उदाहरण हमें देखने को नहीं मिलता। संगीत-कला इस से न्यारी चीज़ है। उस में चित्रकारी के समान ऊँची बुद्धि की कोई आवश्यकता नहीं होती। इसलिए कोई स्त्री संगीत-रचना के काम में सुप्रसिद्ध नहीं हुई,-सम्भवतः, यह बात अचम्भे से भरी मालूम होगी। पर यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि यदि यह बात किसी व्यक्ति में प्रकृति से है, पर फिर भी यदि वह रात-दिन उस ही में न लगा रहेगा तथा उस विषय का पूरा अभ्यास न करेगा तो संगीत रचना के काम में उसकी प्रकृत शक्ति किसी काम न आवेगी। पुरुष-वर्ग में भी संगीत-शास्त्र की अपूर्व रचना करने वाले व्यक्ति इटली और जर्मनी में हुए हैं। और इन देशों की स्त्रियाँ साधारण शिक्षा या ख़ास विषय की शिक्षा में इङ्गलैण्ड और फ्रान्स की स्त्रियों से बहुत पीछे हैं। यदि हम यह कह दें कि उन्हें शिक्षा दी ही नहीं जाती, या उनकी मानसिक शक्तियों पर ऊँचे संस्कार नहीं बैठते तो इस में ज़रा भी अतिशयोक्ति न होगी। इस देश (इङ्गलैण्ड) में वाद्यकला और संगीत-रचना के मूल तत्त्वों में पारङ्गत पुरुष सैंकड़ों हज़ारों होंगे,-पर स्त्रियाँ इतनी ही मिलेंगी जो उँगलियों पर गिनी जा सकें। यदि स्त्री-पुरुषों में से इसका औसत निकाला जाय तो जिस दशा में इस विषय के पचास प्रवीण पुरुष निकलेंगे-उस दशा में वैसी प्रवीण केवल एक ही स्त्री निकलेगी-इस से अधिक की आशा व्यर्थ है। पिछली तीन शताब्दियों में जर्मनी और इटली में इस विषय के प्रवीण पुरुषों की संख्या पचास के बराबर नहीं हुई-तो इस दशा में एक स्त्री के प्रवीण निकलने की भी आशा किस तरह की जा सकती है।

२३-जिन काम-काजों और उद्योग-धन्धों में स्त्री-पुरुष को समान स्वाधीनता है, उन में भी पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियाँ पीछे क्यों रहती हैं, इसका जो कुछ कारण ऊपर दिखाया गया है उसके अलावा और भी कुछ कारण है। सब से पहले तो इन कामों में लगे रहने के लिए स्त्रियों के पास काफ़ी समय ही नहीं है। यह बात चाहे कुछ लोगों को अचम्भे की मालूम हो, पर सामाजिक निश्चित बात है। प्रत्येक स्त्री को अपने समय और विचार का सब से बड़ा हिस्सा तो अपने रोज़ के व्यवहार-कार्यों में खोना पड़ता है। प्रत्येक कुटुम्ब की एक स्त्री को अपने घरबार की दैनिक बातों पर पूरा ख़याल रखना पड़ता है-और विशेष करके जो स्त्री अनुभवी और बुद्धिमती होती है वही यह सब करती है। जिन घरों में यह काम नौकरों से लिया जाता है उनकी बात न्यारी है, पर घर की अव्यवस्था और खर्च की अधिकता भी इस में होती है। यह हो सकता है कि घर की देख-रेख और काम ज़ियादा मिहनत का न हो, फिर भी दिमाग़ पर तो इसका बोझ पड़ता ही है। उन्हें प्रत्येक समय सावधान और जागृत रहना पड़ता है, हर एक छोटी से छोटी बात पर ध्यान रखना पड़ता है, तथा प्रत्येक समय सोचे और बिना-सोचे लगातार इतने प्रश्न उपस्थित होते हैं कि उनके विचार और निश्चय में सब समय चला जाता है। इन बातों के कारण एक पल भी उसे सर्वथा स्वस्थ होने को नहीं मिलता। जिस स्त्री का रुपये पैसे के कारण इस बन्धन से कुछ छुटकारा होता है, तो उसके सिर अपने कुटुम्ब के बहुत से कर्त्तव्य होते हैं। अर्थात् सगे-सम्बन्धियों से मिलना, इष्ट सम्बन्धियों के यहाँ मिलने-जुलने जाना, दस औरतों में बैठ कर शिष्टाचार की बातें करनी, गाने बजाने में शामिल होना, पत्रव्यवहार करना आदि लौकिक व्यवहार के सैंकड़ों कर्त्तव्य उनके सिर होते हैं; और गृह-व्यवस्था का काम स्त्रियों के सिर जितना ही कम होता है उतना ही इस प्रकार का भार उन पर अधिक होता है। यह सब समाज ने उन पर आवश्यक और तल्लीन कर डालने वाला कर्त्तव्य डाला है, नियमित सब काम कर चुकने पर भी उन्हें यह तो करना ही पड़ता है। अपने आप को सुन्दर और आकर्षक बनाने के लिए माँग-चोटी, शृङ्गार-सजावट, टीप-टाप, बोलने-चालने में सभ्यता आदि बातों में स्त्रियो को प्रवीण बनना पड़ता है। बड़े घरानों की और अपने आप को होशियार कहाने वाली प्रत्येक स्त्री को अच्छा शिष्टाचार और बोलने-चालने का उत्तम ज्ञान प्राप्त करने में अपनी बुद्धि का सब से बड़ा हिस्सा ख़र्च करना पड़ता है। इस बात के बाहरी स्वरूप को ही यदि हम देखेंगे तो मालूम होगा कि जो स्त्री अपनी पोशाक ठीक रखना ज़रा भी महत्त्व की बात समझती होगी (ठीक रखने का मतलब चमक-दमक वाली पोशाक नहीं, बल्कि साफ-सुथरी) उसे और इस प्रकार की जब स्त्रियों को अपनी पोशाक के सम्बन्ध में और अपनी सन्तान की पोशाक के सम्बन्ध में जितनी अक़्ल लगानी पड़ती है, वही अक्ल यदि किसी कला, साहित्य, या पदार्थ विज्ञान या और किसी शास्त्रीय विषय के पढ़ने में लगाई जाय तो उन विषयों के इतिहास में उनका नाम उच्च श्रेणी में प्रतिष्ठित हो, इस में शक नहीं*[१४]। यह बात तो निर्विवाद है कि उनकी बुद्धि और समय का इतना बड़ा भाग इस काम के पीछे ख़र्च होता है कि उन्हें अन्य मानसिक व्यवसायों के लिए समय ही नहीं मिलता। ऊपर कहे हुए प्रतिदिन के व्यावहारिक छोटे-बड़े कामों को पूरा करने के बाद भी अवकाश रहता हो और दूसरे काम करने की इच्छा तथा मन कr स्वतन्त्रता बचती हो-सब कुछ काम करने के बाद एक-आध कला के अध्ययन या तत्त्वमींमासा के काम में अपने बचाये हुए समय को लगाने की इच्छा हो-तो समझना चाहिए कि उनकी मानसिक शक्ति पुरुषों से कहीं अधिक है। किन्तु इतने ही से बस नहीं होता। गृहिणी के सब कर्त्तव्य सन्तोषकारक रीति से पूरे करने के बाद, उसे कुटुम्ब और आप्तवर्ग के प्रत्येक मनुष्य का कुछ न कुछ काम करना पड़ता है। उसे अपने समय और बुद्धि के साथ सब की सेवा में हाज़िर रहना पड़ता है। पुरुष जब किसी उदर-निर्व्वाह के काम में लगा होता है तब वह घरेलू या सामाजिक कर्त्तव्य पूरा करने के लिए उतना बाध्य नहीं समझा जाता, किन्तु यदि वह उदर-निर्व्वाह के काम में न लग कर अपना समय खेल-कूद या हँसी-दिल्लगी में ही बिता देता हो और सगे-सम्बन्धियों से मिलने-जुलने की ओर ज़रा भी ध्यान न देता हो, तब भी उसे कोई दोष नहीं देता। कुछ भी न करने पर पुरुष यदि किसी मिलने वाले से कहदे कि "इस समय मैं काम कर रहा हूँ" या "अभी मुझे फुरसत नहीं है", तो उसकी यह बात बिना वजह भी मानी जायगी। पर यदि कोई स्त्री काम में रुकी होने ही के कारण, और ख़ास करके अपने पहनने-ओढ़ने के काम में लगी होने के कारण-घरेलू व्यवहारों को पूरा न कर सके तो लोग उसकी इस बात को कभी माफ़ न करेंगे। अपने घरेलू काम-काजों को और ज़रूरी कामों को एक ओर रख कर उसे व्यवहार पूरा करना ही पड़ता है। व्यवहार पूरा करने के लिए वह उन्हीं हालतों में मजबूर नहीं है जब घर में कोई बीमार हो या कोई असाधारण बात हो। इन हालतों को छोड़ कर बाक़ी सब मौक़ों पर हर एक आते-जाते से उसे व्यवहार की चार बातें करनी पड़ती हैं। यदि उसने अपनी इच्छा से किसी विषय को सीखना सोचा हो या उसे किसी व्यवसाय का ज्ञान प्राप्त करना हो—तो इसे वह इधर-उधर से समय काट-कूट कर पूरा करती है। एक सुप्रसिद्ध स्त्री ने अपने एक ग्रन्थ में लिखा है कि स्त्रियों को हर एक काम बचे-बचाये समय में पूरा करना पड़ता है। ऐसी दशा होने के कारण, जिन कामों में मन की पूरी एकाग्रता की ज़रूरत है, तथा जिन कामों में रात-दिन एक करके लग जाने की ज़रूरत होती है, उन कामों में यदि स्त्रियाँ संसार में सब से ऊँची न कहा सकें तो इस में आश्चर्य की कौन सी बात है तत्त्वचिन्तन का काम इस ही प्रकार का है। कला-कौशल और कारीगरी के काम भी ऐसे ही होते हैं। इन कामों में जिसे सबसे अच्छा बनना होता है उसे अपनी तमाम बुद्धि और तमाम समय लगा कर एकनिष्ठा और एक-ध्यान से लम्बे अर्से तक लगा रहना पड़ता है, तथा इतने ही से बस नहीं होता बल्कि ऊँची चतुराई पाने के लिए उसे लगातार कड़ी मिहनत करनी पड़ती है। २४-इस विषय में एक और बात ध्यान देने योग्य है। कारीगरी और प्रत्येक बुद्धि-सम्बन्धी काम में एक सीमा तक की प्रवीणता या होशियारी तो केवल उपजीविका सम्पादन करने ही के लिए काफ़ी होती है। और जिसे कीर्त्ति सम्पादन करनी हो, या विलक्षण करामात के द्वारा अपना नाम अमर कर जाना हो, उसे इससे भी कहीं अधिक उच्च प्रवीणता प्राप्त करने की आवश्यकता है। पहले प्रकार की प्रवीणता तो जो लोग किसी काम को किसी व्यवसाय के तौर पर स्वीकार करते हैं उन्हें प्राप्त होती ही है। किन्तु दूसरे प्रकार की प्रवीणता तो उन्हीं को प्राप्त हो सकती है जिन्हें अपना नाम अमर करने की उत्कट आकाङ्क्षा होती है। अत्यन्त बुद्धिमत्ता से भरे हुए, तथा सुन्दर और भव्य काम जो हमारे देखने में आते हैं, उन में उच्च स्थान प्राप्त करने के लिए जिस कौशल और हिम्मत की ज़रूरत है, उसे प्राप्त करने के लिए प्रकृतिदत्त विलक्षण बुद्धि वाले मनुष्यों को भी अटूट परिश्रम में निरन्तर लगे रहना पड़ता है। इसलिए इतनी कठिनाइयाँ झेल कर निरन्तर श्रम किये जाने की हिम्मत नाम अमरकरने की प्रबल लालसा से ही मिलती है। किन्तु स्त्रियों के मनों में अपना नाम अमर करने की इच्छा कोई कहीं ही पैदा होती है। यह नहीं कहा जा सकता कि इसका कारण स्वाभाविक है या कृत्रिम। उनकी महत्त्वाकाङ्क्षा का दायरा बहुत ही छोटा होता है। उनकी बड़ी से बड़ी इच्छा यही होती हैं कि वे रात-दिन जिन के साथ रहती हैं उन पर उनका अधिकार हो-वे उनके प्रभाव को मानें। उनकी इच्छा इस छोटे से वृत्त में घिरी रहती है कि जो मनुष्य उनकी आँखों के आगे घूमते-फिरते हैं, वे उनका आदर करें, सम्मान देवें और प्रशंसा करें। और इस उद्देश की प्राप्ति के योग्य जितनी होशियारी, जितना कला-कौशल और जितनी बुद्धि की आवश्यकता होती है वह सब प्राप्त होजाने पर वे सन्तोष कर लेती हैं। स्त्रियों की स्थिति के विषय में अपनी सम्मति देते समय उनके स्वभाव के इस विशेष लक्षण को अवश्य गिनना चाहिये; किन्तु यह न समझना चाहिए कि यह स्त्री-स्वभाव का प्रकृतिसिद्ध अङ्ग है; बल्कि जिन संयोगों में स्त्रियाँ हैं उसका यह एक स्वाभाविक परिणाम है। पुरुषों में जो नाम अमर करने की इच्छा होती है उसे शिक्षा और लोकाचार के द्वारा विशेष उत्तेजना मिलती है। कहा जाता है कि नाम अमर करने की इच्छा अर्थात् कीर्त्ति का लोभ मन की निर्ब्बलता का एक लक्षण है, फिर भी सब सुखों से उदासीन बन कर और विषय-सुख को तुच्छ समझ कर केवल कीर्त्ति के लिए निरन्तर, अविश्रान्त परिश्रम करना, ऊँचे स्वभाव का एक अङ्ग है। तथा कीर्त्तिमान् पुरुष के लिए महत्त्वाकाङ्क्षा के सब दरवाज़े खुल जाते हैं, इसलिए कीर्त्ति के प्रेम को उत्तेजना मिलती है। ऐसा कीर्त्ति-सम्पन्न मनुष्य स्त्रियों का भी अनुग्रह प्राप्त कर सकता है। किन्तु स्त्रियों के लिए तो ये दरवाजे सदा के लिए बन्द रक्खे जाते हैं। बल्कि स्त्रियों के मन में कीर्त्ति का लोभ होना या अपना नाम चलाने की इच्छा होना-स्त्री-धर्म के लिए अनुचित समझा जाता है। फिर स्त्री के मन में रात-दिन और प्रतिपल यह ख़याल बना रहता है कि जिनके साथ उसका रात-दिन सम्बन्ध है उनके मन में अपने लिए अच्छा ख़याल बना रहे, उसका लक्ष्य सदा यही रहता है इस में आश्चर्य ही क्या है? क्योंकि समाज ने चारों तरफ़ से उन के मनो में यही ठूँस-ठूँस कर भर दिया है कि तुम्हारा इस संसार में केवल यही कर्त्तव्य है कि पुरुषों के फ़ायदे को अपने सामने रख कर ही हर एक काम करो। समाज का सङ्गठन ही इस प्रकार का है कि स्त्रियों के सुख की डोर कुटुम्ब के पुरुषों के पैरों में बँधी रहती है। चाहे पुरुष हो या स्त्री दोनों की यह इच्छा होती ही है कि लोगों में उनकी इज्ज़त बढ़े, चार आदमी उन्हें भला कहें। पर समाज ने ऐसा क़ानून बना डाला है कि स्त्री की इज्ज़त तभी बढ़े जब उसके मालिक या घर वालों की आबरू में वृद्धि हो-अर्थात् जब तक उस कुटुम्ब का पुरुष वर्ग अंधेरे में होता है तब तक उस कुटुम्ब की स्त्री चाहे जितनी बुद्धिमती हो किन्तु उसे कोई पहचानता ही नहीं। स्त्रियों को स्वतन्त्र रीति से कोई देखता ही नहीं, बल्कि संसार में जो थोड़ी-बहुत उनकी इज्ज़त होती है वह फलाने की बहू, फलाने की बहन या फलाने की बेटी के नाम से होती है। यह बात तो कुटुम्ब से बाहर वाली प्रतिष्ठा की है, पर कुटुम्ब के भीतर ऐसी दशा होती है कि जो स्त्री किसी बात में अपने मत को प्रधान रखने की कोशिश करे, या जो स्त्री बात-बात में पुरुषों की हाँ में हाँ मिलाना छोड़ कर अपना नाम आगे बढ़ाने की इच्छा करे—तो वह अपने कुटुम्ब की प्रेमपात्री नहीं रहती-अर्थात् जो स्त्री कोई भला काम करके भलाई अपने नाम पर नहीं लेती, बल्कि पुरुषों को ही उसे दे देती है, और ख़ुद पुरुषों के पीछे ही बनी रहती है तो वह स्त्री अच्छी समझी जाती है, और जिस स्त्री का बर्ताव इस से उल्टा होता है उसी की निन्दा की जाती है वही बुरी कही जाती है। जो मनुष्य उस व्यक्ति की तुलना कर सकता होगा जिसने अपनी तमाम उमर कुटुम्ब या समाज में एक ही प्रकार से बिताई हो-और उस एक ही प्रकार के कारण उसके मन पर उस स्थिति का जो बड़ा भारी प्रभाव हुआ होगा, इसे जो समझ सकता होगा, वह झट समझ जायगा कि स्त्री-पुरुष की प्रकृति में और मानसिक प्रवृत्ति में जो भेद दीखता है, तथा ख़ास जिन भेदों के कारण स्त्रियाँ पुरुषों से कम समझी जाती हैं-ये सब भेद पैदा होने का कारण दोनों की सामाजिक तथा कौटुम्बिक स्थिति के भेद हैं। इस भेद के कारण उन के मनों पर पैदा होने वाला न्यारा-न्यारा असर और इस असर के कारण ख़ास तरह का बर्ताव रखने को टेव है। २५-अभी स्त्री-पुरुषों के मानसिक और बुद्धि-विषयक भेदों को एक और छोड़ कर केवल नैतिक भेदों के विषय में विचार करेंगे तो मालूम होगा कि स्त्रियाँ पुरुषों से अधिक उच्च हैं। लोग इस बात को अपने ही मुँह से स्वीकार करते हैं कि स्त्रियाँ अधिक नीतिमान् और सदाचार-सम्पन्न हैं। पर यह कह देना कोरी ऊपर की बातें बनाने के बराबर है, और ऐसी बातों को सुन कर जिन स्त्रियों में कुछ भी बुद्धि है उन के मन में तिरस्कार और खेद पैदा हुए बिना नहीं रहता। क्योंकि लायक़ आदमी के नालायक़ की तावेदारी में रहने की प्रथा अब संसार में कहीं नहीं है और इस तरह के सम्बन्ध को कोई भी मनुष्य अच्छा कहने के लिए तैयार नहीं है। पर स्त्री-पुरुष के इस प्रकार के सम्बन्ध को ही स्वभाविक कहते हैं। स्त्रियाँ पुरुषो से अच्छी हैं, यह कोरी मुँह से कहने की बात यदि किसी उपयोग में आसकती है तो सिर्फ इस ही में कि, सत्ता भोगते रहने के कारण पुरुष नीतिभ्रष्ट होते हैं और इससे यह सिद्ध होता है; क्योंकि स्त्रियाँ पुरुषों से विशेष सदाचार-सम्मन्न होती हैं। यदि यह बात सत्य हो तो इससे यही अनुमान निकलता है कि सत्ता के कारण पुरुषों की नीति शिथिल हो जाती है। यह चाहे जैसे हो, किन्तु संसार का यह एक बड़े लम्बे समय का अनुभव है कि ग़ुलामी की चाल जो कि नीति की दृष्टि से देखने पर ग़ुलाम और उनके स्वामी दोनों को हानि पहुँचाने वाली है, फिर ग़ुलाम की अपेक्षा उसके मालिक पर शिथिलता का असर ज़ियादा होता है। दूसरों पर अनियन्त्रित अधिकार भोगने वाले मनुष्यों की नीति जैसी बिगड़ जाती है वैसी अधिकार की दाब में रहने वालों की नहीं बिगड़ती। अर्थात् बिना किसी अङ्कुश के दूसरों पर मनमानी करने वालों की नैतिक प्रकृति जैसी शिथिल होती है वैसी दूसरे के अधिकार में रह कर दाब सहने वाले की नहीं होती। और फिर वह सत्ता चाहे मनमानी हो या कुछ नियमों से बँधी हो, पर उस में विशेष हेरफेर नहीं होता। यह कहा जाता है कि, फौज़दारी कचहरी में पुरुष-अपराधियों की अपेक्षा स्त्रियाँ बहुत ही कम जाती हैं। जेलखाने में भी स्त्री-अपराधियों की संख्या कम होती है। प्रत्येक जाति के ग़ुलामों के विषय में भी यही बात कही जाती है। जो आदमी दूसरों के दबाव में होते हैं वे बार-बार कुसूर नहीं कर सकते, और यदि वे कुसूर करते है तो अधिकांश या तो अपने मालिक के कहने से या अपने मालिक के फ़ायदे के लिए। साधारण मनुष्यों की बात तो एक ओर रहने दो, पर रात-दिन मनुष्य स्वभाव का अनुभव करने वाले विद्वान् भी बिना कुछ सोचे-विचारे स्त्रियों की मानसिक प्रवृत्ति को नीचा स्थान देते हैं और उनकी नैतिक प्रवृत्ति की प्रशंसा करते हैं। इससे यह साफ़ समझ में आता है कि, सामाजिक संयोग मनुष्य की प्रकृति में कितना लौट-फेर कर डालते हैं-इस ओर लोग कितनी लापरवाही दिखाते हैं। २६-नीति में स्त्रियों की विशेष भन्नमनसाहत का बखान पुरुष करते अवश्य हैं; किन्तु दूसरी ओर वे यह भी कहते हैं कि, उनके स्वभाव में एक तरफ़ झुकने की आदत विशेष होती है। लोगों का कहना है कि, स्त्रियाँ अपनी पक्षपात वाली आदत नहीं छोड़ सकतीं। वे राग, द्वेष, ममता और तिरस्कार आदि मनोविकारों के वश झट हो जाती हैं, इसलिए विवेक निश्चित नहीं हो सकता: थोड़ी देर के लिए यदि हम इसे सच मान लें, तो पुरुष जितनी बार अपने स्वार्थसाधन के लिए पक्षपात करते हैं या उल्टा रास्ता पकड़ते है, उनकी अपेक्षा अधिक बार स्त्रियाँ अपने मनोविकारों के वश होकर पक्षपात करती हैं—यह सिद्ध करना अभी बाकी है। यदि यह बात सिद्ध हो जाय, तो इससे यह साबित होगा कि स्त्री-पुरुष के व्यवहार में इतना ही भेद है कि पुरुष जिस दशा में अपने निजू स्वार्थ के लिए कर्त्तव्यभ्रष्ट या समाजहित से पराङ्मुख होता है, उस दशा में स्त्रियाँ दूसरों के लाभ के लिए कर्त्तव्यभ्रष्ट होती हैं। क्योंकि जिसे केवल उनका निजू कह सकें ऐसा कुछ भी समाज ने उनके लिए नहीं रक्खा। फिर यह बात भी ध्यान में रखने योग्य है कि, समाज की ओर से स्त्रियों को जो शिक्षा दी जाती है, वह हृदय में घुस कर ऐसा परिणाम पैदा करती है कि संसार में हमें यदि कन्हीं अन्य प्राणियों के प्रति अपना कर्त्तव्य पूरा करना है तो वह केवल अपना ही कुटुम्ब है-अर्थात् कुटुम्ब के लाभ को छोड़ कर संसार के मनुष्यों से कोई वास्ता नहीं। उन्हें सम्पूर्ण संसार की भलाई सोचने—बड़े-बड़े परोपकार के रहस्य समझने की शिक्षा ही नहीं दी जाती—उस विशाल शिक्षा के मूल तत्वों का उन्हें अभ्यास ही नहीं कराया जाता। इसलिए इस विषय में स्त्रियों को, जो दोष दिया जाता है उसका सीधा अर्थ यह होता है कि, कर्त्तव्य के विषय में स्त्रियों की जैसी समझ बना डाली जाती है—अर्थात् एक पुरुष के प्रति अपना कर्त्तव्य पूरा करने की स्वाधीनता जैसी समाज से उन्हें मिलती है, उसे वे पवित्रता-पूर्वक पूर्ण करती हैं।

२७-जिनके हाथ में अधिकार या सत्ता होती है और जब उन्हें यह विश्वास हो जाता है कि हमारे नीचे दबे हुए अनधिकारियों को यदि अब हक़ न देंगे तो वे सामना करके या लड़-झगड़ कर हक़ लिए बिना न मानेंगे,-उस ही समय वे उनके माँगने के अनुसार हक़ देते हैं। राज़ी-ख़ुशी से अधिकार देना कोई पसन्द ही नहीं करता। यह संसार के अनुभव की बात है। इसलिए अपनी पराधीनता के ख़िलाफ़ स्त्रियाँ जब तक घोर आन्दोलन न करेंगी तब तक इस पराधीनता के विरुद्ध चाहे जैसी ज़ोरदार दलीलें पेश की जायँ, पर उनका असर कुछ नहीं होगा। तब तक पुरुषों की ओर से यही कहा जायगा कि, अपनी हालत के बारे में स्वयं स्त्रियाँ जब कुछ नहीं कहना चाहतीं—तो यही सिद्ध है कि वे अपनी मौजूदा हालत को पसन्द करती हैं। स्त्रियाँ अपनी पराधीनता के ख़िलाफ़ आन्दोलन नहीं करतीं, इसलिए पुरुष कुछ और अधिक समय तक ऐसे ही अधिकार भोगते रहेंगे, पर इसका मतलब यह नहीं हो सकता कि पुरुष जो कुछ अधिकार भोगते हैं वे अन्याय से भरे नहीं,—इसे तो कोई कह ही नहीं सकता। बल्कि पूर्व के देशों में जहाँ स्त्रियाँ परदों के भीतर ज़नानाख़ानों में बन्द रहती हैं, वहाँ भी ऐसी ही दलीलें पेश की जा सकती हैं। योरप की स्त्रियों के समान घूमने-फिरने की स्वाधीनता के लिए वे ज़रा भी चूँ नहीं करतीं; बल्कि परदे वाली स्त्रियाँ यूरोपीय स्त्रियों को हद से ज़ियादा ढीठ, निर्लज्ज और स्त्री-धर्म्मशून्य समझती हैं। समाज की प्रचलित रूढ़ि के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वाले पुरुषों ही की संख्या बहुत ही कम होती है; और जो संसार के और किसी समाज की प्रचलित रूढ़ियों को नहीं जानते—जिन्हें कुएं के मैंडक की तरह संसार का ज्ञान ही नहीं होता उनमें अपनी स्थिति पर असन्तोष प्रकट करने वालों का निकलना बहुत ही कठिन है। फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि अपनी स्थिति के विषय में स्त्रियाँ कुछ भी नहीं कहतीं—फिर भी स्त्रियों के लेखों में दुखों की आहें सुनाई देती हैं। जब तक पुरुषों को यह ख़याल नहीं था कि ऐसे लेखों में कुछ व्यावहारिक हेतु भी है तब तक ऐसे लेख बहुत निकले। अपनी दशा पर असन्तोष प्रकट करके मनुष्य जो कुछ उज़्र करता है वैसा ही उज़्र स्त्रियों के लेखों में भी है; उनमें किसी को दोष नहीं दिया जाता, या प्रस्तुत स्थिति में लौट-फेर करने का उद्देश नहीं दिखाया जाता। पर यह ध्यान में रखना चाहिए कि यदि अधिकार भोगने वाले पुरुष-वर्ग के प्रति स्त्रियाँ प्रकट रूप से आन्दोलन नहीं करतीं तब भी हर एक स्त्री अपनी सखियों के सामने अपने पति के घातकी व्यवहार की शिकायत तो करती ही है। ग़ुलामी के जितने तरीक़े हैं उन सब में यह बात ऐसे ही हुआ करती है। और ख़ास करके जब बन्धन टूटने का समय निकट होता है तब तो यह बात ऐसे ही होती है। शुरू में ज़मींदारों के खिलाफ किसानों को शिकायत नहीं थी; किन्तु उस शिकायत का कटाक्ष जमींदारों की इस बात के ख़िलाफ़ था कि वे लोग अपनी सत्ता का दुरुपयोग करते हैं, तथा किसानों पर अत्याचार होता है। साधारण-वर्ग के मनुष्यों (Commons) ने पहली ही पहली बार राजा से यही अधिकार माँगा था कि उन्हें स्थानीय बातों के विषय में हक़ दिये जायँ; इसके बाद उन्होंने यह माँगा कि उनकी सम्मति के बिना राजा कोई नया कर न लगावे-किन्तु पहली ही बार यदि किसी ने राज्याधिकार में हिस्सा माँगा होता, तो उसकी बात सब को उद्धतता से ही भरी मालूम होती। उस ज़माने में राजा के ख़िलाफ़ आन्दोलन करना जितना निन्द्य और अघटित घटना समझी जाती थी—आज-कल के ज़माने में उतनी ही निन्द्य और अघटित घटना यदि कोई समझी जाती है—और वह भी किसी और कारण से नहीं, बल्कि प्रचलित लोक-रीति ही से—तो वह स्त्रियों का अपनी पराधीनता के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना ही है। जो स्त्री ऐसी बातों में शामिल होने की हिम्मत करती है—जिन्हें उसका पति पसन्द नहीं करता—तो उसे इसके लिए बहुत कुछ सहना पड़ता है; और ऐसा होने पर भी इष्ट हेतु सफल नहीं होता; क्योंकि क़ायदे के अनुसार पति अपनी स्त्री पर अङ्कुश रख सकता है। जब तक सच्चे मन से स्त्रियों की सहायता करने के लिए बहुत से पुरुष तैयार न होंगे, तब तक केवल स्त्रियों का अपनी पराधीनता के ख़िलाफ़ कमर कस कर खड़ा होना महा कठिन काम है।

  1. * होमर (Homer) ग्रीक लोगों का आदि कवि है। इसका समय ईसा से लगभग एक हजार वर्ष पूर्व है। इस के "इलियड" और "ओडिसी" बड़े प्रतिष्ठित ग्रन्थ हैं। हिन्दुओं में वाल्मीकि और व्यास का जो आदर है, ग्रीकों में होमर का वही स्थान है।
  2. † अरिस्टाटल (Aristotle या अरस्तू ) ग्रीस का प्रसिद्ध तत्वज्ञानी है। इसका जन्म ईस्वी पूर्व ३८४ और मरण ईस्वी पूर्व ३२२ वर्ष है। यह प्रसिद्ध सिकन्दर का गुरु था। तत्वज्ञानियों में इसका नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है।
  3. ‡ माइकेल एँजेलो (Michael Angelo) इटली देश का सुप्रसिद्ध चित्रकार, मूर्तिकार और शिल्पी हो गया है। इसका जन्म १४७५ ई॰ में हुआ और मृत्यु १५६३ ई॰ में हुई।
  4. § विथोवेन (Beethoen) प्रशिया में १७७० ईस्वी में पैदा होकर १८२७ ईस्वी में मरा। वह भारत के तानसेन के समान गवैया था। संगीत, वादमकला और स्वर-रचना में इसकी बुद्धि बड़ी ही विलक्षण थी।
  5. *-एलिज़ाबेथ (Elizabeth) इङ्ग्लैण्ड के सिंहासन पर बैठी है। इसने इङ्ग्लैण्ड को बड़ी-बड़ी कठिनाइयों से बचाया है। इसके ही कारण इङ्ग्लैण्ड का सम्मान अधिक हुआ है। इसके समय में ही इङ्ग्लैण्ड की व्यापारिक, औद्योगिक, राजनैतिक और साहित्यिक उन्नति का बीज बोया गया था। इसके शासन में इङ्ग्लैण्ड की प्रजावृद्धी बात हुई थी।
  6. †-डिबोरा (Deborah) एलिज़ाबेथ के ही समान प्रतिष्ठित और गुणवती स्त्री इङ्ग्लैण्ड में हुई है।
  7. ‡-जॉन ऑव् पार्क (Joan of Arc) वीर फ्रेञ्च रमणी थी। इसने अपने बाहुबल से सैन्य संग्रह करके स्वदेश के बचाने के लिए अँगरेजों से घोर संग्राम किया था। परिणाम में यह जोती जलायी गई थी। जन्म १४११ ई॰।
    हमारे देश में अहिल्याबाई होल्कर, झाँसी की महारानी लक्ष्मीबाई और सुलताना चाँदबीबी आदि भी इसी श्रेणी की हुई हैं।
  8. §-मोज़ार्ट (Mozart) यह जर्मनी का सुप्रसिद्ध संगीत-काव्य-लेखक हुआ है। जन्म १७५६ ई॰ और मृत्यु १७९१ ई॰।
  9. * इस स्थल पर ग्रन्थकार ने निम्नलिखित टिप्पणी दी है,-
    इस अवसर पर एशिया और योरप दोनो देशो पर विचार करेंगे तो इसकी सत्यता का प्रमाण बहुत कुछ मिलेगा। हिन्दू-देशों का एक-आध संस्थान या राज्य यदि उत्कृष्ट नियमों पर चल रहा हो, जागृति और होशियारी से चल रहा हो, प्रजा पर किसी प्रकार का अन्याय न होता हो, प्रबन्ध अच्छा हो, दिन प्रति दिन-खेती आदि का सुधार होता जाता हो, प्रजा की प्रसन्नता बढ़ती जाती हो—तो इसे निश्चय समझो कि ऐसे चार राज्यों में से तीन का प्रबन्ध स्त्रियों के हाथ में होगा। मुझे बिल्कुल आशा नही थी कि हिन्दू-राज्यों में यह प्रकार होगा-किन्तु देशी राज्यो के हिसाब-किताब से मेरा एक अर्से तक सम्बन्ध रहा है और सरकारी दफ्तर से मैं यह तथ्य संग्रह कर सका हूंँ। इस प्रकार के उदाहरणो की कमी नहीं है। हिन्दुओं के रीति-रिवाज के अनुसार स्त्रियों को प्रत्यक्ष राज्य करने का अधिकार नहीं है, पर राज्य का अधिकारी जब छोटी अवस्था का यानी नाबालिग होता है, उस समय राजमाता को नियमानुसार राज्य करने का एक होता है। और ऐसे प्रसङ्ग अक्सर होते हैं, क्योंकि राजा विशेष करके आलसी और विषयासक्त होने के कारण अकालमृत्यु के ग्रास बनते हैं। ऐसी राजरानियाँ प्रकट होकर कभी लोगों के सामने नहीं बैठ सकतीं। अपने कुटुम्बों को छोड़ कर किसी पर-पुरुष से वे बातें नहीं कर सकतीं। यदि कभी ऐसी आवश्यकता ही हो तो परदे की आड़ से कहती सुनती हैं। उन्हें पढ़ना-लिखना बिल्कुल नहीं आता, यदि किसी को कुछ आता भी हो तो दुर्भाग्य से उनकी भाषा में ऐसी पुस्तके ही नहीं हैं जो राजकार्य सिखा सकें। इन सब बातों को ध्यान में रखकर जब उन स्त्रियों के राजकार्य को देखते हैं तब यही सिद्धांत बनता है कि स्त्रियाँ सर्वथा राज्य करने के लिए योग्य हैं।
  10. * कुवीयर (Cuvier) नामक प्रसिद्ध प्राणि-शास्त्र-वेत्ता फ्रान्स देश में हुआ है। इसका समय अब से पचास वर्ष पूर्व है। इसके मस्तिष्क का वजन ६४ औन्स से कुछ अधिक था। प्रायः पुरुषों के मस्तिष्क का वजन ५० औंस होता है। वह मरते समय लिख गया था कि, मेरा सिर विदान् लोग अपनी परीक्षा के काम में लाये।
    • अनृतं साहसं माया मूल मूर्खत्वमतिलोभिता।

    अशुचत्वं निर्दयत्वं स्त्रीणां दोषाः, स्वभावजाः।

  11. * हिपेशिया (Hypatta) नामक विदुषी स्त्री तत्त्वशास्त्र और गणितशास्त्र में विशेष योग्यता वाली थी। यह अलेमज़ेस्ड्रिया नगर में ईसा से १६०० वर्ष पूर्व हुई है।
  12. * पिण्डे पिण्डे मतिर्भिन्ना।
  13. * "जिस योग्य मानसिक शक्ति के कारण मनुष्य को किसी कला की योग्यता-अयोग्यता के विषय में यथार्थ कल्पना प्राप्त होती है, उस ही मानसिक शक्ति का उपयोग वस्त्रालङ्कार या शरीर सजाने के काम में होता है। वस्त्रालङ्कार का हेतु यद्यपि छोटा होता है, किन्तु इसके स्वरूप का मूल तो एक ही प्रकार का होता है। यह सिद्धान्त पोशाक की रुचि से और भी अधिक स्पष्ट होता है। इसे सब स्वीकार करते हैं कि पोशाक में अभिरूचि या रसज्ञता का अंश होता है। पोशाक के न्यारे-न्यारे अङ्गों के कद, और माप समय-समय पर बदलते रहते हैं। छोटे भाग बड़े होते हैं और जो संकुचित होते हैं वे बढ़ते हैं। किन्तु उनका सामान्य स्वरूप तो बना ही रहता है, उसका तो ढाँचा नही बदलता। पोशाक में जो कुछ लौट-फेर होता है, वह उसके भिन्न-भिन्न भागों में घटता है, किन्तु वह स्वरुप तो बना रहता ही है। पोशाक के लौट-फेर और काट-छाट में जो मनुष्य सुधार करता है तथा पोशाक पहनने में जिस व्यक्ति की रुचि उच्च प्रति की है, यदि ये दोनों व्यक्ति अपनी इस ओर की कल्पना-शक्ति का उपयोग अन्य विशेष उपयोगी कामों में करें तो कला-कौशल-कारीगरी के बड़े बड़े कामों में भी उनकी उस बुद्धि का विलक्षण चमत्कार अवश्य दीखे। अर्थात् उनकी उच्च प्रकार की रसज्ञता और अभिरुचि इस में भी प्रकट हो, इस में कोई शक नहीं।" Sir Joshua Reynolds' Discourses, Disc. VII.