हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास/२/४ उत्तर-काल/आलम

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हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास
द्वारा अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

[ ३६४ ]

(९) आलम रसखानके समानही बड़े ही सरसहृदय कवि थे । कहाजाता है कि ये ब्राह्मण कुल के बालक थे। परंतु प्रेम के फंदे में पड़ कर अपने धर्म को तिलांजली देदी थी। शेख नामक एक मुसल्मान स्त्री सरसहृदया कवि थी । उसके रस से ये ऐसे सिक्त हुये कि अपने धर्म को भी उसमें [ ३६५ ]डुबो दिया । अच्छा होता यदि जैसे मनमोहन की ओर रसखान खिँच गये उसी प्रकार वे शेख को भी उनकी ओर खींच लाते। परंतु उसने ऐसी मोहनी डाली कि वे ही उसकी ओर खिंच गये। जो कुछ हो लेकिन स्त्री- पुरुष दोनों की ब्रजभाषा की रचना ऐसी मधुर और सरस है जो मधु-वर्षण करती ही रहती है । ब्रजभाषा-देवी के चरणों पर इस युगल जोड़ी को कान्त कुसुमावलि अर्पण करते देख कर हम उस वेदना को भूल जाते हैं जो उनके प्रमोन्माद से किसी स्वधर्मानुरागी जन को हो सकती है। इन दोनों में वृन्दावन विहारिणी युगल मूर्ति के गुणगान की प्रवृत्ति देखी जाती है। उससे भी ममर्माहत चित्त को बहुत कुछ शान्ति मिलती है, उनका जो धर्म हो, परतु युगलमृत्ति उनके हृदय में सदा विराजती दृष्टिगत होती है । औरं- गज़ेब के पुत्र मुअज्ज़म की दृष्टि में इन दोनों का अपने गुणों के कारण बड़ा आदर था। इनको कुछ मनोहारिणी रचनायें नीचे लिखी जाती हैं:-

१-जा थल कीन्हें बिहार अनेकन

ता थल कांकरी बैठि चुन्यो करैं ।

जा रसना सों करी बहु बातन

ता रसना सों चरित्र गुन्यो करैं ।

आलम जौन से कुंजन में करी

केलि तहाँ अब सीस धुन्यो करैं ।

नैनन में जो सदा रहते तिनकी

अब कान कहानी सुन्यो करैं ।

२-चन्द को चकोर देखै निसि दिन को न लेखै,

चंद बिन दिन छवि लागत अँध्यारी है।

आलम कहत आली अलि फूल हेत चलै,

काँटे सी कटीली बेलि ऐसी प्रीति प्यारी है।

[ ३६६ ]कारो कान्ह कहति गँवारी ऐसी लागति है,

मोहि वाकी स्यामताई लागत उँज्यारी है।

मन की अटक तहाँ रूप को बिचार कहां

रीझिबे को पैंडो तहाँ बूझ कछु न्यारी है।


३-प्रेम रंग पगे जगमगे जगे जामिनि के

जोबन की जोति जगि जोर उमगत है।

मदन के माते मतवारे ऐसे घूमत हैं

झूमत हैं झुकि झुकि झँपि उघरत हैं ।

आलम मों नवल निकाई इन नैननि को

पाँखुरी पदुम पै भँवर थिरकत है ।

चाहत हैं उडिबे को देखत मयंक मुख

जानति हैं रैनि ताते ताहि मैं रहत हैं।


४-कैधों मोर सोर तजि गयेरी अनत भाजि

कैधों उत दादुर न बोलत हैं ए दई ।

कैघों पिक चातक बधिक काहू मारि डारे

कधों बकपाँति उत अंत गति है गई ।

आलम कहत आली अजहूं न आये स्याम

कैधों उतरीति बिपरीति बिधि ने ठई ।

मदन महीप की दहाई फिरिबे ते रही।

जूझि गये मेघ कैधों बीजुरी सती भई ।


५-पैंडो समसूधो बैंडो कठिन किवार द्वार

द्वारपाल नहीं तहाँ सबल भगति है । [ ३६७ ]शेख भनि तहां मेरे त्रिभुवन राम हैं जु

दीनबंधु स्वामी सुरपतिन को पति है

बैरी को न बैर बरिआई को न परवेस

हीने को हटक नाहीं छीने को सकति है।

हाथी की हँकार पल पाछे पहुँचन पावै

चींटी की चिंघार पहिले ही पहुंचति है ।

कहा जाता है कि आलमने माधवानल कामकंदला नामक एक प्रेम कहानी भो लिखो है । आशा है, कि इनका यह ग्रंथ भी सरसतापूर्ण होगा और इसमें भी इनके प्रेम-मय हृदय की कमनीय कलायें विद्यमान होंगी। किन्तु यह ग्रंथ देखने में नहीं आया। इसकी चर्चा ही मात्र मिलती है। अच्छा होता यदि इस पुस्तक का कुछ अंश मैं आपलोगों की सेवा में उपस्थित कर सकता। परन्तु यह सौभाग्य मुझको प्राप्त नहीं हुआ। आलम-दम्पति की रचनाओं में हृदय का वह सोन्दर्य दृष्टिगत होता है जिसको ओर चित्त स्वमावतया खिंच जाता है। इनके ऐसे भावुक कवि ही किसी भाषा को अलंकृत करते हैं। जेसी ही इनकी भावमयी सुन्दर रचनायें हैं वैसी ही सरस और मुग्धकरी इनकी ब्रजमाषा है। इनके अधिकांश पद्य सहृदयता की मूर्ति हैं, इन्हों ने इनके द्वारा हिन्दो-साहित्य-भांडार का बड़े मुन्दर रत्र प्रदान किये हैं।

इन्हीं सहृदय दम्पति के साथ में ताज की चर्चा कर देना चाहता हूं। ये एक मुसल्मान स्त्री थीं । इनके वंश इत्यादि का कुछ पता नहीं । परंतु इनकी स्फुट रचनायें यत्र तत्र पाई जाती हैं। मुसल्मान स्त्री होने पर भी इनके हृदय में भगवान कृष्णचंद्र का प्रेम लबालब भरा था। इनकी रच- नाओं में कृष्ण-प्रेम की ऐसी सुंदर धारायें बहती हैं जो हृदय को मुग्ध कर देती हैं। इनके पद्यों का एक एक पद कुछ ऐसी मनमोहकता रखता है जो चित्त को बलात् अपनी ओर आकर्षित कर लेता है । इनकी रचना में पंजाबो शब्द अधिक मिलते हैं । इससे ज्ञात होता है कि ये पंजाब प्रान्त [ ३६८ ]को रहनेवाली थीं। इनकी पद्य रचना में खड़ी बोली का पुट भी पाया जाता है। किन्तु इन्हों ने ब्रजभाषा में ही कविता करने की चेष्टा की है। इनके कुछ पद्य नीचे लिखे जाते हैं। देखिये इनकी लगन में कितनी अधिक बिचारों की दृढ़ता है।

सुनौ दिल जानी मेड़े दिल की कहानी .

तुम दस्त ही बिकानी बदनामी भी सहूंगी मैं ।

देव पूजा ठानी मैं निवाज हूं भुलानी

तजे कलमा कुरान सोड़े गुनन गहूंगी मैं।

साँवला सलोना सिर ताज सिर कुल्ले दिये

तेरे नेह दाग मैं निदाग हो दहूंगी मैं ।

नन्द के कुमार कुरबान ताँड़ी सूरत पै

तांड़ नाल प्यारे हिंदुआनी हो रहूंगी मैं ।

२-छैल जो छवीला सब रङ्ग में रङ्गीला

बड़ा चित्त का अड़ीला कह देवतों से न्याराहै ।

माल गले मों है नाक मोती सेत सोहै कान

मोहै मनि कुडल मुकुट सीस धारा है।

दुष्ट जन मारे सन्त जन रखवारे ताहि

चित हित वारे प्रेम प्रीति कर वारा है ।

नन्द जू का प्यारा जिन कंस को पछारा

वह बृन्दावन वारा कृष्ण साहब हमारा है ।

(१०) सिताराके गजा शंभुनाथ सुलंकी भी रीति ग्रन्थकारों में से हैं। उनके एक नायिका-भेद के ग्रन्थ की बड़ी प्रशंसा है. परन्तु वह अब मिलता नहीं। उनका एक नख-शिख का ग्रन्थ भी बड़ा चमत्कारपूर्ण है वे बड़े सहृदय और कवियों के कल्पतरु थे। कविता में कभी 'नृपशंभु' और [ ३६९ ]कभी 'शंभुकवि' अथवा 'नाथ कवि अपनेको लिखते थे । बड़ी सरस ब्रज- भाषामें उन्होंने रचना को है। उनकी उत्प्रेक्षायें बड़ी मनोहर हैं। उनके जितने पद्य हैं उनमें से अधिकांश सरस हैं। उनकी भाषा को निस्संकोच टकसाली कह सकते हैं। व्रजभाषा को अपनी रचना द्वारा उन्होंने भी गौरवित बनाया है। उनके दो पद्य नोचे लिखे जाते हैं:-

१-फाग रच्यो नन्द नन्द प्रवीन बजैं

बहु बीन मृदंग रबाबैं

खेलतीं वै सुकुमारि तिया जिन

भूषण हूं की सही नहीं दाबैं ।

सेत अबीर के धूधंरु मैं इमि

बालन की बिकसी मुख आबैं ।

चाँदनी में चहुँ ओर मनों नृप

शंभु बिराज रही महताबैं ।

२-कौहर कौल जपा दल विद्रु म का

इतनी जु वँधूक मैं कोति है ।

रोचन रोरी रची मेंहदी नृपशंभु

कहै मुकुता सम पोति है ।

पांय धरै ढरै ईंगुरई तिन मैं

खरी पायल की घनी ज्योति है ।

हाथ द्वै तीनक चार हूं ओर लौं

चाँदनी चूनरी के रंग होति है ।

इस शतक में एक मुसल्मान सहदय कवि भी रीति ग्रंथकार हो गये हैं। उनका नाम मुबारक है। अवध के बाराबंकी जिले में बिलग्राम नामक एक प्रसिद्ध कस्बा है, जिसको विद्वानों और सहृदयों के जन्मभूमि होने [ ३७० ]का गौरव प्राप्त है, यहाँ अरबी, फारसी और संस्कृत के विद्वान मुबारक अली का जन्म हुआ था। इन्होंने 'अलक शतक' और 'तिल शतक' नामक दो ग्रन्थ सरस दोहों में लिखे हैं। इनकी स्फुट कवितायें भी बहुत सी मिलती हैं। इनकी भाषा व्रजभाषा है और उसमें प्रांजलता इतनी है कि मुक्त कंठ से उसकी प्रशंसा की जा सकती है इनकी रचना में प्रवाह है और इनकी कथनशैली भी मोहक है। मधुरता इनके शब्दों में भरी मिलती है। मुसल्मान हाने पर भी इन्होंने हिन्दी भाषा पर अपना अंसा अधिकार प्रकट किया है. वास्तवमें वह चकितकर है । इनकी कुछ रचनायें देखियेः-

२-कान्ह की बाँकी चितौनि चुभी

झुकि काल्हि ही झांकी है ग्वालि गवाछनि

देखी है नोखी सी चोखी सी कोरनि

ओछे फिरै उभरै चित जा छनि ।

मान्यो सँभारि हिये में मुबारक

ए सहजै कजरारै मृगाछनि ।

सींक लै काजर दे री गंवारिनि

आँगुरी तेरी कटैगी कटाछनि ।

२-कनक बरन बाल नगन लसत भाल

मोतिन के माल उर सोहै भलीभांति है

चंदन चढ़ाई चारु चंदमुखी मोहिनी सी

प्रात ही अन्हाइ पगु धारे मुसकाति है।

चूनरी विचित्र स्याम सजि कै मुबारक जू

ढाँकि नख सिख ते निपट सकुचाति है ।

चंद मैं लपेटि कै समेटि कै नखत मानो

दिन को प्रनाम किये रात चली जाति है। [ ३७१ ](३) जगी मुबारक तिय बदन अलक ओप अति होइ ।

मनो चंद की गोद में रही निसा सी सोइ।

(४) चिवुक कूप मैं मन पयो छबि जल तृषा बिचारि ।

. गहत मुबारक ताहि तिय अलक डोर सी डारि।

(५) चिबुक कृप रसरी अलक तिल सुचरस दृग बैल।

बारी बैस सिँगार की सींचत मनमथ छैल ।

(६) गोरी के मुख एक तिल सो मोहिं खरो सुहाय ।

मानहुं पंकज की कली भौंर बिलंब्यो आय ।

कभी कभी वे अपनी रचना में दुरूह फ़ारसी शब्दों का प्रयोग भी कर देते हैं, परन्तु उसको ब्रजभाषा के ढंग में बड़ी ही सुन्दरता से ढाल लेते हैं। नीचे का दोहा देखियेः-

अलक मुबारक तिय बदन लटक परी यों साफ़ ।

खुशनवीस मुनशी मदन लिख्यो काँच पर काफ़।

(४)

इस शताब्दी में प्रसिद्ध प्रवन्धकार भी हुये। इनमें गुरु गोबिंद सिंह सब से प्रधान हैं। उनके अतिरिक्त उसमान. सबलसिंह चौहान. लाल और कवि हृदयराम का नाम लिया जा सकता है। प्रेम-मार्गी कवियों के वर्णन में उसमान के विषय में मैं पहले कुछ लिख चुका हूं। इस शताब्दी में इनकी ही रचना ऐसी है जो अवधी भाषा में की गयी है। इसके द्वारा उन्होंने उस परम्परा की रक्षा की है जिसको .कुतबन अथवा मलिक मुहम्मद जायसी ने चलाया था । इनको छोड़ कर और सब प्रवन्धकार व्रजभाषा के सुकवि हैं । मैं पहले सबलसिंह चौहान और लाल के विषय में लिख कर उसके उपरांत पंजाब निवासी गुरु गोविन्दसिंह और कवि हृदयराम के विषय में कुछ लिखूंगाः- सवलसिंह चौहान इटावा जिले के प्रतिष्ठित जमींदार थे। उन्होंने महाभारत के अठारहों पर्वो के कथा भाग की रचना दोहा-चौपाई में की [ ३७२ ]है। 'रूप विलास पिंगल', 'षट् ऋतु बरवै' और 'ऋतूपसंहार' नामक ग्रन्थ भी उनके रचे बतलाये जाते हैं। उन्होंने महाभारत की रचना गोस्वामी जी के रामायण के आधार से की है। परन्तु उनकी भाषा साहित्यिक व्रजभाषा हैं । वे पछाँह के रहने वाले थे। इस लिये उनकी रचना में खड़ो बोली और अवधो का पुट भी है । भाषा न तो जैसी चाहिये वैसी सरस है और न प्रांजल। फिर भी महाभारत की कथा का जनता को परिचय कराने के लिये उनका उद्योग प्रशंसनीय है। उनके इस ग्रन्थ का कुछ प्रचार भी हुआ। परन्तु वह सर्व साधारण को अपनी ओर अधिक आकर्षित न कर सका । उनकी रचना का नमूना लीजिये:-

लै के शूल कियो परिहारा ।

बीर अनेक खेत महं मारा ।

जूझी अनी भभरि कै भागे ।

हँसि के द्रोण कहन अस लागे ।

धन्य धन्य अभिमनु गुन आगर ।

सब छत्रिन महं बड़ो उजागर ।

धन्य सहोद्रा जग में जाई ।

ऐसे वीर जठर जनमाई ।

धन्य धन्य जग में पितु पारथ ।

अभिमनु धन्य धन्य पुरुषारथ ।

एक बार लाखन दल मारे ।

. अरु अनेक राजा संहारे ।

धनु काटे शंका नहिं मन में ।

रुधिर प्रवाह चलत सब तन में ।

एहि अंतर बोले कुरु राजा ।

धनुष नाहिं भाजत केहि काजा ।

[ ३७३ ]

एक बीर को सबै डरत है ।

घेरि क्यों न रस धाय धरत हैं ।

बालक देखु करी यह करणी ।

सेना जूझि परी सब धरणी ।

दुर्योधन या विधि कह्यो,

. कर्ण द्रोण सों बैन ।

बालक सब सेना बधी,

तुम सब देखत नैन ।

उनकी रचना में ब्रजभाषा के नियम के बिरुद्ध शकार. णकार और संयुक्त वर्णों का प्रयोग भी देखा जाता है । इसका कारण यह मालूम होता है कि बीर रस के लिये शायद परुषावृत्ति का मार्ग ग्रहण करना ही उन्होंने युक्तिसंगत समझा ।

पुरोहित गोरेलाल महाराज छत्रसाल के दरबार के मान्य कवि थे । वे एक युद्ध में महाराज छत्रसाल के साथ गये और वहीं बोग्ता के साथ लड़ कर मरे। बीर रस की ओजमयी रचना करने में भूषणके उपरान्त इन्हीं का नाम लिया जाता है। 'छत्र प्रकाश' इनका प्रसिद्ध ग्रन्थ है। जिसमें इन्होंने महागज छत्रसाल की बीग्गाथायें बड़ी निपुणता से लिखी है। यह दोहा चौपाई में लिखा गया है और प्रवन्ध ग्रन्थ है। इनकी भाषा साहि- त्यिक ब्रजभाषा है । किन्तु उसमें बुन्देलखंडो शब्दों का प्रयोग आवश्य- कता से कुछ अधिक है। फिर भी इनकी रचना ओजमयी और प्रांजल है और वे सब गुण उसमें मौजूद हैं जिन्हें वीर-रस की कविता में होना चाहिये । 'छत्रप्रकाश' विशाल ग्रन्थ है और इनका कीर्तिस्तम्भ है। इसके अतिरिक्त 'विष्णु विलास' और 'गजविनोद' नामक दो ग्रन्थ इन्हों ने और रचे । ये दोनों ग्रन्थ भी अच्छे हैं. परन्तु इनमें वह विशेषता नहीं पायी जाती जो 'छत्रप्रकाश' में है। गोरेलाल जी का उपनाम 'लाल'

है। इनकी कुछ रचनायें देखिये:[ ३७४ ]

दान दया घमसान में जाके हिये उछाह ।
सोई बीर बखानिये ज्यों छत्ता छितिनाह ।
उमड़ि चल्योदाराके सौंहैं, चढ़ी उदंड युद्ध-रस भौंहैं।
तबदारादिल दहसति बाढ़ी, चूमन लगे सबन कीदाढ़ी।
को भुजदंड समर महिं ठोंकै, उमड़े प्रलय-सिंधु कोरोकै।
छत्रसाल हाड़ा तहँ आयो, अरुन रंग आननृछबिछायो
भयो हरौल बजाय नगारो, सारधार को पहिरनहारो
दौरि देस मुगलनके मारो, दपटि दिली के दलसंहारो।
ऐंड एक सिवराज निवाही, करै आपने चित की चाही।
आठ पात साही झक झोरै, सूबन पकरिदंड लै छोरै।
काटि कटक किरवान बल बाँटि जंवुकनि देहु ।
ठाटि जुद्ध एहिरीति सों, बाँटि धरनि धरि लेहु ।

मैं यह बराबर प्रकट करता आया हूं कि सत्रहवीं शताब्दी में उत्तरी भारत में व्रजभाषा का प्रसार अधिक हो गया था। इस विस्तार के फलसे ही पंजाब प्रान्त में दो प्रतिष्ठित प्रबंधकार दृष्टिगत होते हैं। उनमें से एक हृदय- गम हैं और दूसरे गुरु गोविन्द सिंह । क वि हृदयगम जाति के खत्री थे। उन्होंने संस्कृत हनुमन्नाटक के आधार से अपने ग्रंथ की रचना की और उसका नाम भी हनुमन्नाटक ही रखा। इस ग्रंथ की रचना इतनी सरस है और इस सहदयता के साथ वह लिखा गया है कि गुरु गोबिन्द सिंह इस ग्रंथ को सदा अपने साथ रखते और उसकी मधुर रचनाओं को पढ़ पढ़ मुग्ध हुआ करते थे। इस ग्रंथ की भाषा साहित्यिक व्रजभाषा है। कहीं कहीं एक दो पंजाबी शब्द मिल जाते हैं। ग्रंथ की सरस और प्रांजल रचना देख कर यह प्रतीत नहीं होता कि यह किसी पंजाबी का लिखा हुआ है । कविहृदयराम में भाव चित्रण की सुंदर शक्ति है। उन्हों ने इस ग्रंथ को लिख कर यह बतलाया है कि उनमें प्रबंध काव्य लिखने की [ ३७५ ] कितनी योग्यता थी। रामायण को समस्त कथा इसमें वणित है किन्तु इस क्रम से कि उसमें कहीं अगेचकना नहीं आई । इसमें कवित्त और सवैये ही अधिक हैं। कोई कोई पद्य बड़े ही मनोहर हैं। उनमें से दो नीचे लिखे जाते हैं:-

{{Larger|१-ए बनबास चले दोउ सु दंर कौतुक को सियसंग जुटीहै।
पाँवनपाव, न कोस चली अजहूं नहीं गाँव की सीवंछुटी है।
हाथ धरे कटिपूछति रामहिं नाथ कहौ कहाँ कंज कुटी है।
रोवत राघव जोवत सी मुख मानहुं मोतिन माल टुटी है।
२-एहोहनू कह श्रोरघुवीर कछू सुधि हैसिय कीछिति माँही।
है प्रभु, लंक कलंक बिना सुबसै बन रावन बाग की छाँहों।
जीवत है कहिबेहि को नाथ ! सु क्यों न मरी हमतें बिछुराहीं।
प्रान बसै पद पंकज में जम आवत है पर पावत नाहीं।

गुरु गोबिंद सिंह व्रजभाषा के महाकवि थे। इनका बनाया हुवा दशम ग्रंथ बड़ा विशाल ग्रंथ है। समस्त ग्रं थ सरस ब्रजभाषा में लिखा गया है। ये बड़े बीर और सिक्ख धर्म के प्रवर्तक थे। गुरु नानक से ले कर गुरु अर्जुनदेव तक इनके सम्प्रदाय में शान्ति रही. परन्तु जहांगीर ने अनेक कष्ट दे कर गुरु अर्जुन देव को प्राण त्याग करने के लिये वाध्य किया तब सम्प्रदायवालों का रक्त ग्बोल उठा और उन्हों ने मुसल्मानों के सर्व- नाश का व्रत ग्रहण किया क्रमशः वद्ध मान हो कर गुरु गोविन्दसिंह के समय में यह भाव बहुत प्रवल हो गया था। और इसी कारण जब गुरु तेगवहादुर उनके पिता का औरङ्गज़ेब द्वारा संहार हुआ तो उन्हों ने बड़ी बोरता से मुसल्मानों से लोहा लेना प्रारंभ किया। गुरु अर्जुनदेव ने ही आदि ग्रन्थ साहब का संग्रह तैयार किया था। इस ग्रन्थ में उनकी बहुत अधिक रचनायें हैं, जो अधिकतर ब्रजभाषा में लिखो गई हैं। उनकी कुछ रचनायें मैं पहले लिख आया हूँ । विषय को स्पष्ट करने के लिये उनके कुछ पद्य यहाँ ओर लिखे जाते हैं:[ ३७६ ]

बाहरु धोइ अंतरु मन मैला दुइ ओर अपने खोये ।
इहाँ काम क्रोध मोह व्यापा आगे मुसि मुसि रोये।
गोविंद भजन की मति है होरा।।
बरमी मारी साँप न मरई नामु न सुनई डोरा ।
माया की कृति छोड़ि गंवाई भक्तीसार न जानै ।
वेद सास्त्र को तरकन लागा तत्त्व जोगु न पछानै ।
उघरि गया जैसा खोटा ढेवुआ नदरि सराफा आया।
अंतर्यामी सब कछु जानै उस ते कहा छपाया ।
कूर कपट बंचन मुनियाँदा बिनसि गया ततकाले।
सति सति सति नानक कह अपने हिरदै देखु समा ले।
२-बंधन काटि बिसारे औगुन अपना विरद समाया।
होइ कृपाल मात पित न्याई बारक ज्यों प्रति पाया।
गुरु सिष राखे गुरु गोपाल।
लोये काढ़ि महा भव जल ते अपनी नदर निहाल ।
जाके सिमरणि जम ते छुटिये हलति पलति सुख पाइये ।
सांसि गेरासि जपहु जप रसना नीति नीति गुण गाइये।
भगती प्रेम परम पद पाया साधु संग दुख नाटे।
छिजै न जाइन किछु भव व्यापै हरि धनु निरमल गाँठे।
अन्तकाल प्रभु भये सहाई इत उत राखन हारे ।
प्रान मीत हीत धन मेरे नानक सद बलिहारे।

गुरु अर्जु नदेव सत्रहवीं शताब्दी के आदि में थे। उनकी रचनाये उसी समय की हैं। मैं यह कह सकता हूं कि वह परमार्जित व्रजभाषा नहीं है, परन्तु यही भाषा गुरु गोबिन्दसिंह के समय में अपने मुख्य रूपमें दृष्टिगत होती है। गुरु गोविन्दसिंह ने दशम ग्रन्थ में विष्णु के चौबीस [ ३७७ ]और ब्रह्मा एवं शिव के सात सात अवतारों की कथा लिखी है उन्होंने दुर्गापाठ का तीन अनुवाद कर के उसका नाम 'चंडी चरित्र' रखा है। पहला अनुवाद सवैयों में. दूसरा पौड़ियों में, ओर तीसरा नाना छन्दों में है। उन्होंने इस ग्रन्थ में ४०४ स्त्रो-चरित्र भी लिखे हैं, और इस सूत्र से अनेक नीति और शिक्षा सम्बन्धी बातें कही हैं. उन्हों ने उसमें कुछ अपने जीवन-सम्बन्धो बातें भी लिखी हैं और कुछ परमात्मा को स्तुति और ज्ञान सम्बन्धी विषयों का भी निरूपण किया है। फ़ारसी भाषा में उन्हों ने 'ज़फ़रनामा' नामक एक राजनीति-सम्बन्धी ग्रन्थ लिख कर औरङ्गज़ब के पास भेजा था। वह ग्रन्थ भो इसमें सम्मिलित है। अवतारों के वर्णन के आधार से उन्हों ने इसग्रन्थमें पुराणोंकी धर्म नीति. समाज नीति' एवं राजनीति-सम्बन्धी समस्त बातें एकत्रित कर दी हैं । यह बड़ा उप- योगी ग्रंथ है सिक्ख सम्प्रदाय के लोग इसको बड़े आदर की दृष्टि से देखते हैं। ब्रजभापा-साहित्य का इतना बड़ा ग्रन्थ सूर सागर को छोड कर अन्य नहीं है। इस ग्रन्थ में जितनो रचनायें गुरु गोविन्दसिंह की निज की हैं उनके सामने श्री मुख वाक पातसाहो दम लिखा है। अन्य रचनाओं के विषय में यह कहा जाता है कि वे गुरु गोवन्दसिंहजी के द्वारा रचित नहीं हैं वे श्याम और राम नामक दो अन्य कवियों की कृति हैं जो उनके आश्रित थे। उक्त ग्रन्थ की कुछ रचनायें नीचे उपस्थित की जाती हैं। उनको पढ़ कर आपलोग समझ सकेंगे कि वे कैसी हैं और उनके भाव और भाषा में कितना सौन्दय्य एवं लालित्य है। पहले गुरु गोविन्दसिंह को निज रचनाओं को ही देखियेः ---

१—चक चिन्ह अरु बरन जात
अरु पाँत नहिन जेहि ।
रूप रङ्ग अरु रेख भेख
कोउ कहि न सकत केहि ।
अचल मूरति अनभव
प्रकास अमितोज कहिज्जै ।

[ ३७८ ]

कोटि इन्द्र इन्द्राणि साहि
साहाणि गणिज्जै ।
त्रिभुवण महीप सुर नर असुर
नेति नेति वर्णत कहत

२-प्रभु जू तो कहँ लाज हमारी ।
नील कण्ठ नर हरि नारायन
नोल बसन बनवारी ।
परम पुरुष परमेसर स्वामी
पावन पवन अहारी ।
माधव महा ज्योति मधु
मर्दन मान मुकुदं मुरारी ।
निर्विकार निर्जुर निद्रा बिन
निर्विष नरक निवारी ।
किरपासिंधु काल त्रय दरसी
कुकृत प्रनासन कारी ।
धनुर्पानि धृत मान धराधर
अन विकार असि धारी ।
हौं मति मन्द चरनसरनागत
कर गहि लेहु उबारी ।

३-जीति फिरे सब देस दिसान को
बाजत ढोल मृदंग नगारे ।

[ ३७९ ]

गूजंत गूढ़ गजान के सुंदर
हींसत ही ह्य राज हजारे ।
भूत भविक्ख भवान के भूपति
कौन गनै नहीं जात विचारे ।
श्री पति श्री भगवान भजे बिन
• अन्त को अन्तक धाम सिधारे ।

४-दीनन की प्रति पालि करै नित
सन्त उबार गनीमन गारै ।
पच्छ पसू नग नाग नराधिप
सर्व समै सब को प्रति पारै ।
पोखत है जल मैं थल मैं पल मैं
कलि के नहीं कर्म विचारै ।
दीन दयाल दयानिधि दोखन
देखत है पर देत न हारै ।

५-मेरु करो तृण ते मोहि जाहि
गरीब नेवाज न दूसरो तोसों ।
भूल ठमो हमरी प्रभु आप न
भूलन हार कहूं कोउ मोसों
सेव करी तुमरी तिन के सभ ही
गृह देखिये द्रव्य भरो सो।
या कलि में सब काल कृपानिधि
भारी भुजान को भारो भरोसो ।

अव दशम ग्रन्थ साहब की कुछ अन्य रचनायें भी देखिये:[ ३८० ]

१-रारि पुरंदर कोपि कियो इत
जुद्ध को दैतंं जुरे उत कैसे ।
स्थाम घटा घुमरी घन घोर कै
घेरि लियो हरि को रवि तैसे।
सक कमान के बान लगे सर
फोंक लसै अरि के उर ऐसे ।
मानो पहार करार में चोंच
पसार रहे सिसु सारक जैसे ।
मोन मुरझाने कंज खंजन खिसाने
अलि फिरत दिवाने बन डोलैं जित तित ही
कीर औ कपोत बिंब कोकिला कलापी
बन लूटे फूटे फिरैं मन चैन हैन कितहीं।
दारिम दरकि गयो पेखि दसनन पाँति
रूप ही की काँति जग फैलि रहो सित ही।
ऐसी गुन सागर उजागर सुनागर है लीनो
मन मेरो हरि नैन कोर चित ही ।

३-चतुरानन मो बतिया सुन लै
सुनि के दोउ श्रौननि में धरिये ।
उपमा को जबै उमगै मन तो
उपमा भगवानहिं की करिये ।
परिये नहीं आन के पांयन
पै हरि के गुरु के द्विज के परिये।
जेहि को जुग चारि मैं नाम जप्यो
तेहि सों लरिये, मरिये, तरिये ।

[ ३८१ ]

४-जेहि मृग राखे नैन बनाय ।
अंजन रेख स्याम पै अटकत सुदर फांद चढ़ाय ।
मृग मद देत जिनैं नरनारिन रहत सदा अरुझाय ।
तिनके ऊपर अपनी रुचि सोंरीझि स्याम बलि जाय ।
५-सेत धरे सारी वृष भानु की कुमारी
जस ही की मनो बारी एसो रची है न को दई ।
रंभा उरबसी और सची सी मंदोदरी
पै ऐसी प्रभा काकी जग बीच ना कछू भई।
मोतिन के हार गरे डार रुचि सों सिंगार
स्याम ज़ पै चली कवि स्याम रस के लई।
सेत साज साज चली साँवरे के प्रोति काज
चाँदनी में राधा मानो चाँदनी सो है गई ।

गुरु गोविन्दसिंह की भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है. इसमें कोई सन्देह नहीं। उसमें व्रजभाषा-सम्बन्धी नियमों का अधिकतर पालन हुआ है। किसी किसो स्थान पर णकार का प्रयाग नकार के स्थान पर पाया जाता है। किन्तु यह पंजाब के बोलचाल का प्रभाव है। काई कोई शब्द भी पंजाबी ढंग पर व्यवहन हुये हैं। इसका कारण मा प्रान्तिकता ही है। परन्तु इस प्रकार के शब्द इतने थोड़े हैं कि उनमें व्रजभाषा की विशेषता नष्ट नहीं हुई है। कुल दशमग्रंथ साहब ऐमी ही मापा में लिया गया है, जिससे यह ज्ञात होता है कि उस समय ब्रजभापा किस. प्रकार सवत्र समारत थी । इस ग्रंथ में कहीं कहीं पंजाबी मापा को भी कुछ रचनायें मिल जाती हैं. किन्तु उनकी संख्या बहुत थोड़ी है। पोड़ियों में लिखा गया चंडीचरित्र ऐसा ही है । ज़फ़रनामा फ़ारसी भाषा में है, यह मैं पहले बनला चुका है। अपने ग्रंथ में गुरुगोविन्द सिंह ने इतने अधिक छंदों का व्यवहार किया है जितने छंदों का व्यवहार आचार्य [ ३८२ ]केशवदास को छोड़ कर हिन्दी का अन्य कोई कवि नहीं कर सका। इस ग्रंथ में युद्ध का वर्णन बड़ा ही ओजमय है। ऐसे ऐसे छंद युद्ध के वर्णनों में आये हैं जो अपने शब्दों को युद्धानुकूल बना लेते हैं। कहीं कहीं इस प्रकार के शब्द लिखे गये हैं जो युद्ध-कालिक दृश्य को सामने ला देते हैं और जिनके पढ़ने से युद्ध को मार काट. शस्त्रों का झगत्कार. वाणों की सनसनाहट और अस्त्रों के परस्पर टकराने की ध्वनि श्रवणगत होने लगती है । जैसे.

तागिड़दं तीरं छागिड़दं छुढें ।
बागिड़दं बोरं लागिड़दंलु, इत्यादि

मेग विचार है कि यह विशाल ग्रन्थ हिन्दीसाहित्य का गौरव है, और इसकी रचना कर के गुरु गोबिन्द सिंह ने उसके भाण्डार को एक ऐमा उज्ज्वल रत्न प्रदान किया है. जिसकी चमक दमक विचित्र और अद्भुत है । आदि ग्रन्थ साहब में शान्त रस का प्रवाह बहता है। उनमें त्याग और विगग का गीत गाया गया है. उससे सम्बन्ध रखने वाली दया. उदा- रता. शान्ति एवं सरलता आदि गुणों की ही प्रशंसा को गयी है। यह शिक्षा दी गयी है कि मानसिक विकारों को दूर कगे और दुर्दान्त इन्द्रियों का दमन । परन्तु उसको दृष्टि संसार-शरीर के उन रोगों के शमन की ओर उतनी नहीं गयी जो उस पवित्र ग्रन्थ के सदाशय-मार्ग के कंटक स्वरूप कहे जा सकते हैं । दशम प्रन्थ माझ्बकी र चना का गुरु गोविंदसिंह ने इस न्यूनता की पूर्ति को है। उन्होंने अपने ग्रन्थ में ऐसे उत्तेजक भाव भरे हैं जिससे ऐसी शक्ति उत्पन्न हो जो कंटक भूत प्राणियो को पूर्णतया विध्वंस कर सके। इस शक्ति के उत्पन्न करने के लिये ही उन्होंने अपने ग्रन्थ में युद्धों का भी वर्णन ऐसी प्रभाव शाली भाषा में किया है जो एक बार निर्जीव को भी सजीव बनाने में समर्थ हो। इसी उद्देश्य से उन्होंने सप्तशती के तीन तीन अनुवाद किये। पौड़ियों में जो नोसग अनुवाद है, उसमें वह ओजस्विता भरी है जो सूत्री रगों में भी रक्त संचार करती है। कृष्णावतार में खड्गसिंह के युद्ध का ऐसा ओजमय वर्णन है जिसे [ ३८३ ]पढ़ने से कायर-हृदय भी बीर बन सकता है। ऐसे ही विचित्र वर्णन और भी कई एक स्थलों पर हैं। यथा समय हिन्दू जाति में ऐसे आचार्य उत्पन्न होते आये हैं जो समयानुसार उसमें ऐसी शक्ति उत्पन्न करते जिससे वह आत्म-रक्षण में पूर्णतया समर्थ होती। उत्तर भारत में गुरु गोविंदसिंह और दक्षिण भारत में स्वामी रामदास सत्रहवीं सदी के ऐसे ही आचार्य थे। गुरु गोविंदसिंह ने पंजाब में सिक्खों द्वारा महान शक्ति उत्पन्न की, स्वामी रामदास ने शिवा जो ओर महाराष्ट्र जाति की रगों में बिजली दौड़ा दो। इस दृष्टि से दशम ग्रन्थ की उपयोगिता कितनी है, इसका अनुभव हिन्दो भापा भाषी विद्वान स्वयं उस ग्रन्थ को पढ़कर कर सकते हैं। इस सत्रहवीं शताब्दी में एक प्रेम-मार्गी कवि नेवाज भी हो गये हैं। कहा जाता है कि ये जाति के ब्राह्मण थे और छत्रसाल के दरबार में रहते थे। ये थे बड़े रसिक हृदय । जहां गारे लाल पुरोहित बीर रस की रचनायें कर महाराज छत्रसाल में ओज भरते रहते थे। वहाँ ये शृंगार रस की रचनायें कर उन्हें रिझाते रहते थे। नेवाज नाम के तीन कवि हो गये हैं। इन तीनों की रचनाय मिल जुल गई हैं। किन्तु सग्मता अधिक इन्हीं की रचना में मानी गयी है। इनका नेवाज नाम भ्रामक है । क्यों एक ब्राह्मण ने कवितामें अपना नाम नेवाज' रक्खा इसका उल्लेख कहीं नहीं मिलता। छत्रसाल ऐसे हिन्दू भाव-सम्पन्न गजा के यहां रह कर भी उनका नेवाज नाम से परिचित होना कम आश्चय्य जनक नहीं। जो हो. परन्तु हिन्दी संसार में जितने प्रेमोन्मत्त कवि हुये हैं उनमें एक यह भी हैं। इनकी रचना की मधुरता और भावमयता को सभी ने प्रशंसा को है। इनको भापा सरस व्रजभाषा है। बुन्देलखंड में रह कर भी वे इतनो प्रांजल व्रज- मापा लिग्ब सके, यह उनके भाषाधिकार को प्रकट करता है। उनके दो पद्य देखियेः-

(१) देखि हमें सब आपुस में जो
कळू मन भावै सोई कहती हैं।

[ ३८४ ]

ए घरहाई लुगाई सबै निसि
द्यौस नेवाज हमें दहती हैं ।
बातें चबाव भरा सुनि कै
रिसिआवत पै चुप है रहती हैं।
कान्ह पियारे तिहारे लिये
सिगरे व्रज को हँसियो सहती हैं।

(२) आगे तो कीन्हीं लगा लगी लोयन
कैसे छिपै अजहू जो छिपावत ।
तु अनुराग को सोध कियो
व्रज की बनिता सबयों ठहरावत ।
कौन सकोच रह्यो है नेवाज
जौ तू तरसै उनहूं तरसावत ।
बावरी जो पै कलंक लग्यौ तो
निसंक है क्यों नहीं अंक लगावत ।

(२)

अठारहवीं शताब्दी प्रारंभ करने के साथ सब से पहले हमारी दृष्टि महाकवि देवदत्त पर पड़ती है। जिस दृष्टि से देखा जाय इनके महाकवि होने में संदेह नहीं। कहा जाता है इन्होंने वहत्ता ग्रंथों की रचना की। हिन्दी भाषा के कवियों में इतने ग्रंथों को रचना और किसो ने भी की है. इसमें संदेह है। इन के महत्व और गौरव को देख कर ब्राह्मण जाति के दो विभागों में अब तक द्वंद चल रहा है। कुछ लोग सनाढ्य कह कर इन्हें अपनी ओर खींचते हैं और कोई कान्यकुब्ज कह कर इन्हें अपना बनाता है। पंडित शालग्राम शास्त्री ने. थोड़े दिन हुये, 'माधुरी' में एक लम्बा लेख लिख कर यह प्रतिपादित किया है कि महाकवि देव सनाढ्य थे। मैं इस विवाद को अच्छा नहीं समझता। वे जो हों, किन्तु हैं ब्राह्मण जाति के