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स्त्रियों की पराधीनता/४

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स्त्रियों की पराधीनता
जॉन स्टुअर्ट मिल, अनुवादक शिवनारायण द्विवेदी

कलकत्ता: हरिदास एण्ड कम्पनी, पृष्ठ २२१ से – २७६ तक

 
चौथा अध्याय।

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१-अब केवल एक ही प्रश्न का निर्णय करना बाक़ी है। यह प्रश्न पहले प्रश्नों से किसी प्रकार कम नहीं है, क्योंकि अब तक के प्रमाणों और दलीलों से जिन प्रतिपक्षियों के विचार कुछ ढीले पड़े होंगे, वे इस प्रश्न को आग्रह-पूर्वक उठावेंगे। यह प्रश्न है:-अपने प्रचलित रीति-रिवाजों में फेरफार या संशोधन करने से किन-किन फ़ायदों की सम्भावना है? यदि स्त्रियों को पूरी स्वाधीनता देदी जाय तो क्या मनुष्य-जाति की हालत में कुछ सुधार होना मुमकिन है? और यदि कोई लाभ होना सम्भव न हो, तो लोगों के मन में बिना कारण क्षोभ पैदा करने से और केवल कल्पित हक़ के नाम से समाज में खलबलाहट मचाने से क्या फ़ायदा?

२-मैं समझता हूँ कि प्रचलित विवाह-पद्धति के फेरफार करने में तो कोई ऐसा प्रश्न उठावेगा। पर एक-एक पुरुष के अधिकार में एक-एक स्त्री के सौंप देने से जो सङ्कट, दुराचार और अनेक प्रकार के अनर्थों के असंख्य उदाहरण हमारे देखने में रोज़ आते हैं, उनकी ओर से आँखें मींचने पर काम नहीं चल सकता। जिन लोगों को विचार करने की आदत नहीं होगी या जो शुद्ध अन्तःकरण वाले नहीं होंगे वे, जितने नीच से नीच उदाहरण होंगे या जितने प्रकाश में आ सके होंगे-केवल उन्हीं की गिनती करेंगे, और फिर यह कहेंगे कि ऐसी बातें बुरी अवश्य हैं; किन्तु ऐसा तो कोई मनुष्य न होगा जो इन उदाहरणों के अस्तित्त्व को, या इनकी नीचता को स्वीकार न करे। इसके साथ ही यह बात भी निश्चित है कि जब तक पुरुषों के हाथ में अधिकार बने रहेंगे, तब तक उन अधिकारों पर चाहे जितने अङ्कुश रखे जायँ,-किन्तु अधिकारों के दुरुपयोग को वे अङ्कुश रोक ही न सकेंगे। फिर स्त्रियों का अधिकार केवल सब प्रकार से सभ्य और सज्जनों को ही नहीं दिया जाता; बल्कि एक-एक आदमी उस अधिकार का हिस्सेदार समझा जाता है और उसे वह भोगता है। जङ्गली से जङ्गली और दुष्ट मनुष्य भी इस अधिकार से ख़ाली नहीं रहता। इस अधिकार पर लोकमत को छोड़ कर और किसी का अंकुश नहीं होता, और ऊपर कहे हुए नराधम मनुष्यों को तो अपने वर्ग से बाहर वालों की कुछ परवा ही नहीं होती; ऐसे नीच से नीच और दुष्ट मनुष्यों से ऐसी आशा रखना व्यर्थ है कि वे ऐसे अपने अधीन प्राणी पर अत्याचार न करें, जिसे क़ायदे और समाज ने उन्हें सौंप दिया हो और जिसके नीच व्यवहार की शिकायत सुनने के लिए कोई तैयार न हो। उनसे यह आशा रखनी व्यर्थ है। यह कभी न समझना चाहिए कि यह पृथिवी स्वर्ग बन गई है; यदि यह पृथ्वी स्वर्ग हो तो दुष्ट मनुष्यों की मनोवृत्तियों को रोकने के लिए क़ानून बनाने की ज़रूरत ही न रहे। फिर यह मानना चाहिए कि नीच से नीच मनुष्य के हृदय में पवित्रता देवी का निवास है। आज-कल के ज़माने में जो सब नियम और रीतियाँ उदार नियमों पर चलाई जाती है उस उदारता में विवाह की पराधीनता वाला नियम कलङ्क के समान माना जाता है; असङ्गत जान पड़ता है। आज-कल के ज़माने में तमाम व्यवहार जिन नियमों पर चलाये जाते है, वे मनुष्य-जाति के कड़े परिश्रम और लम्बे अनुभव के अन्त में स्वीकार किये गये हैं। फिर विवाह-सम्बन्ध को उसी प्रथा पर चलने देने से उस अनुभव पर पानी फिरने के सिवा और कुछ नहीं होता। नीग्रो लोगों को ग़ुलाम बनाने की प्रथा अभी बन्द हो गई। इसलिए इस समय संसार में ग़ुलामी की केवल एक ही प्रथा बाक़ी है तथा वह ग़ुलामी की कितनी विचित्रताओं से भरी है। प्रत्येक मानसिक शक्तियुक्त एक मनुष्य प्राणी एक मनुष्य-प्राणी के हाथ में सौंप दिया जाता है—और उस प्राणी को सब तरह की आज़ादी होती है कि वह उससे चाहे जैसा व्यवहार करे-यह आज़ादी भी इस आशा से कि अधिकारी-प्राणी अपने अधिकार का उपयोग अधीन प्राणी के लाभ के लिए ही करेगा। इस ज़माने में क़ायदे से मानी हुई ग़ुलामी का यदि कोई हिस्सा बाक़ी है तो वह विवाह-सम्बन्ध ही है। आज कानूनन कोई किसी का ग़ुलाम नहीं है; केवल हर एक कुटुम्ब की स्त्री ही इसका अपवाद है।

३-इससे साफ़ ज़ाहिर होता है कि, प्रचलित रीति-रिवाजों का संशोधन करने से क्या लाभ होगा-प्रचलित विवाह-विधि को नये साँचे में ढालने से क्या फ़ायदा होगा। शायद कोई यह कहेगा कि तुम्हारे कहने के मुताबिक़ लौट-फेर करने में फ़ायदे की जगह नुक़सान ज़ियादा होगा, पर यह बात तो माननी ही पड़ेगी कि फिर भी फ़ायदा ही होगा। इससे भी अधिक महत्त्व का यह प्रश्न है कि स्त्रियाँ जो बहुत से कामों के अयोग्य समझी जाती हैं यह अयोग्य समझने की प्रथा बन्द होनी चाहिए। उदाहरण के तौर पर स्वाधीन नागरिक (Citizenship) के सब अधिकार उन्हें एक पुरुष के समान भोगने दो। उन्हें तमाम इज्ज़त-आबरू और प्रतिष्ठा वाले कामों के करने की आज़ादी होनी चाहिए; साथ ही इन सब कामों की शिक्षा उन्हें देनी चाहिए। इस स्थल पर, इस सम्बन्ध में, ऐसे कहने वाले बहुत से पुरुष निकल आते हैं जो कहते हैं कि इतना ही साबित करने से बस न होगा कि, स्त्री-पुरुषों की असमानता का कोई वाजिब और ज़ोरदार कारण नहीं है—इससे कुछ होना जाना नहीं-बल्कि यह साफ़ तौर से बता देना चाहिए कि इस असमानता को दूर कर देने से प्रत्यक्ष रीति से क्या-क्या लाभ होंगे। ४-इसके उत्तर में मेरा सब से पहले तो यही कहना है कि मनुष्यों के सब प्रकार के सम्बन्धों में सब से अधिक व्यापक और सार्वत्रिक जो स्त्री-पुरुषों का सम्बन्ध आजतक अन्याय की नींव पर चला आ रहा था वह मिट कर न्याय की भित्ति पर स्थापित होगा—पहला फ़ायदा तो यही है। यह व्यवस्था मनुष्य-समाज के लिए कितनी कल्याणकर और हितदायक होगी—इसे समझने के लिए बड़ी भारी विवेचना या उदाहरणों की आवश्यकता नहीं हैं। "अन्याय के स्थान पर न्याय का राज्य होगा"-इस वाक्य के नैतिक रहस्य को जो मनुष्य समझता होगा वह इसके विशद करने को नहीं कहेगा। मानवी स्वभाव में जो स्वार्थ-साधक प्रवृत्तियाँ हैं, अन्याय के द्वारा मतलब निकाल लेने की जो आदत है, तथा अपने आप को जो संसार से ज़ियादा अक्लमन्द समझने का अहंभाव है-इन सब का मूल या उत्पत्ति-स्थान और इन भावों का पोषण करने वाला और कोई नहीं,—केवल स्त्री-पुरुषों का वर्तमान ढँग का सम्बन्ध है। मान लो कि, कोई लड़का नादान, नासमझ और मूर्ख हो पर बचपन से ही उसके मन में ऐसी बातें भर दी जायँ कि, "मुझ में ज़रा भी लियाक़त नहीं है, फिर भी मैं पुरुष-कोटि में जन्म होने के कारण मनुष्य-जाति के बिल्कुल आधे भाग से—यानी सम्पर्ण स्त्री-वर्ग से अधिक अच्छा और श्रेष्ठ हूँ, और प्रत्येक स्त्री का अधिकार भोगने का हक़दार हूँ" तो ऐसे विचारों का असर उसके भविष्य-जीवन पर कैसा होगा, इसका ज़रा विचार करो! संसार भर की जिन स्त्रियों को वह अपने से नीची समझता है और अपने तईं उनपर अधिकार भोगने का हक़दार समझता है उनमें हज़ारों-लाखों स्त्रियों ऐसी होंगी जो उससे सैकड़ों और हज़ारों गुणी अधिक बुद्धिमती और होशियार होंगी। उसे प्रति दिन और प्रतिपल इसका अनुभव भी होता रहता है। यद्यपि वह अपनी उमर भर एक ही स्त्री की सलाह के अनुसार चला करता है फिर भी, यदि वह सचमुच मूर्ख होता है तो यही मानता है कि,-"इसमें मेरे बराबर अक्ल और मेरे बराबर समझ हो ही कहाँ से सकती है"—और यदि वह मूर्ख नहीं है तो परिणाम इससे भी ख़राब होता है, क्योंकि उसे यह ज्ञान होता है कि स्त्री मुझ से अधिक होशियार है, पर वह मानता है कि यह मुझ से ज़ियादा होशियार है तो इससे क्या हुआ? इस में चाहे जितनी बुद्धि हो, पर सदा मैं इसके ऊपर रहने का हक़दार हूँ और यह मेरी आज्ञा में रहने के लिए क़ानूनन बँधी है! ऐसी समझ का परिणाम उसके बर्ताव पर कैसा होगा, सो सहज ही समझा जा सकता है। सुशिक्षित श्रेणीवाले मनुष्यों को भी इस का ज़रा भी ख़याल नहीं होता कि पुरुषों के सब से बड़े भाग में इस समझ की जड़ कितनी गहरी होती है। क्योंकि कुटुम्ब के शिक्षित और समझदार आदमी इस बात का बड़ा ख़याल रखते हैं कि, स्त्री-पुरुषों की असमानता जितनी हो सके उतनी कम प्रकट हो और ख़ास करके बच्चों के सामने इस बात को नहीं आने देते। बच्चे जितना सम्मान पिता का करते हैं उतना ही माता का भी सम्मान करना उनको सिखाया जाता है; उन्हें इस बात की मनाही की जाती है कि वे अपने से अपनी बहनों को नीची न समझें, और ऐसा बर्ताव करते हैं कि जिस से लड़का समझे कि, "मैं मां-बाप को अधिक प्रिय हूँ और बहनों की अपेक्षा मुझे सब चीजें अच्छी मिलती हैं" बल्कि उनका बर्ताव ऐसा होता है कि इसके ख़िलाफ़ ही उनका ख़याल होता है। लड़कों के मन सदा इस प्रकार शिक्षित होते रहते है कि लड़कियाँ क़ुदरत से ही कमजोर होती हैं इसलिए उनके साथ ऐसा व्यवहार करना चाहिए जिससे उन्हें सन्तोष हो, तथा लड़कियों को जो पराधीनता प्राप्त होनी है उसकी कल्पना लड़कों के मन में उठने से रोकी जाती है। इन बातों के कारण कुटुम्ब में पैदा हुए बालक बाल्यावस्था तक कुटुम्ब के चारों ओर होने वाली इन बातों से मुक्त होते हैं, और जब वे युवा होते हैं और अपनी आँखों से प्रत्यक्ष व्यवहार देखते हैं तभी उन्हें वास्तविक स्थिति का ज्ञान होता है। जिन लड़कों को कुटुम्ब में इस प्रकार की शिक्षा नहीं मिलती, उनके मनों में अपने आप को लड़कियों से अच्छा समझने का ख़याल कितने छोटेपन से पैदा होता है, यह बात ऊपर कहे हुए कुटुम्ब वालों को मालूम ही नहीं होती। लड़के यही समझते है कि, 'हम लड़के है इसलिए लड़कियों से तो अच्छे ही हैं, तथा उनकी उमर जैसे-जैसे बढ़ती जाती है यह ख़याल भी वैसे ही वैसे बढ़ता जाता है। पाठशालाओं में भी लड़के एक दूसरे के मन पर यही समझ ठूँसते हैं। हर एक लड़का बचपन से ही अपनी कौम को अपनी मां की क़ौम से अच्छा समझता है। और फिर वह जिस स्त्री को अपनी पत्नी बनाता है उससे अपनी बराबरी करते हुए तो अपने आप को श्रेष्ठ से भी श्रेष्ठ समझता है।

क्या लोग यह ख़याल करते होंगे कि ऐसी समझ से मनुष्य के बर्ताव पर शिथिलता का असर नहीं होता होगा? क्या इस कारण से मनुष्य का स्वभाव बदले बिना रह सकता होगा? राज-घराने में पैदा होने के कारण जैसे राजाओं को जन्म से ही अपनी श्रेष्ठता का ख़याल होता है, यह ख़याल भी मनुष्य में वैसा ही असर पैदा करता है। स्त्री और पुरुष का सम्बन्ध मालिक और नौकर या ग़ुलामों के सम्बन्ध से बहुत कुछ मिलता-जुलता है। अन्तर इतना ही है कि, स्त्रियों की ग़ुलामी और भी अधिक सख़्त है। दासत्व भोगने के कारण ग़ुलाम के व्यवहार पर जो भला या बुरा असर होता होगा उसे तो एक ओर रहने दीजिए, पर इसे कोई अस्वीकार नहीं कर सकता कि उसके मालिक पर तो शिथिलता का ही असर होता है। वह सुस्त ही बनता है। ऐसे अधिकार भोगने वाले मालिक यदि यह मानते हों कि दासवर्ग वाले सचमुच हम से योग्य हैं, और यदि योग्य नहीं तो बराबर के तो है हीं, और उन पर हम जो सत्ता या अधिकार भोगते हैं, वह अपनी योग्यता या मिहनत का फल नहीं है, बल्कि फिगारो (Figaro) के कथनानुसार यह जन्म लेने की तकलीफ़ का फल है। इन में से चाहे जौन सा विचार उनके मन में पैदा होता हो और फिर भी वे अधिकार भोगे जा रहे हों, पर हमें उन के चरित्र के विषय में क्या राय ठहरानी चाहिए? राजा या ग़ुलामों के मालिक अपने आप को जितना पूज्य समझते हैं, पुरुष-वर्ग का प्रत्येक व्यक्ति अपने आपको पूज्य समझता है। यह मनुष्यों के स्वभाव की एक साधारण प्रवृत्ति होती है कि जिस अधिकार के लिए उन्हें काम नहीं करना पड़ता और जिस के अधिकारी वे बचपन से ही हो जाते हैं उसके विषय में वे दूनकी हाँका करते हैं। इस संसार में ऐसे मनुष्य बहुत ही थोड़े हैं, और वे थोड़े ही सर्वोत्तम है, जो समझते हों कि अमुक अधिकार के हम किसी प्रकार योग्य नहीं है, यह समझते हुए भी यदि उन्हें वह अधिकार मिल जाय तो उसके विषय में जिन्हें अभिमान न हो। बाकी अधिकांश मनुष्य तो अभिमान से बहक ही जाते हैं, क्योंकि उनका गर्व परिश्रम से प्राप्त की हुई चीज़ के बदले में न होकर अनायास प्राप्त हुई चीज़ से होता है, और इसलिए वे अपनी जाति को सर्वोत्तम मानते हैं। एक तो पुरुष जन्म से ही अपनी जाति की स्त्रियों को जाति से श्रेष्ठ मानता है, दूसरे उसे उसी जाति के एक व्यक्ति पर वे-रोकटोक हुकू मत करने का अधिकार होता है, ऐसी स्थिति में लगाम कहाँ रह सकती है? दूसरी ओर जिन मनुष्यों के हृदयों में वास्तविक प्रेम के अङ्कुर होते हैं, उनके लिए यह स्थिति सद्-सद् बुद्धि, ममता, सहिष्णुता, उदारता आदि उत्तम गुणों की पुस्तक के समान हो जाती है; किन्तु जो पुरुष इस स्वभाव से उलटे स्वभाव वाले होते हैं उनके लिए यह स्थिति उन्मत्तता, तुच्छता और मिथ्याभिमान का सबक बन जाती है। अन्य मनुष्यों के साथ यानी बराबर वालों के साथ व्यवहार में वही मनुष्य अपने दुर्गुणों को दबा रखता है—क्योंकि वह यह समझता है कि ये मेरे दुर्गुण सहन करने वाले नहीं; पर वही मनुष्य अपनी स्त्री के सामने अपने मन को संयम में रखना उचित ही नहीं समझता, क्योंकि वह जानता है कि यह मेरी बात का पलट कर जवाब भी नहीं दे सकती। घर से बाहर के सब कामों में वही मनुष्य प्रत्येक व्यवहार में अपने मन को कुछ न कुछ संयम में रखता है, पर घर में आकर वह सब बुख़ार बिचारी अभागी स्त्री पर निकालता है। बाहर का क्रोध अबला स्त्री पर निकाला जाता है।

५-इस प्रकार कौटुम्बिक जीवन की दीवार जिस नींव पर खड़ी की जाती है, वह परस्पर के समझौते तथा न्याय के असंगत होने के कारण, मनुष्यों के मनों पर जो बुरा प्रभाव डालती है उसका परिणाम बहुत ही भद्दा और दूषित होता है, और मनुष्य का स्वभाव ऐसा है कि यह परिणाम होना ही चाहिए। इसलिए स्त्री-पुरुषों के ऐसे भद्दे सम्बन्ध को दूर करके यदि इसकी स्थापना न्याय पर की जाय तो इसके कारण समाज का स्वरूप इतना सुधर जायगा कि हमारे इस समय के अनुभव से हम उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते! जब तक दुश्मनों की उस जगह पर हमला नहीं किया जाता जहाँ से उन्हें खाने-पीने की चीजें मिलती रहती हैं तब तक उन पर जय प्राप्त करना असम्भव होता है; चारित्र्य के सुधार में भी जब तक उसकी जड़ों तक न पहुँचा जायगा तब तक "लाठी उसकी भैंस" वाले न्याय पर स्थापित स्त्रियों का सम्बन्ध व्यक्ति मात्र के स्वभाव और चरित्र पर जो शिथिलता का असर करता है वह शिक्षा और सुधार का गीत गाते रहने से ही मनुष्यों के मन से नहीं निकल सकता। क्योंकि और बातों का असर ऊपर ही ऊपर होता है भीतर नहीं वेधता। सद्वर्तन ही मनुष्य को सम्मान-योग्य बनाता है, यह नीति और राजनीति का तत्त्व आजकल सर्वमान्य हो रहा है। मनुष्य कुलीनता या धनाढ्यता से सम्मान का पात्र नहीं समझा जाता, किन्तु यदि उसका व्यवहार उत्कृष्ट और नीतियुक्त हो तभी हम उसे सम्मान-योग्य समझेंगे। एस ही प्रकार विशेष स्थिति या विशेष कुल में जन्म लेने के कारण कोई व्यक्ति अधिकारों का पात्र नहीं हो सकता, बल्कि जिसकी जैसी योग्यता होती है वह वैसे ही अधिकार भोगने के योग्य समझा जाता है*[]। किन्तु विवाह-सम्बन्ध में जब एक मनुष्य प्राणी को एक मनुष्य-प्राणी का अधिकार दे दिया जाता हैतब उसका परिणाम यह होता है कि, समाज एक ओर तो एक मनुष्य की दुष्ट प्रवृत्तियों को बढ़ाता है और दूसरे व्यक्ति से उत्तम गुणों का लोप करना चाहता है। यदि ऐसी अन्याय से भरी और हानिकारक समाज की व्यवस्था एकदम बदल डाली जाय, तो समाज का जो परिश्रम व्यर्थ जाता है वह बच जाय। ऐसी व्यवस्था होने पर ही बचपन से बालक को वैसी यथार्थ शिक्षा मिलेगी जैसी आज ज़बानी बताई जाती है; जो बालक उस शिक्षा में बड़ा होगा उसके अनुचित मार्ग पर चलने की सम्भावना बहुत ही कम होगी। किन्तु जब तक निर्बलों पर बलवानों को अधिकार दिया जायगा, जब तक समाज के भीतर ऐसी व्यवस्था प्रचलित रहेगी, तब तक "बलवान और निर्बल के अधिकार समान हैं" इस न्याय के अनुसार व्यवहार होना असम्भव है—कमर में पत्थर बाँध कर तैरने के समान है। क्योंकि मनुष्य के भीतर वाले मनोधर्म न्याय के तत्त्व को सिर अवश्य झुकावेंगे, किन्तु उसके सर्वथा वशीभूत न होंगे और उसके ख़िलाफ़ ही बर्ताव बना रहेगा।

६-यदि स्त्रियों को उनकी शक्ति का यथेच्छ उपयोग करने और जो काम उन्हें पसन्द हो उसे करने की पूरी आज़ादी हो, तथा उनकी बुद्धि के विकाश के लिए पुरुषों के बराबर ही जगह दे दी जाय, साथ ही पुरुषों के बराबर ही उन्हें लाभ और उत्तेजना मिले-तो इससे दूसरा फ़ायदा यह होगा कि अब तक जितनी मानसिक शक्ति मनुष्य-जाति की सेवा कर रही थी, वह एकदम दुगनी हो जायगी। इस समय जिस काम के लिए एक लायक़ आदमी मिलता है, उस समय उसी काम के लिए दो लायक़ आदमी मिलने सम्भव हैं। समाज में से उत्तम शिक्षक, प्रतिभासम्पन्न लेखक, ईमानदार अधिकारी, कार्यकर्ता आदि भिन्न-भिन्न श्रेणियों के उत्तम सुधारक और योग्य कार्य्यकर्त्ता जितने आज मिलते हैं-उस समय एक से दुगने निकल आवेंगे। इस समय हमें जितने उत्कृष्ट मानसिक शक्तिवाले व्यक्तियों की आवश्यकता है, उस से कहीं कम संख्या में वे मिलते हैं। इस ही प्रकार जिन कामों में अत्युच्च बुद्धिमानों की ज़रूरत है, वैसी ऊँची प्रतिभा वालों को बहुत ही कमी है। संसार की बुद्धि का बिल्कुल आधा भाग बेफ़ायदे पड़ा है; और इसके कारण संसार को जो नुक़सान हो रहा है वह बहुत ही बड़ा है। यद्यपि यह बात तो नहीं है कि इस आधे भाग से बिल्कुल ही फ़ायदा न होता हो; क्योंकि उसका अधिक भाग घर के काम-काजों में और उन कामों में जो स्त्रियाँ कर सकती हैं जाता है, तथा उन की बुद्धि का कुछ भाग किन्हीं ख़ास-ख़ास व्यक्तियों के द्वारा समाज को भी मिलता है-और वह इस प्रकार के किन्हीं व्यक्तियों पर स्त्रियों का भी अधिकार होता है। किन्तु ये लाभ केवल अंशतः मिलते हैं, और इनकी संख्या बहुत ही कम होती है। इस प्रकार मनुष्य-जाति की आधी बुद्धि जो व्यर्थ पड़ी रहती है, उस के बन्धनमुक्त होने से समाज के उपयोग में आने वाली बुद्धि-शक्ति की जो वृद्धि होगी, उस में से ऊपर कही हुई उपयोग-शक्ति घटानी चाहिए, यदि इस बात में हठ पकड़ा जाय, तो मुझे भी कहना चाहिए कि, दूसरी ओर स्पर्द्धा या योग्यतम की जीत के अनुसार—इसे ही दूसरे शब्दों में कहें तो अपने आप को स्त्रियों से अधिक योग्य बताने से पहले, पुरुषों को उस योग्यता के सम्पादन करने की जो ज़रूरत होगी, इस के कारण पुरुषवर्ग की बुद्धि को जो प्रोत्साहन या उद्दीपन मिलेगा—वह कम फ़ायदा नहीं होगा—उसे भी फ़ायदों में गिनना चाहिए।

७-इस प्रकार मनुष्य-जाति के समग्र बुद्धि सामर्थ्य में और विशेष कर के उस के काय्र्यों को योग्य रीति से चलाने वालों की बढ़ती में जैसी वृद्धि होगी वह ऊपर बताई गई है। पहले तो स्त्रियों को जैसी शिक्षा अब मिल रही है इस से ऊँची मानसिक शिक्षा मिलेगी, और उस शिक्षण-पद्धति में पुरुषों की शिक्षापद्धति के साथ ही साथ सुधार होता जायगा। इस के कारण स्त्रियाँ उसी वर्ग वाले पुरुषों के समान योग्य होंगी और व्यापार-धन्धे तथा सार्वजनिक कामकाजों में, और तत्त्वचिन्तन आदि गूढ़ विषयों में सब प्रकार से पुरुषों के समान अपनी बुद्धि का गम्भीर उपयोग कर सकेंगी—और वे भी पुरुषों के बराबर उत्साहित होंगी। पुरुषवर्ग वाले व्यक्ति जैसे संसार के थोड़े से नामाङ्कित व्यक्तियों के विचार समझने की ताक़त रखते हैं, और उन के बड़े-बड़े कामों की क़ीमत समझने के अलावा ख़ुद भी बड़े-बड़े काम करने और नये विचार प्रकट करने की शक्ति रखते हैं, तथा ऐसे व्यक्तियों को अपना ज्ञान बढ़ाने और अपनी बुद्धि का विकाश करने की जैसी अनुकूलता समाज की ओर से दी जाती है-जितने साधन सुलभ किये जाते हैं, उतनी ही अनुकूलता और उतने ही साधन स्त्री-वर्ग की ओर से बुद्धिमती स्त्रियों को भी मिलने लगेंगे। इस प्रकार स्त्रियों के बुद्धि-व्यवसाय से मनुष्य-जाति को दुगना लाभ होगा। एक तो उनकी शिक्षा पुरुषों की शिक्षा के बराबर आ पहुँचेगी, दूसरे एक की शिक्षा के सुधारों का लाभ दूसरों को भी मिलता रहेगा। यदि ऐसे होने वाले लाभों को एक ओर छोड़ देवें तब भी स्त्री-पुरुष का भिन्नभाव दूर करने से, स्त्रियों की मानसिक और नैतिक स्थिति में जो नवीनता आ जायगी, वह शिक्षा की दृष्टि से देखते हुए बहुमूल्य है। विचार और व्यवसाय के बड़े-बड़े विषय तथा सार्वजनिक हित की सब बड़ी बातों में, जो केवल पुरुषों ही के लिए उपयोगी हैं और स्त्रियों के लिए जिनका दरवाज़ा बन्द है-तथा स्त्रियों की ऐसी समझ बना डाली गई है कि इस से उन्हें कोई सरोकार ही नहीं है—यदि यह समझ नष्ट हो जाय तो केवल इतनी ही बात से कितना लाभ होना सम्भव है? यदि प्रत्येक स्त्री की आँखों के आगे का काला परदा हट जाय और वह समझ ले कि,-"संसार के मनुष्य-प्राणियों के समान मैं भी एक मनुष्य हूँ; अपने मन-चाहे काम को करने की मुझे भी पूरी स्वाधीनता है; मनुष्य-जाति के फ़ायदे को हर एक बात में हिस्सा लेने की मुझे भी आज़ादी है, और यदि मैं भी संसार का लाभ करूँगी तो मुझे भी पुरुषों के बराबर ही लाभ होगा। मनुष्य-जाति के लाभ में प्रत्यक्ष रूप से मैं भाग लूँ या न लूँ, फिर भी एक व्यक्ति की राय के बराबर मेरी राय का भी वज़न है, इस लिए सार्वजनिक कामों में मुझे भी अपनी राय देने का हक है," यदि प्रत्येक स्त्री के हृदय और मन में इस ही प्रकार का पूर्ण विश्वास हो जाय, तो इन्हीं स्त्रियों की बुद्धि कितनी विशाल हो जायगी और नैतिक विचार कितने ऊँचे होने सम्भव हैं।

८-आज-कल के सांसारिक काम-काज और व्यवहार निवाहने के योग्य पुरुषों की इतनी बुद्धि नहीं बढ़ गई है कि प्रकृति के दिये हुए बुद्धि के आधे भाग को बेकाम बनाये रख कर भी वे अपना काम चला सकें। यदि स्त्रियों को सब प्रकार की स्वाधीनता होगी तो सांसारिक व्यवहार विशेष योग्य रोति से चलने लगेगा, और यह प्रत्यक्ष लाभ होगा। इसके अलावा आज तक मनुष्य जाति की समझ और बुद्धि पर जो स्त्रियों का असर होता था, उस में लौट-फेर हो जाने से, वह विशेष लाभप्रद होगा। स्त्रियों के असर से विशेष लाभप्रद कहने का मतलब यह है कि जब से मनुष्य-जाति का विश्वास करने योग्य इतिहास प्राप्त हुआ है, तब से लोकमत पर स्त्रियों का विशेष असर मालूम होता है। पुरुषों के स्वभाव आदि बनने में दो बातें अधिक होती हैं, एक तो बाल्यावस्था में माता के सहवास का असर, दूसरे युवावस्था में तरुण स्त्रियों के मन में अपनी ओर से अच्छा ख़याल पैदा करने की इच्छा;-विशेष करके ये दो बातें ही सुधार के प्रवाह को आगे बढ़ाने में कारण हुई हैं। होमर के समय में भी हेक्टर के वर्णन से नायिका की इच्छा का विशेष असर मालूम होता है। स्त्रियों के सहवास से पुरुषों के नैतिक व्यवहार पर दो तरह से असर होता है। एक तो पुरुषों के कठोर और निर्दयी हृदय सदय पौर कोमल होते हैं। जिस पर सत्ताधीश के अधिक से अधिक अत्याचार होने सम्भव होते हैं, उसके मन में यही होता है कि अत्याचार मर्यादा में रहें तथा वे अत्यन्त उग्र या भयङ्कर रूप न धारण करें—और इस के लिए वह अपने से बन पड़ती यही कोशिश करता है कि उस के मनोविकार शान्त हों और एक अङ्कुश में रहें। इस ही प्रकार जो युद्ध कला के जानकार नहीं होते, उन्हें साधारण रीति से ही युद्ध से प्रेम नहीं होता, इसलिए भीतर के झगड़ों का निपटारा युद्ध को छोड़ कर और किसी प्रकार से फ़ैसले कर लेना उन्हें ज़ियादा पसन्द होता है। और साधारण रीति से स्वार्थसाधक मनोविकारों का ज़ुल्म बेरोकटोक जिन का अधिक से अधिक नुक़सान कर सकता है, वे लोग ही मनोविकारों को अङ्कुश में रखने वाले नैतिक नियमों की ज़ियादा हिमायत लिया करते हैं। उत्तर के निवासियों ने जिस समय योरप-खण्ड को जीतना शुरू किया उस समय स्त्रियों ने ही उन्हें ईसाई बनाने का काम ज़ियादा किया था, क्योंकि उस ज़माने में सब धर्मों की अपेक्षा ईसाई धर्म ही स्त्रियों के लिए अच्छा था। एंग्लो-सेक्सन्स और फ्रेंक्स लोगों को नवीन धर्म में लाने का प्रारम्भ एथलबर्ट और क्लॉविस नामक राजाओं की रानियों ने किया था।

पुरुषों के नैतिक व्यवहार पर स्त्रियों के सहवास का जो दूसरा प्रभाव होता है वह इस प्रकार है। धैर्य्य, शौर्य्य आदि पुरुषत्त्व के जो गुण ख़ुद उन (स्त्रियों) में नहीं होते, उनका होना अपने संरक्षकों (पुरुषों) में आवश्यक समझती हैं—इसलिए वे सदा इन गुणों के लिए उन्हें उत्साहित करती रहती हैं। प्रायः पुरुष स्त्रियों से धैर्य्य शौर्य्यादि क्षात्र गुणों की प्रशंसा सुनना पसन्द करते हैं और इसीलिए वे इन गुणों में प्रदीप्त हो उठते है; तथा स्त्रियों की ओर से मिलते हुए प्रोत्साहन का असर इतने ही पर समाप्त नहीं हो जाता, क्योंकि जो पुरुषवर्ग के बखान के योग्य होते हैं उन्हीं पर स्त्रियों का अनुग्रह भी होता है। इस प्रकार स्त्रियाँ जो दो नैतिक अधिकार पुरुषों पर रखती है, इनका मिश्रण होने से वीरकाल में "शिवेलरी" (Chivalry) की कल्पना हुई थी*[] इस कल्पना के मुख्य लक्षण को देखेंगे तो शौर्य्यादि क्षात्र गुणों का नम्रता, उदारता, आत्मनिग्रह आदि भिन्न गुणों के साथ संयोग करना है। एक ओर तो युद्धकला में प्रवीणता प्राप्त करनी शौर्य्यादि क्षात्र गुणों में प्रदीप्त होना; दूसरी ओर निर्बलों, असमर्थों और युद्ध न करने वालों के साथ नम्रता और उदारता से बरतना; ख़ासकर के स्त्रियों में पूज्यदृष्टि, अधीनता का भाव होना; इस प्रकार के दो पारस्परिक भिन्न प्रकृति वाले गुणों का एक में संयोग करना ही "शिवेलरी" का मुख्य उद्देश था। स्त्रियों के प्रति पूज्यभाव रखने का कारण यह था कि, उन्हें बलात्कार से वश करने की अपेक्षा उनका हृदय जीतने के लिए जो पुरुष साम्योपचार को काम में लाता है, तथा उनकी प्रसन्नता प्राप्त करने की कोशिश करता है उस ही पर स्त्रियाँ प्रसन्न होती हैं और उनके अधिकार में जो कुछ देने योग्य चीज होती है उसे वे प्रसन्नता-पूर्वक दे डालती हैं। घटना इस प्रकार घटा करती है कि किसी ख़ास विषय के सम्बन्ध में उदार कल्पना और प्रत्यक्ष व्यवहार में विशेष अन्तर होता है; और इस ही नियम के अनुसार वीरकाल में 'शिवेलरी' की प्रवृत्ति और उसकी उदार कल्पना में विशेष अन्तर था, यह बात यद्यपि सत्य है, फिर भी मनुष्य-जाति के नैतिक इतिहास में वीरकाल की 'शिवेलरी' का स्थान अवश्य ऊँचा है। यद्यपि उस समय का सामाजिक सङ्गठन बहुत ही अव्यवस्थित था और लोगों की सामाजिक स्थिति तथा भिन्न-भिन्न रूढ़ियों का स्वरूप देखते हुए नीति का प्रवाह बहुत ही धीमा था, पर ऐसी स्थिति में पले हुए लोगों ने एक उच्च नैतिक आशय की कल्पना करके उसके अनुसार अपनी जीवनी बनाने का प्रयास किया था; यही ध्यान देने और विचारने योग्य है। और यद्यपि इस ख़याल के बहुत ऊँचा होने के कारण इसका मूल उद्देश लगभग विपरीत ही था, फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि यह निष्फल हो रहा, क्योंकि उन से पिछले ज़माने वाले लोगों की मनोवृत्तियों पर उसका बड़ा भारी प्रभाव हुआ है।

९-वीरकाल की नैतिक कल्पना मनुष्य-जाति के नैतिक सुधार पर स्त्रियों की इच्छा का अन्तिम परिणाम है; यदि इस काल में भी स्त्रियों की पराधीनता वैसी की वैसी ही प्रचलित रहे तो वीरकाल की वह 'शिवेलरी' वाली उदार कल्पना व्यर्थ ही नष्ट हुई; क्योंकि नीति की दृष्टि से देखते हुए स्त्रियों की पराधीनता के कारण पुरुषों के व्यवहार पर जो बुरा प्रभाव पड़ता है, उसे नियमित रखने के लिए वह उदार कल्पना बहुत अच्छी थी। किन्तु मनुष्य-जाति के अन्यान्य सुधारों के के साथ यह नैतिक कल्पना भी बदल गई, तथा इस के स्थान को एक नई नैतिक कल्पना ने ले लिया। उस ज़माने की समाज-व्यवस्था ऐसी थी कि भला या बुरा परिणाम होने का सब आधार मुख्य व्यक्ति के पराक्रम पर अवलम्बित था—अर्थात् जो मनुष्य सब से अधिक पराक्रमी होता था उसी के हाथ में समाज की व्यवस्था चली जाती थी, इसलिए समाज के भले या बुरे का आधार केवल उसी व्यक्ति का व्यवहार होता था। ऐसे ढँग से सङ्गठित हुए समाजों में पारस्परिक प्रेम पैदा कराना, प्रत्येक व्यक्ति के आचरण में सुजनता, औदार्य्य, सौमनस्य आदि गुणों का सञ्चार करना ही 'शिवेलरी' का मुख्य उद्देश था। किन्तु आज-कल के ज़माने में सैनिक बातों से लगाकर प्रत्येक काम-काज के विषयों का निर्णय किसी ख़ास व्यक्ति की मन्शा पर नहीं होता-अर्थात् घटना को एक मनुष्य जैसी घटाना चाह वैसी नहीं घटा सकता; बल्कि प्रत्येक विषय का निर्णय मनुष्यों के एकत्र निर्णय पर होता है। इसलिए ही युद्ध-विषयक बातों से लोगों का पक्षपात हट गया और कला-कौशल आदि औद्योगिक प्रवृत्तियाँ समाज में जाग उठीं। इस ज़माने में यह तो नहीं कहा जा सकता कि उदारता आदि गुणों का अभाव है, पर वर्त्तमान समाज की व्यवस्था पहले की तरह उन गुणों पर ही अवलम्बित नहीं है। इस ज़माने की नैतिक जीवनी की नींव न्याय और बुद्धिमत्ता पर रक्खी गई है। प्रत्येक मनुष्य स्वामी के अधिकारों को सम्मान की दृष्टि से देखता है और स्वावलम्बी बन कर अपना आधार आप ही बनता है। वीरकाल के नैतिक व्यवहार पर नियमानुसार कोई क]eनून न था, इसलिए सभी अपकृत्य निश्चिन्तता से किये जाते थे। लोग बैठ कर आपस में सदाचार-सम्पन्न व्यक्ति की प्रशंसा करते थे, इसलिए सदाचार की ओर प्रेरणा करने वाली वृत्ति लोगों से प्रशंसा कराने की इच्छा थी—बड़ाई करवाने के लिए लोग इस ओर ध्यान देते थे। पर यह असर बहुत थोड़ों पर होता था। क्योंकि नीति की मजबूती शासन के द्वारा होती है-अर्थात् शासन के डर से ही लोग नीतिभ्रष्ट होने से बचा करते हैं। केवल इस बात के मान लेने से ही कि नीति पर चलना अच्छा है, इससे लोगों में सम्मान होता है, लोग इज्ज़त की नज़र से देखते हैं-यह मान लेने ही से समाज की व्यवस्था रक्षित नहीं रहती। क्योंकि केवल ऐसी समझ के ही कारण नीति के मार्ग पर चलने वाले व्यक्तियों की संख्या बहुत ही कम है, बाक़ी और मनुष्यों को यह समझ अनीति के मार्ग से नहीं हटा सकती, और बहुतों के मनों पर तो ऐसी समझ का बिन्दु-विसर्ग भी असर नहीं होता। इस समय सुधार के प्रताप से मनुष्य-समाज को जो संयुक्त सामर्थ्य प्राप्त हुई है, इस के कारण लोगों के सब अपकृत्य उसके अधिकार में आगये। क़ानून का ज़ोर समाज के अनाथों और निर्बलों की रक्षा कर सकता है। जो अत्यधिक बलवान् हैं वे मनचाहा अत्याचार नहीं कर सकते। आज-कल निर्बलों की यह दशा नहीं हो जाती कि उन्हें बलवान् जिलावे तो वे जीवें और मारना चाहे तो मरें। इस समय भी वीरकाल की उदार कल्पना की ख़ूबियाँ हैं, और उस के सौन्दर्य्य में पहले से ज़रा भी कमी नहीं हुई है। बल्कि इस समय जो सुधार हुआ है उस में निर्बलों के अधिकारों की विशेष रक्षा की गई है और मनुष्यों की स्वस्थता तथा शान्ति इस समय ज़ियादा मज़बूत है। यदि इस सुधार में कोई कलङ्क है तो वह पराधीनता का विवाह-बन्धन ही है।

१०—पुरुषों के नैतिक व्यवहार पर स्त्रियों की इच्छाओं का जो प्रभाव पड़ता है वह इस ज़माने में कम नहीं हुआ है; किन्तु इसका स्वरूप पहले के समान सच्चा और निश्चित नहीं रहा, क्योंकि यह सत्ता भी लोकमत में मिल गई है। पुरुषों के मनों में जो स्त्रियों के निकट अच्छे दीखने की इच्छा होती है, तथा उनका अधिक समय स्त्रियों के सहवास में बीतता है-इन्हीं दो कारणों के प्रताप से वीरकाल की नैतिक कल्पना का जो भाग अब तक बचा है, उसे क़ायम रखने में, उसकी परम्परा प्रचलित रखने में तथा पराक्रमशालित्व और औदार्य्य आदि उच्च गुण पोषण करने में स्त्रियों के मनोभाव आज भी अधिक भाग लेते हैं। इन बातों में स्त्रियों का नैतिक झुकाव पुरुषों से कहीं अधिक बढ़ा-चढ़ा है, और न्याय-परायणता का गुण पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों में कम है। मनुष्य के आन्तरिक जीवन को देखेंगे तो मालूम होगा कि स्त्रियों का सहवास पुरुषों के व्यवहार पर जो असर करता है, वह सर्वथा सौम्य गुणों का भरण-पोषण करता है और दृढ़ता, स्थिरता, धृष्टता आदि गुणों को निर्बल बनाता है। सांसारिक व्यवहार में नीति के कसौटी-स्वरूप जो अनेक प्रसङ्ग उपस्थित होते हैं, उन प्रसङ्गों पर उदाहरणार्थ स्वार्थ और सद्गुण जब अपनी-अपनी ओर मनुष्य को खींचते हैं तब पुरुषों के व्यवहार पर स्त्रियों की इच्छाओं का जो प्रभाव पड़ता है वह विविध प्रकार का होता है। जिस सद्गुण के विषय में पुरुष की परीक्षा होने वाली होती है, वह यदि स्त्री के मन में धार्मिक और नैतिक शिक्षा के द्वारा पूरा बैठा दिया गया है-तभी उस के द्वारा नीति का समर्थन हो सकता है। उस दशा में स्त्री के उत्साह दिलाने से वे पुरुष ऐसा आत्म-निग्रह प्रकट करते हैं कि वह प्रोत्साहन न होता तो उन से उस विषय की आशा रखनी ही व्यर्थ होती। किन्तु इस समय स्त्रियों को जो शिक्षा दी जा रही है वह इतनी भद्दी और एकमार्गावलम्बिनी है कि नैतिक तत्त्व का प्रकाश उनके हृदय तक बहुत मुश्किल से पहुँचता है, इसके अलावा उस में विशेष करके निषेधात्मक तत्त्व ही होता है। उदाहरण के तौर पर फलाने-फलाने काम नहीं करने चाहिएँ, यही नैतिक शिक्षण होता है और इसलिए उनके आचार-विचारों को किसी ख़ास ओर झुकाने में वह शिक्षा कुछ भी कामयाब नहीं होती। निरुपाय होकर मुझ साफ़ कहना पड़ता है कि जीवन में निस्स्वार्थ बर्ताव रखने की शिक्षा उन्हें नहीं दी जाती अर्थात् उन कामों पौर व्यवसायों में शारीरिक और मानसिक शक्ति लगाने की शिक्षा नहीं दी जाती जिन में प्रत्यक्ष रीति से कुटुम्ब का लाभ होना सम्भव न हो—स्त्रियों की इस दूषित शिक्षा के विरुद्ध बहुत कम उदाहरण देखे जाते हैं। इसका परिणाम सम्पूर्ण मनुष्य-जाति के लिये हानिकारक होता है। ऐसी दूषित शिक्षा द्वारा शिक्षित स्त्रियों के सहवास से सार्वजनिक गुणों के विकाश में रुकावट खड़ी होती है।

११-जब से स्त्रियों का क्षेत्र विस्तृत होने लगा है और लगातार स्त्रियाँ सार्वजनिक कामों में भाग लेने लगी हैं तभी से समग्र प्रजा के लिए जो नीति का झुकाव है उसमें उनका भी हाथ दीखने लगा है। आज-कल के योरप के लोगों के जो दो मुख्य जीवन-व्यापार हैं, उन में स्त्रियों का प्रभाव साफ़ मालूम होता है। उन दो में से एक तो युद्ध-पराङ्मुखता अर्थात लोगों की युद्ध से अश्रद्धा और दूसरा परोपकार या परमार्थ पर प्रेम। इन दोनों प्रवृत्तियों को उत्तम न होना कोई नहीं कह सकता, तथा इन प्रवृत्तियों को स्त्रियों की ओर से विशेष उत्तेजना मिलती है, किन्तु स्त्रियाँ इस प्रवृत्ति को बहुत बार ऐसी दिशा में ले जाती हैं कि एक ओर इन प्रवृत्तियों से मनुष्य-समाज को जितना लाभ होता है, दूसरी ओर उतनी ही हानि होती है। परोपकार के कामों में स्त्रियों की प्रवृत्तियाँ दो प्रकार की होती हैं-एक तो धर्म का प्रसार करना, दूसरा दानधर्म करना। किन्तु स्वदेश में धर्म का प्रसार करना तो धार्मिक मत-भेदों और वैरभाव की जड़ को जमाना है; और परदेशों में धर्म-प्रसार करने की कोशिश करने का मतलब अन्धे की तरह जो कुछ मिल जाय उसे पकड़ बैठना है-और परिणाम में हमारे धर्म के मानने वालों की इतनी तादाद है या और ऐसे ही उपाय निकाले जाते हैं। पर उन धर्म फैलाने वालों को इसका होश ही नहीं होता कि बहुत बार इसका नतीजा बहुत ही ख़राब होता है,-धर्स फैलाने वालों का मुख्य उद्देश तो सिद्ध होता नहीं, पर दूसरी ओर से मनुष्य समाज पर काहिली का असर होता है। इस ही प्रकार यदि दान के विषय में सोचें तो वहाँ भी यही नतीजा पेश आता है, यानी दान देने और लेने वाले के सम्बन्ध से जो नतीजा निकलता है वह एकदम मनुष्य-समाज की हानि का कारण बनता है। इस प्रकार होने का कारण यह है कि स्त्रियों की शिक्षा सदोष है, निर्दोष नहीं, अर्थात् स्त्रियों का हृदय शिक्षित किया जाता है मस्तिष्क नहीं। दूसरे उनकी समझ का दायरा बहुत ही छोटा बनाया जाता है, वे हर एक काम में यही सोचती हैं कि इसका असर घर के नेता के मन पर कैसा होगा, किन्तु उन्हें इस बात का ज़रा भी ख़याल नहीं होता कि इस काम का असर सम्पूर्ण मनुष्य-जाति पर कैसा होगा। इसका नतीजा यह होता है कि परोपकार या दानधर्म की जो आदत उन्हें पसन्द आ जाती है, उस पर वे कभी यह विचार नहीं करतीं कि इससे नुक़सान होना भी मुमकिन है या नहीं—और यदि उन्हीं के परोपकार से कभी सामने नुक़सान भी नज़र पड़ जाय तो उनकी समझ में यह बात नहीं आती कि यह नुक़सान ख़ुद उन्हीं के सबब से हुआ है। आज-कल जितने परोपकार किये जाते हैं वे सब बिना सोचे-विचारे और सिर्फ़ छोटी सी प्रेरणा से होते हैं, और इनकी तादाद बढ़ती जा रही है। आज-कल संसार का यह सर्वमान्य सिद्धान्त हो गया है कि हर एक आदमी को अपने जीवन-निर्वाह के लिए मिहनत करनी ही चाहिए-दूसरे के सिर अपनी ज़िन्दगी डालने का उसे ज़रा भी हक़ नहीं है; इस ही प्रकार हर एक आदमी को अपने किये का फल भोगना ही चाहिए—यह सृष्टि का सर्वमान्य नियम है। इसलिए जिस परोपकार के परिणाम में मनुष्य अपने कर्मों का फल भोगने के कर्त्तव्य से मुक्त हो, और निज के जीवन-निर्वाह का कर्त्तव्य उससे उतर कर समाज के सिर पड़े-ऐसा परोपकार किसी प्रकार पसन्द नहीं किया जा सकता। क्योंकि इसके कारण स्वावलम्बन, आत्मनिग्रह, और स्वमान आदि समाज को उन्नत करने वाले आवश्यक गुणों से लोगों के भाव शिथिल होते हैं, और बहुत बार तो ये गुण नष्टप्राय हो जाते हैं। यदि लोगों की परोपकार-वृत्ति तथा साधन-सम्पत्ति के इस अनुचित उपयोग का असली कारण खोजेंगे-जिसके द्वारा मनुष्य-समाज का कल्याण होने के बदले हानि ही अधिक सम्भव है, तो मालूम होगा कि इस में स्त्रियो का ही हाथ सब से आगे है—इस में स्त्रियों का ही धन सब से अधिक ख़र्च होता है। यह सब कुछ होने पर भी यदि कहीं धर्म या दान की व्यवस्था स्त्रियों के हाथ में होती है-तो वहाँ ऐसी भूलें कम देखी जाती हैं। जब स्त्रियाँ इस व्यवस्था की अधिकारिणी होती हैं तब अपात्र को दान देने से, तथा बिना समझ-बूझ के धर्म करने से समाज की कितनी हानि होती है, इसे वे पुरुषों से अधिक स्पष्ट समझ लेती हैं, क्योंकि प्रत्यक्ष घटनाओं को पुरुषो की अपेक्षा स्त्रियाँ शीघ्र और स्पष्ट समझ लेती हैं, तथा जिन मनुष्यों से उनका सीधा सम्बन्ध होता है उनके मनों को भी वे बहुत जल्द परख लेती है। किन्तु यह घटना अधिकांश ऐसी होती है कि धार्मिक बातों से स्त्रियों का सम्बन्ध तो केवल धन देने मात्र का ही होता है, और उन्हें यह देखने का अवसर ही नहीं मिलता कि उनके दिये हुए धन का उपयोग किस प्रकार होता है। इसलिए आगे से ही उस विषय में वे अनुमान किस प्रकार लगा सकती हैं? ऐसे परोपकार और दया का परिणाम बहुत ही ख़राब होगा इसे वे समझ ही कैसे सकती हैं? इस समय स्त्रियों की जो दशा है, इसी में पैदा होने वाली, और इसी स्थिति से सन्तुष्ट रहने वाली स्त्री स्वावलम्बन की क़ीमत कैसे समझ सकती है? क्योंकि सब से पहले तो स्त्रियों को किसी प्रकार की आज़ादी ही नहीं होती, तथा स्वावलम्बी बनने का रास्ता उनके लिए खुला होता ही नहीं, फिर उनकी समझ ऐसी बना डाली जाती है कि स्वामी जो कुछ दे वही मात्र तुम्हारा है—तथा इसी स्थिति में सन्तोष मान कर वे अपने दिन टेर करती हैं। इसलिए जो बातें ख़ुद उन्हें अच्छी मालूम होती हैं, वे ग़रीब लोगों के लिए हानिकारक होती होंगी, इसका ख़याल ही कहाँ से आ सकता है? उनकी समझ इस प्रकार की बन जाती है कि अपने स्वामी या कुटुम्बियों से जो चीज़ उन्हें मिलती है वह अच्छी ही होती है। किन्तु स्त्रियाँ इस बात को बिल्कुल ही भूल जाती हैं कि हम पराधीन हैं और ग़रीब लोग स्वाधीन है। और फिर यह तो एक सीधी सी बात है कि सब चीज़ें यदि गरीबों को बिना मिहनत के मिलने लगें तो फिर उन्हें मिहनत करने की ज़रूरत ही क्या है? इस के साथ ही यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि प्रत्येक मनुष्य के उदर-निर्वाह का भार दूसरा नहीं ले सकता, इसलिए अपने निर्व्वाह का ख़याल ख़ुद ही को होना चाहिए। किन्तु जब बिना सोचे-समझे वे ही लोग दानधर्म्म से आर्त्त मनुष्यों के रखवाले हों तो उन्हें अपने जैसों का ख़याल रखना योग्य ही है। इन कारणों से सशक्त-शरीर-व्यक्ति भी अपने हम-ख़यालों से अपना पालन-पोषण करवाते पुरुष का विवाह कम बुद्धि वाली या मूर्ख स्त्री के साथ होता है उसके साथ बुद्धि-विकाशके सम्बन्ध में गले से बोझल पत्थर लटका देने के समान है; क्योंकि उस दशा में समाज के द्वारा निश्चित किये विचारों पर उसे चलना ही पड़ता है। उस में जो कुछ उच्च बनने की महत्वाकाङ्क्षा होती है उसे उसकी स्त्री दबा रखती है। ऐसे बन्धनों से जकड़ा हुआ पुरुष उदार विचारों और सद्गुणों का अनुभव नहीं कर सकता। उत्तम विचारों के अनुसार अपना व्यवहार रखना, और उच्च श्रेणी के गुणों को प्राप्त करना, उसके लिए अशक्य हो जाता है। यदि उसके विचार मामूली आदमियों के विचारों से ऊँचे हों—अर्थात् जिस सत्य का प्रकाश साधारण मनुष्यों के अन्तःकरण पर नहीं होता यदि उस ही सत्य के दर्शन उसने कर लिये हों, या जिस सत्य को बहुधा लोग केवल बातों में ही मान कर छोड़ देते हैं, उसके समान अपना व्यवहार करके दिखाना चाहता हो; अर्थात् यदि वह सच्चे हार्दिक विचारों के अनुसार ही अपना प्रत्यक्ष व्यवहार भी बनाना चाहता हो तो वह अपने विचारों के अनुसार व्यवहार नहीं कर सकता,-विवाह-बन्धन के असङ्गत होने के कारण उसे अपने ऊँचे से ऊंँचे विचार मन के मन ही में दाब रखने पड़ते हैं। सौभाग्य से यदि उसके जैसे विचारों वाली ही स्त्री उसे मिलती है तभी वह अपने विचारों के अनुसार अपना जीवन बना सकता है—अन्यथा वह कुछ भी नहीं कर सकता। १४-कारण यह है कि प्रचलित लोकमत के ख़िलाफ़ चलने वालों को बहुत कुछ अपनी निजू हानि उठानी पड़ती है, या तो कुछ अंशों में उन्हें अपना सामाजिक सम्मान खोना पड़ता है, या आर्थिक हानि उठानी पड़ती है, और बहुत बार तो उन्हें अपने जीवन-निर्व्वाह का साधन भी खो देना पड़ता है। अपने उत्कृष्ट विचारों के अनुसार प्रत्यक्ष जीवन बनाने की इच्छा रखने वाले पुरुष ऐसे नुक़सानों को प्रसन्नता से सह लेते हैं; किन्तु अपने कुटुम्ब वालों पर ऐसी हानियों का विचार करके वे ठिठक जाते हैं। कुटुम्ब में पुरुष के उच्च विचारों को ठिठकाने वाले व्यक्ति दो ही होते हैं, एक तो स्त्री और दूसरी पुत्री; क्योंकि पुत्र के विषय में पुरुष का यही ख़याल होता है कि इस के विचार तो मेरे समान है हीं, और एक भलाई के काम में मैं जितना आगे बढ़ने और हानि उठाने के लिए तैयार हूँ उतना ही आगे बढ़ने और हानि उठाने में यह खुशी से भाग लेगा; किन्तु स्त्री और बेटी की तो बात ही न्यारी है। बेटी को अच्छा वर और अच्छा घर मिलना लोकमत के अनुसार चलने ही से नसीब हो सकता है। स्त्री को यह ख़बर हो नहीं होती कि ऐसा स्वार्थत्याग किस लिए किया जाता है; और यदि वह स्वार्थत्याग की थोड़ा बहुत समझती भी है तो, उसका कारण पति पर उसका विश्वास और उसके लाभ की आशा का ही कुछ अंश हो सकता है। पति को स्वार्थत्याग के साथ जिस उल्लास, आत्मसंयम और सन्तोष का आनन्द प्राप्त होता है उसके हज़ारवें हिस्से का भी अनुभव उस बिचारी को नहीं हो सकता, बल्कि यदि पति अपने सुखों की बलि चढ़ाता है तो अनजान ही में इस बिचारी के सर्व्वस्व का समावेश उस में हो जाता है। इसलिए कोई मनुष्य चाहे जितना निस्स्वार्थी और अपने सुखों को कुछ भी न समझने वाला उदार हो किन्तु अपनी स्त्री को इस स्थिति में लाने से पहले वह हिचक ही जाता है। यदि किसी उदार व्यवहार के काम में लाने पर जीवन के प्रत्यक्ष सुखों को कुछ भी हानि न पहुँचती हो और केवल कुटुम्ब की सामाजिक स्थिति का ही सवाल सामने हो, तब भी उसके हार्दिक विचारों में बड़ी आनाकानी होने लगती है और मन अस्वस्थ हो जाता है। जो पुरुष घर-गृहस्थी और बालबच्चों वाला हो उसका पल्ला तो उन्होंने पकड़ रक्खा है। पुरुष लोकमत या रूढ़ि का अनादर कर सकता है, किन्तु संसार में उसके विचारों का सम्मान होना उसके शत्रु कभी नहीं देख सकते—उसके शत्रुओं के लिए यह सब से अधिक महत्त्व का प्रश्न होता है। पुरुष समाज के विचारों की अवहेलना कर सकता है, और उसके समान विचार वाले पुरुष उसकी क़दर भी करते हैं-इस ही से वह अपने मन का समाधान कर लेता है और अपना पूरा बदला समझ लेता है। किन्तु जो स्त्री उसके आश्रय में होती है उसके मन का समाधान करने या उसका योग्य बदला देने का कोई साधन उसके हाथ नहीं होता। स्त्रियों की सदा से स्वाभाविक प्रवृत्ति ऐसी होती है कि वे समाज में अपनी और अपने कुटुम्ब की प्रतिष्ठा बढ़वाने का बर्ताव सदा रखती हैं; इस बात के कारण पुरुष स्त्रियों को दोषी भी ठहराते हैं और उनके चरित्र में निर्बलता, अस्थिरता, बाल्यावस्था आदि दोष आरोपित करते हैं; किन्तु यह कहना अनुचित और अन्याय से भरा है। समाज की व्यवस्था ने सम्पन्न-अवस्था वाली स्त्रियों के जीवन को त्यागमय बना डाला है। सामाजिक दबाव के कारण स्त्रियाँ अपनी स्वाभाविक प्रवृत्तियों को निरन्तर दबाव में रखती हैं; और इस प्रकार का निस्स्वार्थ जीवन बिताने के के बदले में समाज से उन्हें मिलता क्या है, केवल अच्छा नाम या सूखी प्रतिष्ठा!! फिर उसकी इज्ज़त-आबरू उसके पति की इज्ज़त-आबरू के साथ जुड़ी होती है, बल्कि दोनों एक रूप ही होते हैं। किन्तु पति जब लोकमत का अनादर करने के लिए तैयार होता है, तब उस बिचारी की जन्मभर की कमाई हुई इज्ज़त-आबरू का भी अन्त आजाता है—इतना परिश्रम करके सम्पादन की हुई और आत्मबलि देकर रक्षित रक्खी हुई कीर्त्ति किसी ऐसे कारण से जिसे वह समझ भी नहीं सकती, यदि वह उस से छिन जाय और इसके लिए वह मन में संकुचित हो, दुखी हो, तो आश्चर्य्य की बात ही कौन सी है? अपने विषय में लोगों का अच्छा ख़याल बनवाने के लिए वह अपना सर्वस्व अर्पण कर डालती है; किन्तु उसका पति केवल मन की एक तरङ्ग या दूसरे शब्दों में कहें तो संसार जिन्हें केवल अपने विचार पसन्द करने वाला कहता है, उनकी उसी मनस्वी तरङ्ग में उसकी वह कमाई भी डूब जाती है। सारांश यह है कि––प्रचलित विचारों से आगे बढ़ने वाले को लोग उद्धत कहते हैं; ऐसे विचारों वाला पुरुष लोगों के मन से उतरता जाता है और उसके साथ ही उसकी स्त्री भी अपने विषय का अच्छा ख़याल खो बैठती है; इसलिए यदि अपने लिए नहीं तो अपनी स्त्री के लिए ही लोग सुधार के मार्ग से पीछे हट आते हैं। बहुत से शुद्ध और पवित्र हृदय वाले पुरुष ऐसे अवसरों पर बहुत ही संकुचित हो जाते हैं। क्योंकि उनका बुद्धिबल इतनी उच्चकोटि का तो होता नहीं कि उदार और उदात्त विचार वालों में वे ऊँचा स्थान प्राप्त करलें या प्रतिष्ठा के पात्र समझे जायँ, किन्तु वे अपने विचार अपने मन के सच्चे विश्वास पर बनाते हैं, और वे हृदय से चाहते हैं कि अपना आचरण अपने विचारों के अनुसार ही हो, बल्कि जो विचार उनके होते है उन्हें प्रकट करके उनके मण्डन और प्रसार के लिए जो कुछ भी करना पड़े करने को तैयार रहते हैं। फिर चाहे उन्हें अपना सम्पूर्ण समय ही लगाना पड़े, सब शक्ति और सम्पत्ति लगा देनी पड़े या अपने सब स्वार्थों की बलि देनी पड़े। किन्तु इस श्रेणी वाले मनुष्यों की भी स्थिति और ख़ास करके सामाजिक दरजे में प्रतिष्ठित लोगों के भीतर जो प्रविष्ट हो सकता है उसकी स्थिति तो ख़ास करके गड़बड़ भरी होती है। समाज के द्वारा प्रतिष्ठित लोगों के मण्डल में प्रविष्ट होने वाले व्यक्ति के प्रवेश का तमाम दारमदार उसके विषय में लोगों की राय पर अवलम्बित होता है; इसलिए उसकी रहन सहन, उसका चाल-चलन और व्यवहार चाहे जितनी सभ्यता से भरा हो और वह चाहे जैसा निर्दोष और निर्मल हो किन्तु सुधार के विषय में उसके विचार आगे बढ़े रहने के कारण लोग उसे पसन्द नहीं करते और इसलिए वह लोगों के मान्य-मण्डल में प्रविष्ट नहीं हो सकता। अधिकांश स्त्रियों के ऐसे ही विचार होते हैं, प्रति दस स्त्रियों में नौ के विचार ऐसे ही ग़लत होते हैं,––कि हम जो भले घरानों और प्रतिष्ठित मण्डलों में प्रविष्ट नहीं हो सकतीं उसका कारण यही है कि दुर्भाग्य से हमारे स्वामी धार्मिक विचारों से विरुद्ध हैं, या उनके राजनैतिक विचार उद्धत-वर्ग से मिलते-जुलते हैं––नहीं तो हमारे समान योग्यता वाले व्यक्तियों के उन मण्डलों में प्रविष्ट हो जाने पर भी हम बाक़ी क्यों रहतीं? अधिकांश स्त्रियों के ऐसे ही ख़्याल होते हैं कि इस बात के ही कारण मेरे पुत्र को अच्छी नौकरी या अच्छा ओहदा नहीं मिलता, या मेरी पुत्री को अच्छा घराना और अच्छा वर नहीं मिलता। घराने में हम दूसरों के समान होने पर भी तथा अन्य लोगों के समान आदर-सत्कार के पात्र होने पर भी, हमें जो आदर-सम्मान नहीं मिलता उसका कारण यही है। यह घटना प्रत्येक कुटुम्ब में घटा करती है, इस प्रकार का असन्तोष प्रत्येक गृहिणी के मन में होता है। बहुत सी स्त्रियाँ अपने इस भाव को शब्दों में प्रकट करती हैं और बहुत सी मन ही मन इसे दबाये रहती हैं। इस प्रकार की आन्तरिक स्थिति होने के कारण आज-कल लोगों का शिष्टाचार निम्न श्रेणी का है––किन्तु इस में आश्चर्य की कोई बात नहीं है।

१५––अनेक कार्यों में स्त्रियों को अनधिकारी मानने से स्त्री-पुरुषों के शिक्षण और व्यवहार में जो भेद हो जाते हैं उनकी हानि का विचार एक और दूसरे केन्द्र-बिन्दु से भी किया जा सकता है। विवाह बन्धन का सबसे अधिक महत्व का उद्देश, कहा जाता है, उनके विचार और वृत्तियों का ऐक्य हो जाना; किन्तु ऊपर बताया हुआ भेद इस वृत्ति से बिल्कुल उलटा होता है। एक दूसरे से सर्वथा भिन्न दो व्यक्तियों के सम्बन्ध से ऐक्य की आशा रखना भूल है––भ्रान्ति है। यह हो सकता है कि विषम प्रकृति वाले मनुष्य एक दूसरे का आकर्षण करें, किन्तु ऐक्य-साधन करने वाली तो प्रकृति की साम्यता ही है। इसलिए उन व्यक्तियों की समानता जैसे-जैसे बढ़ती जायगी वैसे ही वैसे वे एक दूसरे का जीवन अधिक सुखमय बनाने के योग्य होते जायँगे। जब तक स्त्री-पुरुषों की भिन्नता स्थिर रहेगी तब तक स्वार्थी पुरुषों के मन में अधिकार अपने हाथ में रखने की ही धुन समाई रहेगी,––क्योंकि जहाँ मित्रता होती है वहाँ वृत्तियों का ऐक्य कभी सम्भव नहीं होता; और इसके द्वारा उत्पन्न होने वाली पारस्परिक विरुद्धता को मिटाने के लिए इस अधिकार का अपने हाथ में रखना पुरुषों को अच्छा लगता है कि जो कुछ हम कहें वही क़ायदा है। क्योंकि यदि ऐसा न किया जाय तो प्रत्येक प्रश्न उनकी मन्शा के मुताबिक़ कैसे हो सकता है? फिर तो लड़ाई-झगड़े पर ही नौबत पहुँचे! जो व्यक्ति एक दूसरे से भिन्न हैं उनके हित का ऐक्य होना अशक्य है। अपने-अपने कर्तव्यों के योग्य महत्व के विषयों में विवाहित स्त्री पुरुषों में मतभेद होता है, और जहाँ यह घटता है वहाँ सचमुच ऐक्य कैसे सम्भव है? फिर यह बात भी नहीं है कि यह घटना कभी कहीं ही घटती हो––बल्कि घर-घर यही हाल है, और ख़ास करके जिस घर में स्त्री कुछ विशेष गुणवती होती है वहाँ तो रोज ही यह बात रहती है। जहाँ-जहाँ रोमन कैथोलिक सम्प्रदाय प्रचलित है वहाँ विशेष करके यही प्रकार घटता रहता है। साधारण रीति से ऐसे पति-पत्नी में धार्मिक मतभेद ही होता है, फिर पत्नी को धर्मोपदेशकों से उत्साह मिलता रहता है––क्योंकि संसार में पति के अलावा और किसी को सम्मान देने का अधिकार स्त्रियों को है तो धर्मोपदेशक-वर्ग को ही है। इस प्रकार स्त्रियों के हार्दिक विचारों पर धर्मोपदेशकों का जो अधिकार होता है वह प्रोटेस्टैण्ट पन्थ के उपदेशकों और लेखकों को नहीं रुचता––क्योंकि सत्ताधीश वर्ग को यह अच्छा नहीं लग सकता कि, कोई उन के अधिकार में हिस्सा बँटावे। धर्मोपदेशकों के विरुद्ध इसलिए आवाज़ उठाई जाती है कि उनका स्त्रियों के विचारों पर अधिकार रखना हानिकारक समझा जाता है, बल्कि पति के अधिकार में धर्मोपदेशक सहभागी होते हैं और स्त्रियों को अपने अनुकूल बनाकर स्वामियों के अधिकार के विश्व बलवा करवाते हैं––इसलिए धर्मोपदेशकों की सत्ता का विरोध किया जाता है। इङ्गलैण्ड में जब किसी प्रोटेस्टैण्ट स्त्री से अन्य पन्थ वाला विवाह करता है, तब इस प्रकार का मतभेद होना सम्भव अवश्य होता है; किन्तु दोनों में जन्म-भर विवाद रहने की अपेक्षा युक्तियों से काम लिया जाता है। स्त्रियों की बुद्धि ऐसी जड़ और संकुचित बना डाली जाती है कि प्रचलित रूढ़ि से बाहर का कोई विचार स्त्री अपने मन में कर ही नहीं सकती और यदि कर भी सकती है तो इतना ही कि पति के जैसे विचार हो वैसे ही अपने भी होने चाहिएँ। अब मान लो कि, स्त्री पुरुष में किसी महत्त्व के विषय में मतभेद नहीं है, किन्तु उनकी रुचि में ही जरा भेद है, तो इतनी भिन्नता ही उनके दाम्पत्य-सुख में भेद डालने के लिए काफ़ी है। यदि स्त्री-पुरुष में कोई प्रकृतिसिद्ध भेद हो तो उस भेद में शिक्षा के द्वारा विशेष वृद्धि करने से सम्भवतः पुरुष की विषय-वासना विशेष हो सकती होगी, किन्तु उससे वास्तविक दाम्पत्य सुख में तो लेशमात्र भी वृद्धि नहीं होती। विवाहित स्त्री-पुरुष यदि सुशिक्षित, सभ्य और सुशील होते हैं तभी वे एक दूसरे की रुचि-भिन्नता को भी निभा ले जाते हैं यानी एक दूसरे की रुचि का बाधक नहीं होता। किन्तु विवाह करते समय क्या लोग परस्पर सहिष्णुता की आशा रखते हैं? दोनों की रुचि भिन्न होने से इच्छाओं में भी भिन्नता होती है, और परस्पर स्नेह और कर्तव्य का अङ्कुश न रक्खें तो हर एक घरेलू प्रश्न के निराकरण में लड़ाई-झगड़ा ही उपस्थित हो––यह स्पष्ट है। इस प्रकार के जोड़े में प्रत्येक व्यक्ति अपने सहवास-समागम के लिए जैसे मनुष्यों को अपनी रुचि के अनुसार चुनेंगे उस में भी भिन्नता होगी। एक को जैसा बोलने चालने वाला व्यक्ति पसन्द होगा दूसरा उसकी उपेक्षा करेगा; फिर भी ऐसे व्यक्ति मिल जायँगे जो दोनों के स्नेह के पात्र हों। क्योंकि पन्द्रहवें लुई के ज़माने में जैसे स्त्री-पुरुष घर के न्यारे-न्यारे भागों में रहते थे वैसे अब नहीं रहते, और उनसे मिलने वालों के नाम जैसे न्यारे-न्यारे थे वैसे भी अब नहीं हैं। किन्तु अपने बच्चों को कैसी शिक्षा देनी, और उन के विचार किस ओर झुकाने इस विषय में स्त्री-पुरुष का मतभेद रहे होगा। प्रत्येक के मन में यह बात होती ही है कि बच्चों के विचार और उनकी प्रवृत्ति अपने ही समान बने-स्वाभाविक है। इसका परिणाम यह होता है कि या तो दोनों की समझ के बीच का मार्ग पकड़ा जाय जिससे दोनों की इच्छाएँ आधी तृप्त हों और आधी अतृप्त, और या स्त्री को पति की इच्छा प्रधान रखनी पड़े जिससे बहुधा स्त्रियों को अत्यधिक मानसिक कष्ट होता है। और इच्छापूर्वक या अनजान में ही वह अपने अधिकार का उपयोग पति के प्रयास को हटाने में करती है।

१६––स्त्री-पुरुष की मनोवृत्ति और रुचि में जो भेद दिखाई देता है उसका कारण शिक्षा का भेद ही है तथा इस प्रकार के भेद का बिल्कुल न होना––ये कल्पना केवल मूर्खता-भरी है। किन्तु इस बात में ज़रा भी अतिशयोक्ति नहीं है कि शिक्षा-भेद से ही इनकी वृद्धि हुई है और ये सर्वथा अपरित्याज्य होगये हैं। स्त्रियों की वर्तमान शिक्षण-पद्धति जब तक इसी प्रकार चली जायगी तब तक दैनिक व्यवहारों में जो स्त्री-पुरुष की रुचि-भिन्नता दिखाई देती है वह नष्ट नहीं हो सकती। सांसारिक ऐसे कार्यों में जिनमें दोनों की हाँ या ना की ज़रूरत हो, तो दोनों की सच्ची मित्रता का यही लक्षण है कि वे एकमत हों; किन्तु यदि स्त्री-पुरुष ऐसे ऐक्य का प्रयास करेंगे तो वे निराश ही होंगे। इस प्रकार का ऐक्य यदि किसी प्रकार सम्भव है तो वह केवल एक ही प्रकार से हो सकता है, अर्थात् पुरुष अपनी जन्म की साथिन् ऐसी स्त्री को बनावे जो ऐसी जड़ हो कि जिसे अपनी सुध-बुध ही न हो; किन्तु ऐसा होना भी असम्भव ही है। यह निश्चय-पूर्वक नहीं कहा जा सकता कि कोई स्त्री ऐसी होगी जो अपने आपको सर्वथा ही भूल जायगी। और मान लो कि ऐसा हो भी, तब भी क्या विवाह की उदार कल्पना ऐसी ही होती है। ऐसी स्त्री से पुरुष को लाभ ही क्या हो सकता है? यह उसे एक उच्च श्रेणी वाली दासी से अधिक उपयोगी नहीं हो सकती। अब इससे दूसरे पक्ष की बात सोचो। विवाहित स्त्री-पुरुष में यदि कुछ उच्च गुण हों, दोनों पारस्परिक प्रेम से बँधे हों, दोनों के आचार-विचार और वृत्तियों में विशेष अन्तर न हो, तो दोनों का झुकाव एक ही ओर समान रूप से होगा, प्रत्येक को एक दूसरे की दया का सहारा मिलता रहेगा, और इसके कारण दोनों की अन्तःस्थ शक्तियों का विकाश होते हुए,—पहले जिस ओर केवल एक ही व्यक्ति का झुकाव था अब दोनों का समान रूप से होगा। तथा कुछ तो इस बात से कि दोनों की वृत्तियों में कुछ-कुछ लौट-फेर होगा और कुछ एक की वृत्तियाँ दूसरे को पसन्द आवेंगी, इसलिए दोनों के विचार विशेष उदार होंगे—और इस प्रकार दोनों के स्वभाव और वृत्तियाँ धीरे-धीरे एक रूप हो जायँगी। सांसारिक व्यवहार में एक दूसरे के निकट रहने वाले दो मित्रों के जीवन में ऐसी घटना घटते हुए हम बहुत बार देखते हैं, इस समय आदर्श स्त्री-पुरुष पैदा होने की सम्भावना न्यारी-न्यारी शिक्षा के द्वारा निर्मूल कर डाली जाती है। यदि यह सब न किया गया होता तो विवाह के विषय में भी यह बात साधारण बातों के समान प्रचलित हो जाती, इस में ज़रा भी शक नहीं। वर्तमान शिक्षा-पद्धति में जो लौट-फेर किया गया है—अर्थात् स्त्री-पुरुषों की शिक्षा-पद्धति भिन्न-भिन्न प्रकार की रक्खी गई है, यदि इसे बदल कर दोनों को एक ही तरह की शिक्षा दी जाय तो व्यक्ति की रुचि में जो स्वाभाविक भेद होंगे वे तो रहेहींगे—व्यक्ति में जो स्वाभाविक रुचि-वैचित्र्य होगा वह तो बना ही रहेगा—किन्तु सांसारिक मुख्य-मुख्य कर्त्तव्यों के विषय में स्त्री-पुरुष का एकमत होना अधिक सम्भव है—यह बात निर्विवाद है। सांसारिक बड़े-बड़े कर्त्तव्यों को पूरा करने में यदि दोनों एकमत हों, और उसके प्रयास में दोनों एक दूसरे की सहायता करते रहें, प्रोत्साहन देते रहें—तो छोटी-मोटी बातों में यदि उनकी रुचि भिन्न भी हो तो यह बात स्वयं उन्हें विशेष महत्त्व की न मालूम होगी। इस प्रकार का सम्बन्ध ही सच्चे और चिरकालीन प्रेम की दीवार है। इस प्रेम के प्रभाव से एक दूसरे से सुख प्राप्त करने की अपेक्षा एक दूसरे को सुख पहुँचाने का प्रयास करते हैं, यह बात कितने महत्त्व की है।

१७—अब तक हमने इस बात का विचार किया है कि पति-पत्नी के स्वभाव और रुचि न मिलने से सच्चे गृहस्थी के सुख में कितनी कमी रहती है। किन्तु पुरुष की अपेक्षा यदि स्त्री बुद्धि में कम होती है तो इसका परिणाम और भी ख़राब होता है। जिस दशा में दोनों की असमानता उत्तम गुणों की अधिकता से होती है अर्थात् दोनों में न्यारे-न्यारे प्रकार के अच्छे गुण होते हैं तब हानि होने की कम सम्भावना होती है; क्योंकि ऐसे प्रसङ्ग पर एक दूसरे को सुधार कर मार्ग पर ला सकते हैं। एक दूसरे में जो भले गुण होते हैं उन्हें सम्पादन कर लेने की दोनों की इच्छा होती है और इसके लिए दोनों प्रयत्नशील रहते हैं। यह दशा होजाने पर, एक दूसरे का लाभ विरुद्ध होने की अपेक्षा उलटा एक हो जाता है; और इससे एक दूसरे को अधिक क़ीमती समझते हैं। किन्तु जब एक व्यक्ति मानसिक शक्ति और सुधार में दूसरे से कम होता है, और वह कोशिश करके सब बातों में उसके बराबर नहीं पहुँचता—तो ऐसे दो व्यक्तियों में जो ऊँचा होगा उसके गले का बोझ दूसरा व्यक्ति बन जायगा। मूर्ख और निर्बुद्धि स्त्री के सहवास में रहने वाले पुरुष की बुद्धि सुधरने के बदले दिन प्रति दिन घटती जायगी; और विशेष करके जो दम्पति सुखी निकले हैं उनके विषय में यह बात और भी अधिक घटती है। ऊँची प्रतिभा वाला पुरुष यदि कम अक्ल वाले मूर्खो में बैठना-उठना पसन्द करता हो तो उनकी सङ्गति का ही उसकी बुद्धि पर कुछ न कुछ फल हुए बिना नहीं रहता। जिस सङ्गति में मनुष्य को सुधारने का गुण नहीं होता वह उसे बिगाड़ती ज़रूर है—और उसका वह सहवास जितना ही अधिक दृढ़ होता है उतना ही उसके बिगाड़ने का अवगुण भी अधिक शक्तिशाली होता है। यदि एक अच्छे आदमी को अपने बराबर वालों पर अधिकार विशेष महत्त्व की नहीं मालूम होती, उसके विषय में पति भी उदासीनता दिखाने लगता है, अर्थात् जिस बात में स्त्री का उत्साह नहीं होता पति भी उससे विमुख होजाता है। विवाह करने से पहले जितने ऊँचे-ऊंँचे ख़याल उसके दिमाग में घूमा करते हैं वे सब बन्द हो जाते हैं। उन ख़यालों के योग्य जिन मित्रों से उसका सम्बन्ध होता है, वह भी घटने लगता है––और अन्त में उनका सहवास उसे बोझ मालूम होने लगता है। क्योंकि फिर उनके साथ बैठने से उसे अपनी अवनति का ख़याल होता है और शर्म आती है; तथा उसके मन और हृदय की उदार प्रवृत्तियाँ मन्द पड़ जाती हैं। उस में जो यह फेरफार होता है उसका कारण नवीन कौटुम्बिक सहवास से स्वार्थ-साधक वृत्तियों की ओर झुक जाना होता है––अर्थात् वह कौटुम्बिक वृत्तियों के अनुरूप बन जाता है और कुछ वर्षों में उस में और साधारण मनुष्यों में कुछ भी अन्तर नहीं रहता। साधारण बातों में उसका दिमाग़ ग़र्क हो जाता है और सुख भोगते हुए द्रव्योपार्ज्जन को वह अपनी प्रवृत्ति का मुख्य उद्देश बनाता है, इस के अलावा उसे और कोई ख़याल नहीं रहता––इसके सिवा फिर और कल्पना उसके दिमाग तक नहीं पहुँचती।

१८––जिनके मन उत्तम शिक्षा के द्वारा संस्कृत किये गये हों, जिन की शक्तियाँ पूर्ण रूप से विकसित हो गई हों, जिन के विचार और भाव एक ही प्रकार के हों, जिन में उत्कृष्ट समानता निवास करती हो—अर्थात् मानसिक और नैतिक सम्पत्ति की समानता होते हुए, एक-एक विशेष गुण हो, जिससे दोनों को दोनों पर मोहित होने का अवसर मिले, तथा उन्नति के मार्ग में एक दूसरे के सहायक हों—ऐसे स्त्री-पुरुषों का विवाह सम्बन्ध हो तो उसका परिणाम कितना लाभदायक और हितकारी हो और वह दृष्टान्त कितना उज्ज्वल हो, इसके वर्णन करने में मैं अपना समय नहीं लगाता। क्योंकि जो मनुष्य इसकी कल्पना कर सकते हैं उनके लिए वर्णन की कोई आवश्यकता नहीं, और जो कल्पना नहीं कर सकते उनके लिए मेरा वर्णन आकाश में क़िला बनाने के समान होगा। किन्तु यह मैं विश्वास और निश्चय-पूर्वक कहूँगा कि विवाह को सबसे अधिक उदार कल्पना यदि कोई हो सकती है तो वह यही है; और जो आचार-विचार, रीति-रिवाज इस से भिन्न कल्पना की ओर ले जाते हैं, या इस कल्पना को ही दूसरी ओर झुकाने की कोशिश करते हैं, तो बाहर से उनका रूप चाहे जैसा लुभावना हो-किन्तु वह मनुष्य-जाति की प्राचीन जङ्गली अवस्था के चिह्न के समान ही हैं। जब सामाजिक सम्बन्धों में सब से अधिक महत्त्व वाले और दीर्घपरिणामी विवाह-सम्बन्ध की दीवार न्याय की नींव पर रक्खी जायगी, समानता का राज्य पूर्ण रूप से प्रचलित होगा, प्रत्येक मनुष्य ऐसे मनुष्य-प्राणी को अपना आजीवन संगी बनावेगा जो बुद्धि-विकाश के विषय में सब प्रकार से समानता कर सकेगा—तभी मनुष्य-जाति का नैतिक सुधार वास्तविक रूप से प्रारम्भ होगा।

१९—केवल जाति-भेद ही के कारण जो मनुष्य-प्राणी बहुत से अधिकारों के अयोग्य समझे जाते थे-इस प्रथा के बन्द होने से अब तक जिन-जिन फ़ायदों का निरूपण किया गया है, वे सब मनुष्य-जाति की लक्ष्य करके लिये गये हैं। हम इस बात का निरूपण कर आये हैं कि इस अनुचित प्रयास के बन्द होने से सब से पहले तो संसार के उपयोग में आने वाले बुद्धिबल तथा कार्य-सामर्थ में उन्नति होगी; और दूसरे स्त्री-पुरुष के पारस्परिक सम्बन्ध से जो स्थिति उत्पन्न होगी उस में सुधार होगा। इसका जो विचार किया गया है वह सम्पूर्ण समाज को लक्ष्य में रख कर किया गया है; किन्तु ख़ास व्यक्ति पर इसका क्या असर होगा सो नहीं सोचा गया; किन्तु इस अवसर पर सबसे अधिक लाभ का निरूपण न करना भी उचित नहीं है। मनुष्य-जाति के बिल्कुल आधे भाग के बन्धन से मुक्त होने पर उसके सुख में जैसी वृद्धि होगी, वह अनिर्वचनीय है। दूसरों की इच्छाओं के अधीन होकर पराधीनता में जीवन बिताना और स्वतन्त्र होकर जीवन बिताने में जितना अन्तर है, उतना ही अन्तर स्त्रियों की इस समय की और आगे आने वाली स्थिति में होगा। सब से अधिक अन्न और वस्त्र की आवश्यकताओं के बाद मनुष्य की यदि और कोई अत्यावश्यक चीज़ है तो वह स्वाधीनता ही है। मनुष्य-जाति पर जब तक क़ानून का बन्ध नहीं होता, तब तक वह अनियन्त्रित स्वाधीनता भोगने की इच्छा रखता है। आगे बढ़ने वाले मनुष्यों को जब अपने कर्त्तव्य का ज्ञान होता है, और ज्ञान की क़ीमत उनकी समझ में आती है, तभी वे अपनी नियामक सत्ता पर नियमों का अङ्कुश रहना आवश्यक समझते है; किन्तु इसका परिणाम यह नहीं होता कि स्वतन्त्रता से उनका प्रेम कम हो जाय। लोग कभी इस बात को स्वीकार नहीं करते कि दूसरे की इच्छा ही अपना क़ायदा, या दूसरे की इच्छा ही कर्त्तव्य और विवेक की प्रतिनिधि है। अर्थात् समाज के नियामक तत्त्व कर्त्तव्य और विवेक को किसी ख़ास व्यक्ति की इच्छा पर लोग छोड़ना पसन्द नहीं करते; किन्तु इस के विरुद्ध जो व्यक्ति-स्वातन्त्र्य के पक्षपाती होते हैं, वे इस विचार पर ज़ियादा जोर डाले रहते हैं कि, अपनी इच्छा के अनुसार बरतने की स्वाधीनता होनी चाहिए—उन्हीं की विचारशक्ति और विवेक बुद्धि सबसे अधिक शिक्षित होती है तथा सामाजिक कर्त्तव्य की ओर उनका सुकाव सब से अधिक होता है। उनका विचार इस प्रकार का होता है कि, प्रत्येक मनुष्य की स्वाधीनता पर यदि किसी प्रकार का अङ्कुश आवश्यक हो तो वह इतना ही होना चाहिए कि, अपने कर्त्तव्य के सम्बन्ध में व्यक्ति की जो समझ हो तथा अपने लिए उसे जो क़ायदे और सामाजिक बन्धन योग्य जान पड़ें—उन्हें वह दूसरों के लिए लागू न करे। इसके अलावा और किसी प्रकार की रुकावट उसकी स्वाधीनता में न होनी चाहिए।

२०—जिसकी यह समझने की इच्छा हो कि मानवी सुख के लिए व्यक्ति-स्वातन्त्र्य की कितनी अधिक आवश्यकता है, उसे सोचना चाहिए कि वह खुद अपनी स्वाधीनता को कितनी क़ीमती समझता है। एक मनुष्य एक विषय में जब खुद अपने लिए विचार करता है तब जिस लक्ष्य पर पहुँचता है, वही मनुष्य उसी विषय में जब दूसरे के लिए विचार करता है तब न्यारे लक्ष्य पर पहुँचता है; और प्रस्तुत विषय के विचार में तो लोगों में इतना अन्तर होता है कि शायद ही और किसी विषय में होता हो। जब किसी दूसरे व्यक्ति की ऐसी शिकायतें सामने आती हैं, कि 'मुझे मेरी इच्छा के अनुसार बरतने की स्वाधीनता नहीं,' या 'काम-काज की व्यवस्था में जितना मेरा अधिकार होना चाहिए था उतना नहीं है', तब उस से ऐसे सवाल करने लगता है कि, 'तो इससे तुझे क्या दुःख है? इस से तेरा प्रत्यक्ष नुक़सान क्या होता है? और तेरे काम में इससे अव्यवस्था हो क्या होती है?' इन प्रश्नों का उत्तर यदि शिकायत करने वाले की तरफ़ से उसका समाधान करने योग्य नहीं होता तो वह उसकी शिकायत पर ज़रा भी ध्यान नहीं देता, बल्कि विशेषता में उस पर सम्मति देता है कि, 'इसकी शिकायत व्यर्थ और कपोलकल्पित है, इसका झगड़ने का स्वभाव ही है; इसके साथ चाहे जितना भला व्यवहार किया जाय, पर इसे कभी सन्तोष होने का नहीं।' किन्तु जब वह अपने विषय में इस ही प्रकार का विचार करता है, तब उस की आँखों पर न्यारे ही रंग का चश्मा चढ़ा होता है, तब उस की विचार-पद्धति न्यारे ही ढँग की होती है। उस समय उस से ऊपर वाला मनुष्य चाहे जितनी शुद्धता और पवित्रता से काम करता हो, उसका काम चाहे जितना प्रामाणिक और हितकारी हो, किन्तु उस के मन का समाधान नहीं होता। उसकी शिकायत का सब से बड़ा सबब यही होता है कि उसे कामों के अधिकार से वञ्चित क्यों रक्खा जाता है; और यहाँ तक कि काम-काज में अव्यवस्था का सवाल उठाना भी उसे व्यर्थं मालूम होता है, और इस विषय की जाँच करने से भी वह इङ्कार करता है। किन्हीं ख़ास-ख़ास व्यक्तियों के विषय में ही यह बात नहीं घटती, बल्कि समस्त राष्ट्र और प्रजा इस ही नियम के अनुसार चलती है। अपने देश की राज्यव्यवस्था दूसरे देश वाले चाहे जितनी प्रामाणिकता, सचाई और निष्पक्षता से चलाना स्वीकार करें, किन्तु स्वाधीनता के बदले में किसी स्वतन्त्र देश का आदमी क्या इसे मानेगा? चाहे निश्चय रूप से उन्हें यह विश्वास हो गया हो कि विदेशियों के हाथ में राज्य की डोर सौंप देने से राज्य बहुत अच्छा हो जायगा, सुधर जायेगा; किन्तु फिर भी यही सोचा जायगा कि अपने हाथ से चलाये हुए राज्य में चाहे जितना खोट हो,––फिर भी अपना उद्धार अपनी ही शक्ति कुटुम्ब के जाल में फँसी होती हैं और जबतक उस जाल को अपने सिर लादे रहती हैं, तब तक उन की शक्तियों के लिए वही क्षेत्र बना रहता है। किन्तु जो स्त्रियाँ किन्हीं ख़ास विषयों के योग्य है, किन्तु उनके हाथ ऐसा कोई अवसर ही नहीं आता कि उसे कर सके, उन्हें क्या करना चाहिए? (वर्तमान समय में ऐसी स्त्रियों की संख्या बढ़ती जाती है; अर्थात् बहुत स्त्रियों को अपनी अविवाहित जीवनी बनानी पड़ती है) इस ही प्रकार जो स्त्रियां काल के प्रभाव से निःसन्तान हो गई हों, या जिनको पुत्र उदरनिर्व्वाह के लिए विदेश में रहते हों, या बड़े होकार विवाह करके अपना न्यारा काम कर रहे हो––उनका क्या हाल होगा, इसका भी विचार करना चाहिए। हम ऐसे सैंकड़ों उदाहरण सुनते और देखते हैं कि व्यवसायी और काम करने वाले तमाम उमर व्यवसाय में निमग्न रह कर दो पैसे अपनी गिरह में करके अपनी बाक़ी जीवनी आराम से बिताते है; किन्तु फिर कोई ऐसा विषय नहीं होता जिस में उनका जी लगा रहे और उनका निरुद्यमी जीवन भार मालूम होता है, वे निरुत्साह और उदासीनता में लीन हो जाते हैं और अन्त में अकाल मृत्यु के ग्रास बनते हैं। बहुत सी कर्तव्यपरायण स्त्रियों की दशा भी ऐसी ही होती है; पर उनका तो किसी को ख़याल ही नहीं होता। उन्हें संसार की कड़ी घाटियो से उत्तीर्ण होना पड़ता है अर्थात् अपने पति की गृहव्यवस्था वे भलीभांति कर चुकी होती है, बाल बच्चों को पाल-पोष कर बड़ा बना चुकी होती है, और घर को जहाँ तक सुधारना चाहिए वहाँ तक सुधार चुकी होती हैं। जिस काम के लिए उनका निर्माण होता है, वह काम एका-एक बन्द होजाता है––वे बिना काम की, निकम्मी हो जाती हैं। काम करने की ताकत उन में जैसी की तैसी रहती है, पर उसे करने के लिए फिर उन्हें प्रसङ्ग नहीं मिलता। यदि सौभाग्य से उसकी बेटी या बेटे की बच अपने नये घर का काम उसे दे तो उसे अपने समय और शक्ति के उपयोग का अवसर मिल सकता है, उसके दिन सुख में बीत सकते हैं, नहीं तो ऐसी स्थिति में पड़ी हुई स्त्रियों को निकम्मी बन कर अपना ग्लानियुक्त जीवन बिताना पड़ता है[]। समाज ने जो स्त्रियों का एक हो कर्तव्य निश्चित किया है, उसे पूरी योग्यता और निष्ठा से पूरा करने पर भी वृद्धावस्था में उनके जीवन की यह दुर्दशा होना, क्या उनका कम दुर्भाग्य है? ऐसी स्त्रियाँ, तथा जिन्हें विवाहित स्त्री के कर्तव्य पूरा करने का ज़रा भी अवसर नहीं मिला वे स्त्रियाँ-ऐसी दशा में योग्य व्यवसाय से दूर पड़ी-पड़ी सड़ा करती हैं और बिना काम को निर्जीव जीवनी बिताती हैं। ऐसी स्त्रियों का मुख्य काम देखेंगे तो धर्म और उपकार ही होगा। किन्तु उनको समय भी स्त्रियों के लिए जो थोड़े बहुत इज्जत-आबरू के काम रक्खे गये हैं और बहुत सी स्त्रियां उन्हीं के द्वारा अपना उदर- निर्वाह करके अविवाहित रहती है) इस कारण जिनकी युवावस्था का सम्पूर्ण समय योग्यता प्राप्त करने में बीत गया होगा और जिन्होंने उस उच्च योग्यता का पूर्ण अभ्यास कर लिया होगा; या ऐसे अधिकारों के लिए अधिकांश चालीस या पचास वर्ष की वय वाली अधेड़ विधवाएँ या पत्नियाँ पसन्द की जायेंगी; क्योंकि कौटुबिक सञ्चालन के कारण उन्हें व्यवहार-दसता का पूर्ण ज्ञान हो जायगा––योग्य अनुभव, उत्तम शिक्षा पौर योग्यता से वे सार्वजनिक कामों को भली भांति सम्पादन कर सकेंगी। बहुत से देशों के हजारों उदाहरण हमारे सुनने में आये हैं, जिन में राज्य के बड़े-बड़े अधिकारियों को उनकी स्त्रियों ने बड़े-बडे मार्के के मौकों पर सलाह दी है और उसके अनुसार काम करके वे कृत कार्य हो गये हैं। और सामाजिक तथा राजकीय बहुत सी बातों में तो पुरुष भी स्त्रियों का मुक़ाबिला नहीं कर सकते; व्यवहार में स्त्री जितनी निपुण होती है पुरुष उतना नहीं होता। उदाहरण के तौर पर, तमाम घरेलू कामों को तफमील रखनी और उनका हिसाब यथास्थान अपने ख़याल में रखना, आदि––स्त्रियाँ बहुत योग्यता से कर सकती हैं।

किन्तु इस समय हम जिस विषय का विचार कर रहे हैं उसका विषय यह नहीं है कि सार्वजनिक कामों में स्त्रियों से कितनी सहायता ली जाय; बल्कि नीचे के अनुसार है,― कुछ स्त्रियों को तो विवाहित स्थिति प्राप्त करने की अनुकूलता ही नहीं मिलती, और बहुतों को विवाहित स्थिति ही पसन्द नहीं होती, तथा बहुत सी स्त्रियों को यह प्रवृत्ति पीछे से कई अनिवार्य कारणों से नहीं रहती,―इन सब स्त्रियों में से बहुतों को सार्वजनिक काम करने की विशेष उत्कण्ठा होती है, और उन में इतनी योग्यता भी होती है; किन्तु समाज उन्हें इन व्यवसायों के लिए अनधिकारी मानता है; इसलिए अपने मन-लायक काम न पाकर उनके मन सदा उचटे रहते है, उनकी जीवनी नीरस हो जाती है, और इस से उन्हें नैराश्य और उदासीन रहना पड़ता है। इस विषय का हमें गमभी- रता पूर्वक विचार करना चाहिए। मनुष्य प्राणी के लिए सब से अधिक सुख की और महत्व की यदि कोई बात है तो वह यही है कि, जिस काम को वह रोज़मर्रा करता हो उस पर उसका पूरा प्रेम होना चाहिए। उसका व्यवसाय उसे रुचि- कर होना चाहिए। सुखी जीवन के इस आवश्यक अङ्ग से मनुष्यों का बड़ा भारी भाग सूखा रह जाता है, इसलिए जीवन की सफलता के और साधन सुलभ होने पर भी, केवल ऊपर वाले एक कारण से मनुष्यों का बड़ा भारी भाग अपने जीवन में निष्फल होता है। बाहरी संयोगों को अपने अनुकूल बना लेने का साधन अभी तक लोगों को प्राप्त नहीं हुआ, इसलिंंए बहुत से जीवनों का व्यर्थ जाना रोकना समाज की शक्ति से बाहर की बात है, समाज की सत्ता से दूर की बात है। चाहे यह बात सच हो, पर इससे समाज का उत्तरदायित्व बढ़ता है। ऐसा कोई काम समाज को करना ही न चाहिए जिससे किसी मनुष्य का जीवन व्यर्थ जाना सम्भव हो। मा-बापों की तुच्छ दृष्टि और ना-समझी, युवावस्था में अनुभव का अभाव, मन-चाहे काम को करने में आवश्यक साधनों का अभाव, जिन्हें मन नहीं चाहता उन कामों के करने के अनुकूल साधन––इन सब कारणों से संसार के बहुत से मनुष्य-व्यक्ति अपने जीवन को सफल नहीं कर सकते। अर्थात् जिन कामों में उनका मन लगता है उन्हें वे कर नहीं सकते और जिन्हें करने को उनका मन नहीं चाहता वे उनसे कराये जाते हैं––इसलिए उन के जीवन निष्फल होते हैं। पुरुष-वर्ग के विषय में जितनी ऐसी घटनाएँ घटती हैं, उनके कारणों का हटाना समाज की सत्ता से बाहर की बात है; किन्तु स्त्रियों को जो यह सज़ा भोगनी पड़ती है उसका कारण तो प्रत्यक्ष क़ानून और क़ानून के समान ही मजबुत लोक-रूढ़ि है। अवनत और बर्बर देशों में वर्ण-भेद, जाति-भेद, धर्म-भेद आदि से; तथा विजयी और पराजित देशों में जातीयता (Nationality) के भेद से––पुरुषों की सामाजिक और राजनैतिक स्थिति में जैसा अन्तर होता है––वैसा ही अन्तर संसार भर में स्त्रियों की स्थिति ( sex ) पर है। प्रायः सभी इज्जत-आबरू वाले कामों को वे स्वाधीनता-पूर्वक नहीं कर सकतीं;––हम बात को यदि माफ़ शब्दों में कहें तो यह हो सकता है कि, जो काम पुरुषों से नहीं हो सकते या जिन के करने से उन्हें घृणा होती है, उन्हीं कामों के करने की औरतों को पूरी आजादी दी गई है। इन बातों से भीतर ही भीतर कितनों को कष्ट भोगना पड़ता हो सो शायद ही किसी के ख़याल में आता हो। इस बात की और किसी का ध्यान नहीं जाता कि, इस अमानुषी प्रथा से कितने योग्य जीवन व्यर्थ चले जाते होगे और संसार को उनसे अणुमात्र भी लाभ नहीं होता। स्त्रियों की शिक्षा का प्रसार जैसे-जैसे अधिक होता जायगा, स्त्रियों के मन जैसे-जैसे विशेष जान-सम्पन्न और बुद्धिशाली बनते जायँगे––वैसे ही वैसे उनके विचार और उनकी बुद्धि बढ़ेगी। इसका परिणाम यह होगा कि समाज ने स्त्रियों के लिए जिन दरबाजों को बन्द कर रक्खा है उनके कारण असङ्गतता का प्रसार होगा और इसके कारण संसार के कष्ट की वृद्धि होगी। रूढ़ि के लिए यही परिणाम होगा।

२२––इस प्रकार मनुष्य समाज के बिल्कुल आधे भाग की अनधिकारी बना देने से उसकी जो प्रत्यक्ष हानि हो रही है वह इस प्रकार है;––एक तो वे हिम्मत दिलाने वाले और तरक्की करने वाले व्यक्ति-सुख मे-वञ्चित रहती हैं। दूसरे इसके कारण खिन्नता, निरुत्साह होता है और उन्हें जीवन पर तिरस्कार आता है, मन उचटा रहता है। इन सब अनिष्टों पर जब हम विचार करते हैं तब हमें वही मंसा होता है कि, मानवी जीवन की अनिवार्य अपूर्णता के कारण उत्पन्न होने वाली कठिनाइयों से भिड़ जाने में यह जिन-जिन बातों पर लक्ष्य रखता है उन में यह एक अत्यन्त महत्व का विषय है कि, प्रकृति अपनी ओर से मनुष्य-प्राणी पर जो-जो सङ्कट डालती है, तथा उसके मार्ग में जो-जो विघ्न खड़े करती है––उसमें किसी को अपने दुराग्रह और मत्सर के वश होकर उन सङ्कटों और प्रतिबन्धों की संख्या में और अधिक विशेषता न करनी चाहिए। क्योंकि जिस बात से डर कर वे प्रतिबन्ध डालते हैं वह व्यर्थ और कुछ नहीं के बराबर होता है। जिन बूरे परिणामों के उत्पन्न होने से के डरते हैं वे कभी उत्पन्न होते ही नहीं, बल्कि इससे उलटे जो दुष्ट परिणाम उनकी कल्पना में घूमा करते हैं, उनसे खराब कुछ और ही परिणाम निकल पड़ते हैं। अपने कार्य या बर्ताव के बुरे फल तो भोगने ही चाहिए, इसमें कोई हानि भी नहीं। मनुष्य की व्यावहारिक स्वाधीनता को दाब देने से व्यक्तिमुख का सोता सूख जाता है। जीवन जिन-जिन कारणों से सुखी हो सकता है उनमें शारीरिक आवश्यकताओं के बाद व्यक्तिसुख का ही नाम से सकता है; किन्तु व्यक्तिस्वाधीनता को नष्ट कर देने से व्यक्तिसुख की कल्पना ही नहीं होती।

समाप्त।

  1. * गुण-पूजास्थान गुणिषु न च लिङ्ग न च वयः।
  2. * "शिवेलरी" (Chivalry) शब्द का अर्थ 'पराक्रम' होता है। किन्तु योरप के वीरकाल में इस शब्द का प्रयोग पराक्रम के साथ और बहुत से उदार गुणों के मिश्रण के लिए होता था। उस पराक्रमी पुरुष में उदारता, शुद्धता, नम्रता, दया, शरणवत्सलता, शत्रु की भूल का नाजायज फ़ायदा न उठाना, निःशस्त्र शत्रु पर वार न करना आदि गुण अवश्य होने चाहिएँ। साथ ही वह स्त्रियों में पूज्य भाव रखने वाला हो, अबला की रक्षा करने वाला हो, संकट और विपत्तियाँ सह कर भी स्त्रियों की प्रसन्नता प्राप्त करने वाला हो। ऐसा पराक्रमी पुरुष Chivalrous spirit वाला कहा नाता था। रामायण और महाभारत में जैसे सत्यनिष्ठ योद्धाओं का उदार भाव वर्णन किया गया है, वैसे ही सत्यनिष्ठ वीर के लिए योरप के वीरकाल में 'शिवलरी' की कल्पना थी।
  3. पाठकों को स्मरण रखना चाहिए कि हमारे देश के समान योरप में अविभक्त कुटुम्ब नहीं होता। वहाँ लड़का और लड़की सयाने होने पर अपने-अपने योग्य पति और पत्नी तलाश कर लेते हैं और फिर उनका घर न्यारा होता है।