स्वदेश/समाज-भेद

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समाज-भेद।

त जनवरी महीने (सन् १९०१ ई॰) के 'कन्टेम्पररी रिव्यू' पत्र में डाक्टर डिलन ने "शेर चीन और बकरी यूरोप" हेडिंग देकर एक लेख लिखा है। उसमें युद्ध के समय चीना लोगों पर यूरोप के अकथनीय अत्याचारका वर्णन किया गया है। चंगेज खाँ, तैमूरलंग आदि मनुष्यजाति के शत्रुओं की इतिहास-प्रसिद्ध भयानक करतूत सभ्य यूरोप की दबंग हैवानी के आगे मात हो गई––उसने भी सिर झुका लिया।

यूरोप अपनी दया-धर्म-पूर्ण सभ्यता की बड़ाई कर के एशिया को सदा धिक्कार दिया करता है। उसका जबाब देने का मौका मिलने से हमें कुछ भी प्रसन्नता नहीं है। क्यों कि सबल के कलंक की बात जाहिर करके निर्बल उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकता। किन्तु सबल जो दुर्बल को कलंक लगाता है वह निर्बल के लिए किसी न किसी समय सांघातिक हो जाता है।

साधारणतः एशिया के लोगों के चरित्र की क्रूरता, बर्बरता और दुर्ज्ञेंयता यूरोपियन समाज में एक कहावत सी हो गई है। इसी से आजकल ईसाई-समाज में बात पर बड़ा जोर दिया जा रहा है कि यूरोप के आदर्श पर एशिया का विचार करना ठीक नहीं।

हमने जब पहले पहल यूरोप की शिक्षा पाई तब उससे यही समझा कि मनुष्य मनुष्य में कुछ भेद नहीं है। इसी से हम लोग इस ढंग से तैयार [ ९५ ]

हो रहे थे कि जिसमें हमारे नये शिक्षक (यूरोप) में और हममें जो भेद है वह मिट जाय। इसी समय मास्टर साहब ने अपना धर्मशास्त्र बंद करके कहा––पूर्व और पश्चिम में इतना अन्तर है कि वह किसी तरह मिटनेवाला नहीं।

बहुत अच्छा, अन्तर है तो बना रहे। विचित्रता ही संसार के स्वास्थ्य की रक्षा करनेवाली है। पृथ्वीपर जाड़ा-गर्मी सर्वत्र समान नहीं है, इसी से वायु चलती है। सभ्यता के भिन्न भिन्न आदर्श भिन्न भिन्न रूपों में सार्थक होकर अपनी स्वतन्त्रता बनाये रक्खें। ऐसा होने से, उस स्वतन्त्रता से परस्पर, एक दूसरे के निकट, शिक्षा का लेन-देन हो सकता है।

किन्तु, अब तो देखते हैं कि गालीगलौज और गोले-गोलियों का लेन देन होने लगा है। नई ईसवी-सदी का यों आरंभ हुआ है।

भेद है, यह स्वीकार करके बुद्धि, प्रीति, सहृदयता और विनय के साथ उसके भीतर प्रवेश करने की योग्यता या क्षमता यदि नहीं है तो ईसा की शिक्षा पाकर १९०० वर्षतक तुमने क्या किया? तुम तोप के गोले से पूर्वी दुर्ग की दीवार तोड़कर सब एकाकार कर दोगे, या कुंजी से उसका काटक खोलकर भीतर घुसोगे?

चीना लोगों ने पादरियों पर आक्रमण किया, इसीसे चीन में वर्तमान विद्रोह का सूत्रपात हुआ है। यूरोप के जी में सहज ही यह बात आ सकती है कि धर्म के प्रचार या शिक्षा के विस्तार पर चीन का यों जोशमें आ जाना या उदारता न दिखाना उसके जंगलीपन या असभ्यता को प्रमाणित करता है। पादरी लोग चीन का राज्य जीतने तो गये ही न थे।

यहीं पर पूर्व और पश्चिम में भेद है और उस भेद को यूरोप श्रद्धा और सहिष्णुता के साथ समझने की चेष्टा नहीं करता। इसका कारण यही है कि उसके शरीर में बल है। [ ९६ ]

चीन का राज्य चीन के राजा का है। यदि कोई राज्य पर चढ़ाई करे तो राजा राजा में लड़ाई छिड़ जायगी। उससे प्रजा की जो हानि होगी वह वैसी सांघातिक नहीं। किन्तु यूरोप में राजा का राज्य नहीं है वहाँ सारा राज्य ही राजा है। राष्ट्रतन्त्र ही यूरोप की सभ्यता का शरीर है। इस शरीर को चोट से बचाये रक्खे बिना उसके प्राण नहीं बच सकते। यही कारण है कि यूरोपियन लोग और किसी चोट का वजन ध्यान में लाही नहीं सकते। विवेकानन्द अगर यूरोप में जाकर वेदान्त-मत का प्रचार करें, अथवा धर्मपाल यदि वहाँ अँगरेज-बौद्ध-सम्प्रदाय की स्थापना करें तो उससे यूरोप के शरीर में चोट नहीं लगती। क्यों कि यूरोप का शरीर धर्म नहीं, राष्ट्रतन्त्र है। इंग्लेंड जिब्राल्टर पहाड़ की रक्षा में जान लड़ा देगा, किन्तु ईसाई-धर्म के सम्बन्ध में सावधान होने की वह जरूरत नहीं समझता।

पूर्वी देशों में ठीक इससे उलटा है। पूर्वी सभ्यता का कलेवर धर्म है। धर्म माने रिलिजन नहीं। उसके माने हैं सामाजिक कर्तव्य-तन्त्र। उसके भीतर यथोचित रूपसे रिलिजन पालिटिक्स आदि सब कुछ है। उसपर चोट करने से सारे देश के हृदय में व्यथा होती है। क्यों कि समाज ही उसका मर्मस्थान है। उसकी जीवनी शक्ति का और कोई आधार नहीं है। शिथिल राजशक्ति इतने बड़े चीन में सर्वत्र अपना जोर नहीं दिखा सकती। राजधान से दूर पर जो देश हैं वहाँ राजा की आज्ञा पहुँचती है; परन्तु राजा का प्रताप नहीं पहुँचता। मगर तब भी यहाँ शान्ति है, सुशृंखला (ठीक बन्दोबस्त) है, सभ्यता है। डाक्टर दिल नने इसपर आश्चर्य प्रकट किया। थोड़ा सा बल खर्च करके इतने बड़े राज्य को संभाले रखना सहज बात नहीं है।

किन्तु इतना बड़ा चीन देश शस्त्र के शासन से नहीं, धर्म के ही शासन से सँभला हुआ है। पिता-पुत्र, भाई-बहन पति-पत्नी, पास [ ९७ ]

परोसी, राजा-प्रजा, पुरोहित-यजमान, सब इस धर्म को मानते हैं। बाहर चाहे जितना गदर मचे, राजसिंहासन पर चाहे जो कोई बैठे, कोई हानि नहीं। इस धर्म ने बहुविस्तृत चीन देश के भीतर रहकर अखण्ड-नियम से उस विशाल जन-समाज को सँभाल रक्खा है। उस धर्म पर धक्का पहुँचने से चीन को मृत्यु की ऐसी व्यथा होती है और वह आत्मरक्षा के लिए निठुर हो उठता है। उस समय उसे कौन रोक सकता है? उस समय उसके आगे राजा भी कुछ नहीं और राजा की सेना भी कुछ नहीं है। उस समय चीन-साम्राज्य नहीं, चीना जाति जाग उठती है।

एक छोटे से दृष्टान्त से मेरा मतलब खुलासा हो जायगा। अँगरेज का परिवार किसी व्यक्ति के जीते रहने तक उससे सम्बन्ध रखता है। किन्तु हमारा परिवार कुल का एक अंग है। इतने ही अन्तर से सब अलग हो जाता है। अंगरेज लोग इस अन्तर को समझे बिना हिन्दू-परिवार की व्यथा को खयाल में ही नहीं ला सकते। यही कारण है कि वे हमारी बहुत सी बातों को देख सुनकर उन्हें सह नहीं सकते, हमको नफरत-की निगाह से देखने लगते हैं। ऐसा होता है और हमेशा ही होता रहेगा। हिन्दूपरिवार में कुल-सूत्र से जीवित, मृत और आगे पैदा होनेवाले––जिनका अभी जन्म ही नहीं हुआ––सब परस्पर संयुक्त हैं।इस लिए, हिन्दू-परिवार से अगर कोई कुल-त्याग कर बाहर हो जाय तो इससे परिवार को कैसी कड़ी चोट पहुँचती है––इस बात को अँगरेज लोग नहीं समझ पाते। क्यों कि अँगरेज-परिवार में पति-पत्नी सम्बन्ध के सिवा और कोई दृढ़ बन्धन नहीं है।

इसीसे हिन्दूसमाज में विधवाका विवाह विहित होने पर भी प्रच- लित नहीं हुआ। क्योंकि जीवित प्राणी जैसे अपने किसी जानदा रअंग को काटकर अलग कर देना नहीं चाहता, वैसे ही हिन्दू-परि [ ९८ ]वार भी विधवाको छोड़कर अपनेको घायल करनेके लिए तैयार नहीं है। हिन्दूसमाज बाल्यविवाहको भी इसीसे अच्छा समझता है। वह जानता है कि प्रेम पैदा हानेके लायक अवस्थामें ही स्त्री-पुरुषका यथार्थ मिलन हो सकता है, यह सच है; परन्तु सारे परिवार के साथ मिलन और स्नेह होने का समय बाल्यकाल ही है।

दूसरे पहलू से देखने पर विधवा-विवाह का निषेध और बाल्यविवाह की व्यवस्था भले ही हानिकारक हो, किन्तु जो आदमी हिन्दू-समाज की स्थिति या संगठन को अच्छी तरह समझता है, वह विधवा-विवाह के निषेध और बाल्य-विवाह के विधान को जंगली पन या असभ्यता कहकर नहीं उड़ा दे सकता। भारतवर्ष की रक्षा के लिए, बहुत खर्च पड़ने पर भी,जैसे अँगरेजो को जिब्राल्टर, माल्टा, स्वेज और अदनकी रक्षा करनी पड़ती है, वैसे ही, हानि सहकर भी, परिवार की दृढ़ता और अखण्डता बनाये रखने के लिए, हिन्दुओको भी इन सब नियमो का पालन करना पड़ता है।

इस पर अँगरेज लोग यह तर्क उठा सकते हैं कि इस तरह सुदृढ़- भाव से पारेवार और समाजका संगठन अच्छा है कि नहीं है हम कहते हैं कि राष्ट्रीय स्वार्थ को सबके ऊपर रखकर पोलिटिकल दृढ़ता साधना अच्छा है या नहीं? यह भी तर्कका विषय है। देशकी ओर सब जरूरतों को दिन दिन दबाकर सेना बढ़ाने में यूरोप पिसा जा रहा है––सेना के बेहद बोझ से उसका नष्ट हो रहा है। इसकी इति कहाँ पर होगी? निहिलिस्टा के आग्नेय उत्पात में (डिनामाईट या बम के गोलो के उपद्रव में) या आपस की प्रलयकारी टक्कर में! यदि यह सत्य हो कि हम स्वार्थ और स्वेन्छाचारको सहस्त्र बन्धना से जकडे पकडे रहनके कारण मर रहे है तो इस की भी अभी परीक्षा सामञ्जस्य [ ९९ ]बाकी है कि यूरोप स्वार्थ और स्वाधीनता का मार्ग खोलकर चिरजीवी हो सकेगा या नहीं।

जो कुछ हो। पूर्व और पश्चिम के ये सब भेद सोचने और समझने की बातें हैं। जब यूरोप की रीतियों पर विचार किया जाता है तब यूरोप के समाज तन्त्र के साथ उसको मिलाकर विचार न करने के कारण हम लोगों के मन में भी उनके प्रति प्रायः अनुचित घृणा उत्पन्न होती है। इसका उदाहरण एक यही है कि हम लोग विलायती समाज की इस रीति पर कटाक्ष किया करते हैं कि उनके यहाँ लड़कियों जवानी तक क्वाँरी रक्खी जाती हैं। यह प्रथा हम लोगों के यहाँ प्रचलित नहीं है, अथवा यों कहो कि हमको इसका अभ्यास नहीं है। इस कारण हम लोग इस बारे मे तरह तरह की आशंकायें किया करते हैं। किन्तु, इस पर हम विचार ही नहीं करते कि बालविधवा को जिन्दगी भर अविवाहित रखना उससे भी बढ़कर खटके का बात है। काँरी लड़की के बारे में हम कहते है कि मनुष्य प्रकृति कमजोर है, परन्तु विधवा के बारे में कहते हैं कि शिक्षा और साधना (अभ्यास) से स्वभाव वश में किया जा सकता है। किन्तु अमल बात तो यह है कि ये सब नियम किसी नीति के तत्त्व से नहीं निकले हैं; आवश्यकता के मारे बन गये है। हिन्दू समाज के लिए छोटी अवस्था में कन्या का ब्याह जैसे जरूरी है, वैसे ही विधवाका चिरकालतक विधवा रहना भी जरूरी है। इसी कारण आशंका होने पर भी विधवाका विवाह नहीं होता और अनिष्ट आर असुविधाक रहते भी कुमारी का बाल्याववाह होता है। आवश्यकता के अनुरोब से ही यूरोप में, आधे क अवस्थाम कुमारा का विवाह और विधवा का पुनर्विवाह प्रचलित हुआ है। वहाँ नाबालग लड़की साथ अलग गृहस्थी चलाना संभव नहीं है, आर विधवाको भी किसी परिवार मे आश्रय नहीं मिलता[ १०० ]उसके लिए बहुत करके फिर विवाह करना अत्यन्त आवश्यक होता है। यह नियम विशेष रूप से यूरोपियन समाजतन्त्र की रक्षा के लिए अच्छा है–उसके अनुकूल है। इसी कारण यह अच्छा है। इसकी और जो कुछ अच्छाइयाँ हैं वे गौण हैं।

समाज में आवश्यकता के अनुरोध से जो नियम प्रचलित होता है उसके साथ धीरे धीरे भाव का सौन्दर्य भी आ-मिलता है। अधिक अवस्था के कुमार और कुमारियों के स्वाधीन प्रेम के जोश का सौन्दर्य यूरोपियनों के चित्त को कैसा भा-गया है–उसने उनके हृदय पर कैसा अधिकार जमा लिया है, यह यूरोपियन साहित्य पढ़ने से ही जाना जा सकता है। यूरोपियन कवियों ने उस प्रेम के आदर्श का चमत्कार-पूर्ण दिव्य वर्णन किया है।

हमारे देश में पतिव्रता घरवाली के कल्याण-परायण सुन्दर भावने ही हिन्दुओं के हृदय पर अधिकार कर लिया है। उसी भाव के सौन्दर्य ने हमारे साहित्य में अन्य सब प्रकार के साहित्यों से ऊँचा स्थान पाया है। इसकी आलोचना किसी दूसरे प्रबन्ध में की जायगी।

किन्तु इसीसे यदि हम उस स्वाधीन प्रेम के सौन्दर्य का अनादर करेंगे जिससे सारा यूरोपियन समाज उज्ज्वल हो उठा है तो उससे हम लोगों का अंधापन और मूर्खता ही प्रकट होगी। वास्तव में अगर देखा जाय तो वह सौन्दर्य हमारे मनको भी भाता है। यदि ऐसा न होता तो अँगरेजी के काव्य और उपन्यास हमारे लिए व्यर्थ होते। सौन्दर्य के लिए हिन्दू और अँगरेजकी जातिका कोई पक्षपात नहीं है। अँगरेज-समाज के आदर्श-सौन्दर्य को साहित्य जब स्पष्ट करके दिखलाता है तब वह हमारे जातीय संस्कार को दबाकर हृदयमें प्रकाशित हो उठता है। वैसे ही, हमारे हिन्दू-परिवार के आदर्शमें जो एक कल्याणमयी सुन्दरताकी शोभा है उसको यदि अँगरेज न देख पावें तो अँगरेज इस अंशमें अवश्य ही असभ्य हैं। [ १०१ ]यूरोपियन समाजने अनेक महात्मा लोगोंको पैदा किया है। वहाँ शिल्प, विज्ञान और साहित्य नित्य उन्नत करता चला जारहा है। यह समाज आप ही अपनी महिमा को पग पग पर प्रमाणित करता हुआ आगे बढ़ रहा है। यदि इसका अपना ही घोड़ा न भड़क उठे तो हम ऐसी कल्पना भी नहीं कर सकते कि इसके रथको बाहरका कोई रोक सकेगा। ऐसे गौरवान्वित समाज को श्रद्धा के साथ सूक्ष्म दृष्टि से न देख कर जो लोग उस पर व्यंगवर्षा करते हैं वे इस देशके सुलभ लेखक बिना जाने अपनी ही हँसी उड़ाते हैं।

दूसरी ओर, इधर, कई सौ वर्षोंका लगातार विप्लव जिस समाज को मिट्टीमें नहीं मिला सका; हजारों दुर्गति सह कर भी जिस समाज ने भारतवर्ष को दया-धर्म और कर्तव्य के आधार पर सँभाल रक्खा है–रसातल में नहीं जाने दिया है, जो समाज सावधानी के साथ हिन्दू-समाज की बुद्धि और प्रवृत्ति की इस प्रकार रक्षा करता आया है कि बाहर से मसाला पाते ही वह प्रज्वलित-प्रकाशित हो सकती है; जिस समाज ने मूढ़ और अशिक्षित लोगों की मण्डली को भी पग पग पर प्रवृतिदमनपूर्वक अपने परिवार समाजके लिए स्वार्थत्याग करनेको अपने तंई वार देने को लाचार किया है; उस समाजको जो मिशनरी (पादरी) श्रद्धा के दृष्टिसे नहीं देखते वे भी श्रद्धा के योग्य नहीं है। उनको यह समझना चाहिए कि यह विराट् समाज एक बड़े भारी प्राणीके समान है। आवश्यक होने पर भी, इसके किसी एक अंग पर चोट करने के पहले इस प्राणीके शरीर-तत्त्वकी आलोचना कर लेनेकी बड़ी जरूरत है।

असल में सभ्यतायें भिन्न भिन्न हैं और यह विभिन्नता या विचित्रता ही विधाता को मंजूर है। यदि इस विभिन्नता के भीतर हम लोग ज्ञान से उज्ज्वल सहृदयता लेकर परस्पर प्रवेश कर सकें तो इस विचित्रता की [ १०२ ]सार्थकता हो जाय। जो शिक्षा और अभ्यास उस प्रवेश के द्वार को बंद कर देता है वह जंगलीपन की सीढ़ी है। उसीसे अन्याय, अविचार और निठुराई की उत्पत्ति होती है। सच्ची या असली सभ्यता का लक्षण क्या है? असली सभ्यता वही है जो सर्वज्ञ और सब में प्रवेश करनेवाली है। जो पश्चिमी सभ्यता को सदा हँसा करती और धिक्कारें देती है वह 'हिन्दुआनी' है, हिन्दूसभ्यता नहीं है। वैसे ही जो पूर्वी सभ्यता को कुछ भी नहीं मानती वह 'साहबियाना' है, यूरोप की सभ्यता नहीं है। जो आदर्श दूसरे आदर्श से द्वेषभाव रखता है वह आदर्श ही नहीं है।

आजकल यूरोप में इस अन्धविद्वेष ने सभ्यता की शान्ति को कलुषित कर दिया है। रावण जब स्वार्थ में अन्धा होकर अधर्म में प्रवृत्त हुआ तब लक्ष्मी ने उसे त्याग कर दिया। आधुनिक यूरोप के देष-मण्डप से लक्ष्मी मानों बाहर निकल पड़ी हैं। इसी कारण बोअरों के नगर में अग्नि-वर्षा हो रही है, चीन में पशु भाव ने लज्जा का परदा हटा दिया है और धर्म-प्रचारकों की निष्ठुर बातों से धर्म पीड़ित हो रहा है