हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास/द्वितीय खंड/प्रथम प्रकरण - साहित्य

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द्वितीय खण्ड

 

प्रथम प्रकरण।
साहित्य।

हिन्दी भाषा-साहित्य के विकास पर कुछ लिखने के पहले मैं यह निरूपण करना चाहता हूं कि साहित्य किसे कहते हैं। जब तक साहित्य के वास्तविक रूप का यथार्थ ज्ञान नहीं होगा, तब तक इस बात की उचित मीमांसा न हो सकेगी, कि उसके विषय में अब तक हिन्दी संसार के कवियों और महाकवियों ने समुचित पथ अवलम्बन किया या नहीं। और साहित्य-विषयक अपने कर्त्तव्य को उसी रीति से पालन किया या नहीं, जो किसी साहित्य को समुन्नत और उपयोगी बनाने में सहायक होती है। प्रत्येक समय के साहित्य में उस काल के परिवर्त्तनों और सँस्कारों का चिन्ह मौजूद रहता है। इस लिये जैसे जैसे समय की गति बदलती रहती है, साहित्य भी उसी प्रकार विकसित और परिवर्त्तित होता रहता है। अतएव यह आवश्यक है कि पहले हम समझ लें कि साहित्य क्या है, इस विषय का यथार्थ बोध होने पर विकास की प्रगति भी हमको यथातथ्य अवगत हो सकेगी।

"सहितस्य भावः साहित्यम्" जिसमें सहित का भाव हो उसे साहित्य कहते हैं। इसके विषय में संस्कृत साहित्यकारों ने जो सम्मतियां दी हैं मैं उनमें से कुछ को नीचे लिखता हूं। उनके अवलोकन से भी साहित्य की परिभाषा पर बहुत कुछ प्रकाश पड़ेगा 'श्राद्ध विवेककार' कहते हैं:—

"परस्पर सापेक्षाणाम् तुल्य रूपाणाम् युगपदेक क्रियान्वयित्वम् साहित्यम्"। [ १०६ ]

'शब्दशक्ति प्रकाशिका' के रचयिता यह लिखते हैं:—

"तुल्यवदेक क्रियान्वयित्वम् वृद्धि विशेष विषयित्वम् वा साहित्यम्।"

शब्द कल्पद्रुम कार की यह सम्मति है:—

"मनुष्य कृत श्लोकमय ग्रन्थ विशेषः साहित्यम्।"

कवीन्द्र "रवीन्द्र" कहते हैं:—

"सहित शब्द से साहित्य की उत्पत्ति है—अतएव, धातुगत अर्थ करने पर साहित्य शब्द में मिलन का एक भाव दृष्टि गोचर होता है। वह केवल भाव का भाव के साथ, भाषा का भाषा के साथ, ग्रन्थ का ग्रन्थ के साथ मिलन है यही नहीं, वरन् वह बतलाता है कि मनुष्य के साथ मनुष्य का अतीत के साथ वर्त्तमान का, दूरके सहित निकट का अत्यन्त अन्तरंग योग साधन साहित्य व्यतीत और किसी के द्वारा सम्भव पर नहीं। जिस देश में साहित्य का अभाव है उस देशके लोग सजीव बन्धन से बँधे नहीं, विच्छिन्न होते हैं"।[१]

"श्राद्धविवेक" और "शब्द शक्ति प्रकाशिका" ने साहित्य की जो व्याख्या की है "कवीन्द्र" का कथन एक प्रकार से उसकी टीका है। वह व्यापक और उदात्त है। कुछ लोगों का विचार है कि साहित्य शब्द काव्य के अर्थ में रूढ़ि है। 'शब्द कल्पद्रुम' की कल्पना कुछ ऐसी ही है। परन्तु ऊपर की शेष परिभाषाओं और अवतरणों से यह विचार एक देशीय पाया जाता है। साहित्य शब्द का जो शाब्दिक अर्थ है वह स्वयं बहुत व्यापक है, उसको संकुचित अर्थ में ग्रहण करना संगत नहीं। साहित्य समाज का जीवन है, वह उसके उत्थान पतन का साधन है, साहित्य के उन्नत होने से उन्नत और उसके पतन से समाज पतित होता है। साहित्य वह आलोक है जो देश को अन्धकार रहित, जाति-मुख को उज्ज्वल और समाज के प्रभाहीन नेत्रों को सप्रभ रखता है। वह सबल जाति का बल, सजीव जाति का जीवन, उत्साहित जाति का उत्साह, पराक्रमी जाति का पराक्रम, अध्यवसायशील जाति का अध्यवसाय, साहसी जाति का साहस और कर्तव्य परायण जाति का कर्तव्य है। [ १०७ ]

एनसाई क्लो पीडिया ब्रिटैनिका में साहित्य की परिभाषा इस प्रकार की गई है:—

"Literature, a general term which in default of precise definition, may stand for the best expression of the best thought reduced to writting. Its various forms are the result of race peculiarities, or of diverse individual temperament or of political circumstances securing the pre-dominance of one social class which is thus enabled to propagate its ideas and sentiments"

Encyclopaedia Britannica.

"साहित्य एक व्यापक शब्द है जो यथार्थ परिभाषा के अभाव में सर्वोत्तम विचार की उत्तमोत्तम लिपिबद्ध अभिव्यक्ति के स्थान में व्यवहृत हो सकता है। इसके विचित्र रूप जातीय विशेषताओं के, अथवा विभिन्न ब्यक्तिगत प्रकृति के अथवा ऐसी राजनैतिक परिस्थितियों के परिणाम हैं जिनसे एक सामाजिक वर्ग का आधिपत्य सुनिश्चित होता है और वह अपने विचारों और भावों का प्रचार करने में समर्थ होता है।"

एन साईक्लो पीडिया ब्रिटैनिका

As behind every book that is written lies the personality of the man who wrote it, and as behind every national literature lies the character of the race which produced it, so behind the literature of any period lie the combined forces—personal & impersonal—which made the life of that period, as a whole, what it was. Literature is only one of the many channels in which the energy of an age discharges itself; in its political movements, religious thought, philosophical speculation, art, we have the same energy overflowing into other forms of expression."

The study of literature, William Henery Hudson.

जैसे प्रत्येक ग्रन्थ की ओट में उसके रचयिता का और प्रत्येक राष्ट्रीय साहित्य की ओट में उसको उत्पन्न करनेवाली जाति का ब्यक्तित्व छिपा रहता है वैसे ही काल विशेष के साहित्य की ओट में उस काल के जीवन को रूप विशेष प्रदान करने वाली व्यक्तिमूलक और अव्यक्तिमूलक अनेक संयुक्त शक्तियां काम करती रहती हैं। साहित्य उन अनेक साधनों में से एक है जिसमें काल विशेष की स्फूर्ति अपनी अभिव्यक्ति पाकर उन्मुक्त होती है; यही स्फूर्ति परिप्लावित होकर राजनैतिक आन्दोलनों, धार्म्मिक विचार, दार्शनिक तर्क विर्तक और कला में प्रकट होती है।

स्टडी आव् लिटरेचर, विलियम हेनरी हडसन

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वह धर्मभाव जो सब भावनाओं का विभव है, वह ज्ञान गरिमा जो गौरव-कामुक को सगौरव करती है, वह विचार परम्परा जो विचार शीलता की शिला है, वह धारणा जो धरणी में सजीव जीवन-धारण का आधार है। वह प्रतिभा जो अलौकिकता से प्रतिभासित हो पतितों को उठाती है, लोचन हीन को लोचन देती है और निरावलम्ब का अवलम्बन होती है। वह कविता जो सूक्ति-समूह की प्रसविता हो, संसार की सारवत्ता बतलाती हैं। वह कल्पना जो कामद-कल्प लतिका बन सुधा फल फलाती है, वह रचना जो रुचिर रुचि सहचरी है, वह ध्वनि जो स्वर्गीय-ध्वनि से देशको ध्वनित बनाती है साहित्य का सम्बल और विभूति है। वह सजीवता जो निर्जीवता संजीवनी है, वह साधना जो समस्त सिद्धि का साधन है, वह चातुरी जो चतुर्वर्ग जननी है, एवं वह चारू चरितावली, जो जाति चेतना और चेतावनी की परिचायिका है, जिस साहित्य की सहचरी होती है वास्तव में वह साहित्य ही साहित्य कहलाने का अधिकारी है। मेरा विचार है कि साहित्य ही वह कसौटी है जिस पर किसी जाति की सभ्यता कसी जा सकती है। असभ्य जातियों में प्रायः साहित्य का अभाव होता है इसलिये उनके पास वह संचित सम्पत्ति नहीं होती जिसके आधार से वे अपने अतीत काल का यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर सकें। और उसके आधार से अपने वर्तमान और भावी सन्तानों में वह स्फूर्ति भर सकें, जिसको लाभ कर सभ्य जातियां समुन्नति-सोपान पर आरोहण करती हैं, इसीलिये उनका जीवन प्रायः ऐसी परिमित परिधि में बद्ध होता है जो उनको देश काल के अनुकूल नहीं बनने देता और न उनको उन परिस्थितियों का यथार्थ ज्ञान होने देता है जिनको अनुकूल बनाकर वे संसार क्षेत्र में अपने को गौरवित अथवा यथार्थ सुखित बना सकें। यह न्यूनता उनके प्रति दिन अधः पतन का कारण होती है और उनको उस अज्ञानान्धकार से बाहर नहीं निकलने देती जो उनके जीवन को प्रकाशमय अथवा समुज्ज्वल नहीं बनने देता। सभ्य जातियां सभ्य इसीलिये हैं और इसीलिये देश कालानुसार समुन्नत होती रहती हैं कि उनका आलोकमय वर्द्धमान साहित्य उनके प्रगति-प्राप्त-पथ को तिमिर रहित करता रहता है। ऐसी अवस्था में साहित्य की [ १०९ ]उपयोगिता और उपकारिता स्पष्ट है। आज दिन जितनी जातियां समुन्नत हैं उन पर दृष्टि डालने से यह ज्ञात होता है कि जो जातियां जितनी ही गौरव प्राप्त और महिमामयी हैं उनका साहित्य भी उतना ही प्रशस्त और महान है। क्या इससे साहित्य की महत्ता भली भांति प्रकट नहीं होती?

जो जातियाँ दिन दिन अवनति-गर्त्त में गिर रही हैं उनके देखने से यह ज्ञात होता है कि उनके पतन का हेतु उनका वह साहित्य है जो समयानुसार अपनी प्रगति को न तो बदल सका और न अपने को देश-कालानुसार बना सका। मानवी अधिकांश सँस्कारों को साहित्य ही बनाता है। वंशगत विचार-परम्परा ही मानव जाति के सँस्कारों की जननी होती है। जिस जाति के साहित्य में विलासिता की ही धारा चिरकाल से बहती आई हो उस जाति में यदि शूरता और कर्मशीलता का अभाव प्रायः देखा जाय तो क्या आश्चर्य? इसी प्रकार जिस जाति के साहित्य में विरागधारा प्रबलतर गतिसे प्रवाहित होती रहे। यदि वह संसार त्यागी बनने का मंत्र पाठ करे तो कोई विचित्रता नहीं, क्योंकि जिन बिचारों और सिद्धान्तों को हम प्रायः पुस्तकों में पढ़ते रहते हैं, विद्वानों के मुखसे सुनते हैं अथवा सभा-समाजों में घर और बाहर जिनका अधिकतर प्रचार पाते हैं उनसे प्रभावित हुये बिना कैसे रह सकते हैं? क्योंकि सिद्धान्त और विचार ही मानव की मानसिक भावों का संगठन करते हैं।

इन कतिपय पंक्तियों में जो कुछ कहा गया उससे यह सिद्ध होता है कि साहित्य का देश और समाज पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है। यदि वे साहित्य के आधार से विकसित होते बनते और बिगड़ते हैं तो साहित्य भी उनकी सामयिक अवस्थाओं पर अवलम्बित होता है। जहां इनदोनों का सामञ्जस्य यथारीति सुरक्षित रहता है और उचित और आवश्यक पथ का त्याग नहीं करता वहाँ एक दूसरे के आधार से पुष्पित, पल्लवित और उन्नत होता है, अन्यथा पतन उसका निश्चित परिणाम है। मेरा विचार है कि इन बातों पर दृष्टि रखने से साहित्य-विकास का प्रसंग अधिकतर बोध गम्य होगा।

  1. देखिये 'साहित्य' नामक बँगला ग्रन्थ का पृ॰ ५०