हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास/२/३ हिन्दी साहित्य का माध्यमिककाल/गोरखनाथ

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हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास
द्वारा अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

[ १४४ ]

अमीर खुसरो का समकालीन एक और मुल्लादाऊद नामक ब्रजभाषा का कवि हुआ। कहा जाता है कि उसने नूरक एवं चन्दा की प्रेम-कथा नामक दो हिन्दी पद्य-ग्रन्थों की रचना की, किन्तु ये दोनों ग्रन्थ अप्राप्त से हैं। इस लिए इसकी रचना को भाषा के विषय में कुछ लिखना असम्भव है। इसके उपरान्त महात्मा गोरखनाथ का हिन्दी साहित्य-क्षेत्र में दर्शन होता है। हाल में कुछ लोगों ने इसको ग्यारहवीँ ई॰ शताब्दी का कवि लिखा है, किन्तु अधिकांश सहमति यही है कि ये चौदहवीं शताब्दी में थे। ये धर्म्माचार्य्य ही नहीं थे, बहुत बड़े साहित्यिक पुरुष भी थे। इन्होंने सँस्कृत भाषा में नौ ग्रंथों की रचना की है, जिनमें से 'विवेक-मार्तण्ड', 'योग-चिन्तामणि' आदि प्रकाण्ड ग्रन्थ हैं। इनका आविर्भाव नेपाल अथवा उसकी तराई में हुआ। उन दिनों इन स्थानों में विकृत बौद्ध धर्म का प्रचार था, जो उस समय नाना कुत्सित विचारों का आधार बन गया था। इन बातों को देख कर उन्होंने उसका निराकरण करके आर्य्यधर्म्म के उत्थान में बहुत बड़ा कार्य किया। उन्होंने अपने सिद्धान्त के अनुसार शैव धर्म का प्रचार किया, किन्तु परिमार्जित रूप में। उस समय इनका धर्म इतना आद्रित हुआ कि उनकी पूजा देवतों के समान होने लगी। इनका मंदिर गोरखपुर में अब तक मौजूद है गोरख पंथ के प्रवर्तक आप ही हैं। इनके अनुयायी अब तक उत्तर भारत में जहां तहां पाये जाते हैं। इनकी रचनाओं एवं शब्दों का मर्म समझने के लिये यह आवश्यक है कि उस काल के बौद्ध धर्म की अवस्था आप लोगों के सामने [ १४५ ]उपस्थित की जावे। इस विषय में 'गंगा' नामक मासिक पत्रिका के प्रवाह १, तरंग ९ में राहुल सांस्कृत्यायन नामक एक वौद्ध विद्वान् ने जो लेख लिखा है उसी का एक अंश मैं यहां प्रस्तुत विषय पर प्रकाश डालने के लिये उधृत करता हूं:—

"भारत से वौद्धधर्म का लोप तेरहवीं, चौदहवीं शताब्दी में हुआ। उस समय की स्थिति जानने के लिये कुछ प्राचीन इतिहास जानना आवश्यक है।"

'आठवीं शताब्दी में एक प्रकार से भारत के सभी वौद्ध सम्प्रदाय वज्रयान-गर्भित महायान के अनुयायी हो गये थे। बुद्ध की सीधी-साधी शिक्षाओं से उनका विश्वास उठ चुका था और वे मनगढ़ंत हज़ारों लोकोत्तर कथाओं पर मरने लगे थे। बाहर से भिक्षु के कपड़े पहनने पर भी वे भैरवी चक्र के मज़े उड़ा रहे थे। बड़े बड़े विद्वान् और प्रतिभाशाली कवि आधे पागल हो, चौग़सी सिद्धों में दाखिल हो, सन्ध्या-भाषा में निर्गुण गा रहे थे। सातवीं शताब्दी में उड़ीसा के राजा इन्द्रभूति और उसके गुरु सिद्ध अनंग-वत्र स्त्रियों को ही मुक्तिदात्री प्रज्ञा, पुरुषोंकोही मुक्तिका उपाय, और शराब को ही अमृत सिद्ध करने में अपनी पंडिताई और सिद्धाई खर्च कर रहे थे। आठवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक का बौद्ध धर्म बस्तुतः वज्रयान या भैरवी चक्र का धर्म था। महायान ने ही धारणीयों और पूजाओं से निर्वाण को श सुगम कर दिया था। वज्रयान ने तो उसे एक दम सहज कर दिया। इसी लिये आगे चल कर वज्रयान सहजयान भी कहा जाने लगा।"

"वज्रयान के विद्वान्, प्रतिभाशाली कवि, चौरासी सिद्ध, विलक्षण प्रकार से रहा करते थे। कोई पनही बनाया करता था, इसलिये उसे पनहिया कहते थे कोई कम्बल ओढ़े रहता था, इसलिये उसे कमरिया कहते थे, कोई डमरू रखने से डमरुआ कहलाता था, कोई ओखली रखने से ओखरिया आदि। ये लोग शराब में मस्त, खोपड़ी का प्याला लिये श्मशान या विकट जंगलों में रहा करते थे। जन साधारण को जितना ही [ १४६ ]ये फटकारते थे उतना ही वे इनके पीछे दौड़ते थे। लोग वोधिसत्व प्रतिमाओं तथा दूसरे देवताओं की भांति इन सिद्धों को अद्भुत चमत्कारों और दिव्य शक्तियों के धनी समझते थे। ये लोग खुल्लम-खुल्ला स्त्रियों और शराब का उपभोग करते थे। राजा अपनी कन्याओं तक को इन्हें प्रदान करते थे। ये लोग त्राटक या hypnotism की कुछ प्रक्रियाओं से वाक़िफ़ थे। इसी बल पर अपने भोले भाले अनुयाइयों को कभी कभी कोई कोई चमत्कार दिखा देते थे। कभी हाथ की सफ़ाई तथा श्लेषयुक्त अस्पष्ट वाक्यों से जनता पर अपनी धाक जमाते थे। इन पाँच शताब्दियों में धीरे धीरे एक तरह से सारी भारतीय जनता इनके चक्कर में पड़ कर कामव्यसनी, मद्यप और मूढ़ विश्वासी बनगयी थी।"

महात्मा गोरखनाथ ही ऐसे पहले ब्राह्मण हैं जिन्होंने संस्कृत का विद्वान् होने पर भी हिन्दी भाषा के गद्य और पद्य में धार्मिक ग्रन्थ निर्माण किये। जनता पर प्रभाव डालने के लिए उसकी बोलचाल की भाषा ही विशेष उपयोगिनी होती है। सिद्ध लोगों ने इसी सूत्र से बहुत सफलता लाभ की थी, इसलिये महात्मा गोरख नाथ जी को भी अपने सिद्धान्तों के प्रचार के लिए इस मार्गका अवलम्बन करना पड़ा। उनके कुछ पद्य देखिये :—

आओ भाई घरिघरि जाओ गोरखवाला भरिभरि लाओ।
झरै नपारा बाजै नाद, ससिहर सूर न वाद विवाद।१।
पवनगोटिका रहणि अकास, महियल अंतरि गगन कविलास।
पयाल नी डीबी सुन्न चढ़ाई, कथत गोरखनाथमछींद्र बताई।२।
चार पहर आलिंगन निद्रा संसार जाइ विषिया बाही।
उभयहाथों गोरखनाथ पुकारे तुम्हें भूल महारौ माह्याभाई।३।
वामा अंगे सोइया जम चा भोगिया सगे न पिवणा पाणी।
इमतो अजरावर होई मछिंद्र बोल्यो गोरख बाणी॥४॥

[ १४७ ]

छाँटै तजौगुरु छाँटै तजौ लोभ माया।
आत्मा परचै राखौ गुरु देव सुन्दर काया।५।
एतैं कछु कधीला गुरु सर्वें भैला भोले।
सर्बे कमाई खोई गुरु बाघ नी चै बोलै।६।
हबकि न बोलिया उबकि न चलिबा धीरे धरिया पाँवं।
गरब न करिबा सहजै रहिवा भणत गोरखरावं।७।
हँसिया खेलिया गाइबा गीत। दृढ़ करि राखे अपना चीत।
खाये भी मरिये अणखाये भी मरिये।
गोरख कहे पूता संजमही तरिये।८।
मद्धि निरंतर कोजै वास। निहचल मनुआ थिर व्है साँस।
आसण पवन उपद्रह करै। निसिदिन आरँभपचिपचि मरै।९।

इनकी भाषा अमीर खुसरो के समान न तो प्राञ्जल है, न हिन्दी की बोलचाल के रंग में ढली, फिर भी बहुत सुधरी हुई और हिन्दीपन लिये हुये है। उसके देखने से यह ज्ञात होता है कि किस प्रकार पन्द्रहवीं ईसवी शताब्दी के आरंभ में हिन्दी भाषा अपने वास्तविक रूप में प्रकट हो रही थी। गोरखनाथ जी की रचना में विभिन्न प्रान्तों के शब्द भी व्यवहृत हुए हैं, जैसे गुजराती, 'नी' मरहठी 'चा' और राजस्थानी 'बोलिवा' धरिबा, चलिवा इत्यादि। उस समय के महात्माओं की रचना में यह देखा जाता है कि अधिकतर देशाटन करने के कारण उनकी रचनाओं में कतिपय प्रान्तिक शब्द भी आ जाते हैं। यह बात अधिकतर उस काल के और वाद के सन्तों की बानियों में पाई जाती है। मेरा विचार है, गोरखनाथजी ही इसके आदिम प्रवर्त्तक हैं, जिसका अनुकरण उनके उपरान्त बहुत कुछ हुआ। इन दो एक बातों को छोड़कर इनकी रचनाओं में हिन्दी भाषा की सब विशेषताएं पाई जाती हैं। उनमें संस्कृत तत्सम शब्दों का अधिकतर प्रयोग है जो प्राकृत प्रणाली के अनुकूल नहीं। धार्मिक शिक्षा प्रसार के लिये अग्रसर होने पर अपनी रचनाओं में उनका संस्कृत तत्सम शब्दों का प्रयोग करना स्वाभा[ १४८ ]विक था। हिन्दी कविता में आगे चलकर हमको प्रेम-धारा, भक्ति-धारा एवं सगुण-निर्गुण विचार-धारा बड़े वेग से प्रवाहित होती दृष्टिगत होती है, किन्तु इन सबसे पहले उसमें ज्ञान और योग-धारा उसी सबलता से बही थी, जिसके आचार्य्य महात्मा गोरखनाथ जी हैं। इन्हीं के मार्ग को अवलम्वन कर बाद को अन्य धाराओं का हिन्दी भाषा में विकास हुआ। योग और ज्ञान का विषय भी ऐसा था जिसमें संस्कृत तत्सम शब्दों से अधिकतर काम लेने की आवश्यकता पड़ी। इसीलिये उनकी रचनाओं में सूर्य, 'वाद-विवाद', 'पवन', 'गोटिका', गगन', 'आलिंगन', 'निद्रा', 'संसार', 'आत्मा', 'गुरुदेव', 'सुन्दर', 'सर्वे' इत्यादि का प्रयोग देखा जाता है। फिर भी उनमें अपभ्रंश अथवा प्राकृत शब्द मिल ही जाते हैं जैसे 'अकास' , 'महियल', अजरावर' इत्यादि। हिन्दी तद्भव शब्दों की तो इनकी रचनाओं में भरमार है और यही बात इनकी रचनाओं में हिन्दीपन की विशेषता का मूल है। वे अपनी रचनाओं में ण' के स्थान पर 'न' का ही प्रयोग करते हैं और यह हिन्दी भाषा की विशेषता है। कभी कभी 'न' के स्थान पर णकार का प्रयोग भी करते हैं। यह अपभ्रंश भाषा का इनकी रचनाओं में अवशिष्ठांश है अथवा इनकी भाषा पर पंजाबी भाषा के प्रभाव का सूचक है, जैसे 'पित्रण', 'पाणी,' 'अणखाए', 'आसण' इत्यादि॥

वेदान्त धर्म के प्रवर्त्तक स्वामी शंकराचार्य थे। उनका वेदान्त वाद अथवा अद्वैतवाद व्यवहार क्षेत्र में आ कर शिवत्व धारण कर लेता है। इसी लिये उनका सम्प्रदाय शैव माना जाता है। भगवान शिव की मूर्ति जहाँ गम्भीर ज्ञानमयी है वहीं विविध विचित्रतामयी भी। इसीलिये उसमें यदि निर्गुणवादियों‌ के लिये विशेष विभूति विद्यमान है तो सगुणोपासक समूह के लिये भी बहुत कुछ देवी ऐश्वर्य्य मौजूद है। यही कारण है कि शैव सम्प्रदाय का वह परम अवलम्ब है। गोरखनाथ की सँस्कृत और भाषा की रचनाओं में वेदान्तवाद की विशेष विभूतियां जहां दृष्टिगत होती हैं, वहीं शिव के उपासना की ऐसी प्रणालियां भी उपलब्ध होती हैं जो सर्व साधारण को उनकी ओर आकर्षित करती हैं। इन्हीं विशेषताओं के कारण गोरखनाथ जी ने शैव धर्म का आश्रय ले कर उस समय हिन्दू धर्म के संरक्षण का [ १४९ ]भगीरथ प्रयत्न किया और बहुत कुछ सफलता भी लाभ की। नेपाल में आज भी शैव धर्म का बहुत बड़ा प्रभाव है। जिस समय सिद्ध लोग अपने आडम्बरों द्वारा सर्व-साधारण को उन्मार्ग गामी बना रहे थे, उस समय गोरखनाथ जी ने किस प्रकार सन्मार्ग का प्रचार सर्व साधारण में किया, उसका प्रमाण उनका धर्म और उनकी वे सुन्दर रचनाएँ हैं जिनमें लोक-हितकारी शिक्षायें भरी पड़ी हैं। गोरखनाथ जी की महत्ता इतनी प्रभाव शालिनी थी कि उसने पाप-पङ्क में निमग्न अपने गुरु मत्स्येन्द्र नाथ (मछंदर नाथ) का भी उद्धार किया। जो पद्य ऊपर उद्धृत किये गये हैं उनमें से तीसरे, चौथे, और पाँचवें तथा छठें पद्यों को देखिये। उनके देखने से आप लोगों को यह ज्ञात हो जायगा कि उन्होंने किस प्रकार अपने गुरु को सांसारिक व्यसनों से बचने की शिक्षा दी और कैसे उनको स्त्रियों के प्रपंच से विरत रहने का उपदेश दिया। उन्होंने आत्म परिचय और अजरामर होने का मार्ग उन्हें बड़े सुन्दर शब्दों में बतलाया और कभी कभी उनमें आत्मग्लानि उत्पन्न करने की चेष्टा भी की, जैसा छठें पद्य के देखने से प्रकट होता है। उनका यह उद्योग अपने गुरुदेव के विषय ही में नहीं देखा जाता सर्व- साधारण पर भी उनकी शिक्षाओं ने बड़ा प्रभाव डाला, और इस प्रकार उस समय के पतन-प्राय हिन्दू समाज का बहुत बड़ा उपकार किया। उनकी रचनाओं में योग-सम्बन्धी बहुत सी बातें पाई जाती हैं। उद्धृत पद्यों में से पहले दूसरे पद्य ऐसे ही हैं। उनके सातवें, आठवें, नवें पद्यों में ऐसी शिक्षायें हैं जिन्हें सब सन्मार्ग के पथिकों को ग्रहण करना चाहिये। हिन्दी-साहित्य में इस प्रकार को धार्मिक शिक्षाओं के आदि प्रचारक भी गोरखनाथजी ही हैं। इन सब बातों पर दृष्टि रख उनकी रचनाओं पर विचार करने से वे बहुमूल्य ज्ञात होती हैं। और उनसे इस बात का भी पता चलता है कि किस प्रकार आदि में हिन्दी अपने तद्भव रूप में प्रकट हुई॥

इसी चौदहवीं ईसवी शताब्दी में विनय-प्रभु जैन और छोटे छोटे कई दूसरे जैन कवि होगये हैं, जिनकी रचनायें लगभग वैसी ही हैं जैसी ऊपर लिखे गये जैन कवियों की हैं। उनमें कोई विशेषता ऐसी नहीं पाई जाती कि जिससे उनकी पृथक् चर्चा की आवश्यकता हो। इसलिये मैं उनलोगों [ १५० ]को छोड़ता हूं। इसके बाद पन्द्रहवीं शताब्दी प्रारम्भ होती है। चौदहवीं शताब्दी का अन्त और पन्द्रहवीं शताब्दी का आदि मैथिल-कोकिल विद्यापति का काव्य-काल माना जाता है। अतएव अब मैं यह देखूंगा कि उनकी रचनाओं में हिन्दी भाषा का क्या रूप पाया जाता है। उनकी रचनाओं के विषय में अनेक भाषा-मर्मज्ञों का यह विचार है कि वे मैथिली भाषा की हैं। किन्तु उनके देखने से यह ज्ञात होता है कि जितना उन में हिन्दी भाषा के शब्दों का व्यवहार है उतना मैथिली भाषा के शब्दों का नहीं। अवश्य उनमें मैथिली भाषा के शब्द प्रायः मिल जाते हैं, परन्तु उनकी भाषा पर यह प्रान्तिकता का प्रभाव है, वैसा ही जैसा आज कल के बिहारियों की लिखी हिन्दी पर। बंगाली विद्वान विद्यापति को बंगभाषा का कवि मानते हैं, यद्यपि उनकी भाषा पर बंगाली भाषा का प्रभाव नाम मात्र को पाया जाता है। ऐसी अवस्था में विद्यापति को हिन्दी भाषा का कवि मानने का अधिक स्वत्त्व हिन्दी भाषा भाषियों ही को है और मैं इसी सूत्र से उनको चर्चा यहां करता हूं। उन्होंने अपभ्रंश भाषा में भी दो ग्रंथ लिखे हैं। उनमें से एक का नाम 'कीर्तिलता' और दूसरी का नाम 'कीर्तिपताका' है। कीर्तिलता छप भी गई है। उनकी सँस्कृत की रचनायें भी हैं जो उनको सँस्कृत का प्रकाण्ड विद्वान् सिद्ध करती हैं। जब इन बातों पर दृष्टि डालते हैं तो उनको सर्वतोमुखी प्रतिभा सामने आ जाती है जो उनके लिये हिन्दी भाषा में सुन्दर रचना करना असंभव नहीं बतलाती। मेरी ही सम्मति यह नहीं है। हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखने वाले सभी सज्जनों ने इनको हिन्दी भाषा का कवि माना है। फिर मैं इनको इस गौरव से वंचित करूँ तो कैसे करूँ?

मेरा विचार है कि विद्यापति ने बड़ी ही सरस हिन्दी में अपनी पदावली की रचना की है। उनके पद्योंसे रस निचुड़ा पड़ता है। गीत गोविन्दकार वीणापाणि के वरपुत्र जयदेव जी की मधुर कोमल कान्त पदावली पढ़ कर जैसा आनन्द अनुभव होता है वैसा ही विद्यापति की पदावलियों का पाठ कर। अपनी कोकिल-कण्ठता ही के कारण वे मैथिल-कोकिल कहलाते हैं। उनके समय में हिन्दी भाषा कितनी परिष्कृत और प्राञ्जल हो गयी थी [ १५१ ]इसका विशेष ज्ञान उनकी रचनाओं को पढ़ कर होता है। उनके कतिपय पद्यों को देखिये:—

१—माधव कत परबोधव राधा।
हा हरिहा हरि कहतहिँ बेरि बेरि अब जिउ करब समाधा।
धरनि धरिये धनि जतनहिं बैसइ पुनहिं उठइ नहिं पारा।
सहजइ बिरहिन जग महँ तापिनि बौरि मदन सर धारा।
अरुण नयन नीर तीतल कलेवर विलुलित दीघल केसा।
मंदिर बाहिर कर इत संसय सहचरि गनतहिं सेसा।
आनि नलिनि केओ रमनि सुनाओलि केओ देई मुख पर नीरे।
निस बत पेखि केओ सांस निसारै केओ देई मन्द समीरे।
कि कहब खेद भेद जनि अन्तर घन घन उतपत साँस।
भनइ विद्यापति सेहो कलावति जीउ बँधल आसपास।
२—चानन भेल विषम सररे भूषन भेल भारी।
सपनहुं हरि नहिं आयल रे गोकुल गिरधारी।
एकसरि ठाढ़ि कदम तर रे पथ हेरथि मुरारी।
हरि चिनु हृदय द्गध भेल रे आमर भेल सारी।
जाह जाह तोहिं ऊधव हे तोहि मधुपुर जाहे।
चन्द बदनि नहि जीवत रे बध लागत काहे।
३—के पतिया लए जायतरे मोरा पिय पास।
हिय नहि सह असह दुखरे भल साओन मास।
एकसर भवन पिया बिनुरे मोरा रहलो न जाय।
सखियन कर दुख दारुनरे जग के पतिआय।

[ १५२ ]

मोर मन हरि हरि लै गेल रे अपनो मन गेल।
गोकुल तजि मधुपुर बसि रे कति अपजस लेल।
विद्यापति कवि गाओल रे धनि धरु पिय आस।
आओत तोर मन भावन रे एहि कातिक मास।

इन पद्यों को पढ़ कर यह स्वीकार करना पड़ेगा कि इनमें मैथिली शब्दों का प्रयोग कम नहीं है। विद्यापति मैथिल कोकिल कहलाते हैं। डाक्टर ग्रियर्सन साहब ने भी इनको मैथिल कवि कहा है।[१] बँगलाके अधिकांश विद्वान् एक स्वर से उनको मैथिल भाषा का कवि ही बतलाते हैं। और इसी आधार पर उनको बँगला का कवि मानते हैं क्योंकि बँगला का आधार मैथिली का पूर्व रूप है। वे मिथिला निवासी थे भी। इस लिये उनका मैथिल कवि होना युक्ति-संगत है। परन्तु प्रथम तो मैथिली भाषा अधिकतर पूर्वी हिन्दी भाषा का अन्यतम रूप है, दूसरे विद्यापति की पदावली में हिन्दी शब्दों का प्रयोग अधिकता, सरसता एवं निपुणता के साथ हुआ है। इसलिये उसको हिन्दी भाषा की रचना स्वीकार करना ही पड़ता है। जो पद्य ऊपर लिखे गये हैं वे हमारे कथन के प्रमाण हैं। इनमें मैथिली भाषा का रंग है, किन्तु उससे कहीं अधिक हिन्दीभाषा की छटा दिखाई पड़ती है। इस विषय में दो एक हिन्दी विद्वानों की सम्मति भी देखिये। अपने 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' में (५९, ६० पृष्ट) पं॰ रामचन्द्र शुक्ल लिखते हैं:—

विद्यापति को बंगभाषा वाले अपनी ओर खींचते हैं। सर जार्ज ग्रियर्सन ने भी बिहारी और मैथिली को मागधी से निकली होनेके कारण हिन्दी से अलग माना है। पर केवल भाषा शास्त्रकी दृष्टिसे कुछ प्रत्ययों के आधार पर ही साहित्य-सामग्री का विभाग नहीं किया जा सकता। कोई भाषा कितनी दूर क समझी जाती है, इसका विचार भी तो आवश्यक होता है। किसी भाषाका समझा जाना अधिकतर उसकी शब्दावली (Vocabulary) पर अवलम्वित होता है। यदि ऐसा न होता तो उर्दू और हिन्दी का एक ही साहित्य माना जाता। [ १५३ ]

"खड़ी बोली, बाँगडू, ब्रज, राजस्थानी, कन्नौजी, बैसवाड़ी, अवधी इत्यादि में रूपों और प्रत्ययोंका परस्पर अधिक भेद होते हुये भी सब हिन्दीके अन्तर्गत मानी जाती हैं! बनारस, गाज़ीपूर, गोरखपुर बलिया आदि जिलों में आयल-आइल, गयल-गइल, हमरा तोहरा आदि बोले जानेपर भी वहां की भाषा हिन्दी के सिवाय दूसरी नहीं कही जाती। कारण है शब्दावलीकी एकता। अतः जिस प्रकार हिन्दी साहित्य बीसलदेव रासो पर अपना अधिकार रखता है, उसी प्रकार विद्यापति की पदावली पर भी।"

हिन्दी भाषा और साहित्यकार यह लिखते हैं[२]:—

"सारे बिहार-प्रदेश और उसके आसपास संयुक्त प्रदेश, छोटा नागपुर और बंगाल में कुछ दूर तक बिहारी भाषा बोली जाती है। यद्यपि बँगला और उड़िया की भांति बिहारी भाषा भी मागध अपभ्रंश से ही निकली है तथापि अनेक कारणों से इसकी गणना हिन्दी में होती है और ठीक होती है।"

"बिहारी भाषामें मैथिली, मगही' और भोजपुरी तीन बोलियाँ हैं। मिथिला या तिरहुत और उसके आसपास के कुछ स्थानों में मैथिली बोली जाती है। पर उसका विशुद्ध रूप दरभंगे में पाया जाता है। इस भाषा के प्राचीन कवियों में विद्यापति ठाकुर बहुत ही प्रसिद्ध और श्रेष्ठ कवि हो गये हैं, जिनकी कविता का अब तक बहुत आदर होता है। इस कविता का अधिकांश सभी बातों में प्रायः हिन्दी ही है।"

आज कल बिहार हिन्दी भाषा-भाषी प्रान्त माना जाता है। वहां के विद्यालयों और साहित्यक समाचार पत्रों अथच मासिक पुस्तकों में हिन्दी भाषा का ही प्रचार है। ग्रन्थ-रचनायें भी प्रायः हिन्दी भाषा में ही होती हैं और वहाँ के पठित समाज की भाषा भी हिन्दी ही है। ऐसी अवस्था में बिहारी भाषा पर हिन्दी भाषा का कितना अधिकार है यह अप्रकट नहीं।

मैं समझता हूं विद्यापति की रचनाओं पर हिन्दी भाषा का कितना स्वत्व है, इस विषय में पर्याप्त लिखा जा चुका। मैंने उनकी रचना इसी [ १५४ ]लिये यहां उपस्थित की है, कि जिससे आप लोगों को यह ज्ञात होसके कि उस समय हिन्दी भाषा का क्या रूप था। उनकी कविता को देखने से यह ज्ञात होता है कि उनके समय में हिन्दी भाषा प्रायः प्राकृत शब्दों से मुक्त हो गई थी, और उसमें बड़ी सरस रचनायें होने लगी थीं। मुझको विश्वास है कि उनकी रचना के अधिकांश शब्दों और प्रयोगों को हिन्दी मानने में किसी को आपत्ति न होगी। वे ब्रजभाषा के चिर परिचित शब्द हैं जो अपने वास्तविक रूप में पदावली में गृहीत हुए हैं। श्रीमती राधिका की विरह वेदना का वर्णन होने के कारण उनपर और अधिक ब्रजभाषा की छाप लग गई है। जो शब्द चिन्हित हैं, उन्हें हम ब्रजभाषा का नहीं कह सकते। किन्तु उनमें से भी 'हेरथि' इत्यादि दो चार शब्दों को छोड़ कर शेष को निस्संकोच भाव से अवधी कह सकते हैं और यह अविदित नहीं कि अवधी भाषा पूर्वी हिन्दी का ही रूप है॥

मेरा विचार है कि पन्द्रहवें शतक में प्रान्तिक भाषाओं में हिन्दी वाक्यों और शब्दों के प्रवेश का सूत्रपात हो गया था, जो आगे चलकर अधिक विकसित रूप में दृष्टिगत हुआ।

मैं इस प्रणाली का आदि प्रवर्त्तक विद्यापति को हो मानता हूं। यदि गुरु गोरख नाथ हिन्दी भाषा में धार्मिक शिक्षा के आदि प्रवर्त्तक हैं और उसको ज्ञान और योग की पुनीत धाराओं से पवित्र बनाते हैं तो मैथिल कोकिल उसको ऐसे स्वरों से पूरित करते हैं जिसमें सरस शृंगार रस की मनोहारिणी ध्वनि श्रवणगत होती है। सरसपदावली का आश्रय लेकर उन्होंने भगवती राधिका के पवित्र प्रमोद्गारों से अपनी लेखनी को रसमय ही नहीं बनाया, साहित्य क्षेत्र में अपूर्व भावों की भी अवतारणा की। यहां पर यह प्रश्न उप- स्थित होता है कि विद्यापति स्वयं इस प्रणालीके उद्भावक हैं या उनके सामने इससे पहले का और कोई आदर्श था। मैं यह स्वीकार करूँगा कि उनके सामने प्राचीन आदर्श अवश्य था। परन्तु हिन्दी भाषा में राधा भावके आदि प्रवर्त्तक विद्यापति ही हैं। पदावलीमें राधाकृष्णके संयोग और वियोग शृंगार‌ जैसा भावमय और हृदयमाही वर्णन विद्यापति ने किया है, हिन्दी भाषा में उनसे पहले इस प्रकार का भावुकतामय वर्णन पहले किसी ने नहीं किया। [ १५५ ]

श्री मद्भागवत में गोपियों का प्रेम भगवान कृष्ण चन्द्र के प्रति जिस उच्चभाव से वर्णित है वह अलौकिक है। प्रेम त्यागमय होता है, स्वार्थमय नहीं। रूप-जन्य मोह क्षणिक और अस्थायी होता है। उसमें सुख-लिप्सा होती है आत्मोत्सर्ग का भाव नहीं पाया जाता। किन्तु वास्तविक प्रेम अपना आदर्श आप होता है। उसमें जितनी स्थायिता होती है, उतना ही त्याग। वह आन्तरिक निस्स्वार्थ भावों पर अवलम्बित रहता है, स्वार्थमय प्रवृत्तियों पर नहीं। उसमें प्रेमी पर अपने को उत्सर्ग कर देने की शक्ति होती है, और वह इसी में अपनी चरितार्थता समझता है। भागवत में गोपियों को ऐसे ही प्रेम की प्रेमिका वर्णित किया गया है। विद्यापति सँस्कृत के विद्वान् थे। साथ ही सहृदय और भावुक थे। इस लिये भागवत के आदर्श को अपनी रचनाओं में स्थान देना उनके लिये असंभव नहीं था। मेरा विचार है कि जयदेव जो की मधुर रचनाओं से भी उनकी कविता बहुत कुछ प्रभावित है, क्योंकि वे उनसे कई शतक पूर्व संस्कृत भाषा में इस प्रकार की सरस पदावली का निर्माण कर चुके थे। श्री मद्भागवत में श्री मती राधिका का नाम नहीं मिलता। परन्तु ब्रह्म वैवर्त पुराण में उनका नाम मिलता है और उसमें वे उसी रूप में अंकित की गई हैं जिस रूप में गीत गोविन्दकार ने उनको ग्रहण किया है। यह सत्य है कि गीत गोविन्द में सरस शृंगार ही का स्रोत बहता है, परन्तु यह भी उतना ही सत्य है कि जयदेव जी ने उस ग्रन्थ की रचना भक्ति भाव से की है और वे भगवती राधिका और भगवान कृष्ण में उतना ही पूज्य भाव रखते थे जितना कोई वल्लभाचार्य के सम्प्रदाय का भक्त रख सकता है। उनके प्रन्थ में ही इसके प्रमाण विद्यमान हैं। विद्यापति की रचनाओं के देखनेसे पाया जाता है कि[३] जयदेवजी का यह भक्ति-भाव उनमें भी भरित था। डाकर जी॰ ए॰ ग्रियर्सन लिखते "मथिली भाषा में अमूल्य पदावली-रचना के लिये ही उनका [ १५६ ](विद्यापति का) श्रेष्ठ गौरव है। अपने समस्त पदों में उन्होंने श्रीमती राधिका का प्रेम भगवान कृष्णचन्द्र के प्रति वर्णन किया है। इस रूपक के द्वारा उन्होंने यह विज्ञापित किया है कि किस प्रकार आत्मा का परमात्मा के प्रति प्रेम सम्बन्ध है।"

विद्यापति शैव थे। इसलिये सम्भव है कि यह तर्क उपस्थित किया जाय कि एक शैव की गधा-कृष्ण की मूर्ति में भक्ति कैसी? किन्तु इस विचार में संकीर्णता है। कवि का हृदय इतना संकीर्ण नहीं होता। गोस्वामी तुलसीदास यदि सीताराम के अनन्य उपासक होकर भगवान् भूतनाथ की भक्ति कर सकते हैं तो शिव के अनन्य भक्त होकर कविवर विद्यापति राधा-कृष्ण की भक्ति क्यों नहीं कर सकते। वास्तव बात यह है कि अधिकांश गृहस्थ हिन्दू विद्वान् पञ्चदेवोपासक होता है। उसमें वह भद-भावना नहीं होती जो किसी कट्टर शैव या वैष्णव में पाई जाती है। मैं समझता हूं विद्यापति इस दोष से मुक्त थे और इसीलिये उनको इस प्रकार राधा-कृष्ण का प्रेम वर्णन करने में कोई बाधा नहीं हुई। उनके पद्यों में ही युगल मूर्ति के भक्ति भाव के प्रमाण मौजूद हैं। उनके पद में जो माधुर्य्य विद्यमान है उसको माधुर्य उपासना का मर्मज्ञ ही प्राप्त कर सकता है। मैं सोचता हूं कि उस समय पौराणिक धर्म विशेष कर श्री मद्भागवत जैसे वैष्णव ग्रन्थों के प्रभाव से वैष्णव धर्म का जो उत्थान देश में नाना रूपों से हो रहा था उसी के प्रभाव से बंगाल प्रान्त में चण्डीदास की, और बिहार भूमि में विद्यापति की रचनाएं प्रभावित हैं।

जो 'कुछ अब तक विद्यापति के विषय में लिखा गया उससे यह पाया जाता है कि पन्द्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में उन्होंने अपनी अभूतपूर्व कविताओं की रचना कर के जहाँ पदावली रचना की प्रणाली हिन्दी भाषा में चलायी वहाँ उसको राधा कृष्ण की प्रेममयी लीलाओं के सरस वर्णन से भी अलंकृत किया। हिन्दी में भावमय शृंगारिक रचनाओं का आरम्भ भी उन्हीं से होता है और उन्हीं से ऐसे सरस सुन्दर पद-विन्यास हिन्दी को प्राप्त हुये हैं जैसे उसको आज तक कतिपय हिन्दी आकाश के उज्ज्वल नक्षत्रों से ही प्राप्त हो सके हैं।

  1. देखिये वर्नाक्युलर लिटरेचर आफ् हिन्दुस्तान पृष्ट ९ पंक्ति ३४
  2. देखिये 'हिन्दी भाषा और साहित्य' का पृ॰ ३९
  3. But his chief glory consists in his matchless sonnets (Pad a) in the Maithili dialect dealing allegorically with the relations of the soul to God under the form of love which Radha dore to Krishna." Modern Vernacular Literature of Hindustan By Dr. Grierson.