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स्वदेश/धर्मबोधका दृष्टान्त

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स्वदेश
रवीन्द्रनाथ टैगोर, अनुवादक महावीर प्रसाद गहमरी

बंबई: हिंदी रत्नाकर कार्यालय, पृष्ठ १०३ से – ११२ तक

 

धर्म-बोधका दृष्टान्त।

कि सी अँगरेज अध्यापक ने इस देश में जूरी-द्वारा विचार होने के सम्बन्ध में आलोचना करते हुए कहा था कि जिस देश के अर्ध-सभ्य लोग प्राण के माहात्म्य (Sanctity of life) को नहीं समझते उनके हाथ में जूरी के द्वारा विचार होने का अधिकार देना ठीक नहीं।

अच्छा, यह बात मान ही ली कि अँगरेज लोग हमारी अपेक्षा प्राण के माहात्म्यको अधिक समझते हैं, तब तो जो अँगरेज किसी के प्राण लेते हैं उनका वह अपराध हमारे अपराध से कहीं भारी है। क्योंकि हम प्राण का माहात्म्य नहीं समझते और वे समझते हैं। मगर देखने में आता है कि देसी आदमी की हत्या करके कोई भी अँगरेज-खूनी अँगरेज जज और अँगरेज जूरीके विचार से फाँसी पर नहीं चढ़ा। प्राण की महिमाके सम्बन्ध में उनकी सूक्ष्म विचारशक्ति का प्रमाण अँगरेज अपराधी शायद पाता हो, परन्तु देसी लोगों को तो वह प्रमाण असम्पूर्ण ही जान पड़ता है।

इस प्रकार का विचार हमको दोनों ओर से चोट पहुँचाता है। प्राण जो जाना होता है सो तो जाता ही है, उधर मान भी नष्ट होता है। ऐसे विचार से हमारी जाति के प्रति जो अनादर प्रकट होता है वह हम सबके ही मन में खटकता है।

इँग्लेंड में 'ग्लोब' नामका एक अखबार है। वह वहाँ के भले आदमियों का ही अखबार है। उसने लिखा है कि टॉमी ऐट्किन (अर्थात् पल्टनी गोरे) देसी लोगों को मार डालने की नियत से नहीं मारते। देसी लोग ऐसे (बोदे) होते हैं कि मार खाते ही मर जाते हैं। इसी कारण टॉमी बेचारेको हलकी सजा मिलने पर देसी अखबार चिल्लाने लगते हैं।

टॉमी के लिए बड़ी हमदर्दी देख पड़ती है, किन्तु वह Sanctity of Life (प्राणका माहात्म्य) कहाँ है? जिस पाशव आघात से हम लोगों की तिल्ली फटती है उसी आघात का वेग क्या उक्त भद्र अखबार की इन कई लाइनों में भी नहीं है? अपनी जाति के किये हुए खून को कोमल स्नेह के साथ देखकर मरे हुए आदमी के घरवालों के विलाप को जो लोग खीझ के साथ धिक्कार देते हैं वे भी क्या खूनकी हिमायत नहीं करते?

कुछ दिनों से हम देखते हैं कि यूरोपियन सभ्यता में साधारणतः धर्मनीति का आदर्श अभ्यास पर ही प्रतिष्ठित हो रहा है। धर्म-बोध की शक्ति इस सभ्यताके अन्तःकरण में उदय नहीं हुई। यही कारण है कि उसके धर्मबोध का आदर्श अभ्यास के घेरेके बाहर मार्ग ही नहीं ढूँढ़ पाता; प्रायः विपथमें विपन्न हो जाता है।

यूरोपियन समाज में अपने ही घर में मारकाट और खूनखराबी नहीं हो सकती; क्यों कि ऐसा व्यवहार वहाँ के सर्व साधारण के स्वार्थ का विरोधी है। कई सदियों से, धीरे धीरे, यूरोप का विष देकर या हथियार से खून करने का अभ्यास छूट गया है।

मगर हत्या तो बिना हथियार चलाये—बिना खून बहाये भी हो सकती है। धर्म का बोध अगर बनावटी न हो, हार्दिक हो, तो ऐसी बिना हथियार की हत्या भी असम्भव हो जाती है और निन्दनीय समझी जाती है।

एक विशेष दृष्टान्त के द्वारा हम अपने कथन को स्पष्ट करने की चेष्टा करेंगे। हेनरी सावेज लेंडर एक प्रसिद्ध भ्रमणकारी हैं। तिब्बतके तीर्थस्थान लासा में जाने की उनको प्रबल इच्छा हुई। सभी जानते हैं कि तिब्बती लोग यूरोपियन यात्रियों और पादरियोंको सन्देह की दृष्टि से देखते हैं। उनके यहाँ की बीहड़ राहें और घाटियाँ विदेशियों को मालूम नहीं हैं। और सच तो यह है कि यही उनकी आत्मरक्षा का प्रधान अस्त्र है। यदि वे लोग इस अस्त्र को भूगोल का पता लगानेवाली जिओग्राफिकल सोसाइटीके हाथमें सौंपकर निश्चिन्त बैठना न पसंद करें तो उनको दोष नहीं दिया जा सकता।

किन्तु यूरोप का यह धर्म है कि और लोग उसका निषेध मानें, पर वह किसी का निषेध न मानेगा। कोई मतलब हो या न हो, केवल विपत्तिको लाँघनेकी बहादुरी दिखानेसे यूरोपमें इतनी वाहवाही मिलती है कि उसे पानेके लिए बहुतोंके मुँहमें पानी भर आता है। यूरोपके बहादुर लोग देश और परदेशमें विपत्तिको खोजते फिरते हैं। चाहे जिस उपायसे हो, जो यूरोपियन लासामें पदार्पण करेगा उसकी प्रसिद्धि और प्रशंसा बेहद होगी।

अतएव बर्फ-मय हिमालय और तिब्बतियों के निषेध को चकमा देकर लासा में जाना ही होगा। लेंडर साहब ने कमाऊँ-अलमोड़ासे इस यात्राका आरंभ किया। उनको एक हिन्दू नौकर भी साथी मिल गया। उसका नाम चन्दनसिंह था।

कमाऊँ प्रान्त में, तिब्बत की सीमा पर, ब्रिटिशराज्य में शोका नाम की एक पहाड़ी जाति बसती है। उस जाति के लोग तिब्बतियोंके डर और उपद्रवसे काँपा करते हैं। लेंडर साहब ने इस बातके लिए बारंबार आक्षेप और खेद प्रकट किया कि ब्रिटिश सरकार तिब्बतियों के उपद्रवसे उन लोगोंकी रक्षा नहीं कर सकती। उन्हीं शोका लोगोंमेंसे ही साहब बहादुर को अपने लिए कुली-मजदूर जुटाने थे। बड़ी मुशकिल से साहब को तीस कुली मिले।

इसके बाद यात्रामें साहब को बड़ी चिन्ता रही कि कुली लोग कहीं छोड़कर भाग न जायँ। साहबने इसके लिए चेष्टा भी बहुत की। कुलियों के भाग जानेका यथेष्ट कारण भी था। लेंडर साहब ने अपने भ्रमण वृत्तान्तके पचीसवें परिच्छेद में लिखा है कि "ये कुली जब चुप चाप मन मारे पीठ पर बोझा लादे करुणाजनक श्वास-कष्ट से हाँफते हाँफते ऊँचे से और भी ऊँचे पर चढ़ते थे तब जीमें यह खटका होता था कि इनमें से कितने आदमी लौटकर जा सकेंगे!"

हमारा प्रश्न यही है कि जब तुमको यह खटका था तब उन अनिच्छुक अभागों को मार मार कर मौत के मुँह में ले जाना क्या कहा जा सकता है? तुमको तो गौरव मिलेगा, और उसके साथ ही धन पानेकी भी यथेष्ट संभावना है। तुम उस गौरव और धनकी आशासे जान पर खेलो तो ठीक भी है। लेकिन इन कुली बेचारोंको क्या पाने का लोभ है।

विज्ञान की उन्नति के लिए यूरोप में जीवों के शरीरों की चीरफाड़ (Vivisection) पर अनेक तर्क-वितर्क हुआ करते हैं। इसकी भी आलोचना होती है कि जीते हुए जीव-जन्तुओंको लेकर परीक्षा करनेके समय कष्टनाशक दवाका प्रयोग करना उचित है या नहीं। किन्तु बहादुरी दिखाकर वाहवाही लूटनेके मतलबसे, बहुत दिनोंतक, अनिच्छुक मनुष्योंपर जो असह्य अत्याचार होता है उसका विवरण भ्रमण-वृत्तान्तके ग्रन्थोंमें प्रकाशित होता है; समालोचक लोग उसकी तारीफ तालियाँ पीटते हैं; पुस्तकके संस्करण पर संस्करण होते चले जाते हैं और हजारों पाठिकायें और पाठक इन सब वर्णनोंको विस्मयके साथ

पढ़ते और आनन्द के साथ उनकी आलोचना या चर्चा करते हैं। यह सब क्या है? बीहड़ बर्फीली राहमें बेचारे सीधेसादे शोका कुलियोंने रातदिन जो असह्य कष्ट भोग किया उसका परिणाम क्या है? मान लो कि लेंडर साहब लासा पहुँच गये; पर उससे जगत् का ऐसा कौन उपकार होना संभव है जिसके लिए इन सब डरे हुए, पीड़ित और इसीसे भागने की इच्छा रखनेवाले मनुष्यों को दिनरात, इतना कष्ट देकर, मार मार कर मौत के मुँह में ले जाना जरा भी उचित समझा जा सके? किन्तु कहाँ, इसके लिए तो लेखक को संकोच नहीं है, पाठकों को दया नहीं है।

लेंडर साहब जानते थे कि तिब्बती लोग कैसी निर्दयता से अत्याचार और हत्या कर सकते हैं, और इस कारण शोका लोग तिब्बतियों को कैसा डरते हैं, तथा उनको तिब्बतियों के हाथसे उबारने या बचानेमें ब्रिटिश सरकार कैसी असमर्थ है। वह यह भी जानते थे कि उनमें जो उत्साह, जोश और लालच काम कर रहे हैं, शोका कुलियों में उनका लेश भी नहीं है। इस पर भी, लेंडर साहब ने अपने ग्रंथ के १६५ पृष्ठ में जिस भाषा में जिस भाव से अपने कुलियों के भय और दुःखका वर्णन किया है उसका तर्जुमा नीचे दिया जाता है––

"उनमें से हर एक, हाथ से मुँह ढककर व्याकुल होकर रोता था। आँखों से आँसुओं की धारा बह रही थी। वे सिसक सिसक कर बिलख रहे थे। और, जिस डाकू और एक दूसरे तिब्बती ने मेरा काम लिया था और जिन्होंने डरके मारे भेष बदल लिया था, वे उन लोगों के बोझ के पीछे छिपकर बैठे थे। हम लोग यद्यपि सङ्कटकी अवस्थामें थे तो भी अपने कुलियों की ऐसी व्याकुलता देखकर मैं अपनी हँसी नहीं रोक सका"।

इसके बाद उन अभागों ने भागने का इरादा किया तो लेंडर साहबने यह कहकर उनको निरस्त किया कि जो कोई भागने या दंगा मचाने की चेष्टा करेगा उसे मैं गोली मार दूँगा!

कैसे साधारण कारण से लेंडर साहबके मनमें गोली मार देने की उत्तेजना उत्पन्न हो उठती है, इसका परिचय आगे चलकर मिलेगा। जब तिब्बत के हाकिम ने लेंडर साहब को पहली बार मना किया तब उन्होंने ऐसा ढोंग रचा, मानों वह लौटे जा रहे हैं। उन्होंने एक पहाड़ी दर्रे में उतरकर दूरबीन से देखा कि पहाड़ की चोटी पर कोई तीस सिर पत्थर की आड़ से झाँक रहे हैं। इस पर साहब लिखते हैं कि मुझे बड़ा बुरा लगा। यदि वे मेरा पीछा ही करना चाहते हैं तो खुल्लमखुला ही मेरा पीछा क्यों नहीं करते-दूर से छिपकर देखभाल करने की या पहरा देने की क्या जरूरत! अतएव मैं आठ सौ गज तक निशाना मारनेवाली अपनी राइफेल (बन्दूक) लेकर जमीन पर लेट गया और जो सिर सबसे साफ देख पड़ता था उस पर वार करने के लिए मैंने निशाना ठीक किया"।

साहब के इस "अतएव" में बहार है! छिपकर काम करने से साहब को बड़ी ही नफरत है! उन्होंने और उनके साथी और एक पादरी साहब ने अपने को हिन्दू तीर्थयात्री बताया, और जाहिरा में भारतवर्ष को लौट जाने का ढोंग करके छिपे तौरसे लासामें जानेका उद्योग किया; 'परन्तु दूसरों का छिपकर काम करना उनको इतना असह्य है कि उन्होंने, जमीन पर लेटकर, अपने को छिपाकर, आठ सौ गजी बन्दूक तानकर कहा––"I only wish to teach these cowards a lesson" अर्थात् मैं इन कायरोंको शिक्षा देना चाहता हूँ! दूरसे छिपकर बन्दूक चलाने में साहब जिस पौरुष का परिचय दे रहे थे उसका विचार कर

नेवाला वहाँ कोई न था। हमने अपने प्राचीन लोगों की कमजोरी की बहुत बातें सुनी हैं, किन्तु चलनी होकर सुई के छेद का विचार करने की प्रवृत्ति, पाश्चात्य लोगों की तरह, हम लोगोंमें नहीं है। असल बात यह है कि शरीरमें जोर रहने से विचारासन पर अकेले दखल कर लिया जाता है, और तब दूसरों पर घृणा करनेका अभ्यास ही जड़ पकड़ लेता है, अपनी ओर देखने का अवसर ही नहीं मिलता।

एशिया और आफ्रिका में भ्रमण करनेवाले साहब लोग अनिच्छुक कुली-मजदूरों पर जो अत्याचार करते हैं, और नये नये देश खोज निकालने की उत्तेजना में उन लोगों को जिस तरह छल-बल-कौशल से विपत्ति और मौतके मुँहमें ढकेल ले जाते हैं सो किसी से छिपा नहीं है। तथापि, sanctity of Life के सम्बन्ध में इन सब पाश्चात्य सभ्य जातियों की समझ अत्यन्त तीव्र होने पर भी, कहीं से उसका प्रतिवाद नहीं सुनाई पड़ता। इसका कारण यही है कि धर्मबोध पश्चिमी सभ्यता की हार्दिक वस्तु नहीं है। वह, स्वार्थ-रक्षा के स्वाभाविक नियम से, बाहर से प्रकट हो गया है। इसीसे यूरोपियन धेरेके बाहर वह दूसरा रूप धारण कर लेता है। यहाँ तक कि उस घेरेके भीतर भी जहाँ स्वार्थ-बोध प्रबल है वहाँ पर दयाधर्म की रक्षा करने की चेष्टा को कमजोरी कहकर यूरोप उससे घृणा करने लगा है। वहाँ युद्ध के समय विरुद्ध पक्षका सर्वस्व जला देने या उन लोगों के अनाथ बच्चों और स्त्रियों को कैद करने के विरुद्ध कुछ कहना सेन्टिमेन्टॅलिटी [महज खयाल ही खयाल] समझा जाता है। यूरोप में साधारणतः झूठ बोलना समझा जाता है किन्तु 'पालिटिक्स' में देखते हैं कि एक पक्ष दूसरे पक्ष पर, झूठ बोलने का कलंक हमेशा लगाया ही करता है। महामति ग्लाडस्टन भी इस कलंकसे नहीं बचे। इसी कारणसे चीन-युद्धमें यूरोपियन सेनाका

उपद्रव हैवानी की हदको भी लाँध गया था और कंगो-प्रदेश में स्वार्थान्ध बेलजियम का बर्ताव पिशाची लीला के पास पहुँच गया है।

दक्षिण-अमेरिका में नीग्रो लोगों के साथ कैसा व्यवहार किया जा रहा है, इसका विवरण न्यूयार्क से प्रकाशित होनेवाले 'पोस्ट' अखबार- से २ जुलाई (सन् १९०३) के विलायती डेलीन्यूज अखबार में उद्धृत किया गया है। मामूली अपराध के बहाने नीग्रो जाति के नर-नारी पुलीस कोर्ट में हाजिर किये जाते हैं। वहाँ मजिस्ट्रेट उन पर जुर्माना करते हैं। अदालत में पहले ही से उपस्थित रहनेवाले गोरे लोग वह जुर्माना दे देते हैं और फिर उस रुपये के बदले उन नीग्रो स्त्री पुरुषों को अपना गुलाम बना लेते हैं। उसके बाद, फिर तो चाबुक, लोहे की जंजीर और अन्यान्य ऐसे ही अनेक उपायोंसे आज्ञा न मानने और भागनेसे उनकी रखवाली की जाती है। एक नीग्रो स्त्री को तो चाबुक मारते मारते मार ही डाला। एक नीग्रो स्त्री दो पति करने (Bigamy) के अपराध में गिरफ्तार की गई। हाजत में रहन के समय एक बैरिस्टर ने उसकी ओर से पैरवी करना स्वीकार किया। किन्तु मुकद्दमा नहीं चला और यह निरपराध कहकर छोड़ दी गई। बैरिस्टर साहबने तब भी फीस का दावा किया और उसके बदले में उस स्त्री को मेक्री-कैम्पमें १४ महीने काम करने के लिए भेज दिया। वहाँ ९ महीने तक, मकान में ताला बंद करके उसके भीतर उससे काम कराया गया, और जबरदस्ती दूसरे आदमी से उसका ब्याह कराकर कहा गया कि पहले पति से तेरी कभी मुलाकात नहीं होगी। जिसमें वह भाग न जाय, इस लिए उसके पीछे कुत्त लगा दिये गये, उसके मालिक मेक्री ने अपने हाथ से उसके चाबुक मारे और उससे कसम ले ली कि छूटने पर उसे सबसे कहना होगा कि मैं पाँच डालर हर महीने तनख्वाह पाती थी!

डेलीन्यूज कहता है कि रूस में यहूदियों की हत्या और कंगोमें बेलजियम के अत्याचार आदि के लिए परोसियों पर दोषारोप करना कठिन हो गया है––After all, no great power is entirely innocent of the charge of treating with barbarous harshness the alien races which are subject to its rule.

हमारे देश में जो धर्म का आदर्श है वह हृदय की चीज है––बाहरी धेरे में रखने की नहीं है। हम यदि Sanctity of life को एक बार करते हैं तो फिर पशु-पक्षी कीट-पतंग आदि किसी पर इसकी एक हद नहीं बाँध लेते। भारतवर्ष एक समय मांसभोजी था––मगर आज मांस खाना उसने निषिद्ध मान लिया है। मांसाहारी जाति ने अपनको उसके स्वाद से वञ्चित करके मांस खाना एकदम छोड़ दिया है। जगत् भर में शायद स्वार्थत्यागका ऐसा दूसरा उदाहरण नहीं मिल सकता। भारतवर्ष मे देखा जाता है कि अत्यन्त गरीब आदमी भी जो कमाता है उसे दूर के सम्बन्धियों में बांट देनेसे भी नहीं हिचकता। स्वार्थकी भी एक उचित सीमा है––उचित अधिकार है, इस बातको हम लोगोने, सब तरहसे असुविधा सहकर भी, यथा सम्भव दबा रक्खा है। हमारे देशमें कहा जाता है कि युद्ध में भी धर्मकी रक्षा करनी होगी––अस्त्रहीन, भागे हुए और शरणम आये हुए शत्रुके प्राते हमार देशकं क्षात्रयांको जैसा बरताव करनेकी विधि है उसकी यूरोपमें हँसी उड़ाई जायगी। इसका कारण केवल यही है कि हम लोगाने धर्मको हृदयकी चीज बनाना चाहा था। हम लोगाके धर्मकी रचना स्वार्थ के स्वाभाकि नियमन नहीं की है। धर्मकानयमने हा स्वार्थका संयत कर रखने की चेष्टा की है। इसीसे यद्यपि हम लोग बाहरी विषयों में दुर्बल हाते हैं––यद्यपि

बाहरी शत्रुओं के सामने हमारी हार होती है, तथापि हम लोगों ने स्वार्थ और सुभीते के ऊपर धर्म के आदर्श को विजयी बनाने की चेष्टा में जो गौरव पाया है वह कभी व्यर्थ नहीं जायगा––एक दिन उसका भी दिन आवेगा।