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हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास/२/३ हिन्दी साहित्य का माध्यमिककाल

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हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास
अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

पटना विश्वविद्यालय, पृष्ठ १३४ से – १४४ तक

 

तीसरा प्रकरण।
हिन्दी साहित्य का माध्यमिक काल।

हिन्दी साहित्य का माध्यमिककाल, मेरे विचार से चौदहवीं ईस्वी शताब्दी से प्रारम्भ होता है। इस समय विजयी मुसल्मानों का अधिकार उत्तर भारत के अधिकांश विभागों में हो गया था और दिन दिन उनकी शक्ति वर्द्धित हो रही थी। दक्षिण प्रान्त में उन्होंने अपने पांव बढ़ाये थे और वहां भी विजय-श्री उनका साथ दे रही थी। इस समय मुसल्मान विजेता अपने प्रभाव विस्तार के साथ भारतवर्ष की भाषाओं से भी स्नेह करने लगे थे। और उन युक्तियों को ग्रहण कर रहे थे जिनसे उनके राज्य में स्थायिता हो और वे हिन्दुओं के हृदय पर भी अधिकार कर सकें। इस सूत्र से अनेक मुस्लिम विद्वानों ने हिन्दी भाषा का अध्ययन किया, क्योंकि वह देश-भाषा थी। मुसल्मानों में राज्य प्रचार के साथ अपने धर्म-प्रचार की भी उत्कट इच्छा थी। जहां वे राज्य रक्षण अपना कर्तव्य समझते वहीं अपने धर्म्म के विस्तार का आयोजन भी बड़े आग्रह के साथ करते। उस समय का इतिहास पढ़ने से यह ज्ञात होता है कि जहां विजयी मुसल्मानों की तलवार एक प्रान्त के बाद भारत के दूसरे प्रान्तों पर अधिकार कर रही थी वहीं उनके धर्म-प्रचारक अथवा मुल्ला लोग अपने धर्म की महत्ता बतला कर हिन्दू जनता को भी अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे। यह स्वाभाविकता है कि विजित जाति विजयी जाति के आचार-विचार और रहन-सहन की ओर खिँच जाती है। क्योंकि अनेक कार्य सूत्र से उनका प्रभाव उनके ऊपर पड़ता रहता है। इस समय बौद्ध धर्म प्रायः भारतवर्ष से लोप हो गया था। बहुतों ने या तो मुसल्मान धर्म स्वीकार कर लिया था या फिर अपने प्राचीन वैदिक धर्म की शरण ले ली थी। कुछ भारतवर्ष को छोड़ कर उन देशों को चले गये थे जहां पर बौद्ध धर्म उस समय भी सुरक्षित और ऊर्ज्जित अवस्था में था। इस समय भारत में दो ही धर्म मुख्यतया विद्यमान थे, उनमें एक विजित हिन्दू जाति का धर्म था और दूसरा विजयी मुमल्मान जाति का। राज धर्म होने के कारण मुसल्मान धर्म को उन्नति के अनेक साधन प्राप्त थे, अतएव वह प्रति दिन उन्नत हो रहा था और राजाश्रय के अभाव एवं समुन्नति-पथ में प्रतिबन्ध उपस्थित होने के कारण हिन्दू धर्म दिन दिन क्षीण हो रहा था। इसके अतिरिक्त विविध-राज कृपावलंबित प्रलोभन अपना कार्य अलग कर रहे थे। इस समय सूफ़ी सम्प्रदाय के अनेक मुसलमान फ़क़ीरों ने अपना वह राग अलापना प्रारम्भ किया था, जिस पर कुछ हिन्दू बहुत विमुग्ध हुए और अपने वंश गत धर्म को तिलांजलि देकर उस मंत्र का पाठ किया, जिससे उनको अपने अस्तित्व-लोप का सर्वथा ज्ञान नहीं रहा। ऐसी अवस्था में जहां हिन्दुओं की क्षीण-शक्ति प्रान्तिक राजा महाराजाओं के रूप में अपने दिन दिन ध्वंस होते छोटे मोटे राजाओं की रक्षा कर रही थी, वहां पुण्यमयी भारत-वसुन्धरा में ऐसे धर्मप्राण आचार्य भी आविर्भूत हुए, जिन्होंने पतन प्राय वैदिकधर्म की बहुत कुछ रक्षा की। डाकर ईश्वरी प्रसादने बंगाल प्रान्त में सूफियों के धर्म-प्रचार के विषय में अपने (मेडिवल इंडिया) नामक ग्रन्थ में जो कुछ लिखा है उसमें इस समय का सच्चा चित्र अंकित है। अभिज्ञता के लिए उसका कुछ अंश मैं यहां उद्धृत करता हूं।[]

"चौदहवीं शताब्दी बंगाल में मुसल्मान फ़कीरों की क्रियाशीलता के लिये प्रसिद्ध थी। पैण्डुआ में अनेक प्रसिद्ध और पवित्र सन्तों का निवास था इसी कारण इस स्थान का नाम हज़ारत पड़ गया था।

अन्य प्रसिद्ध सन्त थे अलाउल हक़ और उनके पुत्र मूर कुतुबुलआलम। अलाउलहक़ शेख निज़ामुद्दीन औलिया का शिष्य था। बंगाल का हुसेन शाह (१४९३-१५१९ ई॰) सत्यपीर नामक एक नये पंथ का प्रवर्तक था जिसका उद्देश्य था हिन्दुओं और मुसलमानों को एक कर देना। सत्यपीर एक समस्त शब्द है, जिसमें सत्य संस्कृत का और पीर अरबी भाषा का शब्द है।"

यह एक प्रान्त की अवस्था का निदर्शन है। अन्य विजित प्रान्तों की भी ऐसी ही दशा थी। उस समय सूफी सिद्धान्त के मानने वाले महात्माओं के द्वारा उनके उद्देशों का प्रचुर प्रचार हो रहा था, और वे लोग दृढ़ता के साथ अपनी संस्थाओं का संचालन कर रहे थे। यह धार्मिक अवस्था की बात हुई, राजनीतिक अवस्था भी उस समय ऐसी ही थी साम दाम दण्ड विभेद से पुष्ट हो कर वह भी कार्य-क्षेत्र में अपने प्रभाव का विस्तार अनेक सूत्रों से कर रही थी। मैं पहले लिख आया हूं कि जैसा वातावरण होता है साहित्य भी उसी रूप में विकसित होता है। माध्यमिक काल के साहित्य में भी यह बात पाई जाती है। चौदहवीं ईस्वी शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी तक मुसल्मान साम्राज्य दिन दिन शक्तिशाली होता गया। इसके बाद उसका अचानक ऐसा पतन हुआ कि कुछ वर्षों में ही इति श्री हो गई। यह एक संयोग की बात है कि हिन्दी-संसार के वे कवि और महाकवि, जिनसे हिन्दी-भाषा का मुखउज्जवल हुआ इसी काल में हुए। इस माध्यमिक काल में जैसा सुधा-वर्षण हुआ, जैसी रस धारा बही, जैसे ज्ञानालोक से हिन्दी-संसार आलोकित हुआ जैसा भक्ति-प्रवाह हिन्दी काव्य-क्षेत्र में प्रवाहित हुआ, जैसे समाज के उच्च कोटि के आदर्श उसको प्राप्त हुए उसका वर्णन बड़ाही हृदय-ग्राही और मम-स्पर्शी होगा। मैं ने इस कार्यसिद्धि के लिये ही इस समय को धार्मिक, राजनैतिक और सामाजिक अवस्थाओं का चित्र यहां पर चित्रित किया है। अब प्रकृत विषय को लीजिये।

चौदहवें शतक में भी कुछ जैन विद्वानोंने हिन्दी भाषा में कविता की है। इनके अतिरिक्त नल्ल सिंह भाट सिरोहिया ने विजयपाल रासो शार्ङ्ग-धर नामक कवि ने शार्ङ्गधर-पद्वति, हम्मीर काव्य और हम्मीर रासो नामक तीन ग्रंथ बनाये जिनमें से हम्मीर रासो अधिक प्रसिद्ध है। बारहवीं और तेरहवीं शताब्दी में जैसे शब्दों से युक्त भाषा लिखी गयी है उससे इन लोगों की रचनाओं में हिन्दी का स्वरूप विशेष परिमार्जित मिलता है। प्रमाणस्वरूप कुछ पद्य नीचे उद्धृत किये जाते हैं।

कवि शार्ङ्गधर (रचना काल १३०६ ई॰)

१—ढोलामारियढिल्लिमहँ मुच्छिउ मेच्छ सरीर।
पुर जज्जल्ला मंत्रिवर चलिय वीर हम्मीर।
चलिअ बीर हम्मीर पाअभर मेंइणि कंपइ।
दिग पग डह अंधार धूलि सुरिरह अच्छा इहि।

ग्रंथ-संघपति समग रासो, कवि अम्बदेव जैन, (रचना काल १३१४ ई॰)

२—निसि दीवी झलहलहिं जेम उगियो तारायण।
पावल पारुन पामिय बहई वेगि सुखासण।

आगे बाणिहि संचरए सँघपति सहु देसल।
बुद्धिवंत बहु पुण्यवंत पर कमिहिं सुनिश्चल।

ग्रन्थ, थूलि भद्र फागु, कवि जिन पद्मसूरि (रचना काल १३२० ई॰)

३––अह सोहग सुन्दर रूपवंत गुण मणिभण्डारो।
कंचण जिमि झलकत कंति संजम सिरिहारो।
थूलिभद्र मणिराव जाम महि अली बुहन्तउ।
नयर राम पाउलिय मांहि पहुँतउ बिहरतउ।

ग्रन्थ विजयपाल रासो (रचना काल १३२५ ई॰) नल्लसिंह भाट सिरोहिया।

४––दश शत वर्ष निराण मास फागुन गुरु ग्यारसि।
पाय-सिद्ध बरदान तेग जद्दव कर धारसि।
जीतिसर्व तुरकान बलख खुरसान सुगजनी।
रूम स्याम अस्फहाँ फ्रंग हवमान सु भजनी।
ईराण तोरि तृराण असि खौसिर बंगखँधारसब।
बलवंड पिंड हिंदुवान हद चढिव बोर विजपालसब।

जिस क्रम में कविताओं का उद्धरण किया गया है उसके देखने से ज्ञात हो जायगा कि उत्तरोत्तर एक से दूसरो कविता की भाषा का अधिकतर परिमार्जित रूप है। शार्ङ्गधर का रचना में अधिक मात्रा में अपभ्रंश शब्द हैं। ऐसे शब्द चिन्हित कर दिये गये हैं। उसके बाद की नम्बर २ और ३ की रचनाओं में इने गिने शब्द अपभ्रंश के हैं, उनमें हिन्दी शब्द-हो अधिकतर दिखलाई देते हैं। जिससे पता चलता है कि इन शताब्दी की आदि की रचनाओं पर तो अपभ्रंश शब्दों का अवश्य अधिक प्रभाव है। परन्तु बाद की रचनाओं में उसका प्रभाव उत्तरोत्तर कम होता गया है। यहां तक कि अमीर खुसरो की रचनाएं उससे सर्वथा मुक्त दिखलाई पड़ती हैं।

अमीर खुसरो इस शताब्दीका सर्वप्रधान कवि है। यह अनेक भाषाओं का पंडित था। इसके रचे फ़ारसी भाषा के अनेक ग्रंथ हैं। इसकी हिन्दी रचनाएं बहुमूल्य हैं। वे इतनी प्राञ्जल और सुन्दर हैं कि उनको देख कर यह आश्चर्य होता है कि पहले पहल एक मुसलमान ने किस प्रकार ऐसी परिष्कृत और सुन्दर हिन्दी भाषा लिखी। मैं पहले लिख आया हूं कि माध्यमिक काल में मुसल्मान अनेक उद्देश्यों से हिन्दी भाषा की ओर आकर्षित हो गये थे। ऐसे मुसलमानों का अप्र-गण्य मैं अमीर खुसरो को मानता हूं। इसके पद्यों में जिस प्रकार सुन्दर ब्रजभाषा की रचना का नमूना मिलता है उसी प्रकार खड़ी बोली की रचना का भी। इस सहृदय कवि की कविताओं को देख कर यह अवगत होता है कि चौदहवीं शताब्दी में भी ब्रजभाषा और खड़ी बोली दोनों की कविताओं का समुचित विकास हो चुका था। परन्तु उसके नमूने अन्य कहीं खोजने पर भी नहीं प्राप्त होते। इसलिये इन भाषाओं की परिमार्जित रचनाओं का आदर्श उपस्थित करने का गौरव इस प्रतिभाशाली कवि को ही प्राप्त है। मैं उनकी दोनों प्रकार की रचनाओं के कुछ उदाहरण नीचे लिखता हूं। उनको पढ़ कर यह बात निश्चित हो सकेगी कि मेरा कथन कहां तक युक्ति-संगत है।

१—एक थाल मोतोसे भरा, सबकेसिर पर औंधा धरा।
चारों ओर वह थाली फिरे, मोतो उससे एक नगिरे।
२—आवे तो अँधेरी लावे, जावे तो सबमुख ले जावे।
क्या जाने वह कैसा है, जैसा देखा वैसा है।
३—बात की बात ठठोली की टटोली।
मरद की गांठ औरत ने खोली।
४—एक कहानी मैं कहूं तू सुन ले मेरे पूत।
बिना परों वह उड़ गया, बाँध गले में मृत।
५—सोभा सदा बढ़ावन हारा, आँखिन तेछिन होत न् न्यारा।
आये फिर मेरे मन रंजन ऐसखि साजन ना सखि अंजन

६—स्यामबरनपीताम्बर काँधे मुरली धर नहिं होइ।
बिन मुरली वह नाद करत है, बिरला बूझै कोइ।
७—उज्जल बरन अधीनतन, एक चित्त दो ध्यान।
देखत में तो साधु है, निपट पाप को खान।
८—एक नार तरवर से उतरी मा सो जनम न पायो।
बाप को नांव जो वासे पूछ यो आधो नाँव बतायो।
आधो नावँ बतायो खुसरो कौन देस की बोली।
वाको नाँव जो पूछयो मैंने अपने नांव न बोली।
९—एक गुनी ने यह गुन कीना हरियल पिँजरे में दे दीना।
देखो जादूगर का हाल डाले हरा निकाले लाल।

इन पद्यों में नम्बर ५ में ४ तक के पद्य ऐसे हैं जो शुद्ध खड़ी बोली में लिखे गये हैं, नम्बर ५ और ६ शद्ध ब्रजभाषा के हैं और नम्बर ७ में ९ तक के ऐसे हैं कि जिनमें खड़ी बोलचाल और ब्रजभाषा दोनों का मिश्रण है। मैं समझता हूँ कि इस अन्तर का कारण उस भेद की अनभिज्ञता है जो खड़ी बोली को ब्रजभाषा से अलग करती है। इसके प्रमाण वे पद्य भी हैं जिनमें दोनों भाषाओं का मिश्रण है। उस समय खड़ी बोली या ब्रजभाषा का कोई विवाद नहीं था और न ऐसे नियम प्रचलित थे जो एक को दूसरे से अलग करते। वे हिन्दी भाषा के सब प्रकार के प्रयोगों को एक ही समझते थे। इसलिये इतना सूक्ष्म विचार न कर सके। यह संयोग से ही हो गया है कि कुछ पद्य शुद्ध खड़ी बोली के और कुछ ब्रजभाषा के बन गये हैं। उनकी दृष्टि इधर नहीं थी। इस समय जब खड़ी बोल चाल और ब्रजभाषा की धाराएं अलग अलग बह रही हैं, उनकी रचनाओं की इस त्रुटि पर चाहे विशेष दृष्टि दी जावे, परन्तु उस समय उन्होंने हिन्दी भाषा सम्बन्धी जैसी मर्मज्ञता, योग्यता और निपुणता दिखलाई है वह उल्लेखनीय है। उनके पहले के कवियों की रचनाओं से उनकी रचनाओं में अधिकतर प्राञ्जलता है, जो हिन्दी के भाण्डार पर उनका प्रशंसनीय अधिकार प्रकट करती है। उनकी रचनाओं में फ़ारसी और अरबी इत्यादि के शब्द भी आये हैं, परन्तु वे इस सुन्दरता से खपाये गए हैं कि जिसकी बहुत कुछ प्रशंसा की जा सकती है। चन्दबरदाई के समय से ही हिन्दी भाषा में अरबी, फ़ारसी और तुर्की के शब्द गृहीत होने लगे थे और यह सामयिक प्रभाव का फल था। परन्तु जिस सावधानी और सफ़ाई के साथ उन भाषाओं के शब्दों का प्रयोग इन्होंने किया है वह अनुकरणीय है। उन भाषाओं के अधिकतर शब्द अन्य कवियों द्वारा तोड़ मरोड़ कर या विगाड़ कर लिखे गये हैं, किन्तु यह कवि प्रायः इन दोषों से मुक्त था। एक विशेषता इनमें यह भी देखी जाती है कि अरबी के बह्रों में इन्होंने हिन्दी पद्यों की रचना सफलता पूर्वक की है, साथ ही फ़ारसी के वाक्यों के साथ हिन्दी वाक्यों को अपने एक पद्य में इस उत्तमता से मिलाया है, जो मुग्ध कर देता है। मैं उस पद्य को यहां लिखता हूं। आपलोग भी उसका रस लें—

"ज़ेहाले मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल दुराय नैना बनाय बतियाँ।
किताबे हिज्रां न दारमऐजां नलेहु काहें लगाय छतियाँ।
शबाने हिज्रां दराज़ चूँ ज़ुल्फ व रोज़े वसलत चूँ उम्र कोतह।
सखी पिया को जो मैं न देखूँ तो कैसे काटूं अँधेरी रतियाँ।
एकाएक अज़दिल दो चश्मे जादू बसद फ़रेबम् बेबुर्द तस्कीं।
किसे पड़ी है जो जा सुनावे पियारे पीको हमारी बतियाँ।
चूं शमा सोज़ा चूं ज़र्रा हैरां हमेशा गिरियाँ बइशक़ आँमह।
न नींद नैना न अङ्ग चैना न आप आवें न भेजैं पतियाँ।
बहक्क़ रोज़े विसाल दिलबर कि दाद मारा फ़रेबखु सरो।
सपीत मन को दुराय राखूँ जो जान पाऊँ पियाकी घतियाँ

इस पद्य का अरबी बह्र है फ़ऊल फ़ेलुन फ़ऊल फेलुन फ़ऊल फ़ेलुन फ़ऊल फ़ेलुन। पहले दो चरणों में हिन्दी शब्दों का प्रयोग निर्दोष हुआ है यद्यपि वे शुद्ध ब्रज भाषा में लिखे गए हैं। केवल 'नैना' का 'ना' दीर्घ कर दिया गया है। किन्तु यह अपभ्रंश और ब्रज भाषा के नियमानुकूल है। शेष पद्यों की भाषा खड़ी हिन्दी की बोलचाल में है। केवल 'रतियां', 'बतियां', 'पतियां' 'घतियां का प्रयोग ही ऐसा है जो ब्रजभाषा का कहा जा सकता है। उनके इस प्रकार के मिश्रण के सम्बन्ध में मैं अपनी सम्मति प्रकट कर चुका हूं। हाँ, मात्रिक छन्दों के नियमों की दृष्टि से ये खड़ी बोली के पद्य निर्दोष नहीं हैं। अनेक स्थानों पर लघु के स्थान पर गुरु लिखा गया है यद्यपि कि वहां लघु लिखना चाहिये था। जैसे सखी पिया को जो मैं न देखूं तो कैसे काटूं अँधेरी रतियां' इस पद्यमें 'जो' के स्थान पर 'जु' तो के स्थान पर 'त', कैसे के स्थान पर 'कैस' और अँधेरी के स्थान पर 'अँधेरे', पढ़नेसेही छन्द की गति निर्दोष रहेगी। ऐसेही हिन्दी भाषाके शेष पद्यों की पंक्तियां सदोष हैं, परन्तु जब हम वर्त्तमानकाल के उन्नति-प्राप्त उर्दू पद्यों को देखते हैं तो उनके इस प्रकार के पद्य-गत हिन्दी भाषा के शब्द-विन्यास को दोषावह नहीं समझते, क्योंकि अरबी वहोंमें हिन्दी शब्दों का व्यवहार प्रायः विवश होकर इसी रूप में करना पड़ता है। वरना कहना यह पड़ता है कि उर्दू कविता के प्रारम्भ होनेसे २०० वर्ष पहलही इस प्रणालीका आविर्भाव कर उन्होंने उर्दू संसार के कवियों को उस मार्गका प्रदार्शन किया जिसपर चलकर हा आज उर्दू पद्य-लाहित्य इतना समुन्नत है। इस दृष्टि से उनकी गृहीत प्रणाली एक प्रकार से अनिन्दनीय ही ज्ञात होती है, निन्दनीय नहीं। खुसरो ने हिन्दुस्तानी भावों का चित्रण करते हुए कुछ ऐसे गीत भी लिखे हैं जो बहुत ही स्वाभाविक हैं। उनमें से एकदेखिये:—

॥सावन का गीत॥

अम्मा मेरे बाबा को भेजो जो कि सावन आया।
बेटी तेरा बाबा तो वुड्ढा री कि सावन आया।
अम्मा मेरे भाई को भेजो जो कि सावन आया।
बेटी तेरा भाई तो बालारी कि सावन आया।

अम्मा मेरे मामूँ को भेजो जी कि सावन आया।
बेटो तेरा मामूँ तो बाँकारी कि सावन आया।

दो दोहे भी देखिये, कितने सुन्दर हैं।

१—खुसरो रैनि सुहाग की, जागी पी के संग।
तन मेरो मन पीउ को, दोऊ भये इक रंग।
२—गोरी सोवै सेज पर, मुख पर डारे केस।
चल ख़ुसरो घर आपने, रैनि भई चहुँदेस

इच्छा न होने पर भी खुसरो की कविता के विषय में इतना अधिक लिख गया। बात यह है कि खुसरो की विशेषताओं ने ऐसा करने के लिये बिवश किया। यदि उन्होंने सब से पहले बोलचाल की साफ़ सुथरी चलती हिन्दी का आदर्श उपस्थित किया तो शब्द भी तुले हुए रक्खे। न तो उन को तोड़ा-मरोड़ा, न बदला और न उनके वर्गों को द्वित्त बना कर उन्हें संयुक्त शब्दों का रूप दिया। अपनी रचना में भाव भी वे ही भर जो देश भाषा के अनुकूल थे। प्राकृत शब्दों का प्रयोग भी उनकी रचनाओं में पाया जाता है। परन्तु वे ऐसे हैं जो सर्वथा हिन्दी के रंग में ढले हुए हैं, जैसे पीत उज्जल और रैन इत्यादि। प्राकृत में शकार के स्थान पर स हो जाता है इन्होंने भी अपनी रचना में इस नियम का पालन किया है, जैसे 'सोभा', 'स्याम', 'केस', 'देस' इत्यादि। संस्कृत के तत्सम शब्द भी इनकी रचना में हैं परन्तु चुने हुए। हिन्दी आरम्भिक काल से ही इस प्रणाली को ग्रहण करती आई है। यह बात इनके इस प्रकार के प्रयोगों से भी प्रकट होती है। यह उनके कवि हृदय की विशेषता है कि जो तत्सम शब्द संस्कृत के इन के पद्य में आये हैं वे कोमल और हिन्दी के तद्भव शब्दों के जोड़ के हैं। उसे मुख, मुरलीधर, रंजन, अधीन, नाद ध्यान साधु पाप इत्यादि। ये सब ऐसी ही विशेषताएँ हैं जो माध्यमिक काल के रचयिताओं में खुसरो को एक विशेष स्थान प्रदान करती हैं। खुसरो का निवास दिल्ली में था। मेरा विचार है कि उसके अथवा मेरठ के आस पास जो बोली उस समय बोली जाती थी उसी पर दृष्टि रखकर उन्होंने अपनी रचनायें कीं। इसीलिये वे अधिकतर बोलचाल की भाषा के अनुकूल हैं और इसी से उनमें विशेष सफ़ाई आ गई है। उनकी कविता में ब्रजभाषा के कुछ शब्दों और क्रियाओं का प्रयोग भी पाया जाता है। जैसे बढ़ावनहारा, वासे, बनायो, वाको, पूछयो, दुराय, बनाय, बतियां इत्यादि। मैं समझता हूं कि इन शब्दों का व्यवहार आकस्मिक है और इस कारण हो गया है कि उस समय ब्रज-भाषा फैल चली थी और उसकी मधुरता कवि हृदय को अपनी ओर खींचने लगी थी॥

  1. The Fourteenth century was remarkable for the activity of the Muslim Faquirs in Bangal,.........There were several saints of reputed sanctity in Pandua. which owing to their presence, came to be called Hazarat.........other noted saints were Alaul Haq and his son Nur Qutbul Alam, Alaul Haq was also disciple of Saikh Nizamuddin Auliya, Husain Shah of Bengal (1493-1519 A. D.) was the founder of a new cult called Satyapir, which aimed at uniting the Hindus and the Muslim Satyapir was compounded of Satya, a Sanskrit word and Pir which is an Arabic word.