हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास/द्वितीय खंड/२- हिन्दी साहित्य का पूर्वरूप और आरंभिक काल/२

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आरम्भिक काल का प्रधान कवि चन्द है जो हमारे हिन्दी संसार का चासर है। वह भी इसी शताब्दी में हुआ मैं कुछ उसकी रचनायें भी उपस्थित करना चाहता हूं, जिससे यह स्पष्टतया प्रकट होगा कि किस प्रकार अपभ्रंश से हिन्दी भाषा रूपान्तरित हुई है। कुछ विद्वानों की यह सम्मति है कि चन्द कवि कृत पृथ्वीराज रासो की रचना पन्द्रहवीं या सोलहवीं शताब्दी की है। पृथ्वीराज रासो में बहुत सी रचनायें ऐसी हैं जो इस विचार को पुष्ट करती हैं। परन्तु मेरा विचार है कि इन प्रक्षिप्त रचनाओं के अतिरिक्त उक्त ग्रंथ में ऐसी रचनायें भी हैं जिनको हम बारहवीं शताब्दी की रचना निस्संकोच भाव से मान सकते हैं। इस विषय में बहुत कुछ तर्क-वितर्क हो चुका है और अब तक इसकी समाप्ति नहीं हुई। तथापि ऐतिहासिक विशेषताओं पर दृष्टि रख कर पृथ्वीराज रासो की आदिम रचना को बारहवीं शताब्दी का मानना पड़ेगा। बहुत कुछ विचार करने पर मैं इस सिद्धान्त पर पहुंचा हूं कि पृथ्वीराज रासो में प्राचीनता की जो विशेषतायें मौजूद हैं वे वीर गाथा काल की किसी पुस्तक में स्पष्ट रूप से नहीं पायी जातीं। कुछ वर्णन इस ग्रन्थ के ऐसे हैं जिनको प्रत्यक्षदर्शी ही लिख सकता है। कोई इतिहासज्ञ यह नहीं कहता कि चन्दबरदाई पृथ्वीराज के समय में नहीं था। कुछ ऐतिहासिक घटनाएं इस ग्रन्थ की ऐसी हैं जो पृथ्वीराज और चन्दबरदाई के जीवन से विशेष सम्बन्ध रखती हैं। जब तक उनको असत्य न सिद्ध किया जाय तब तक पृथ्वीराज रासो को कृत्रिम नहीं कहा जा सकता। किसी भाषा की आदिम रचनाओं में जो अप्राञ्जलता और शब्द विन्यास का असंयत भाव देखा जाता है वह पृथ्वीराज रासो में मिलता है। इसलिये मेरी यह धारणा है कि इस ग्रन्थ का कुछ आदिम अंश अवश्य है जिसमें बाद को बहुत कुछ सम्मिश्रण हुआ। इस आदिम अंश में से ही उदाहरण स्वरूप कुछ पद्यनीचे लिखे जाते हैं:—

१—उड़ि चल्यो अप्प कासी समग्ग
आयो सु गंग तट कज्ज जग्ग
सत अठ्ठ खण्ड करि अंग अब्बि, ओमें सु अप्प वर मद्धि हबि।
मंग्यो सु ईस यँहि बर पसाय, सत अद्ध पुत्त अवतरन काय।

[ १२३ ]

२—हय हथ्यि देत संखय न मन खग्ग मग्ग खूनी बहै।
३—छपी सेन सुरतान, मुठ्ठि छुट्टिय चावद्धिसि।
मनु कपाट उद्धर्‌यो, कूह फुट्टिय दिसि विद्दिसि।
मार मार मुष किन्न, लिन्न चावण्ड उपारे।
परे सेन सुरतान, जाम इक्कह परि धारे।
गल वत्थ घत्त गाढ़ो ग्रहौ, जानि सनेही भिंटयौ।
चामण्डराइ करवर कहर, गौरी दल बल कुट्टियौ।

पहले मैं जिन अपभ्रंश पद्यों को लिख आया हूं उनसे इनको मिलाइये देखिये कितना साम्य है। ज्ञात होता है कि ये उन्हीं की छाया हैं। इनपद्यों में यह देखा जाता है कि जहां प्राकृत अथवा अपभ्रंश के 'समग्ग', 'कज्ज', 'जग्ग 'अठ्ठ' 'अप्प मद्धि' 'पसाय' 'अद्ध' 'पुत्त' 'हथ्थि', 'खग्ग', 'मग्ग' मुट्ठि' आदि प्रातिपदिक शब्द आये हैं वहीं 'छुट्ठि', 'फुट्टिय' 'भिंटयौ' 'कुट्टियौ' आदि क्रियायें भी आई हैं। इनमें 'हय' 'कपाट', 'दल 'बल', इत्यादि संस्कृत के तत्सम शब्द भी मौजूद हैं और यह कवि द्वारा गृहीत उसकी भाषा की विशेषता है। प्राकृत अथवा अपभ्रंश में प्रायः संस्कृत के तत्सम शब्दों का अभाव देखा जाता है। विद्वानों ने प्राकृत और अपभ्रंश की यह विशेषता मानी है कि उसमें संस्कृत के तत्सम शब्द नहीं आते। परंतु चन्द की भाषा बतलाती है कि उसने अपने पद्यों में संस्कृत तत्सम शब्दों के प्रयोग की चेष्टा भी की है। उसने 'नकार' के स्थान पर 'णकार' का प्रयोग प्रायः नहीं किया है और यह भी हिन्दी भाषा का एक विशेष लक्षण है। प्राकृत और अपभ्रंश में नकार का भी एक प्रकार से अभाव है। डिंगल अथवा राजस्थानी में भी प्रायः नकार का प्रयोग नहीं होता देखा जाता। इन पद्यों में कुछ ऐसी क्रियाएं भी आई हैं जो ब्रजभाषा की मालूम होती हैं, वे हैं 'उडि चल्यो', 'आयो' 'करि', आदि और ये सब वे ही विशेषतायें हैं जो प्राकृत और अपभ्रंशसे हिन्दी भाषा को अलग करती और उसके शनैः शनैः विकसित होने का प्रमाण देती हैं। मैं कुछ ऐसे पद्यों को [ १२४ ]भी उपस्थित करना चाहता हूं जिनकी रचना इन पद्यों से सर्वथा भिन्न है। वे पद्य ये हैं।—

दूहा


सरस काव्य रचना रचौँ, खल जन सुनि न हसन्त।
जैसे सिंधुर देखि मग, श्वान स्वभाव भुसन्त।
तौ यनि सुजन निमित्त गुन, रटये तन मन फूल।
जूं का भय जिय जानि कै, क्यों डारिये दुकूल।
पूरन सकल विलास रस, सरस पुत्र फल दान।
अन्त होय सह गामिनी, नेह नारि को मान।
जस हीनो नागो गनहु, ढंक्यो जग जस बान।
लम्पट हारै लोह छन, तिय जीतै बिनु बान।
समदर्शी ते निकट है, भुगति मुकति भर पूर।
विषम दरस वा नरन ते, सदा सर्वदा दूर।

मेरा विचार है, ए पद्य सोलहवीं शताब्दी के हैं और बाद को ग्रन्थ की मुख्य रचना में सम्मिलित किये गये हैं। परन्तु कोई भाषा मर्मज्ञ भिन्न प्रकार के दोनों पद्य समूहों को देख कर यह न स्वीकार करेगा कि वे एक काल की ही रचनायें हैं। मेरा तो यह विचार है कि ये दोनों भिन्न प्रकार की रचनाएं ही इस बात का प्रमाण हैं, कि उनके निर्माण-कालमें शताब्दियों का अन्तर है। डाक्टर ग्रियर्सन साहब कहते हैं कि इस ग्रन्थ में १००००० पद्य हैं[१]। क्या पद्यों की यह बहुलता यह नहीं प्रमाणित करती कि इस ग्रन्थ में धीरे धीरे बहुत अधिक प्रक्षिप्त अंश सम्मिलित किये गए हैं। हिन्दी भाषा में अब तक इतने बड़े ग्रन्थ का निर्माण नहीं हुआ है। संस्कृत में भी महाभारत को छोड़कर कोई ऐसा विशाल ग्रन्थ नहीं है। महाभारत में भी जब क्रमशः बहुत से सामयिक श्लोक यथा समय सम्मिलित होते गये तभी [ १२५ ]उसका इतना विस्तार हुआ। यही बात पृथ्वीराज रासो के विषय में भी कही जा सकती है। जैसे बाद के प्रक्षिप्त अंशोंकी उपस्थिति में भी महाभारत प्राचीन श्लोकों से रहित नहीं हो गया है उसी प्रकार रासो में भी प्राचीन रचनाओं का अभाव नहीं है।

इस विषय में अनेक विद्वानों को सम्मतियाँ मेरे विचारानुकूल हैं। हां कुछ विद्वान् उसको सर्वथा जाली कहते हैं। यह मत-भिन्नता है। डा॰ ग्रियर्सन साहब की इस विषय में क्या सम्मति है और उसकी भाषा के विषय में[२] उनका क्या विचार है उनको मैं नोचे उद्धृत करता हूं।

"उसकी (चन्दवरदाई की) रचनाओं का मेवाड़ के अमरसिंहने सत्रहवीं शताब्दी के आरंभ में संग्रह किया। यह भी असम्भव नहीं है कि उसी समय किसी किसी अंश को नवीन रूप दे दिया गया हो। जिससे इम सिद्धान्त का भी प्रचार हो गया है कि कुल का कुल ग्रन्थ जाली है।"

"इस कवि (चन्दवरदायी) के ग्रन्थों के अध्ययन ने मुझे उसके कवित्व सौन्दर्य पर मुग्ध बना दिया है परन्तु मुझे सन्देह है कि राजपूताना की बोलियों से अपरिचित कोई व्यक्ति इस आनन्द पूर्वक पढ़ सकेगा। तथापि यह भाषा-विज्ञान के विद्यार्थी के लिये अत्यन्त मूल्यवान् है, क्योंकि यूरोपीय अनुसन्धान कर्ताओं को आधुनिकतम प्राकृत और प्राचीनतम गौड़ीय कवियों के मध्य में रिक्त स्थान की पूर्ति करने वाली कड़ी एक मात्र यही है। हमारे पास चन्द का मूल ग्रन्थ भले ही न हो, फिर भी उसकी रचनाओं में हमें शुद्ध अपभ्रंश. शौरसनी प्राकृत रूपा से युक्त, गौड़ साहित्य के प्राचीनतम नमूने मिलते हैं।"[३] [ १२६ ]

पद्यों की आदिम रचना इतनी प्राञ्जल और उतनी प्रौढ़ नहीं होतीं जितनी उत्तरकाल की, यह मैं पहले लिख आया हूं। चन्दबरदाई की रचनाओं में ये बातें पाई जाती हैं, जो उन्हें आरम्भिक काल की मानने के लिये बिबश करती हैं। किसी विषय का दोष गुण उस समय ही यथा-तथ्य सामने आता है, जब उस पर अधिकतर विचार दृष्टि पड़ने लगती है, नियम उसी समय निर्दोष बन सकते हैं, जब कार्य क्षेत्र में आने पर उन पर विवेचना का अवसर प्राप्त होता है। आदिम रचनाओं में प्रायः अप्राञ्जलता और अनियमवद्धता इसलिये पाई जाती है कि उनका पथ विचार-क्षेत्र में आकर प्रशस्त नहीं हो गया होता और न आलोचना और प्रत्यलोचनाओं के द्वारा उनकी प्रणाली परिमार्जित हो गई होती। जिस काल में पृथ्वीराज रासो की मुख्य रचना प्रारम्भ होती है उस समय साहित्य की अवस्था ऐसी ही थी और यह दूसरा प्रमाण है जो उसके आदिम अंशको आरंभिककाल की कृति बतलाता है। उदाहरण लीजियेः—

चले दस्सहस्सं असव्वार जानं।
मदं गल्लितं मत्त सै पंच देती।
रँगं पंच रंगं ढलक्कन्त ढालं।
सुरं पंच सावद्द वाजित्र बाजं।
सहस्सं सहन्नाय मृग मोहि राजं।
मँजारी चखी मुष्ष जम्बक्क लारी।
एराकी अरब्बो पटी तेज ताजी।
तुरकी महाबान कम्मान बाजी।

[ १२७ ]

रजंपुत्त पच्चास जुद्धे अमोरं।
बजै जीत के नद्द नीसान घोरं।
सामना सूर सव्बय अपार।
झटं जाहु तुम कीर दिल्ली सुदेसं।
कंद्रप्प जाति अवगार रूप।

जो चिन्हित शब्द हैं उनमें कवि को निरंकुशता और मनमानी रीति से शब्द गढ़ लेने की प्रवृत्ति स्पष्टतया दृष्टिगत होती है। मैं यह स्वीकार करूँगा कि उत्तर काल की कुछ रचनाओं में भी इस प्रकार का प्रयोग मिलता है। किन्तु मैं उसको चन्दबरदाई की ही रचनाओं का अनुकरण मात्र समझता हूं। इस निरंकुशता के प्रवर्तक पृथ्वीराज रासोकार ही हैं। यह अप्राञ्जलता और अनियमवद्धता जो उनकी रचना में आई है उसका कारण उनका आरम्भिक काल का होना है। निम्नलिखित शब्द विदेशी भाषा के हैं:—

'असव्वार', 'सहन्नाय', 'अरव्बी ','तुरक्की 'कम्मान', इत्यादि।

इनका ग्रहण अनुचित नहीं, परन्तु इनका मनगढ़न्त प्रयोग उचित नहीं। इन शब्दों का शुद्ध रूप 'सवार', 'शहनाई' अरबी', 'तुरकी', 'कमान' हैं, किन्तु उनका जो रूप कवि ने बनाया है वह न तो उस भाषा के व्याकरण पर अवलम्बित हैं न हिन्दी भाषा अथवा प्राकृत या अपभ्रंश के नियमों के अनुकूल हैं। ऐसी अवस्था में उनका प्रयोग जिस रूप में हुआ है वह अप्रौढ़ता और अनियमवद्धता का ही परिचायक है, जो तत्कालिक हिन्दी भाषा की अपरिपक्कता का सूचक है। शेष शब्द हिन्दी भाषा अथवा प्राकृत किंवा अपभ्रंश के हैं। उनका भी मन माना प्रयोग किया गया है, जैसे 'गलित' को 'गल्लितं', 'ढलकन' को 'ढलक्कंत', 'शब्द' को 'सावद्द', 'वादित्र' को 'बाजित्र', 'मुख' को 'मुष्प', 'जम्बुक' को 'जम्बक्क', 'राजपूत' को 'रजंपुत्त', 'पचास' को 'पच्चास', 'नाद' को 'नई', 'सब' या 'सब्ब' को 'सब्बय', 'झटिति' या 'झट' को 'झटं', कंदर्प' को 'कंद्रप्प' [ १२८ ]इत्यादि। ये शब्द हिन्दी, प्राकृत, अथवा अपभ्रंश व्याकरण के अनुकूल न तो बने हैं और न इनमें साहित्य-सम्बन्धी कोई नियमबद्वता पाई जाती है। इसलिये मेरा विचार है, कि ये कवि के गढ़े शब्द हैं और इसी कारण से इनकी सृष्टि हुई है कि आरम्भिककाल में इस प्रकार की उच्छृङ्खलता का कोई प्रतिबन्ध नहीं था। अतएव मैं यह कहने के लिये बाध्य हूं कि जिन रचनाओं में इस प्रकार के शब्दों का प्रयोग हुआ है वे अवश्य रासो की आदिम अप्रक्षिप्त रचनाये हैं।

पृथ्वीराज रासो के कुछ छन्द भी इस बात के प्रमाण हैं कि उसकी मुख्य रचनाएँ बारहवीं शताब्दी की हैं। आज तक हिन्दी साहित्य में गाथा छन्द का व्यवहार नहीं होता, किन्तु चन्दवरदाई इस छन्द से काम लेता है। वैदिककाल से प्रारम्भ करके बौद्धकाल तक गाथा में रचनाएँ हुई हैं, अपभ्रंश काल में भी गाथा में रचना होती देखी जाती है।[४] ऐसी अवस्था में जब देखते हैं कि चन्दवरदाई भी गाथा छन्द का व्यवहार करता है तो इससे क्या पाया जाता है? यही न कि पृथ्वीराज रासोकी रचना आरम्भिककाल की ही है, क्योकि अपभ्रंश के बाद ही हिन्दी भाषा का आरम्भिक-काल प्रारम्भ होता है। रासो का एक गाथा छन्द देखिये, और उसकी भाषा पर भी विचार कीजिये

पुच्छति बयन सुवाले उच्चरिय करि सच्च सच्चाए।
कवन नाम तुम देस कवन पंद करै परवेस।

अबतक मैंने पृथ्वीराज रासो के प्राचीन अंश के विषय में जो कुछ लिखा है उससे मैं नहीं कह सकता कि अपने विषय के प्रतिपादन में मुझको कितनी सफलता मिली। यह बड़ा वाद-ग्रस्त विषय है। यदि डाक्टर ग्रियसन की सम्मति पृथ्वीराज रासो की प्राचीनता के अनुकूल है तो डाक्टर बूलर की सम्मति उसके प्रतिकूल। वे इस ग्रन्थ की यहाँ तक प्रतिकूलता करते हैं कि उसका प्रकाशन तक बन्द करा देना चाहते हैं। यदि पंडित मोहनलाल बिष्णुलाल पंड्या अनेक तर्क-वितर्कौं से पृथ्वीराज रासो की [ १२९ ] प्राचीनता का पक्ष-ग्रहण करते हैं तो जोधपुर के मुरारिदान और उदयपुर के श्यामल दास भी उसका विरोध करने के लिये कटिबद्ध दिखलाई पड़ते हैं। थोड़ा समय हुआ कि रायबहादुर पं॰ गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने भी अपनी प्रबल युक्तियों से इस ग्रन्थ को सर्वथा जाली कहा है। परन्तु, जब हम देखते हैं कि महामहोपाध्याय पं॰ हरप्रसाद शास्त्री सन् १९०९ से सन् १९१३ तक राजपूताने में प्राचीन ऐतिहासिक काव्यों की खोज करके पृथ्वीराज रासो को प्राचीनता की सनद देते हैं तो इस विवर्द्धित बाद की विचित्रता ही सामने आती है। इन विद्वान् पुरुषों ने अपने अपने पक्ष के अनुकूल पर्याप्त प्रमाण दिये हैं। इसलिये इस विषय में अब अधिक लिखना वाहुल्य मात्र होगा। मैंने भी अपने पक्ष की पुष्टि के लिये उद्योग किया है। किन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि मैंने जो कुछ लिखा है वह निर्विवाद है। हां, एक बात ऐसी है जो मेरे विचार के अधिकतर अनुकूल है। वह यह कि वहत कुछ तर्क-वितर्क और विवाद होने पर भी किसी ने चन्दवरदाई को सोलहवें शतक का कवि नहीं माना है। विवाद करनेवालों ने भी साहित्य के वर्णन के समय उसको बारहवें शतक में ही स्थान दिया है। यदि पृथ्वीराज रासो को प्राचीनता की सत्यता में सन्देह है तो उसको बारहवें शतक में क्यों स्थान अबतक मिलता आता है। मेरा विचार है कि इसके पक्ष में ऐसी सत्यता अवश्य है जो इसको बारहवें शतक का काव्य मानने के लिये बाध्य करती है। इसके अतिरिक्ति जबतक संदिग्धता है तबतक उस पद से किसी को कैसे गिराया जा सकता है जो कि चिरकाल से उसे प्रात्र है।

चन्दबरदाई का समसामयिक जगनायक अथवा जगनिक नामक एक ऐसा प्रसिद्ध कवि है जिसकी बीरगाथा मय रचनाओं का इतना अधिक प्रचार सर्व साधारण में है जितना उस समय की और किसी-कवि-कृति का अब तक नहीं हुआ। इसकी रचनायें आज दिन भी उत्तर भारत के अधिकांश विभागों के हिन्दओं की सूखी रंगों में रक्त-धारा का प्रवाह करती रहती हैं। पश्चिमोत्तर प्रान्त के पूर्व और दक्षिण के अंशों में इसके गीतों का अब भी बहुत अधिक प्रचार है। वर्षाकाल में जिस वीरोन्माद के साथ [ १३० ] इस गीति-काव्यका गान ग्रामों के चौपालों और नगरों के जनाकीर्ण स्थानों में होता है वह किसके हृदय में वीरता का संचार नहीं करता? इसके रचे गीतों में महोबा के राजा के दो प्रधान वीर आल्हा और ऊदनके वीर कम्माों का बड़ा ही ओजमय वर्णन है। यद्यपि यह बात बड़ी ही मर्म्म-भेदी है कि इन दोनों वीरों के वीर कम्मौं की इति श्री गृहकलह में ही हुई। महोबे के प्रसिद्ध शासक परमाल और उस काल के प्रधान क्षत्रिय भूपाल पृथ्वीराज का संघर्ष ही इस गीति-काव्य का प्रधान विषय है। यह वह संघर्ष था कि जिसका परिणाम पृथ्वीराज का पतन और भारतवर्ष के चिर-सुरक्षित दिल्ली के उस फाटक का भग्न होना था जिसमें प्रवेश कर के विजयी मुसल्मान जाति भारत की पुण्य भूमि में आठ सौ वर्ष तक शासन कर सकी। तथापि यह बात गर्व के साथ कही जा सकती है कि जैसा बीररस का ओजस्वी वर्णन इस गीति काव्य में है हिन्दी साहित्य के एक दो प्रसिद्ध ग्रंथों में ही वैसा मिलता है। यह ओजस्वी रचना, कुछ काल हुआ, आल्हा खंड के नाम से पुस्तकाकार छप चुकी है, परन्तु बहुत ही परवत्तिर्त रूप में। उसका मुख्य रूप क्या था इसकी मीमांसा करना दुस्तर है। जिस रूप में यह पुस्तक हिन्दी साहित्य के सामने आई है उसके आधार से इतना ही कहा जा सकता है कि इस कवि का उस काल की साहित्यिक हिन्दी पर, जैसा चाहिए वैसा, अधिकार नहीं था। प्राप्त रचनाओं के देखने से यह ज्ञात होता है कि उसमें बुन्देलखण्डी भाषा का ही वाहुल्य है। हिन्दी भाषा के विकास पर उससे जैसा चाहिये वैसा प्रकाश नहीं पड़ता, विशेष कर इस कारण से कि मौखिक गीति-काव्य होने के समय के साथ साथ उसकी रचना में भी परिवर्तन हाता गया है। किन्तु हिन्दी भाषाके आरम्भिक काल, में जो संघर्ष यहां के विद्वेष-पूर्ण राजाओं में परस्पर चल रहा था उसका यह ग्रंथ पूर्ण परिचायक है। इसी लिये इस कवि की रचनाओं की चर्चा यहां की गई। मैं समझता हूं कि जितने ग्रामीण गीत हिन्दी भाषा के सर्व साधारण में प्रचलित हैं उनमें जगनायक के आल्हाखंड को प्रधानता है। उसके देखने से यह अवगत होता है कि सर्व साधारण की बोलचाल में भी कैसी ओजपूर्ण रचना हो सकती है। इस उद्देश्य से भी इस कवि की चर्चा आवश्यक [ १३१ ]ज्ञात हुई। उसकी रचना के कुछ पद्य नीचे लिखे जाते हैं।

कूदे लाखन तब हौदा से, औ धरती मैं पहुंचे आइ।
गगरी भर के फूल मँगाओ सो भुरुही को दओ पियाइ।
भांग मिठाई तुरतै दइ दइ, दुहरे घोट अफीमन क्यार।
राती भाती हथिनी करि कै दुहरे आँदृ दये डराय।
चहुँ ओर धेरे पृथीराज हैं, भुरुही रखि हौ धर्म हमार।
खैंचि सरोही लाखन लीन्ही समुहें गोलगये समियाय।
साँकरि फेरै भुरुही दल में, सब दल काट करो खरियान।
जैसे भेड़हा भेड़न पैठै, जैसेसिंहबिड़ारै गाय।
वह गत कीनो है लाखन ने, नद्दी वितवै के मैदान।
देवि दाहिनी भइ लाखन को, मुरचा हटोपिथौरा क्यार।

उस समय युद्धोन्माद का क्या रूप था और किस प्रकार मुसल्मानों के साथ ही नहीं, हिन्दू राजाओं में भी परस्पर संघर्ष चल रहा था, इस गीति-काव्य में इसका अच्छा चित्रण है। इस लिए उपयोगिता की ही दृष्टि से नहीं, जातीय दुर्बलताओं का ज्ञान कराने के लिये भी यह ग्रन्थ रक्षणीय और संग्रहणीय है। इन पद्यों को वर्तमान भाषा यह स्पष्टतया बतलाती है कि वह बारहवीं ई॰ शताब्दी की नहीं है। हमने तेरहवीं ई॰ शताब्दी तक आरम्भिक काल माना है। इस लिये हम इस शतक के कुछ कवियों की रचनायें ले कर भी यह देखना चाहते हैं कि उन पर भाषा सम्बन्धी विकास का क्या प्रभाव पड़ा। इस शतक के प्रधान कवि अनन्य दास, धर्मसूरि, विजयसूरि एवं विनय चन्द्र सूरि जैन हैं। इनमें से अनन्य दास की रचना का कोई उदाहरण नहीं मिला। धर्म्मसूरि जैन ने जम्बू स्वामी रासो नामक एक ग्रन्थ लिखा है उसके कुछ पद्य ये हैं (रचना काल २०९ ईस्वी)

करि सानिधि सरसत्ति देवि जीयरै कहाणउँ।
जम्बू स्वामिहिं गुण गहण संखेबि बखाणउँ।

[ १३२ ]

जम्बु दीबि सिरि भरत खित्ति तिहि नयर पहाणउँ।
राजग्रह नामेण नयर पुहुवी बक्खाणउँ।
राज करइ सेणिय नरिन्द नखरहं नुसारो।
तासु वट तणय बुद्धिवन्त मति अभय कुमारो।

विजय सेन सूरि ने 'रेवंतगिरि रासो' की रचना की है। (रचनाकाल १२३१ ई॰)। कुछ उनके पद्य भी देखिये:—

परमेसर तित्थेसरह पय पंकज पणमेवि।
भणि सुरास रेवंतगिरि अम्बकिदिवि सुमिरेवि।
गामा गर पुर बरग गहण सरि बरि सर सुपयेसु।
देवि भूमि दिमि पच्छिमंह मणहर सोरठ देसु।
जिणु तहिं मंडण मंडणउ मर गय मउडु महन्तु।
निर्म्मल सामल सिहिर भर रेहै गिरि रेवंन्तु।
तसु मुंहुं दंसणु दस दिसवि देसि दिसन्तर संग।
आवइ भाव रसाल मण उड्डुलि रंग तरंग।

विनय चन्द्रसूरि ने 'नेमनाथ चौपई' और एक और ग्रन्थ लिखा है (रचना काल १२९९ ई॰) कुछ उनके पद्य देखिये:—

"बोलइ राजल तउ इह बयणू। नत्थि नेंमबर समवर रयणू
धरइ तेजु गहगण सविताउ। गयणि नउग्गइ दिणयर जाउ।
सखी भणय सामिणि मन झूरि। दुज्जण तणमन वंछितपूरि"।

ऊपर के पद्यों में जो शब्द चिन्हित कर दिये गये हैं वे प्राकृत अथवा अपभ्रंश के हैं। इससे प्रगट होता है कि तेरहवीं शताब्दी तक अपभ्रंश शब्दों का हिन्दी रचनाओं में अधिकतर प्रचलन था। अपभ्रंश में नकार के स्थान पर णकार का प्रयोग अधिकतर देखा जाता है।[५] उल्लिखित पद्योंमें भी [ १३३ ]नकार के स्थान पर णकार का बहुल प्रयोग पाया जाता है। जैसे तणय, मणहर, मण, गयण, दिणयर दुज्जण इत्यादि। अपभ्रंश भाषा का यह नियम है कि अकारान्त शब्द के प्रथमा और द्वितीया का एक वचन उकारयुक्त होता है[६]। इन पद्यों में भी ऐसा प्रयोग मिलता है जैसे देसु, महन्तु, रेवन्तु, तेजु इत्यादि। प्राकृत और अपभ्रंश में शकार और षकार का बिलकुल प्रयाग नहीं होता, उसके स्थान पर सकार प्रयुक्त होता है। जैसे श्रमणः समणो, शिष्यः सिस्सो। इन पद्यों में भी ऐसा प्रयोग मिलता है। परमेसर, देस, सामल दस दिलवि, देसि, दिसन्तरु, देसणु इत्यादि। अपभ्रंश का यह नियम भी है कि अनेक स्थानों में दीध स्वर हस्व एवं ह्रस्व स्वर दीर्घ हो जाता है। इन पद्यों में बयणू, और रयणू का ऐसा ही प्रयोग है। इनमें जो हिन्दी के शब्द आये हैं जैसे करि, राज करइ सारो, तासु, मुंह, दस, आवइ, रंग, बोलइ, धरइ, मन इत्यादि। इसी प्रकार जो संस्कृत के तत्सम शब्द आए हैं जैसे गुण, राजग्रह मति, अभय, पंकज, गिरि, सरि, सर, भूमि, रसाल, तरंग, सम, सखी इत्यादि वे विशेष चिन्तनीय हैं। हिन्दी शब्द यह सूचित कर रहे हैं कि किस प्रकार वे धीरे-धीरे अपभ्रंश भाषा में अधिकार प्राप्त कर रहे थे। संस्कृत के तत्सम शब्द यह बतलाते हैं कि उस समय प्राकृत नियमों के प्रतिकूल वे हिन्दी भाषा में गृहीत होने लगे थे। इन पद्यों में यह बात विशेष दृष्टि देने योग्य है कि इनमें एक शब्द के विभिन्न प्रयोग मिलते हैं जैसे मन के मण आदि। प्रायः 'न, के स्थान पर कार का प्रयोग देखा जाता है, जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है. परन्तु न का सर्वथा त्याग भी नहीं है। जैसे नयर. नायेण, नेमि इत्यादि।

मैं समझता हूं, आरम्भिक काल में किस प्रकार अपभ्रंश भाषा परिवर्तित हो कर हिन्दी भाषा में परिणत हुई, इसका पर्याप्त उदाहरण दिया जा चुका। उस समय की परिस्थिति के अनुकूल जो सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन हुए उनका वर्णन भी जितना अपेक्षित था उतना किया [ १३४ ]गया। आरम्भिक काल में कुछ ऐसे ग्रन्थ भी लिखे गये हैं जिनका सम्बन्ध वीरगाथाओं से, नहीं है, परन्तु प्रथम तो उन ग्रंथोंका नाम मात्र लिया गया है, दूसरे जो ग्रन्थ उपलब्ध हैं वे थोड़े हैं और उनकी प्रायः रचनायें ऐसी हैं जो उस काल की नहीं, वरन माध्यमिक काल की ज्ञात होती हैं। इसलिये उनका कोई उद्धरण नहीं दिया गया। अन्त में मैंने जैन सूरियों की जो तीन रचनायें उद्धृत की हैं वे वीर रस की नहीं हैं। तथापि मैंने उनको उपस्थित किया केवल इस उद्देश्य से कि जिस में यह प्रगट हो सके कि वीर-गाथा सम्बन्धी रचनाओं में ही नहीं आरम्भिक काल में ओज लाने के लिये प्राकृत और अपभ्रंश शब्दों का प्रयोग किया गया है, वरन अन्य रचनाओं में भी इस प्रकार के प्रयोग मिलते हैं जो यह बतलाते हैं कि उस काल की वास्तविक भाषा वही थी जो विकसित होकर अपभ्रंश से हिन्दी भाषा के परवर्ती रूप की ओर अग्रसर हो रही थी।

 

  1. देखिए माडर्न बर्नाक्यूलर लिटरेचर आव् हिन्दुस्तान पृष्ठ ३
  2. "His poetical works were collected by Amar Singh (cf. no. 191), of Mewar in the eariy part of the seventeen Century. They were not improbably ready and modernised in parts at the same time, which has given rise to a theory that the whole is a modern forgery."
  3. "My own studies of this poet's work have inspired me with a great admiration for its por tic heauty, but I doubt if anyone not perfecily master of the various Rajputana dialects could even read it with pleasure. It is however, of the greatest value to the student of philosophy, for it is at present the only stepping stone available to European explorers in the charm between the latest Prakrit and the earliest Gaudian authors Though we may not prosses the actual text of Chand we have certainly in his writing some of the oldest known speciemans of Gaudian literature, abounding in pure Apbharansha Shaurseni prakit froms"
  4. देखिए पालि प्रकाश, पृष्ठ ६२, ६३, ६४।
  5. देखिये पाली प्रकाश पृ॰ ५५
  6. देखिए पाली प्रकाश पृ॰ २